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Channel: सफर - राजीव रंजन प्रसाद
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बंगाल में हुए नक्सली हमले पर खामोश मीडिया, मानवादिकारवादी और लेखक [श्रद्धांजलि आलेख]

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कोई आश्चर्य नहीं कि चौबीस घंटे भी नहीं बीते और पश्चिम बंगाल में नक्सली हमले की खबर मीडिया के सर से सींग की तरह गायब हो गयी। देश और दुनियाँ में बहुत सी खबरे हैं जिसके लिये हमारे देसी जेम्स बॉंड जुटे हुए है और बहुत सक्रिय हैं। कोई महानायक को महानालायक सिद्ध करने में तुला है तो कोई मुम्बई हमलों के पीछे की कफन खसोटी को बेनकाब कर देना चाहता है। जाहिर है आतंकवाद के हिन्दुकरण और मुसलमानी करण से टी. आर. पी की रोटी बहुत आसानी से सेकी जा सकती है लेकिन आतंकवाद के तालिबानीकरण यानि कि नक्सलवाद से किसी को कोई वास्ता नहीं। मेरे क्षोभ को शब्द बनने तक चौबीस पुलिस वाले शहीद हो गये थे और जाने कितने लापता, मैं अब जानने लगा हूँ कि इस क्रांति के लम्बरदारों के झंडे लाल क्यों हैं, आखिर लहू उन्हे कितनी सहजता से सुलभ है।

मारे गये पुलिस वाले चार्ल्स डार्विन की इजाद किस प्रजाति के थे पता नहीं चूंकि इस देश का मानवाधिकार उन्हे हासिल ही नहीं। व्यवस्था पर चोट के नाम पर कभी बारूदी सुरंग में चिथडे हो जाते हैं कभी विदेशी हथियारों के आगे बेबस उनकी पुरानी रायफलें उन पर कफन धर देती हैं। मोमबत्तियों उन घरों में भी जलो जहाँ उजाला करने की हिम्मत अब किसी सूरज के बाप में भी नहीं है। क्रांति में सब जायज है तो फिर इन चौबीस-पच्चीस विधवाओं और सौ-पचास अनाथों से क्या वास्ता। एक दिन जब भूत बसेंगे तो इनका समाजवाद होगा।

एसी घटनाओं के बाद माननीय लेखक गण कुछ दिन अपनी दुम किसी बिल में घुसाये रखते हैं फिर फिजा के शांत होते ही उनकी क्रांतिकारी खुजास उजागर होने लगती है। हुजूर आपकी तो सुबह ही सुबह है फिर किस सबेरे को आवाज देते हो? आपकी लाल लॉबी आपकी पीठ खुजाने को दोनों हाँथों से तत्पर है, आपको पुरस्कारों से नवाजा जाना तय है, आपको महान लेखक सिद्ध करने के लिये आपकी किताबों पर अनेक चारणों द्वारा “जगदीश हरे” गाया जाना तय है। यह सच्चाई है और बेहद कडुवी कि इस देश में हिन्दी का लेखक कलम का नही छपास का पुजारी है। कुछ एसे प्रकाशन और कुछ एसी पत्रिकायें (नाम लेने की आवश्यकता मैं नहीं समझता) जो इसी तरह के “गिव एण्ड टेक” पर चलती हैं उनमें जिन्दा रहने ले लिये लाल-घसीटी करनी ही पडती है वर्ना खेमे से बाहर। तो मजाल है कि माननीय नक्सलवादियों से विमुख वे कुछ कह गुजरे....बाप रे बाप, लेखक कहलाये जाने पर लात पड़ जायेगी।

तो इस सारे जहाँ से अच्छा में कुछ माननीय पत्रकार, अनेकों विख्यात मानवाधिकार वादी और महान लेखक जिस आतंकवाद के समर्थक हों वहाँ कुछ पुलिस वालों की मौत पर श्रद्धांजलि भी क्या होगी? मैं मोममत्ती ले कर नहीं खडा हूँ बस पूरी विनम्रता से अपनी श्रद्धा उन पुलिस वालों की शहादत को अर्पित करता हूँ। ईश्वर आपकी आत्मा को शांति प्रदान करे और आपके परिवार को यह दुख सहन करने की शक्ति दे।

नक्सलवादी, आतंकवादी और भगत सिंह

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कुहु बिटिया अब हाथी-घोडे की कहानियों से आगे आ गयी है, क्यों न हो वह अब कक्षा दूसरी में जो जाने वाली है। आज मैंने भगत सिंह से उसका परिचय कराया।

“बेटा भगत सिंह नें संसद के भीतर बम और आजादी के पर्चे फेंके” मैं कहानी सुना रहा था।

”लेकिन पापा बम क्यों फेंका इससे तो कितने लोग मर गये होंगे न?” कुहू नें बहुत मासूम सवाल किया।

”नहीं बेटा वो क्रांतिकारी थे, उनका मक्सद किसी को मारना नहीं था। बस जैसे पटाखे जोर से आवाज करते हैं न वैसी ही आवाज वो संसद के भीतर पैदा कर के अपनी माँगों की तरफ कानून बनाने वाले लोगों का ध्यान खींचना चाहते थे”।

“फिर क्या हुआ पापा”

”बेटा अंग्रेजों को उनका यह कदम इतना गुस्से से भर गया कि उन्होंने भगत सिंह को फाँसी पर लट्का दिया?”

“पर पापा फिर बम फेंक कर आवाज करने से तो कोई फायदा नहीं हुआ?”

”बेटा यह आवाज बहुत असर करने वाली थी, इससे पूरे देश में जोश और क्रांति की लहर दौड गयी। इतना विरोध बढ गया कि अंग्रेजों को भारत छोड कर जाना पडा, इस तरह अपना बलिदान दे कर इस क्रांतिकारी नें असंभव काम कर दिखाया”

”पापा तब तो नक्सलवादी क्रांतिकारी नहीं होते न” कुहू नें अपना मासूम सवाल मुझसे आँखों में आँखें डाल कर किया। मैं बेहद आश्चर्य से भर उठा चूंकि इस उम्र के मासूम बच्चे से इस तरह के प्रश्न की उम्मीद की नहीं जा सकती थी।

“तुम्हे नक्सलवादी कैसे पता बेटा” मैंने कुहु को गोद में उठा लिया था।

“पापा मैंने टीवी में देखा था वो लोग बम फोडते हैं और क्रांति करते हैं” बिटिया नें बेहद सहजता से उत्तर दिया।

“तो फिर तुम्हे क्यों लगा कि नक्सलवादी क्रांतिकारी नहीं होते?”

“क्योंकि पापा वो तो कितने सारे लोगों को मार देते हैं”

इस उत्तर से मैं सिहर गया था। पिछले दो दिनों से टीवी पर मिदनापुर के नक्सली हमले में चौबीस मौतें, सहरसा के नक्सली हमले में ग्यारह मौतें ब्रेकिंग न्यूज थी। फिर मैंने महसूस किया कि बच्ची नें क्रांति का बुनियादी अर्थ तो जान ही लिया है।

“तो फिर नक्सलवादी कौन होते हैं पापा?”

“आतंकवादी” मैंने कहा।

माओवादियों का “सीजफायर” और दिनकर की “शक्ति और क्षमा”

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रात जब संचार माध्यमों नें चीखना आरंभ किया कि माओवादियों नें बहत्तर दिनों के सीजफायर का एलान किया है तो जिज्ञासा इस बात की थी कि उनकी शर्ते क्या हैं? हम महान देश के वासी हैं, हमसे आतंकवादी भी अपनी शर्तों पर बात करते हैं। शर्त स्पष्ट है – ऑपरेशन ग्रीन हंट बंद होना चाहिये। लाल-आतंक के लम्बरदार किशन नें जब यह शर्त सार्वजनिक की तो तुरंत ही मेरा ध्यान दिनकर की प्रसिद्ध कविता “शक्ति और क्षमा” की ओर गया। कविता की एक एक पंक्ति इस घटना से भी जुडती है आईये प्रसंग और संदर्भ के साथ इसकी व्याख्या करें।

अनेकों बारूदी सुरंग विस्फ़ोट हुए, हजारों करोड की सरकारी संपत्ति स्वाहा कर दी गयी, अनेकों अपहरण, फिरौतियाँ और कत्लेआम भी जारी रहे किंतु गणतंत्र की साठवी वर्षगांठ बनाने वाले हम खामोश ही रहे। हमें पाकिस्तान की चिंता थी चूंकि उनके घर की आग में हाथ सेकते हमे मजा आ रहा था। हम रस ले कर सुनते रहे कि कैसे तालिबानी निर्ममता से हत्यायें करते हैं, कैसे बम-बंदूखों के तकिये पर सोते हैं। ठीक इसी वक्त लाल-आतंक तालिबानियों की ही रणनीति पर देश के जंगलों की आड में पनपा। उनकी हर गुस्ताखी पर हमनें कंधे झटके और अपने साहसी सैनिकों की शहादत पर कुछ घडियाली आँसुवों को बहाने के सिवा कुछ भी नहीं किया। दिनकर नें चेताया भी था कि -

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे, कहो, कहाँ कब हारा ?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष, तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही।

सहनशीलता एक सीमा से अधिक दुर्गुण है। लाल आतंक के डैने फैलते रहे और हम उन तथाकथित बुद्धिजीवियों के दिखाये सब्ज बाग की हरी भरी सब्जियाँ खाते रहे कि एक दिन क्रांति हो जायेगी और व्यवस्था बदलेगी। सवाल यह कि जिन्हे व्यवस्था से शिकायत है वो सडक पर आयें अपने ठोस सिद्धांतों और वाद-विचार के साथ जनता के बीच जायें, उन्हे जागृत करें तथा मुख्यधारा ही उन्हे एसे बदलाव का रास्ता देती है जहाँ आपके साथ अगर जनता हो तो परिवर्तन अवश्यंभावी है। बंदूख ले कर मासूम आदिवासियों और नीरीह ग्रामीणों की हत्याओं से हिंसा फैला कर क्रांति की आशा भी बेमानी है और वास्तविकता में यह लुटेरापना है।

हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों की दुकानें “लाल” माध्यमों से चलती हैं। इस वाद के कर्ता-धर्ता इकट्ठा होने में बेहद यकीन रखते हैं। एक जैसी बात बोलेंगे, एक जैसा लिखेंगे, एक दूसरे की पीठ खुजायेंगे और केवल एक दूसरे को ही पढेंगे। यकीन नहीं होता तो आज किसी भी स्कूल में किसी भी कक्षा में जा कर समकालीन कवियों/लेखकों का नाम ले कर पूछिये उन्हें जानने वालों में किसी के हाथ शायद ही कभी उठते हैं लेकिन साहित्य के ठेकेदारों के पास जाईये तब पता चलता है कि भईया आज कल फलां-फलां समकालीन हैं। खैर फिर वही बात कि जिनकी लेखनी में इतना गूदा भी नहीं कि जन-जागृति करा सकें वे बंदूख से क्रांति के लिये अखबारों के कॉलम और टीवी के फीचर रचते हैं। देखिये हमारी सहनशीलता कि हम इन्हे बर्दाश्त भी करते हैं और नपुंसकों की तरह इनकी न समझ में आने वाली कविताओं/रचनाओं पर तालियाँ भी पीटते हैं। लाल आतंक इसी तरह की बुद्धिजीविता की आड में पनपा और हम इन्हे धिक्कारने की बजाये खामोश और सहनशील रहे। दिनकर कहते हैं -

अत्याचार सहन करने का, कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज, कोमल होकर खोता है।

मैं बस्तर की बात करूंगा। जब आदिवासी आंदोलित हुए और नक्सलवादियों के खिलाफ हथियार उठा लिया तब एक बडी क्रांति हुई। लाल-आतंक और उनके प्रचारक लेखकों को पहले तो यह समझ ही नहीं आया कि आखिर आम आदमी इस तरह अपने मामूली तीर धनुष और नंगा-चौडा सीना लिये नक्सलियों की इम्पोर्टेड बंदूखों के आगे कैसे खडा हो गया। बाद में लाल-प्रचारकों नें आम आदिमों की इस दिलेरी को सरकार-प्रायोजित बता दिया और मीडिया/पुस्तके/अखबार रंग दिये। नक्सलियों के मानव अधिकार पर ए.सी कमरों में कॉकटेल पार्टियाँ हुईं तथा लोगों को गुमराह करने का अभियान जारी रहा। इनकी फंतासी का खैर जवाब भी नहीं लेकिन यह देश इन्हे हर बार क्षमा ही करता रहा....आखिर कब तक। दिनकर कहते हैं -

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो ।

नक्सलियों को हाथी के दाँत दिखा कर काबू में नहीं किया जा सकता था। आतंकवाद से लडने के लिये शास्त्रार्थ से काम चलेगा भी नहीं वर्ना तो बहुत सी महान समाजसेविका टाईप लेखिकायें/लेखक हैं जो इसके लिये विदेशी पैसे से बडे बडे प्रेस कॉंफ्रेंस करती है, भूख हडताल-वडताल करती/करते और करवाती/करवाते हैं। उनसे मीडिया अपने हर कार्यक्रम में बैठा कर संवाद अदायगी करवाता रहता है। खैर मीडिया के काम में बोलने वाले हम कौन? लोकतंत्र का पाँचवा खंबा है जो कि सबसे अधिक पॉलिश्ड है, यहाँ तक कि उसे भीतर लगी दीमक दिखती नहीं है।

सरकारी तंत्र हाँथ जोडे नक्सलियों के आगे पीछे दशकों से घूमता रहा कि “मान जाओ भईया-दादा” लेकिन हाल वैसा ही जैसे सागर नहीं माना था और राम तीन दिवस तक रास्ता ही माँगते रहे। रास्ता तब बताया गया जब राम नें धनुष को अपने कंधे से उतार कर संधान किया -

तीन दिवस तक पंथ मांगते, रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द, अनुनय के प्यारे-प्यारे ।
उत्तर में जब एक नाद भी, उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की, आग राम के शर से ।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि, करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की, बँधा मूढ़ बन्धन में।

ऑपरेशन ग्रीन हंट का नक्सलवाद समर्थक बुद्धिजीवियों/पत्रकारों/मीडिया कर्मियों और लालबुझक्कडों नें खुल कर विरोध किया, लेकिन देखिये राम नें धनुष में अभी प्रत्यंचा ही तो चढाई है, वार्ता की टेबल माओवादियों ने सजा ली है। वे जानते हैं कि जब लिट्टे नहीं रहा जब तालिबान नप गये तो इनकी भी वो सुबह आ ही जायेगी। वार्ता की पेशकश वस्तुस्थिति में ऑपरेशन ग्रीन हंट की सफलता पर मुहर है। नक्सलवाद से निर्णायक मुक्ति का समय आ गया है। वार्ता माओवादियों की शर्तों पर नहीं सरकार की शर्तों पर होनी चाहिये साथ ही नक्सल समर्थी बुद्धिजीवी सारी परिस्थिति पर पानी फेर देंगे इस लिये सीधे माओवादी और सरकार ही सीधे बात करे तब शायद किसी दिशा पर पहुँचा जा सकेगा। यहाँ भी यह सजगता आवश्यक है कि इस सीजफायर की नौटंकी का माओवादी कहीं अपनी ताकत बढानें में इस्तेमाल न करें। दिनकर नें रास्ता बताया है –

सच पूछो , तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की ।
सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है।

घने जंगल में खूबसूरत फूल: चंद्रू [एक संस्मरण, बस्तर के जंगलों से] – राजीव रंजन प्रसाद

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बात कोई तेरह -चौदह वर्ष पुरानी है। उस रात जब केवल मेरे कमरे में आया तो उसके चेहरे में एक चमक थी। पत्रकारों को किसी नई कहानी के मिलने का एसा ही सुकून होता है जैसा ताजी कविता लिखी जाने के बाद पहले श्रोता को उसे सुना दिये जाने का। चन्द्रू आज उसकी कहानी था। नारायणपुर के जंगलों से थके हारे होने की थकान कहीं नहीं दिखती थी बल्कि वह अपनी उपलब्धि के एक एक पल और वाकये से मुझे अवगत करा देना चाहता था।

केवल अपने यायावर स्वभावानुकूल उन दिनों “दण्डकारण्य समाचार” छोड कर देशबंधु से जुड गया था। देशबंधु अखबार ने ही “हाईवे चैनल” नाम के सान्ध्य अखबार का आरंभ किया था जिसके स्थानीय अंक का कार्यभार देखने के उद्देश्य से केवल उन दिनों जगदलपुर में ही था।

“मुझे आलोक पुतुल नें फोन कर के बताया कि बस्तर में किसी आदिवासी लडके पर फिल्म बनी है और उस पर स्टोरी करनी चाहिये। मुझे मालूम था कि ये असंभव सा काम है। मुझे आगे पीछे की कोई जानकारी नहीं थी। न फिल्म का नाम पता था न किसने बनाई है वो जानकारी थी।” केवल के स्वर में अपनी खोज को पूरी किये जाने का उत्साह साफ देखा जा सकता था।

“अबे ‘बस्तर एक खोज’ तू स्टोरी तक भी पहुँचेगा कि सडक ही नापता रहेगा।”  मैंने स्वभाव वश उसे छेड दिया था।

“तू पहले पूरी बात सुन लिया कर।...। मैं अपना ‘क्लू’ ले कर बसंत अवस्थी जी के पास गया उन्होंने मुझे किन्ही इकबाल से मिलने के लिये कहा जो आसना में रहते हैं। उनसे इतना तो पता चला कि नारायणपुर के किसी आदिवासी पर एसी फिल्म बनी है। तुरंत ही मैनें “नारायणपुर विशेष” लिखने के नाम पर अपना टूर बनाया लेकिन दिमाग में यही कहानी चल रही थी। नारायणपुर पहुँच कर बहुत कोशिशों के बाद मुझे चन्द्रू के विषय में जानकारी मिली”

“आखिरकार तेरी सडक कहीं पहुँची तो..” मैने मुस्कुरा कर कहा। हालांकि मैं जिज्ञासु हो गया था कि यह चंद्रू कौन है? कैसा है? उसपर फिल्म क्यों बनी?

“ये अंतराष्ट्रीय फिल्म का हीरो चन्द्रू उस समय घर पर नहीं था जब मैं गढबंगाल में उसके घर पर पहुँचा। वो झाड-फूंक करने पडोस के किसी गाँव गया हुआ था” केवल नें बताया।

“कैसा था चंद्रू का घर” मैंने अनायास ही बचकाना सवाल रख दिया। मेरी उत्कंठा बढ गयी थी।

“जैसा बस्तरिया माडिया का होता है। तुझे क्या मैं शरलॉक होम्स की स्टोरी सुना रहा हूँ? वही मिट्टी का मकान, वही गोबर से लिपी जमीन, वही बाँस की बाडी।...। मुझे वहाँ बहुत देर तक उसका इंतजार करना पडा।“

“मुलाकात हुई?” यह प्रश्न जानने की जल्दबाजी के कारण मैंने किया था।

“मुलाकात!!! उसे अब न फिल्म में अपने काम की याद थी न फिल्म बनाने वालों की। उसके लिये फिल्म एक घट गयी घटना की तरह थी जिसके बाद वह लौट आया और फिर आम बस्तरिया हो गया। उसकी जीवन शैली में कोई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म का हीरो नहीं था यहाँ तक कि उसकी स्मृतियों या हावभाव में भी एसा कुछ किये जाने का दर्प या आभास नहीं था....”

“कितनी अजीब बात है न?”

“अजीब यह भी था कि उसके पास अपने किये गये काम की कोई जानकारी या तस्वीर भी नहीं थी। बहुत ढूंढ कर उसने एक किताब निकाल कर दिखाई और बताया कि इसमें उसकी फिल्म की तस्वीर है। वह इतनी बुरी हालत में थी कि उसे किताब नहीं कह सकते थे। अंग्रेजी की इस पुस्तक को मैने जानकारी मिलने की अपेक्षा में उससे माँग लिया।“

“वो क्यों देगा? उसके पास वही आखिरी निशानी रही होगी अपने काम की?”

“वही तो आश्चर्य है। उसने बडे ही सहजता से पुस्तक मुझे दे दी। मैं उसे लौटा लाने का वादा कर के उसे ले आया हूँ। किताब को अभी सिलने और बाईंड कराने के लिये दे कर आ रहा हूँ।”
केवल नें चंद्रू का एक चित्र सा खींच दिया था। मेरी कल्पना में वह “मोगली” या “टारजन”जैसा ही था। चंद्रू को सचमुच क्या मालूम होता कि उसने क्या काम किया है या कि उसने केवल को जो पुस्तक दी है खुद उसके लिये कितने मायने रखता है। जंगल से अधिक उसके लिये शायद ही कुछ मायने रखता होगा?

केवल से मैं उसकी इस कहानी के विषय में जानने की कोशिश करता रहा। उसने कहानी अलोक पुतुल को देशबंधु कार्यालय भेज दी थी। आलोक नें उस कहानी में श्रम कर तथा उसमें अपने दृष्टिकोण को भी जोड कर संवारा और फिर यह देशबंधु  के अवकाश अंक में प्रकाशित भी हुआ। चंद्रू को चर्चा मिली और यह भी तय है कि अपनी इस उपलब्धि और चर्चा से भी वह नावाकिफ अपनी दुनिया में अपनी सल्फी के साथ मस्त रहा होगा। उन ही दिनों इस स्टोरी पर चर्चा के दौरान ही केवल नें मुझे बताया था कि संपादक ललित सुरजन अवकाश अंक पर इस स्टोरी के ट्रीटमेंट से खुश नहीं थे और उनकी अपेक्षा इस अनुपम कहानी के ‘और बेहतर’ प्रस्तुतिकरण की थी। यद्यपि कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई। न तो केवल की और न ही चन्द्रू की।

केवल के साथ मैं धरमपुरा में दादू की दुकान पर चाय पी रहा था। केवल की आवाज में आज चन्द्रू की बात करते हुए वह उत्साह नहीं था।

“तूने चन्द्रू को किताब वापस कर दी?” मैने बात आगे बढाई।


“हाँ, मैं किताब और अखबार की रिपोर्ट के साथ नारायणपुर जा रहा था। कांकेर में कमल शुक्ला से मिलने के लिये रुक गया। वही एक और पत्रकार साथी हरीश भाई मिले। स्टोरी को पढने के बाद वो इतने भावुक हो गये कि उसे ले कर कही चले गये...जब लौटे तो उनके हाथ में एक फोटोफ्रेम था जिसमें यह खबर लगी हुई थी।“

“फिर तू चन्द्रू से मिला?”

“मैं जब गढबंगाल पहुँचा तो चन्द्रू घर पर नहीं था। घर के बाहर ही चन्द्रू की माँ मिल गयी जो अहाते को गोबर से लीपने में लगी हुई थी।“

“तूने इंतजार नहीं किया?”

“नहीं मैं देर शाम को ही पहुँचा था और मुझे लौटना भी था। जब मैने अपने आने का कारण चन्द्रू की माँ को बताया और उसे जिल्द चढी किताब के साथ फोटो फ्रेम में मढी खबर दी...”

“खुश हो गयी होगी?”

“नहीं। उसने जो सवाल किया मैं उसी को सोचता हुआ उलझा हुआ हूँ”

“तू भी पहेलियों में बात करता है”

“चन्द्रू की माँ ने कुछ देर फोटो फ्रेम को उलटा-पलटा। अपने बेटे की तसवीर को भी देखने की जैसे कोई जिज्ञासा उसमें दिखी नहीं..फिर उसने मुझसे कहा – ‘तुम लोग तो ये खबर छाप के पैसा कमा लोगे? कुछ हमको भी दोगे?”

“फिर?” मुझे एकाएक झटका सा लगा।

“पहले पहल ये शब्द मुझे अपने कान में जहर की तरह लगे। फिर मुझे इन शब्दों के अर्थ दिखने लगे। मैने शायद पचास या साठ रुपये जो मेरे पास थे उन्हे दे दिये थे और अपने साथ यही सवाल के कर लौट आया हूँ कि ‘हमको क्या मिला?’...” केवल नें गहरी सांस ली थी।

आज बहुत सालों बाद चन्द्रू फिर चर्चा में है। जी-टीवी का चन्द्रू पर बनाया गया फीचर ‘छत्तीसगढ़ के मोगली’ को राज्योत्सव में सम्मानित किया जा रहा है। मैं स्तब्ध हूँ कि चन्द्रू को खोज निकालने वाला केवलकृष्ण, उसे ढूंढ निकालने की सोच वाला आलोक पुतुल...कोई भी तो याद नहीं किया जा रहा। मैं आज फिर चन्द्रू की माँ के उसी प्रश्न को भी देख रहा हूँ जो कि पुरस्कार और उत्सव बीच निरुत्तर भटक रहा है – “हमें क्या मिला?”

अच्छा तो तुम वामपंथी नहीं हो? यानी कि दक्षिण पंथी हो? - राजीव रंजन प्रसाद

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इस बात को साल भर से अधिक हो गया। मैंने बस्तर में जारी नक्सलवाद के खिलाफ किसी लेख में टिप्पणी की थी। उस दिन मेरे नाम को इंगित करते हुए एक पोस्ट “मोहल्ला” ब्लॉग पर डाली जिसका शीर्षक था – “बस्तर के हो तो क्या कुछ भी कहोगे?” और लिंक - http://mohalla.blogspot.com/2008/05/blog-post_24.htmlइस पोस्ट नें मुझे झकझोर दिया। मैं माओवाद को ले कर हो रहे प्रचार की ताकत जानता हूँ और चूंकि मेरा अपना घर जल रहा हैं इस लिये आतंकवाद और क्रांति जैसे शब्दों के मायने भी समझने लगा हूँ। मैंनें निश्चित किया कि बस्तर का एक और चेहरा है जो माओवाद और सलवाजुडुम की धाय धमक में कहीं छुप गया है। बस्तर की और भी तस्वीरें हैं जो लाल नहीं हैं और बस्तर वैसा तो हर्गिज नहीं जो अरुन्धति के आउटलुक से दिखाया गया। अपनी मातृभूमि बस्तर के लिये कहानियाँ, आलेख और संस्मरण लिखते हुए अचानक ही एक उपन्यास लिखने का विचार कौंधा। बस्तर के इतिहास और वर्तमान पर काम करने का फिर मुझमें जुनून सा सवार हुआ। मैंने केवल शोध के कार्य के लिये बस्तर भर की कई यात्रायें कीं और उन जगहों पर विशेष रूप से गया जहाँ जाना इन दिनों दुस्साहस कहा जाता है। यानि कि हम अपने ही घर, अपनी ही मिट्टी में निर्भीक नहीं घूम सकते?

मेरे बस्तर विषयक आलेख जब पत्र-पत्रिकाओं और ब्ळोग में प्रकाशित होने लगे तो मेरा दो तरह के स्वर से सामना हुआ। पहला स्वर जो मुझसे सहमत था और दूसरा जो असहमत। असहमति भी स्वाभाविक है, मैं उम्मीद नहीं कर सकता कि मेरी तरह ही सभी सोचें। सब एक तरह ही सोचते तो भी समाजवाद होता? लेकिन जो बात सबसे अधिक विचारणीय है वह है सोच की खेमेबाजी, सोच का रंग और सोच का झंडा। कोई तर्क करे तो समझ में आता है, कोई विचार रखे और उद्धरण दे तो भी समझ में आता है यहाँ तक कि किसी के अनुभव सामने आयें वह विरोधाभासी भी हों तो भी सोच को जमीन देते हैं। लेकिन “खास तरह के खेमेबाजों का” एक मजेदार विश्लेषण है – आप वामपंथी नहीं हो तो आप संघी हो या दक्षिणपंथी हो?

मैं बहुत सोचता हूँ कि आखिर क्या हूँ मैं? उम्र के पन्द्रह साल से ले कर लगभग सत्ताईस साल तक अपने नाम के आगे कामरेड सुनना अच्छा लगता था। इप्टा से जुड कर में नुक्कड भी किये, गली गली जनगीत भी गाये,  हल्ला भी बोला इतना ही नहीं उस दौर के लिखे हुए मेरे अनेकों नाटक लाल सुबह ही उगाते हैं जिनमें प्रमुख हैं – किसके हाँथ लगाम, खबरदार एक दिन, और सुबह हो गयी आदि आदि। किसके हाँथ लगाम की एक प्रस्तुति ‘भारत-भवन’ में तथा मेरे नाटकों की कई प्रस्तुतियाँ भोपाल के रवीन्द्र भवन में भी हुई हैं। तब की लिखी मेरी कहानियों के अंत में हमेशा ही लाल सुबह होती रही थी। लेकिन बहुत कुछ तब दरका जब तू चल मैं आया वाले प्रधानमंत्रियों का दौर आया और वामपंथी दलों की अवसरवादिता नें मेरे सिद्धांतों की कट्टरता को झकझोर दिया। धर्म को जनता की अफीम मानने वाले एक दिवंगत कामरेड की पहचान हमेशा उनकी पगडी से ही रही। पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ लडने वाले कई छत्रप अपने बेटों के लिये लाल कालीन की जुगाड में ही दिखे। उनका श्रम भी रंग लाया और कुछ फैक्ट्री मालिक है तो कुछ सी.ई.ओ। मैं धीरे धीरे प्रायोजित विरोध और स्वाभाविक विरोध के अंतर को समझने लगा हूँ।

एसे ही एक दिन जब मैं अपने घर बचेली पहुँचा तो अपनी डायरी ले कर जंगल जाने लगा। जंगल में सिम्प्लेक्स नाले पर एक पत्थर मेरी टेबल-कुर्सी दसियों साल से ‘था’। यहाँ पानी में पैर डाले घंटों अपनी किताबों के साथ मैं समय गुजारा करता था। दसवी और बारहवी में अपने प्रिपरेशन लीव के दौरान भी मैं यहीं सारे सारे दिन बैठ कर पढा करता था। यहीं मैने कई वो कहानियाँ और नाटक भी लिखे जिनके अंत में मुक्के तन जाने के बाद धरती समतल हो गयी और एक सी धूप फैल गयी। इस बार जब मम्मी नें जंगल में उस ओर जाने से रोक दिया। कारण था नक्सलवाद। एसा प्रतीत हुआ जैसे किसी नें मुझे मेरे ही घर में घुसने से रोक दिया। उस दिन मैने गहरे सोचा कि एसा क्यों है कि मैं उदास हूँ? मुझे तो खुश होना चाहिये था कि वैसा ही हो रहा है जैसा मेरी कहानियों में होता था कि क्रांतिकारी बंदूख ले कर उग आये हैं और ढकेल कर लाल सवेरा के कर आने ही वाले हैं? मैंने अपनी कहानियों को टटोला लेकिन उनमें कहीं बारूदी सुरंग फाड कर सुकारू और हिडमाओं की ही लाशों के अनगिनत टुकडे किये जाने की कल्पना नहीं थी। मैंने जब भी क्रांतिकारी सोचे तो वो भगतसिंह थे। उनकी नैतिकता एसी थी कि असेम्बली में भी बम फेंके तो यह देख कर कि कोई आहत न हो लेकिन बात पहुँच जाये। बस्तर के इन जंगलों में जो धमाके रात दिन हो रहे हैं क्या ये बहरों को सुनाने के लिये हैं? नहीं ये अंधों की लगायी आग है और दावानल बन गयी हैं। ये सब कुछ जला देगी खेत-खलिहान भी, महुआ-सागवान भी, आदिम किसान भी।              
                           
नहीं मैं लाल नहीं सोचता, हरा नहीं सोचता, भगवा नहीं सोचता, नीला पीला या काला कुछ नहीं सोचता। मेरी सोच को मेरी लिये बख्श दो भाई। चूल्हे में जायें सारे झंडे और सारे नारे। तुम उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम, साम, दाम, वाम जो भी हो मुझे ये गालिया न दो। मैने बहुत सी कहानिया जला दी हैं बहुत से नाटक अलमारी में दफन कर दिये हैं और अब मैं वही लिखता हूँ जो मैं खुद सोचता हूँ अपने बस्तर के लिये।  

विरोध व्यवस्था का अथवा बस्तर का?

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जनपक्षधरता हमेशा व्यवस्था में सुधार अथवा बदलाव की दिशा में इंगित होती है। आप संवेदनशील व्यक्ति हैं तो निश्चित रूप से आपको अपने परिवेश के इर्द-गिर्द की घटनायें कुरेदेंगी, झकझोरेंगी तथा उद्वेलित भी करेंगी। बुनियादी सवाल कश्मीर से कन्याकुमारी तक बिलकुल एक जैसे हैं और कहीं न कहीं हमारे लोकतंत्र को कोई बडा सरिया आरपार कर गया है, अवस्था गंभीर है। हर तरह की राजनीति और प्रत्येक राजनीतिक दल आकंठ आरोपों में डूबा, भ्रष्टाचारी तथा जनविरोधी होता जा रहा है। सत्ता और माया नें लोकतंत्र की मर्यादा और उसके हर खम्बे को खोखला कर दिया है। किसपर विश्वास की निगाह से देखा जाये? व्यव्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा मीडिया सभी नें अपनी विश्वस्वनीयता खो दी है। इस प्रश्न पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि आमूलचूक परिवर्तन होने चाहिये और हो कर रहेंगे। आम आदमी अपनी जब शक्ति की अभिव्यक्ति करता है तो कोई भी बदलाव असंभव नहीं रह जाते। यहाँ जनपक्षधरता शब्द का कृपया वामपंथीकरण न किया जाये, बुनियादी तौर पर मेरा मानना है कि विचार महत्वपूर्ण होते हैं वे आपको उडनें, सोचने, समझने का मुक्ताकाश देते हैं जबकि विचारधारायें बेडियाँ हैं जो आपके दायरे निश्चित कर देती हैं, इलाके तय कर देती हैं।.....। 

विरोध लोकतंत्र का स्वाभाविक स्वर है। दमन और प्रतिकार की हजारों हजार कोशिशों के बाद भी विरोध की धार जिन्दा है। अभी नाउम्मीदी के आगे नतमस्तक नहीं हुआ गया तथा कई दीपक टिमटिमाते हुए भी जल रहे हैं। दुर्भाग्यवश जिस तरह राजनीतीति की प्रकृति विश्लेषण से परे हो गयी है ठीक उसी तरह आन्दोलनों की विश्वस्वनीयता भी कलंकित हुई है। बहुतायत आन्दोलन छद्म है तथा उनके पीछे या तो कोई दूसरा राजनीतिक समीकरण काम कर रहा होता है या एसी कुछ गैर सरकारी संस्थायें जिनके चन्दे का हिसाब ठीक उसी तरह प्राप्त नहीं हो सकता जैसे कि हमारे नेताओं के स्विसबैक के खातों की जानकारियाँ। बस्तर के परिप्रेक्ष्य में विरोध के तेवरों को समझने की आवश्यकता महसूस होती है। कुछ पत्रकार मित्रों को जानता हूँ जो इमानदार हैं तथा सच के साथ खडे हो कर काम कर रहे हैं। उन्होंने सच की कीमत भी चुकाई है और यह कहने में हिचक नहीं कि आगे भी चुकानी पडेगी। यह राह ही एसी है बंधु और आग पर हर कोई नहीं चल सकता। इमानदार कोशिशे अपना असर भी दिखाती हैं और अनेकों बार जब आपकी व्यवस्था से सीधे सीधे ठन जाती है तब भी, अपना दमन झेल कर भी, अपनी पराजय के बिलकुल किनारे पर आप पाते हैं कि नहीं उम्मीद अभी है। जो दीपक आपने जलाया था उसने कई और रोशन कर दिये तथा धीरे धीरे आप फैल रहे हैं। सच्चाई और वास्तविक मुद्दे ही जनसरोकार बनते हैं, जनमत बनते हैं तथा बदलाव लाते हैं। तथापि बहुत गंभीरता से सोचता हूँ कि आज एसा क्या हुआ कि पूरा देश केवल बस्तर देखता है? मैं याद करता हूँ जब स्नात्कोत्तर के लिये मैने भोपाल में एडमिशन लिया था, वहाँ मोतीलाल विज्ञान महाविद्यालय के गोखले छात्रावास में रैगिंग के दौरान जब मैने बताया कि बस्तर से हूँ तो सभी की निगाह मेरे चेहरे पर गड गयी थी। बस्तर नाम बहुतायत के लिये अनसुना था, एक जो जानता था उसने मुझे उपर से नीचे तक देखा फिर बोला अच्छा!! बस्तर से? लेकिन तुम तो कपडे पहने हो? इस बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता। 

यह शोषित मिट्टी इन 10-15 वर्षों से ही उपेक्षित नहीं रही जबसे नक्सलवाद के दैत्याकार स्वरूप का साक्षात्कार होने लगा है अपितु काल दर काल यहाँ की उर्वरता, वनोपज, आदिम शालीनता तथा इनने पर्यावास का अतिक्रमण हुआ है। इस अंचल के किसी आन्दोलन में देश भर से आवाज़ नहीं उठी। यहाँ का शोषण जब तक बिकने वाली खबर नहीं बन गया तब तक यहाँ की मांसलता पर ही लिखा जाता रहा। जब बांग्लादेशी रिफ्यूजी बस्तर में बसाये जा रहे थे उस दौर में बोधघाट बंद करो विस्थापन होगा का शोर मचाने वाले समाजसेवी या मानवाधिकारवादी क्या भांग का गोला निगले रहते थे? उस दौर में किसी को दण्डकारण्य परियोजना और उसके तहत बहुत बडी मात्रा में बांग्लादेशी विस्थापितों को बसाना यहाँ की अबूझता, यहाँ की संस्कृति, यहाँ की जनजातियों, यहाँ की लोककला, यहाँ की परम्पराओं पर आघात क्यों नहीं लगा? बस्तर ही क्यों? क्या कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक के भूभाग को छोड कर बस्तर का इस बसाहट के लिये चयन तब एक सांस्कृतिक हमला नहीं था? बस्तर के भीतर से तब आवाजें उठी थीं किंतु वह इस देश का स्वर क्यों नहीं बन सकीं? 

दण्डकारण्य परियोजना के नाम पर उस दौर में लूट-खसोट का एक लम्बा सिलसिला चला। श्री गोरेलाल झा के 1968 में प्रकाशित एक आलेख से उद्धरण है कि “करीब चालीस हजार एकड भूमि जो कि सुरक्षित वन में स्थित थी इस योजना के लिये दी गयी। आदिवासियों को भूमि देने का उतना दुख नहीं है जितनी कि इस नीति से कि भूमिहीन आदिवासियों को तो कोई इस सुरक्षित वन में एक एकड भूमि देने के लिये भी तैयार नहीं है”। एक उदाहरण महाराजा प्रवीर की डायरी में मिलता है कि दण्डकारण्य परियोजना पर युक्ति व बुद्धि बंगाल की ब्युरोक्रेसी लगा रही थी। एक राय आयी कि वहाँ बंगाल में होने वाली बाँस की प्रजाति का रोपण किया जाये क्योंकि उससे रिफ्यूजियों का कुटीर उद्योग संचालित हो सकता था। प्रवीर नें विरोध किया कि बस्तर में अपनी ही तरह के बाँस होते हैं तथा उसी से यहाँ की जनजातियाँ टोकनी सूपा या अन्य कलात्मक वस्तुओं का निर्माण करती हैं। लाखो रुपये फूंके गये और नतीजा सिफर निकला। यहाँ पाईन रोपण परियोजना के परिणाम भी बांस रोपण जैसे ही भयानक थे। बस्तर में जब मालिक मकबूजा की लूट चल रही थी तब राष्ट्रीय मीडिया का मौन और यहाँ पर दिल्ली के आन्दोलनकारियों का अकाल क्यों था? आज जिनकी यहाँ के शोषण से आह!! निकल आती है; अमेरिका तक से यहाँ के दर्द को गीत बना बना कर गाते है तब इन बीनों को फूंक मारने की फुरसत क्यों नहीं रही थी? लेव्ही को ले कर तथा धान के मूल्य निर्धारण को ले कर प्रवीर नें व्यापक आन्दोलन चलाया था तब उनके समर्थन में मौन क्यों था वह भी एसा मौन कि उनकी नृशंस हत्या के लगभग पचास साल बाद उनके लिये पहली श्रद्धांजली सभा कुछ वर्षों पूर्व ही जगदलपुर में सम्पन्न हो सकी। 1961 का लौहण्डीगुडा गोली काण्ड, 1966 का राजमहल गोली काण्ड अंचल की भीषणतम घटनायें हैं जिनके विषय में आज तक केवल मौन ही पसरा हुआ है। जब बीबीसी के कैमरे बस्तर के घोटुलों में पूरी बेशर्मी के साथ घुसे थे और अधकचरी जानकारियाँ एकत्रित कर उसे यौन फिल्म की तरह विश्वभर में परोस दिया था तब भी केवल और केवल स्थानीय साहित्यकारों और लेखकों नें ही आवाज उठाई थी। मई 1981 में दण्डकारण्य समाचार में प्रकाशित श्री राम सिंह ठाकुर के आलेख का अंतिम पैरा “आज जब कि बस्तर के मूल निवासियों के संस्कृति पर विदेशी अपनी मनमानी कर के फिल्म बना सके वहाँ उस देश के अन्य मूल निवासियों का क्या होगा? उचित तो यही होगा कि बीबीसी द्वारा बनाये गये फिल्मप्रदर्शन पर विश्वस्तरीय रोक लगा दिया जाये और फिल्म को भारत ला कर पूरी तरह नष्ट कर दिया जाये”। प्रश्न यह है कि इन आवाजों को सुनने वाला कोई क्यों नहीं था? क्या तब देश भर में एक्टिविस्टों का अकाल था? आज भी नक्सली बीबीसी प्रसारणों का ही अनुसरण जानकारी बटोरने के लिये करते हैं जिसका उल्लेख कई बार नक्सल समर्थक लेखकों नें अपने आलेखों में किया है। आज भी बीबीसी के संवाददाताओं के पास ही नक्सली अपने मध्यस्तों के नाम तय करने के लिये एसएमएस भेजते हैं, यह तो सर्वविदित है चूंकि ताजा घटना है। बडी बडी राष्ट्रीय खबरों से बडी घटना थी किरंदुल गोली कांड चूंकि यह 20,000 असंगठित मजदूरों का मसला था। यह उस दौर की घटना है जब नक्सलियों की आमद भी बस्तर में हो चुकी थी। इन मजदूरों से एसी क्या खता हुई थी कि यह घटना केवल स्थानीय अखबारों की सुर्खियाँ बन कर रह गयी तथा वाम आन्दोलन के नाम पर दादा बन कर घुसे नक्सलियों नें भी घटना पर मौन ही साधे रखा था। दिल्ली का एक्टिविज्म तो हमेशा ही पहले की तरह चुप रहा - नक्सलियों की आमद पर मौन उनकी नृशंसताओं पर मौन.....। 

अचानक बस्तर में क्या हुआ कि सारे एक्टिविस्ट दिल्ली में “ले अंगडाई हिल उठी धरा..” एक साथ जाग गये; वस्तुत: जिन मुद्धों पर बस्तर का दुष्प्रचार करने वाले लोग दिल्ली में सक्रिय हैं उनकी मानसिकताओं और राजनीति को समझना आवश्यक है। उनका निशाना व्यवस्था नहीं है वह तो केवल चदरिया झीनी झीनी है अन्यथा तो खेल विचारधारा के बस्तर में जारी युद्ध के लिये समर्थन बनाने और बचाने का है। जायज आवाजें हाशिये पर हैं तथा वे स्वर राष्ट्रीय भोंपू बनते जा रहे हैं जिनमें यहाँ के भूगोल और अतीत तो छोडिये वर्तमान तक की समुचित समझ नहीं है। बस्तर के मुद्दों का राष्ट्रीयकरण नक्सलियों के प्रभावी होने के साथ साथ हुआ है किंतु क्या वास्तविक सरोकार विषयवस्तु बन रहे हैं? देश-विदेश में सलवाजुडुम का विरोध किया और अब बस्तर में इस आन्दोलन से जुडे आदिवासी एक एक कर नक्सलियों द्वारा मारे भी जा रहे हैं। किस सामाजिक तथा मानवाधिकार कार्यकर्ता नें इस विषय को खुल कर उठाया है और अब भी जारी इस अनावश्यक हत्या श्रंखला का विरोध किया है? इन घटनाओं का विरोध असल में उस माहौल को बनाये जाने की कोशिश का हिस्सा नहीं है जिसे विश्व भर में दिखा कर इस क्षेत्र को निरंतर उपनिवेश बना रही विचारधारा की बंदूखों को जायज ठहराया जाना है। उसने पेड काट दिया, उसने बलात्कार कर दिया, उसने प्रताडित कर दिया, वह नंगा है, वह भूखा है, उसके घर में बिजली नहीं है, वहाँ अभी भी स्कूल नहीं है, पुलिसिया दमन हो रहा है आदि आदि केवल बस्तर का चेहरा नहीं है यह पूरे भारत का एक जैसा सच है और एक जैसा ही कडुवा। पत्रकार भाईयों को इन तथ्यों-सत्यों को उजागर करने में कोई कोताही नहीं बरतनी चाहिये। मेरा इशारा उन समाचारों की खदानों की,ओर है जो समाचार चुनते है और चुने हुए समाचारों के साथ बौद्धिक विलास करते हैं। मेरे पास इसी तरह के प्रचार का हिस्सा एक ईमेल निरंतर आता है जिसमें कई प्रकाशित आलेखों के लिंक होते हैं [बहुतायत कहानियाँ छत्तीसगढ के नाम पर कभी झारखण्ड की होती हैं कभी महाराष्ट्र की तो कभी आन्ध्र की। इसके अलावा देश भर में कुछ चुने हुए लोगों की गतिविधियों का ब्यौरा कि कहाँ-कहाँ दिल्ली में बस्तर के नाम पर हाय तौबा की]। इन चुनी हुई कहानियों पर अगाध श्रम किया जाता है। ये कहानियाँ वह मील का पत्थर बनायी जाती हैं जिन्हें लहरा लहरा कर बस्तर को दुनिया की सबसे डरावनी जगह बनाये जाने की कोशिश लगातार की जा रही है। ये समाचार बस्तर के वास्तविक सरोकार भी नहीं अपितु सरोकार के करीब की घटनायें मात्र हैं। उदाहरण के तौर पर एक सप्ताह में नक्सलियों नें चार सडकें फोडी, दो स्कूल विध्वंस कर दिये एक बाजार में हमला किया आदि आदि तो यह सामान्य घटना लेकिन इसकी प्रतिक्रिया राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समाचार। ये समाचार पोर्टल, समाजसेवी और विचारक बस्तर की समस्याओं का कोई समाधान ले कर आज तक क्यों उपस्थ्ति नहीं हुए? 

यहाँ समस्या है कृषि का आधुनिकीकरण किये जाने की, यहाँ आवश्यकता है सिंचाई के साधन विकसित किये जाने की, यहाँ आवश्यकता है शिक्षा के बेहतर माहौल की, यहाँ आवश्यकता है उच्च शिक्षा के मौजूदा संस्थानों को दुरुस्त करने तथा उनमे आदिवासी छात्रों को विशेष वरीयता तथा आर्थिक मदद दिये जाने की, यहाँ आवश्यकता है रोजगार मूलक उपायों की, यहाँ आवश्यकता है साफ पानी की, बिजली की, सडक की। पिछले बीस-सालों में इन विषयों पर न तो विमर्श हो रहा है न ही आन्दोलन। वस्तुत: अगर इनके समाधानों की बात और कोशिश की पहल होगी तो नक्सलवाद की प्रासंगिकता क्या बचेगी; इस बात को पूरी तरह जान कर और समझ कर जनसरोकारों की नये किस्म की परिभाषा गढी गयी है जिसमें दो ही किरदार हैं नक्सली जो क्रांतिकारी हैं और पुलिस जो विलेन है। इस पृष्ठभूमि के लेखो में ड्रामा है, फिक्शन है.....समाधान नहीं हैं। जिन्हे बस्तर का ‘ब’ पता नहीं उनसे हम समाधान की उम्मीद रखें यह तो हमारी ही सोच में कमी हुई न? 

समाधान ‘केवल और केवल’ पढी लिखी आदिवासी पीढी के पास ही है। आप ही उर्वरा बीज हो और आप ही अपना स्वर। दिल्ली में बहुत से लोग भगतसिंह का मुखौटा लगाकर आपकी क्रांति करने की जुगत में हैं; उनके भरम में आये बिना अपने चेहरे के साथ अपनी मुट्ठी बाँधिये। अपने अधिकार के लिये लडाई आपकी अपनी है। फिर वह वयवस्था के खिलाफ हो अथवा आपकी आड में वयवस्था बदलने वाली बदूखों के खिलाफ.....आपको अपनी बुद्धिजीविता के साथ अपना स्वर बनना ही होगा। आपकी अपनी कोई आवाज नहीं है इस लिये दिल्ली के पास भोंपू है। आदिवासी मित्रों, शिक्षा सोच देती है तथा अपनी समस्याओं को स्वयं अनुभव कर निराकरण की समझ भी स्वयं में विकसित कर देती है। गहराई से उन समस्याओं की विवेचना कीजिये जो आपके सरोकारों को स्पर्श करते हों। यह समय आपकी सक्रियता का है क्योंकि ‘चलता है’ कि प्रवृत्ति ही आपको हाशिये पर धकेल रही है। अपनी अभिव्यक्ति के अवसर तलाशिये और अपनी बात सकारात्मकता से कहिये क्योंकि व्यवस्था के खिलाफ खडे होना आपका अधिकार है तथा बस्तर के खिलाफ चल रहे दुष्प्रचार के विरुद्ध लामबंद होना आपका कर्तव्य। जड ही महत्वपूर्ण होती है तथा आपकी जडें हजारों सालों का गौरवशाली अतीत आपके साथ जोडती हैं। आप गेन्दसिंह, झाडा सिरहा, आयतु माहरा, यादव राव, व्यंकट राव, डेबरी धुर और गुण्डाधुर की संततियाँ हो। आपका नेतृत्व सुबरन कुँवर जैसी वीरांगना और प्रवीर जैसे विचारक नें किया है फिर एसा क्यों कि आप बस्तर के दुष्प्रचार तंत्र के प्रति नाराज नहीं होते। मित्रों यह जाहिर करना ही होगा कि हम किसी ओर की बंदूख के साथ नहीं है और किसी दुष्प्रचार का हिस्सा भी नहीं है। बस्तर हमारा है और अब बहुत हो चुका इसका नवनिर्माण भी हम बस्तरिया ही करेंगे।

बस्तर का एक एसा नायक जिसे किसी नें कभी याद नहीं किया

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[प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव (1908 – 1960)]


एक किताब के बारे में जानकारी मिली जिसका शीर्षक है - Financial Position of Govt. of India (How decay has set in); लेखक थे प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव। बहुत तलाश किया किंतु दुर्भाग्यवश यह किताब अब विलुप्त हो गयी है, बिलकुल वैसे ही जैसे इसके लेखक को कोई नहीं जानता, उसके संघर्ष को शत-प्रतिशत भुला दिया गया है। यह परिचय देना आवश्यक है कि प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव बस्तर की महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921-1936) के पति थे। यह एक पंक्ति का परिचय केवल उनका बस्तर से सम्बन्ध निरूपित करता है वस्तुत: प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव का जन्म मई 1908 में मयूरभंज (उड़ीसा) में हुआ था। वे राजा दामचंद्र भंजदेव के पुत्र थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजकुमार कॉलिज, रायपुर में हुई थी। प्रफुल्ल कुमार भंजदेव की कथा एक एसे संघर्षशील व्यक्ति की कहानी है जिसने केवल अपने सिद्धांतो के लिये मिटना ही जाना किंतु वह समझौते करना और झुकना जानता ही नहीं था। 

1921 में सत्यकेतु पत्रिका (हिन्दी पाक्षिक) में प्रकाशित श्रीसत्यनाथन के एक आलेख ‘बस्तर राज पर विपत्ति’ से यह जानकारी मिलती है कि अंग्रेजों नें जबरदस्ती महारानी प्रफुल्ल कुमारी का विवाह प्रफुल्लचंद्र भंजदेव से करवाने की साजिश रची थी। ब्रिटिश एडमिनिस्ट्रेटर ‘टकर’ तथा तत्कालीन पॉलिटिकल एजेंट ‘ली’ नें जबरदस्ती यह रिश्ता महारानी प्रफुल्ला पर थोपा था किसके पीछे ब्रिटिश राजभक्ति के तहत निर्णय को मानने का अतिरिक्त दबाव भी डाला गया था। उस दौर में “प्रस्तावित बस्तर-मयूरभंज सम्बन्ध का रहस्योद्घाटन” शीर्षक से 33 पृष्ठ की एक पुस्तिका प्रकाशित हुई थी जिसमें इस विवाह का मुखर विरोध किया गया था। स्वयं महारानी प्रफुल्ल नें अपनी सगाई की सामग्री फेंक दी थी। जबरन विवाह की यह राजनीति राष्ट्रीय चर्चा का विषय बनी जिसके उल्लेख तत्कालीन समाचार पत्रों - आज (वाराणसी, 15.04.1924); अमृतबाजा पत्रिका (कलकत्ता, 18.04.1924); दैनिक फॉरवर्ड (कलकत्ता, 25.04.1924), भविष्य (कानपुर, 15.05.1924); महिलासुधार (कानपुर, 28.06.1924); प्रणवीर (नागपुर, 16.06.1924); ताज (उर्दू दैनिक – दिल्ली, 3.04.1924); एशिया (उर्दू दैनिक – दिल्ली, 4.04.1924) आदि में मिलता है। अंग्रेजों का यह सारा प्रक्रम संभवत: उनकी जड खोदने के लिये ही था क्योंकि महारानी की सहमति के बिना राजनीतिक दबाव डाल कर कराया गया यह विवाह वर्ष 1927 में सम्पन्न हुआ जो कालांतर में एक चिरस्मरणीय प्रेमकहानी में परिवर्तित हो गया। यह मिलन केवल काकतीय-भंज राजवंशों का मिलन नहीं था, यह केवल बस्तर-मयूरभंज मिलन ही नहीं था अपितु यह एक आदिवासी राजनीति के साथ राष्टीय संवेदनाओं और मुख्यधारा का सम्मिलन भी था। 

बस्तर रियासत के भीतर राष्ट्रीय भावना का सूत्रपात करने का श्रेय वस्तुत: प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव को जाना चाहिये। प्रफुल्ल एक प्रगतिशील रियासत से बस्तर आये थे तथा उनकी अपनी सोच महारानी के फैसलों के साथ प्रतिपादित होने लगीं। बस्तर की राजनीति को एक एसा सलाहकार मिल गया था जो शनै: शनै: ब्रिटिश आँख का काँटा बनने लगा। महारानी के दौर में निजाम शासन की दृष्टि बस्तर पर पड गयी थी तथा इसके लिये सर्वप्रथम प्रफुल्ल को सहमत कराने की कोशिश की गयी। उन्हें धन सम्पत्ति के साथ साथ एक बडी जमीन्दारी प्रदान करने का भी प्रलोभन दिया गया था। प्रफुल्ल बस्तर रियासत के पक्ष में खडे दिखे तब जा कर अंग्रेजों की समझ में आया राजनीतिक समझौते के तहत जबरन विवाह का तो पासा फेका गया था वह उलटा पड गया है; प्रफुल्ल कृतज्ञ नहीं अपितु अंतरात्मा से जागरूक व्यक्ति थे। बाध्य हो कर अंग्रेजी सरकार के दबाव में उच्च शिक्षा के लिये उन्हें इंग्लैंड भेजा गया जहाँ उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में बीए ऑनर्स की पढाई के लिये दाखिला लिया। उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की तथा वकालत भी प्रारंभ की तथापि वे अपनी पी एच डी पूरी नहीं कर पाये। जब विश्वयुद्ध की परिस्थितियाँ बनीं तब प्रफुल्ल नें मानवता का फर्ज भी निभाया और अंग्रेजी एम्बुलेंस में भरती हो कर जरमनी, फ्रांस, बेल्जियम आदि राष्ट्रों के जख्मी सैनिकों की सेवा करने लगे। अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान वे श्री कृष्ण मेनन के संपर्क में आये तथा भारतीय स्वतंत्रा आन्दोलन के एक सिपाही की हैसियत से उनके साथ कदम से कदम मिला कर सक्रिय हो गये। आपके आलेखों और व्याख्यानों नें भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में तथा अंग्रेजी सत्ता प्रतिष्ठानों में खलबली मचा दी थी। एक एसा समय जब अंग्रेजी सरकार रियासतों को पंगु बनाने की कोशिश में एडी चोटी एक किये रहती थी उसी दौर में सितम्बर 1934 में प्रफुल्ल हन्द्र भंजदेव ने वीकर्ड़ रिव्यु पत्रिका, लंदन में “द न्यु स्टेस्ट्समैन एण्ड़ नेशन” नाम से आलेख लिखा था जिसमें खुलासा किया था कि “ब्रिटिश शासन के चलते भारतीय राजकुमार और राजा किस प्रकार नपुंसक हो गये हैं। उनकी इस प्रकार की नपुंसकता के पीछे वह मूर्खतापूर्ण शिक्षा भी थी जो उन्हें दी जा रही है।” प्रफुल्ल को इस लेख की बहुत बडी कीमत चुकानी पडी और अंग्रेजों की सीधी नाराजगी झेलनी पड़ी थी। इस आलेख के प्रकाशित किये जाने के तुरंत बाद ही प्रफुल्ल का चरित्र हनन करने की साजिश रची गयी। उन्हें ड़रपोक, व्यसनी तथा सिफिलिस से संक्रमित तक घोषित किया गया। प्रफुल्ल को बस्तर राज्य की ओर से दो हजार रुपये महीना खर्च दिया जाता था। स्वतंत्रता आन्दोलन में उनकी सक्रियता तथा निजाम राज के साथ बस्तर विलय की कोशिशों में सहयोग न दिये जाने के उनके निर्णय से नाराज अंग्रेजों नें यह राशि भी घटा कर आधी कर दी। महारानी की मृत्यु के बाद उन्हें यह राशि मिलना भी बंद कर दिया गया।

बैलाडिला क्षेत्र का बस्तर अथवा छत्तीसगढ में बना रहना वस्तुत: प्रफुल्ल की भी देन माना जाना चाहिये अन्यथा हो सकता था कि यह क्षेत्र निजामशाही के आधीन हो कर आज आन्ध्र का हिस्सा होता। महारानी प्रफुल्ला के समक्ष जब इस तरह का प्रस्ताव वायसराय लॉर्ड लिनथिनगो नें रखा था तब उन्होंने बहुत ही शालीनता और विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था। अंग्रेज मानते थे कि महारानी का यह कदम वस्तुत: उनके पति प्रफुल्ल की सोच की परिणति है। कुछ दस्तावेज और प्रमाण इस ओर इशारा करते हैं कि महारानी प्रफुल्ला की एपेंडिक्स के ऑपरेशन के नाम पर हत्या की गयी थी जिसके पीछे बैलाडिला के लौह खदानों के कारण पैदा हुए नये राजनीतिक समीकरण ही जिम्मेदार थे। प्रफुल्ल की मुखरता देखिये कि यह जानते हुए भी कि अंग्रेजी सता उन्हें गुमनामी की सौगात देगी, वे चुप नहीं बैठे। अपने पुत्र प्रवीरचन्द्र भंजदेव के राज्याभिषेक के तुरंत बाद ही उन्होंने महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की अंग्रेजों द्वारा किये हत्या के षडयंत्र का रियासत की जनता के सामने पर्दाफाश कर दिया। भयानक परिणाम हुए उनके इस कृत्य के। उनसे अपने ही बच्चों के अभिभावक होने का नैसर्गिक अधिकार छीन लिया गया तथा बस्तर रियासत से निकाला दे दिया गया। बस्तर में प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव की वापसी तब हुई जब देश में अपना पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया। दो लाख से अधिक उपस्थित भीड नें प्रफुल्ल का हृदय खोल कर स्वागत किया था। प्रफुल्ल कुछ समय तक बस्तर में रहे फिर राष्ट्रीय ध्वज को लेकर किसी प्रसंग में उनका अपने पुत्र तथा महाराजा प्रवीर से मनमुटाव हो गया और फिर वे बस्तर छोड कर हमेशा के लिये चले गये। 

निराला व्यक्तित्व था प्रफुल्ल का। उन्हें जानने वाले बताते हैं कि प्रफुल्ल को सिगरेट और शराब जैसे व्यसन भी नहीं थे। वे सोच से भरे और मृदु मुस्कान लिये जीवंत व्यक्ति थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वे ओडिशा में आ कर रहने लगे तथा कुछ समय तक राज्य सरकार में रह कर कार्य भी लिया। ओडिशा सरकार की आदिवासियों को ले कर नीति से वे असहमत थे तथा इसी कारण उन्होंने राज्य की राजनीति से अपने हाथ भी खींच लिये थे। इसके पश्चात प्रफुल्ल लगभग गुमनामी का ही जीवन जीते रहे। वे मयूरभंज, कलकत्ता तथा दिल्ली में भी कुछ समयों के लिये रहे तथा इस गुमनाम संघर्शशील व्यक्ति में कब आखिरी स्वांस ली इसकी समुचित जानकारी उपलब्ध नहीं होती है, संभवत: 1960 के आसपास। 

उपसंहार में यही कहना चाहूंगा कि कई गुमनाम नायक हैं जिनके योगदानों को विस्मृत कर के हम बस्तर की विरासत की सही तस्वीर सामने नहीं ला सकते, प्रफुल्ल चंद भंजदेव भी उनमें से एक हैं।

देवी शक्तियों का बस्तर

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व्यवस्था में बदलाव वस्तुत: एक पूरी संस्कृति का पटाक्षेप भी है। बस्तर के संदर्भ में मुख्यत: दो कालखण्ड मायने रखते हैं जब इस तरह के बदलाव देखे गये। पहला समय था जब नाग राजाओं (760-1324 ई) की पराजय हुई तथा अन्नमदेव (1324-1369 ई.) सत्तासीन हुए तथा दूसरा कालखण्ड जब स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात न केवल अंगेज सत्ता द्वारा संचालित काकतीय शासन का समापन हुआ तथा इस घोर आदिवासी क्षेत्र में लोकतंत्र के चरण पडे। इन दोनो ही समयों में बदलाव को सहज स्वीकार किया गया हो एसा नहीं है; अपितु बदलने वालों नें धर्म और धार्मिक मान्यताओं की आड ले कर ही अपनी स्वीकार्यतायें सुनिश्चित की हैं। इतिहास तो राजाओं के होते हैं किंतु अपनी प्रकृति और प्रवृति में बदलाव आम जन का ही होता है तहापि उसकी कहानियाँ कभी भी दस्वावेजबद्ध नहीं की गयीं। इतिहास को धर्म मान्यताओं और आस्थाओं से समझने की कोशिश यदि नहीं की गयी तो वह तलवार बाजों की जीत हार के आँकडे भर रह जायेगा। राजा बदलता है तो प्रजा भी बदलती है।

इस बदलाव और कशमकश को समझने के लिये बस्तर अंचल की दो देवियों दंतेश्वरी तथा मणिकेश्वरी का प्रसंग लेते हैं। बस्तर में देवी महात्म्य सर्वदा से स्थापित रहा है तथापि माँ दंतेश्वरी एवं मणिकेश्वरी देवी के स्थापना समयों को ले कर विद्वानों में मतभिन्नता रही है। बस्तर राज वंशावलि (1853) में एक श्लोक विशेषरूप से ध्यान खींचता है – नवलत्क्षनुर्धराधिनाथे पृथेवीं शासति काकतीयरूद्रे। अभवत्परमाग्रहारपीडाकुचकुम्भेषु कुरंगलोचनानाम। प्रतापदुर्ददेवस्य पुरकांचनवत्षणम। यामात्धमहरत्कालम पुरा वै यज्ञ हेतवे। प्रतापरुद्रनृपतिस्साक्षाद रुद्रांशसम्भव:। शिवार्चनपरो भक्तो माणिकीशक्ति सेवित:। यह श्लोक वस्तुत: वारंगल के राजा प्रतापरुद्र की स्तुति की तरह ही है जो बताता है कि काकतीयों के पास प्रबल सैन्यशक्ति थी जिसमे नौ लाख धनुर्धर थे। वे धनी थे। धर्माचरणी थे। इस श्लोक की अंतिम पंक्ति कहती है कि काकतीय मणिकेश्वरी देवी के अनन्य भक्त थे तथा शिव की उपासना/अर्चना भी करते थे।

वस्तुत: प्रतापरुद्र (राजा अन्नम देव जिन्होंने बस्तर में काकतीय वंश की स्थापना की) के बडे भाई थे तथा वारंगल पर मुस्लिम आक्रांताओं की विजय से पहले वे सर्वाधिक प्रतापी तथा धनाड्य राजाओं में गिने जाते थे। अत: यदि इस श्लोक के आधार पर माता मणिकेश्वरी देवी को काकतीय राजाओं के साथ वारंगल से बस्तर लाया जाना माना जाये तो फिर माता दंतेश्वरी का बस्तर में स्थान अधिक प्राचीन होगा। इस सम्बन्ध में लाला जगदलपुरी अपनी किताब “बस्तर – लोक कला संस्कृति प्रसंग” में लिखते हैं कि “बारसूर की प्राचीन दंतेश्वरी गुडी को नागों के समय में पेदम्मा गुडी कहा जाता था। तेलुगू में बडी माँ को पेदम्मा कहा जाता है। तेलिगु भाषा नागवंशी नरेशों की मातृ भाषा थी। वे दक्षिण भारतीय थे। बारसूर की पेदम्मा गुडी से अन्नमदेव नें पेदम्मा जी को दंतेवाडा ले जा कर मंदिर में स्थापित कर दिया। तारलागुडा में जब देवी दंतावला अपने मंदिर में स्थापित हो गयी तब तारलागुडा ग्राम का नाम बदल कर दंतावाडा हो गया, उसे लोग दंतेवाडा भी कहने लगे।“


छत्तीसगढ परिचय में प्रकाशित डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र का एक आलेख आलेख इस सम्बन्ध में बिलकुल अलग तथ्य सामने लाता है। वे लिखते हैं “काकतीय तथा दंतेश्वरी के नामो के पीछे कुछ रहस्य हैं कि इस घराने के आदि पुरुष महाभारतकालीन पाण्डव थे। दिल्ली की दुर्दशा के बाद उन्होंने दक्षिण की शरण ली। गुरु द्रोणाचार्य की शिष्य परम्परा के कारण उन्होंने अपने वंश का नाम काकतीय रखा। संस्कृत में काक को द्रोण भी कहते हैं। संस्कृत में हस्ती को दंती भी कहते हैं इस तरह हस्तिनापुर की अधिष्ठात्री देवी हस्तेश्वरे कहलाने के बदले दंतेश्वरी कही गयीं। इस कथन के समर्थन में ईतिहासकार हीरालाल (1916:289) लिखते हैं कि बस्तर के नागवंशी राजाओं की कुलदेवी मणिक्येश्वरी थीं। बस्तर के अनेको अभिलेखों में नागफण मणि की चर्चा की गयी है अत: यह आधार भी नाग राजाओं के मणिकेश्वरी देवी के उपासक होने की कडी की तरह जुडता है। इस कडी को जोडने का कुछ प्रयास डॉ. हीरालाल शुक्ल नें भी लिया है जहाँ अपनी किताब चक्रकोट के छिन्दक नाग (760 ई. से 1324 ई) में वे लिखते हैं कि “मणिकेश्वरी एक तांत्रिक देवी हैं। भैरवयामलमंत्र के अनुसार मणि एक चक्र है, तेज या ज्ञानसन्दोह का उपलक्षक है तथा मणिमण्डप पर विन्ध्यवासिनी देवी बैठती हैं।“ वे आगे लिखते हैं कि मणिकेश्वरी विन्ध्यवासिनी देवी का पर्याय हैं। इस सम्बन्ध में ध्यातव्य है कि सोमेश्वर प्रथम जैसा नाग शासक चक्रकोट पर पुन: साम्राज्य स्थापित करने में विन्ध्यवासिनी देवी का प्रसाद (ईपी. इंडिका 10:37) मानता है – विन्ध्यवासिनीदेविवर प्रसाद (तदेव 10:25) के अभिलेखीय सन्दर्भ मिलते हैं।

उपरोक्त सभी संदर्भ भ्रमित करते हैं क्योंकि कोई भी विद्वान एक स्पष्ट दिशा नहीं देते। यहाँ तक कि हर शिलालेख से अपने-अपने मायने निकल रहे हैं। यदि विन्ध्यवासिनी ही मणिकेश्वरी हैं तो यह नामपरिवर्तन किस लिये? यदि मणिकेश्वरी काकतीयों की आराध्य हैं तो नाग सत्ता की आराध्य देवी विन्ध्यवासिनी एक तीसरी देवी सत्ता होनी चाहिये? यदि अन्नमदेव के साथ मणिकेश्वरी देवी के पावन चरण बस्तर पर पडे तो दंतेश्वरी माता का अस्तित्व यहाँ और प्राचीन सिद्ध होता है जैसा कि लाला जगदलपुरी आदि विद्वान मानते हैं। क्या ये सभी देवी शक्तियाँ पर्याय मात्र हैं? क्या इन नामों के पर्याय होने के पीछे कोई दंतकथा उपलब्ध है? इस विषय पर विद्वानों ने कोई संदर्भ उपलब्ध नहीं कराये हैं। एक महत्वपूर्ण कथन जो इस विषय में सभी प्रसंगों का सामान्यीकरण करता है वह इलियट का है। ईलियट (1856:3) बताते हैं कि “वर्तमान राजाओं के पूर्वज बस्तर आने से पूर्व मणिकेश्वरी देवी के उपासक थे जब वे बस्तर आये तो मणिकेश्वरी देवी नें दंतेश्वरी देवी का रूप ले लिया।


तथ्य अभी और शोध की माँग करते हैं, तथापि वह चाहे नाग युग हो, काकतीय हो अथवा वर्तमान काल देवीपूजा के अनेकों विधान तथा शक्तिशाली देवियों के यहाँ अवस्थित होने के अनेकानेक प्रमाण उपलब्ध मिलते हैं। नारायणपुर से कुछ ही दूरी पर छींदपाल गाँव में महिषासुरमर्दिनी का नागयुगीन मंदिर आज भी उपलब्ध है तो कुरुषपाल के मंदिर में भी महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। नाग-काल से ही बस्तर में माँ दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी तथा कंकालीदेवी की पूजा की जाती रही है। इसके साथ ही सप्तमातृकाओं के पूजन की प्राचीनकालीन प्रथा (शुक्ल:1977) का भी उल्लेख यहाँ प्रासंगिक होगा। कहते हैं कि ये सप्तमातृकायें आदिम कबीलों के प्रभाव  से ही अवतरित हुई हैं – सा मातेव भविष्यत्वात तेनासौ मातृकोदिता (तंत्रलोक 4:15) ये सप्तमातृकायें - ब्राम्ही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, एन्द्रानी तथा चामुण्डा कही जाती हैं। इन सप्तमातृकाओं के स्मारक बस्तर के सातगाँव (कोण्डागाँव), भगदेवा (कोण्डागाँव) तथा मातला (नारायणपुर) मे मिलते हैं। वृक्षों, नदी, नालों, टीलों, पर्वतों या किसी भी प्राकृतिक वस्तु में इनका आवास हो सकता है। इन देवियों को प्रसन्न करने के लिये बस्तर में आज भी ककसाड (देवी यात्रा) की परम्परा चल रही है (शुक्ल, 1986)।  


जब दंतेवाडा में अवस्थित माँ दंतेश्वरी तथा माँ मणिकेश्वरी की बात चल ही रही है तो कुछ बात शंखिनी और डंकिनी नदियों की पावनता और उसके मिथकीय इतिहास पर भी। डॉ. हीरालाल शुक्ल से प्राप्त संदर्भ से ही विषय आगे ले जाना चाहूंगा (चक्रकोट के छिन्दक नाग: 140) कि बैद्धग्रंथों में जिसे वज्रयोगिनी कहा गया है तथा तंत्रशास्त्र में जो वज्र या छिन्नमस्ता कही गयी है वह वज्रयान सम्प्रदाय की देवी प्रतीत होती हैं तथा उनकी प्राण प्रतिष्ठा बस्तर में उसकी सहचरियों शंखिनी तथा डंकिनी नाम से अनुमानित की जा सकती हैं। इन नामों की दो नदियाँ दंतेवाडा होते हुए आज भी प्रवाहित होती हैं। शंखिनी को योगिनी या वर्णिनी भी कहा गया है। वह रजोगुण प्रधान व मोक्षप्रदा हैं। यह छिन्नमस्ता की दाहिनी ओर योनिमुद्रा में रहती हैं। यह बडे वेग से उठती हुई रक्त की धारा अपनी स्वामिनी को पिलाती हैं। हड्डियाँ इस योगिनी के आभूषण हैं। इसके हाँथ में चमकता हुआ भयंकर खड्ग रहता है। इसका वर्ण, केश और नेत्र रक्तिम होते हैं। यह विवस्त्र रहती हैं। डंकिनी एक दिगम्बरी तांत्रिक देवी हैं। इसके केश खुके हैं। यह कृष्णवर्णा तमोगुणयुक्त हैं। यह प्रचंड हैं तथा प्रलयकालीन घोर घटाटोप की तरह इसका काला रूप है। विकराल दाँतों के कारण इनके मुख, उदरविवर तथा कण्ठ को नहीं देखा जा सकता। जिव्हा का अग्रभाग लपलपाता रहता है। इनकी दोनों आँखें बिजली की तरह चंचल हैं। ये दोनो देवियाँ बस्तर के जनजातीय गीतों में बार बार आती हैं।


यहाँ संदर्भ को विवेचना के बिना नहीं छोडा जा सकता। बस्तर में अपना मातृसत्तात्मक दिव्य आवरण है। यह एक समृद्ध क्षेत्र के शनै: शनै: पिछडते जाने को समझने की कडी भी है। रायबहादुर डॉ. हीरालाल नें अपनी किताब मध्यप्रदेश का इतिहास के दसवे अध्याय में उल्लेख किया है कि “नागवंशी काल में बस्तर में अच्छे विद्वान रहते थे। वह निरा मुरिया-माडिया पूर्ण जंगल नहीं था जैसा कि इन दिनो है। वहाँ की प्राचीन शिल्पकारी भी प्रसंशनीय है। बस्तर राज्य एसी जगह पर था जहाँ अन्य राजा जब चाहे आक्रमण कर बैठते थे, तिस पर भी नागवंशी अपने को सदैव संभालते रहे और चार-पाँच सौ वर्षों तक किसी की दाल नहीं गलने दी।“ यह पहलू तब बदला जब नाग साम्राज्य अनेकों शाखाओं और मण्डलों में विभाजित हो गया। अन्नमदेव को यहाँ आ कर एक दो नहीं कई लडाईयाँ जीतनी पडी क्योंकि नाग पंचकोशी राजा रह गये थे। प्रजा त्रस्त थी कि किसके प्रति प्रतिबद्ध रहें और किसका साथ दें उन्होंने अन्नमदेव का साथ दिया। अन्नमदेव नें स्थानीय मान्यताओं को अक्षुण्ण रखने का आश्वासन दिया था। उनकी लोकप्रियता इसी कारण बढी तथा कालांतर में वे स्वयं कई दंतकथाओं का हिस्सा बन गये। काकतीय शासन नें वारंगल में अपनी समृद्धि का एक बडा काल देखा था और उसके दुष्परिणाम भुगते थे अत: अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद यह आवश्यक था कि राज्य के दरवाजे मुसलमान आक्रांताओं के लिये बंद कर दिये जायें। इस बंद करने की प्रवृत्ति नें बस्तर को रहस्यमयी और गोपनीय बना दिया। अन्नमदेव नें धन संचय और समृद्धि बटोरने की जगह शांतिप्रिय तथा कम चर्चा में रहने वाली सत्ता का विकल्प चुना जिसे उसके बाद वाले शासको ने भी आगे बढाया। परिणाम यह हुआ कि आम जन पीछे जाते गये। आम जन जनजातियों में परिवर्तित होते चले गये तथा कुछ सौ सालों में ही हालात इतने बदतर हो गये कि जिन क्षेत्रों मे राजधानियाँ हुआ करती थी वहाँ के नागरिको पर आदिवासी होने का चोला चढ गया। वे अनोखे, विरक्त और अबूझ होते चले गये। यहाँ सत्ता और प्रजा के बीच जुडने की सबसे बडी कडी वही देवियाँ रही हैं जिन्होंने सत्ता परिवर्तन के साथ साथ अपनी मान्यताओं के परिवर्तन का दंश भी सहा है। राजा प्रजा तथा देवी का यह अंतर्सम्बन्ध स्वतंत्रता के पश्चात भी जारी रहा। राजा प्रवीर नें देवीमहात्म्य को गहराई से समझा था। वे जानते थे कि भले ही सत्ता की कडी उनसे टूट गयी है लेकिन वे देवी के माध्यम से आम जन तक अपनी पहुँच बनाये रख सकते हैं। उन्होंने स्वयं को देवी दंतेश्वरी का अनन्यतम पुजारी कहलाना अधिक पसंद किया। एक पुजारी बनने के कारण आदिवासी जनता नें अपने बीच एसा संत पाया जो ताज छिन जाने के बाद भी उनका ही है वह उनकी आस्थाओं के साथ खडा रहता है। प्रवीर की इस पुजारी भूषा नें भी उन्हें लोकतंत्र में एक स्वीकार्य नेता भी बनाया था। इतना सशक्त नेता कि 1961 में जब वे राजनीतिक शक्तिपरीक्षण करना चाहते थे तब भी उनके द्वारा दशहरा पर्व चुना गया। इस वर्ष का दशहरा बस्तर के इतिहास में दर्ज है जब इतनी भीड जगदलपुर में हो गयी थी कि सडकों पर चलने के लिये इंच मात्र भी जगह नहीं बची थी। प्रवीर की हत्या के बाद बाबा बिहारीदास प्रकरण भी आस्था नेता और प्रजा के अंतर्सम्बन्ध की ही अगली कडी था।
 

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पाटलीपुत्र के पुरावशेषों से बस्तर की तलाश!! [यात्रा वृतांत, भाग - 1]

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कुछ दिनों का अवकाश। अभी कुछ दिन पटना मे हूँ। एक छोटा सा शोध विषय ले कर आया हूँ - एक समय के समृद्ध शासकों का दौर और तत्कालीन बस्तर से उनके राजनीतिक सम्बन्ध पर हो सकता है कोई सूत्र, कोई संदर्भ या कोई एसी शिला ही मिल जाये जो मुझे देख कर कहे कि आओ मैं देती हूँ तुम्हारे सवालों के जवाब!! बस्तर पर बहुत काम हुआ है और मैं शायद ही उन संदर्भों में कुछ नया जोड सकूं लेकिन पंक्तियों के बीच पढते हुए कई सवाल कुलबुलाते रहे जिन्हें मैने अपनी डायरी में उतार लिया है। उनके जवाब तो तलाशूंगा ही और उसके लिये पाटलीपुत्र के पुरावशेषों से मिलने का कार्यक्रम है कल से - राजगीर, नालंदा, वैशाली और बोध गया तो निश्चित ही। पटना में हृषिकेश जी से भी मिलूंगा इसी दौरान..।

इस पोस्ट के साथ लगी हुई तस्वीर भागलपुर के निकट अवस्थित प्राचीन विश्वविद्यालय विक्रमशिला की है। यहाँ तक पहुँचने के मार्ग नें मायूस लिया था तथापि इस धरोहर के संरक्षण के प्रयासों से आंशिक संतोष मिला। दुर्भाग्य वश स्थानीय लोगों में इस धरोहर के प्रति बहुत ललक देखने को नहीं मिली। यहाँ अवस्थित मुख्य भवन, छात्रावास के अवशेष, कक्षायें आदि आदि के भग्नावशेषों को देख कर गर्व किया जा सकता है कि यह हमारी भारतभूमि की थाती रही है। जहाँ कभी विक्रमशिला का पुस्तकालय था वह स्थान मनोहारी है तथा आज के विश्वविद्यालयों को अभी भी शिक्षा के मायने सिखाने में सक्षम है। आम का एक वृहत बागीचा जहाँ स्थान स्थान पर अध्येताओं को बैठने, मनन-चिंतन और विमर्श करने के स्थल साथ ही संदर्भ एकत्रित रखने के भवन के अवशेष यह बताते हैं कि हमने अपनी अध्ययन परम्परा को खो कर शायद अपना ही सर्वाधिक नुकसान किया है और महज किताबी कीट हो गये हैं। हमने अपनी जडों से अपने पाँव खींच लिये हैं इस लिये ही अपनी धरोह्जरों को खंडहर कहते हैं और उनकी उपेक्षा पर ग्लानि भी महसूस नहीं करते।
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यात्रा समय जून 18 - 2जुलाई के मध्य।

यह मुलाकात एक अविस्मरणीय संस्मरण बन गयी। [यात्रा वृतांत, भाग - 2]

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सुबह सुबह रिम झिम बरसती बरखा नें एक बार कार्यक्रम पर पुनर्विचार करने की स्थिति ला दी थी। साथी अनुज जी के साथ उनकी बाईक पर ही निकल पडा। पटना शहर से लगभग सौ किलोमीटर से कुछ अधिक की दूरी पर अवस्थित हैं नालंदा के खण्डहर। पटना वुमेंस कॉलिज की बिल्डिंग से कुछ आगे निकलते दुर्घटना हो गयी। एक बाईकसवार नें गलत साईड से ओवरटेक किया और टकराने की स्थिति से बचने की कोशिश में तथा बारिश के कारण गीली सडक होने के कारण अनुज जी का संतुलन बिगडा और हम दोनो मय-सामान के सड़क पर। हल्की चोटे हैं थोडा कमर में दर्द भी है लेकिन कपडे झाड कर हम आगे बढ गये।

बिहार शरीफ पहुँने से लगभग पाँच-छ: किलोमीटर पहले ही चाय पीने के लिये छोटी सी दूकान पर रुका जिसे एक वयोवृद्ध चला रहे थे। चाय पीते पीते गंगा नदी और उसकी पवित्रता से बात शुरु हुई। थोडी ही देर में एक अन्य बुजुर्ग श्रोता भी इस चर्चा में सम्मिलित हो गये तथा अब बात राजगीर के उस इतिहास की होने लगी जिसमें से अधिकांश को आप जनश्रुतियाँ कह् कर वर्गीकृत करेंगे। एक बार लाला जगदलपुरी जी नें किसी चर्चा के दौरान कहा था कि जनश्रुतियों और मौखिक इतिहास को अनदेखा मत करना अन्यथा सत्य तक पहुँचने की किसी महत्वपूर्ण कडी को छोड दोगे। आज भी यही बात सत्य सिद्ध हुई क्योंकि गंगा से चर्चा जरासंध तक पहुँची थी चूंकि राजगीर में उनका अखाडा और खजाना होने जैसी मान्यतायें भी विद्यमान हैं। फिर पुरानी जमीनदारी व्यवस्था पर बात चल निकली कि यह इतना उर्वरा क्षेत्र है कि एक समय चार जमीन्दारों में यहाँ से वसूल लगान का पैसा बटता था। एक एक और दो दो पैसों के चलन की अर्थव्यवस्था के युग में भी यहाँ से लाख रुपये से अधिक की आमद होती थी। बहुत सी बाते हुईं और इस बीच चर्चा को विराम न लगे इस लिये मैं तीन कप चाय भी पी गया था। यह पीढी अपने अनुभवों से भरी हुई है, वे मुक्त हृदय से हमें और हमारी संततियों को अपना अब तक का अर्जित दे देना चाहते हैं। आवश्यकता बस उन्हें अपनी ही धुन में बोलने देने भर की है फिर अगर आपमें क्षमता है तो बटोर लीजिये यह अमूल्य निधि। जब “आमचो बस्तर” पर काम कर रहा था तब बहुत से सवाल एसे थे जिनके उत्तर पाने की जिज्ञासा में जिस भी चेहरे की ओर देखता अधिकांश डरकर मुँह फेर लेते थे। मुझे वहाँ भी बुजुर्ग आदिवासी पीढी ने ही सबसे अधिक सहयोग दिया था। उनकी बातों से ही मेरे उपन्यास की बहुत सी लघुकथायें बन पडी हैं।.....।

जब चलने लगा तो बुजुर्ग दूकानदार नें पैसे लेने से इनकार कर दिया। बहुत मुश्किल से उनको पैसे थमाये तो कुछ क्षण वे मेरा हाँथ थाम कर खडे ही रहे। मैंने उनके नाम नहीं पूछे और वे मेरा नाम नहीं जानते; मैं यह भी जानता हूँ कि दुबारा हमारी मुलाकात शायद ही हो लेकिन आत्मीयता के उस स्पन्दन को कभी नहीं भूल पाउंगा। बहुत कुछ पाया मैंने इन पलों में।
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बस्तर में प्रगतिशील समाज एक दृष्टिकोण

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तूम्बा बस्तर में हर किसी कंधे पर शान से विराजमान हुआ करता था। विषय में उतरने से पहले तूम्बे को केन्द्र में रख कर विमर्श करते हैं। लौकी के जो फल बुढ़ा जाते हैं उसको तोडकर उसका शीर्ष भाग काट लिया जाता है। इसके बाद सावधानी से भीतरी अंश को निकाल कर इसे खोखला बना लेते हैं। अब खोखले भाग में पानी भर कर उसे एक जगह सुरक्षित रख दिया जाता है। आठ दस दिनों में लौकी का भीतरी भाग पूरी तरह सड़ जाता है। सडे हुए अंश को बाहर निकाल कर अच्छी तरह धो कर सुखा दो और तूम्बा तैयार। यह आदिवासियों का वाटर बोटल, पेज कैरियर या सल्फी होल्डर सब कुछ है। इतना ही नहीं अंचल के कई वाद्य हैं जैसे किंदरी, तोहेली, डुमिर, रामबाजा....इन सभी में तूम्बे का घट लगा होता है। घोटुल मुरिया तो अपने कई नृत्यों में तूम्बों से भयानक मुखौटे भी बना कर प्रयोग में लाते हैं। एक भतरी कहावत भी है कि ‘तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी’। तूम्बा का फूटना एक अपशकुन है। इन भूमिका के बाद वर्तमान हालात पर एक दृष्टि – तूम्बा अब धीरे धीरे परम्परा से उठने लगा है। बहुतायत स्थलों में तूम्बे की जगह प्लास्टिक की डिस्पोजेबल बोतलों आदि नें ले ली है। एसा क्यों है कि जिस तूम्बे का उपयोग आम था, जो परम्परा का हिस्सा था, जिससे शगुन अपशगुन जैसे मिथक जुडे हुए थे वह धीरे धीरे आम उपयोग से बाहर जाता जा रहा है? क्या यह सामान्य बदलाव हैं? क्या इसी तरह एक समाज पूरी तरह बदल जायेगा और उसे मुख्यधारा हासिल होगी? केवल तूम्बे का प्रश्न नहीं है? वस्तुत: बदलाव की इतनी तेज हवा अन्यत्र नहीं देखी जा रही जो कुछ बस्तर में पिछले दस सालों में हो रहा है। इस कथन के अन्वेषण से पहले अपनी अपनी राजनीतिक सोच का चश्मा हमें परे रखना होगा। यह समस्या राजनीतिक नही है तथा इसके विमर्श और समाधान के लिये की जाने वाली राजनीति नुकसानदेय ही सिद्ध होगी। तूम्बे के प्रयोग में हो रही निरंतर कमी को जानने के प्रयास में मैंने कुछ साक्षात्कार किये थे और यह प्रतीत हुआ जैसे जड सूख रही हो। जैसे अपनी परम्परा, अपनी सोच और अपनी जीवनशैली में लगातार आ रहे बदलाबों नें कहीं जो हो रहा है उसे सहज स्वीकार कर लो की प्रवृत्ति तो नहीं प्रदान की है?

इसके उलट एक और बदलाव का उदाहरण सोचने पर बाध्य करता है। एनएमडीसी में कार्यरत एक आदिवासी साथी अशोक कुमार नाग नें हाल ही में कुछ तस्वीरें दिखायी थी जहाँ वे अपने गाँव में किसी परम्परागत उत्सव में शामिल होने गये थे। नगर के जीवन में पूरी स्वाभाविकता से रचा बसा आदिवासी साथी भी जब गाँव पहुँचता है तो वह मिट्टी के रंग में रच बस जाता है, आनंद पाता है, वहाँ के जीवन का बिलकुल वैसा ही हिस्सा हो जाता है जैसे कोई शिशु अपनी माँ की गोद में पहुँचकर सुकून और आनंद की साँस ले रहा हो।

अब एक तीसरी कहानी। इस कहानी नें मेरी सोच पर बहुत असर किया था तथा इसका उपयोग मैने अपने उपन्यास में भी किया है। मंगलू से मैं दंतेवाड़ा में मिला था। तब वह किसी सलवाजुडुम कैम्प में रह रहा था। मैने पूछा कि अपना घर-बाड़ी छोड कर क्यों भाग आये? उसने बताया कि उसके गाँव में माओवादी लोगों का हुकुम चलता है इससे उसे शिकायत नहीं थी। समस्या शुरु हुई जब उसके दो मुर्गों में से एक मुर्गा उसके ही पड़ोसी को बटाई में मिल गया। यह सामान्य प्रक्रिया है कि किसी गाँव को अपने कब्जे में लेने के बाद माओवादी वहाँ अवस्थित जन-जानवर आदि की गणना करते है फिर उपलब्ध धन-पशुधन को बराबरी के आधार पर बाँट देते हैं। रोज आधा पेट सोने वाला मंगलू पूंजीपति हो गया था क्योंकि अपने खून-पसीने से उसने दो मुर्गे सम्पत्ति बना ली थी। मंगलू इस बटाई के लिये सहमत नहीं था। उसने विरोध किया लेकिन दो चार थप्पड खाने के बाद उसे समानता का सिद्धांत समझ में आ गया। मंगलू के कुछ दिन भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए बीते। दुर्भाग्य से उसका मुर्गा मर गया। अब उसकी पीड़ा और बढ़ गयी थी। बटाई में चला गया मुर्गा वापस पाने के लिये वह पडोसी से रोज झगड़ने लगा। बात सरकार चलाने का दावा करने वालों तक भी पहुँची लेकिन मंगलू को मुर्गा वापस नहीं किया गया। मंगलू के लिये यह मुर्गा दिन की तड़प और रात का सपना बन गया था। एक दिन जब बर्दाश्त नें जवाब दे दिया तो वह उठा और अपने मुर्गे की गर्दन मरोड़ कर गाँव से भाग गया.....।“   
   
उपरोक्त तीनों उदाहरण काल्पनिक नहीं हैं तथा विषय को ठीक तरह से समझने में सहायक हो सकते हैं। पहला कि चाहे वह सरकारी प्रक्रियायें हों अथवा माओवादी पहल, आप न तो अपनी योजनाओं के प्रतिपादन में, अथवा, अपने विचार की स्वीकारोक्ति में तब तक सफल हो सकते हैं जब तक कि बात आम संवेदना से सीधे न जुडे। हो सकता है कि आपकी पहल बहुत वैज्ञानिक हो; हो सकता है कि आपके विचार अत्यधिक क्रांतिकारी हों किंतु अगर उनसे तूम्बा गुम हो जाता हो या मगलू को अपने मुर्गे की गर्दन मोड कर विस्थापित जीवन का चयन करना पडता है तो समझिये आपकी योजनायें धरी रह गयीं और आपकी क्रांति बह गयी इन्द्रावती में। रास्ता तो अशोक नाग का ही बनेगा जहाँ वह अपने लिये बेहतर जीवन की तलाश में पूरे संघर्ष के बाद सफल होते हैं, अपने बच्चों के लिये बेहतर भविष्य की नींव डालते हैं तथा जमीन की महक से भी जुडे रहते हैं। यही बदलाव की सही दिशा है और मेरी सोच किसी नारे या झंडे से बंधनें के लिये नहीं अपितु इसी दिशा की ओर इशारा करती है। नव निर्माण का श्रीगणेश और हम बस्तरिया करेंगे के जो भी आह्वाहन मेरे आलेखों में हैं वह आदिवासी साथियों के साथ इसी विमर्श और संवाद को बनाने की दिशा में हैं। मेरी निजी राय है कि आदिम समाज को आईसोलेट करने और मानवसंग्रहालय में बदलने की सोच दकियानूसी है। यद्यपि आधुनिकता से कई नकारात्मक बदलाव आते हैं; इसके अलावा माओवाद नें भी एक उपनिवेश बना कर बहुतायत गोंड बाहुल्य क्षेत्रों में जीवन का तरीका, परम्परा और संस्कृति पर प्रहार किया है। यह कोशिश मुझे किसी पौधे को जड से उखाडने के बाद नये बीज लगाने जैसी लगती है। यह बिलकुल अलग समाज का जन्म होगा जिसमें न तो बस्तरिया मिट्टी की महक होगी न पारम्परिक जीवंतता। जिसे इस कटुसत्य का अनुभव करना हो वे वीरान होते जंगलों, सिसकती देवगुडियों और मातागुडियों, बंद हो चुके घोटुलों, ले जाने वालों की राह तकते पाटदेवों के अवशेषों में उस बदलाव का आईना देख सकते हैं जो कैंसर की तरह शनै: शनै: बस्तर से बस्तरियापन खाये जा रहा है।

नक्सलबाडी से आरंभ हुआ आन्दोलन एक दिन वहीं दम तोड देता है। आन्ध्र के मुलुगु के जंगलों में पैर पसारने की कोशिश असफल होती है तो बंदूखे बस्तर का रुख कर लेती हैं। यह सबकुछ यहाँ से भी मिट जाने वाला है केवल समय की ही देरी है चूंकि यह इस धरती का स्वत: स्फूर्त आन्दोलन नहीं है, इस आन्दोलन नें इस मिट्टी के ‘सरोकारों से’ और यहाँ के ‘सरोकारों के लिये’ जन्म नहीं लिया अपितु यहाँ पाव धरने के बाद जमने और फैलने के लिये सरोकार तलाशे गये हैं। यह भूमकाल नहीं है। बस्तर में यह एक समस्या की तरह अवतरित हुआ तथा अनेक समस्याओं का जन्मदाता बन कर प्रसारित होता जा रहा है। हाँ इसका समाधान कोई जादू की छडी नहीं है लेकिन है तो बस्तरियों के पास ही। बस्तर का खून पीने वाले और भी कारक हैं जिसमें व्यवस्थागत दोषों से भी मुँह नहीं मोडा जा सकता। भ्रष्टाचार और शोषण कल भी बस्तर का सच था और आज भी है।

कुछ मोटे समाधानों पर पहले बात, नक्सलियों नें बहुत योजनाबद्ध तरीके से पटेल-माझी व्यवस्था द्वारा बस्तर के जंगल और शहर के बीच जारी संवाद को तोड दिया है। मुरिया दरबार अब केवल परम्परा रह गया है जबकि यह संवाद के पुनर्स्थापन की सबसे मजबूत कडी बन सकती है। यह समय बस्तर विश्वविद्यालय को अधिक अधिकार और स्वायत्तता देने का है जिससे न केवल आदिवासी भाषा, संस्कृति, इतिहास आदि पर शोधमूलक कार्य आरंभ हो सकें अपितु सीधे आदिवासी क्षेत्रों में संचालित महाविद्यालयों के माध्यम से रोजगार मूलक पाठ्यक्रम संचालित किये जा सकें। बस्तर में जब तक उच्च शिक्षा पर इस प्राथमिकता के साथ कार्य नहीं किया जायेगा कि यहाँ के बच्चे अंचल से बाहर निकल कर भी कार्य करने और देश की मुख्यधारा में सक्रिय योगदान देने जैसी क्षमता विकसित कर ले तब तक विकल्पहीनता की स्थिति तो बनी ही हुई है जो युवाओं को हताशा में गलत राह चुनने का अवसर प्रदान करती है। धार्मिक विश्वास को बहुत ही धैर्यपूर्वक आधुनीकीकरण से जोडा जा सकता है जो आदिवासी शिक्षित युवक बखूबी अंजाम दे सकते हैं - जहाँ हाशिये पर चले गये गुनिया, सिरहा और ओझा पारम्परिक चिकित्सा पद्यति के प्रशिक्षण के साथ असंभव क्षेत्रों की स्वास्थ्य सुविधायें बन जायें। [दुर्भाग्य वश मैं उस औषधि का नाम नहीं जानता, बचपन में मेरी पैर की हड्डी टूट जाने की अवस्था में उस अर्क से मालिश की जाती थी जिसके आश्चर्यजनक परिणाम मैने स्वयं महसूस किये हैं।] सहकारिता को आन्दोलन बनाये जाने के सख्त आवश्यकता है, अपितु दूर सुदूर क्षेत्रों में किसी समझौते के तहत नक्सली भी सहकारिता के लाभों को ग्रामीणों तक पहुँचाने में सहभागी बने तो आपत्ति नहीं होनी चाहिये। वन विभाग तथा पुलिस विभाग की कार्यशैली में बहुत खामियाँ हैं तथा इनके बेहतर प्रशिक्षण व सुधार की आवश्यकता बहुत समय से है। मुझे इन दोनों ही विभागों में स्थानीय अधिकता आवश्यक लगती है। एक और बात कि घोटुल जैसी संस्थायें पुन: जीवित की जानी चाहिये संभव हो तो आदिवासी समाज स्वयं उनमें किये जाने वाले बदलावों पर विचार करे तथापि सामाजिक समरसता और युवा पीढी के मध्य भावनात्मक और वैचारिक आदानप्रदान का यह मंच ध्वस्त नही होना चाहिये, किसी भी हाल में।

बस्तर में शिक्षित आदिवासी युवकों से ही उम्मीद बंधती है कि वे अपनी जडों की तलाश करने का यत्न करें। दुनिया के सभी जागरूक समाजों में भीतर से ही बदलाव हुए हैं। झारखण्ड के भगवान बिरसा मुण्डा के आन्दोलन के विषय में पढने के बाद मैं रोमांचित हो उठा था साथ ही यह पीदा भी हुई कि बस्तर के अनेकों नर-देवताओं तथा  बिरसा-मुण्डाओं को यह देश जानता ही नहीं। स्वयं बस्तर में आदिवासी युवा अनभिज्ञ हैं कि उनके अतीत में ही वर्तमान पर गर्व करने के हजारो कारण छिपे हुए हैं। इस धरती के पास अपने भगतसिंह और अपने गाँधी भी हैं तथा अगर उनके विशय में बस्तर की वर्तमान एवं आने वाली पीढी भी जागरूक हो जाये तो वह आन्दोलनों के वास्तविक अर्थ समझ सकेगी तथा भटकाव उनके लिये सहज रास्ता नहीं रहेगा। बहुत आवश्यक है कि आदिवासी आन्दोलन के नायकों आजमेर सिंह (1775); गेन्दसिंह (1825); दलगंजनसिंह (1842); श्यामसुन्दर जिया (1850); धुर्वाराव, व्यंकुटराव (1857); रामभोई, जुग्गाराजू, नागुलदोरा, कुन्यादोरा (1859); जुगराज कुँअर (1878); हिडमा माझी (1876); गुण्डाधुर, डेबरीधुर, हिडमापेद्दा, डोडापेद्दा, मुकुन्ददेव माछमारा, मूरतसिंह, रोडापेद्दा, सुकू पनारा, चकरू मुरिया, जोगी परजा, हरि चालकी, मड़कामी मासा, बोकड़ा बोडी, कुंडी कोसा, कुराटी सोमा (1910)  आदि पर समौचित जानकारियाँ पुस्तकों-पाठ्यपुस्तकों से माध्यम से बस्तर के आदिवासी जनमानस तक पहुँचें। यह शिक्षित बस्तरियों को ही करना होगा कि अपने गाँवों से जुडे रह कर मौखिक इतिहास और वर्तमान के सरोकार के बीच लम्बे समय से टूट गयी कडी को जोडने की कोशिश करें। यह शिक्षित आदिवासी युवकों का ही दायित्व है कि उनके बच्चे एक बेहतर भविष्य का सपना भी बुनें और मांदर की थाप पर थिरकना भी नहीं भूलें। हम दिल्ली तक अपनी बात जब पहुँचाने पहुँचे तो ठसके से मिनरल वाटर को खोल कर पानी गटकना भी जानें तथा अपनी मिटटी पर पैर धरते ही यहाँ की स्पन्दन भी शिद्दत से महसूस कर सकें और तूम्बें से गट गट गला तर करने में गर्व हमारा साथ दे। हाँ बदलाव भीतर से ही आयेगा बस्तरियों को ही जुटना होगा और निर्मित करना होगा अपना प्रगतिशील समाज।    

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भगवान पुस्तकालय के संरक्षण की दृष्टि से जिला प्रशासन को लिखा गया पत्र।

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भागलपुर स्थित भगवान पुस्तकालय स्थानीय नहीं अपितु राष्ट्रीय धरोहर है। यह पत्र पुस्तकालय की स्थिति भी स्पष्ट करता है तथा इसके संरक्षण के लिये भागलपुर जिला प्रशासन से एक अपील भी है। अपेक्षा करता हूँ कि प्रसाशन की ओर से सकारात्मक पहल होगी। एक नागरिक के तौर पर जो मेरा दायित्व था उतना कार्य करने की मेरी कोशिश है।
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जिलाधिकारी
भागलपुर जिला
बिहार

विषय: भगवान पुस्तकालय के संरक्षण के सम्बन्ध में।

महोदय,

मैं एक लेखक हूँ तथा वर्तमान में देहरादून (उत्तराखण्ड) में अवस्थित हूँ। एक शोधकार्य के लिये पिछले दिनों आपके जिले में स्थित भगवान पुस्तकालय जाना हुआ। जितनी अपेक्षा और तैयारी के साथ मैं भागलपुर के प्राचीन भगवान पुस्तकालयपहुँचा था उतनी ही मायूसी इस बुनियादी सुविधा-विहीन पुस्तकालय को देख कर हुई। यहाँ पहुँचने की अभिरुचि उस जानकारी के कारण थी कि कुछ ही महीने पहले भगवान पुस्तकालय में पाण्डुलिपि संरक्षण केन्द्र के कुछ अधिकारियों को एक अलमारी में झोले में रखी हुई कुछ दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई जिनकी संख्या छ सौ से अधिक थी। इसी दौरान प्राप्त दस्तावेजों में से एक भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की हस्तलिखित वह चिट्ठी भी है जिसमें उन्होंने भगवान पुस्तकालय की मरम्मत के लिये भागलपुर के धनाड्य लोगों से अपील की है। यह पत्र 1934 का है जब भागलपुर में आये भूकम्प के कारण पुस्तकालय को भी नुकसान हुआ था; तब राजेंद्र बाबू बिहार सेंट्रल रिलीफ कमेटी की ओर से भूकंप पीडि़तों की सेवा करने में जुट गये थे। भूकंप में भगवान पुस्तकालय के मुख्य भवन का गुंबद लटक गया था। इसकी मरम्मत के लिए तत्कालीन पुस्तकालयाध्यक्ष स्व. पंडित उग्र नारायण झा ने मुंगेर में उनसे मुलाकात कर मदद का अनुरोध किया। इस पर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नें भागलपुर के धनाढ्य परिवारों के नाम पत्र लिखकर पुस्तकालय को आर्थिक सहायता करने का अनुरोध किया था। आज लगता है कि राजेन्द्र बाबू की अपील निरर्थक रह गयी है, यहाँ तक कि उनके हाँथों के लिखे कागज हमसे संभाले नहीं संभलते? यह स्थिति तब है जब कि रजत जयंती, स्वर्ण जयंती एवं हीरक जयंती मना चुके इस गौरवशाली पुस्तकालय मे आगामी 7 दिसम्बर 2013 को इसकी स्थापना की 100 वीं जयंती मनाया जाना है।

मुख्यद्वार से पुस्तकालय तक पहुँचते हुए ही बदहाली का अंदेशा हो जाता है। भीतर प्रवेश करता हूँ तो सन्नाटा पसरा हुआ है। तलाशने पर एक कर्मचारी मिलता है जो बेचारा उमस और गर्मी का मारा बनियान चढाये पुस्तकालय के पीछे बैठा हुआ है। इस पुस्तकालय सहायक को संदर्भ बताता हूँ जिनपर सामग्री की मुझे तलाश है तो वह पहले सोचने की गंभीर मुद्रा बनाता है फिर एक मोटा सा रजिस्टर ला कर सामने रख देता है जो कि उपलब्ध पुस्तकों का कैटलॉग है। मैं कुछ किताबें चुनता हूँ तो वह तलाश कर मुझे देने की बजाय एक अलमारी की ओर उंगली दिखाता है जिसपर एक पीला साकागज चिपका है ध्यान से देखने पर ही अंदाजा होगा कि भीतर इतिहास की पुस्तकें रखी हैं। अलमारी खोलने में ताकत लगानी पडी; शायद इन्हें महीनों या सालों से खोला ही नहीं गया है? किताबों की हालात भी शर्मसार करने वाली है। यह किस किस्म का पुस्तकालय चल रहा है? आज के दौर में जहाँ पुस्कालय प्रबन्धन को विज्ञान कहा जाता है वहाँ साहित्य, इतिहास, कला हर किस्म की किताबों की एसी दुर्दशा कि देखी भी नहीं जाती?        

मेरे चिन्हित संदर्भ तो मुझे नहीं मिले किंतु मैंने एक एक कर कई किताबें टटोली और आवाक रह गया इतने पुराने और दुर्लभ संकलनों को देख कर। हालात इतने खराब है कि बहुतायत पुस्तके न तो क्रम से व्यवस्थित हैं न ही सभी की कैटलॉगिंग ही पूरी हुई है। कई टेबलों पर किताबें गट्ठर की शक्ल में रखी हुई हैं और आप नीचे दबी हुई पुस्तकें तो निकाल ही नहीं सकते। कई हजार किताबें उपर की अलमारियों में इस तरह रखी गयी हैं कि उनतक पाठकों के हाँथ तो नहीं पहुँच सकते अलबत्ता दीमक और चूहों की उनको उपलब्धता हो सकती है। कई संदर्भ पुस्तकें जिन्हें मैने उठाया उनपर दीमक नें छेद कर दिये थे। मैंनें पुस्तकालय सहायक से इस पुस्तकालय के अध्यक्ष से संपर्क करने के लिये कहा जिससे कि यहाँ उपलब्ध उन पाण्डुलिपियों को देख सकूं जिनके विषय में हालिया जानकारी प्रात हुई है। थोडी ही देर में कोई महिला अधिकारी आती हैं किंतु वे गर्दन हिलाकर इन पाण्डुलिपियों को दिखा पाने में असमर्थता जाहिर कर देती हैं। मै इन्हे देखने का निर्धारित शुल्क देने के लिये प्रस्तुत हूँ फिर इनकार क्यों? तो पता चलता है कि चाबी सेक्रेटरी साहब से मिलेगी। सेक्रेटरी साहब से संपर्क की कोशिश होती है तो पता चलता है कि वे शहर से बाहर हैं इस लिये अब दो सप्ताह के बाद ही आना होगा; अगर इन पाण्डुलिपियों में रुचि है। मुझे देहरादून लौटना था और इतना समय नहीं था, मन मसोस कर रह गया। किंतु यही अवस्था तो प्रत्येक शोधार्थी की होती होगी जो एसे महत्वपूर्ण पुस्तकालयों में बडी ही अपेक्षा के साथ पहुँचते हैं?

मुझे इन पाण्डुलिपियों को न देख पाने का अफसोस क्यों नहीं होना चाहिये? लगभग दो सौ साल का इतिहास इनके भीतर छिपा हुआ है। एक पाण्डुलिपि एसी भी है जिससे पता चलता है कि औरंगजेब की बेटी जैबुन्निशा की तालीम व तरबियत (शिक्षा-दीक्षा) भागलपुर के कुतुबखाना पीर शाह दमड़िया बाबा शाह मंजिल, खलीफ़ाबाग में हुई थी। वे 1665 ई के आसपास यहाँ रहा करती थीं। इसी स्थल से सम्बन्धित बादशाह अकबर का एक फ़रमान पत्र पुस्तकालय में उपलब्ध है जिसमे उन्होंने आदेश दिया था कि दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले बादशाह यहाँ दुआ मांगने आयेंगे। एक अन्य प्राप्त जानकारी रोचक है अंगरेजी शासनकाल में हाकिम उसी दरख्वास्त के पिछले पृष्ठ पर फ़ैसला लिखा करते थे, जो उन्हें पीड़ितों के द्वारा सौंपा जाता था; 1824, 1865, 1903 1904 ई की मिली पांडुलिपि (हस्तलिखित) से इस तथ्य की जानकारी मिली है। कई दुर्लभ ग्रंथ और कविता संकलन भी यहाँ उपलब्ध हुए है इनमें श्यामसुंदर द्वारा अवधि में लिखी गयी चतुप्रिया ग्रथांतर्गत भूल वर्णन, मथुरा प्रसाद चौबे व रामकृष्ण भट्ट की कविता मिली है। कविता की पाण्डुलिपि 150 साल पुरानी है। सच्चिदानंद सिन्हा द्वारा 1934 में लिखी गयी पुस्तकालय परिदर्शन टिप्पणी मिली है, जो अंगरेजी में लिखी गयी है। मानीदेव की रचना काशीवासी सिंहराज का युद्ध वर्णन भी मिली है। कवि रघुनाथ की लिखी वसंत ऋतु कविता भी मिली है। सौभाग्य से पांडुलिपियों का तैयार डाटा बेस पटना पहुंचा दिया गया है। कई पाण्डुलिपियाँ अच्छी हालत में नहीं बतायी जाती हैं। इनकी समुचित स्कैनिक आदि कर के आधुनिक तकनीकों के माध्यम से अध्येताओं तक पहुँचाने की व्यवस्था राज्य सरकार को करनी चाहिये।  

महोदय उपरोक्त बाते लिखने का मेरा मंतव्य भगवान पुस्तकालय के बहाने सरोकारों के प्रति हमारी उपेक्षा की ओर प्रशासन का ध्यान दिलाना मात्र है। भगवान पुस्तकालय की स्थापना 7 दिसम्बर 1913 को भागलपुर के जमींदार सह ऑनरेरी मजिस्ट्रेट पंडित भगवान प्रसाद चौबे  एवं उनके भतीजे पंडित अलोपी प्रसाद चौबे  ने संयुक्त रूप से अपनी निजी भूमि, भवन एवं संसाधनों को समाज को समर्पित कर के किया था। इस पुस्तकालय का उद्घाटन भागलपुर के तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर एच जे मेकेन्टोस ने किया था। पुस्तकालय की स्थापना का एक उद्देश्य हिन्दी के प्रचार-प्रसार के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन को गति देना भी था। भगवान पुस्तकालय से लम्बे अर्से तक पुरुषोत्तमदास टंडन, डा. रामचन्द्र शुक्ल, डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. जाकिर हुसैन, भागवत झा आजाद, डा. जगजीवन राम, डा. जगन्नाथ कौशल, डा. ए. आर. किदवई, राहुल सांकृत्यायन जैसे दिग्गज राजनेताओं और साहित्यकारों का जुड़ाव बना रहा है। वर्ष 1955 में बिहार सरकार द्वारा इसका अधिग्रहण करने के बाद इसे प्रतिवर्ष 25,000 रुपये अनुदान मिलना प्रारंभ हुआ, जो अब बढ़कर 49,740 रुपये हुआ है; सही मायनों में यह नितांत अपर्याप्त राशि है। तथापि क्या अपने गौरवशाली अतीतका संरक्षण केवल सरकार का ही दायित्व है? अगर एसा होता तो 1934 में इसी पुस्तकालय के पुनरुद्धार के लिये राजेन्द्र बाबू आम जनता से अपील नहीं करते। केवल समय बदला है किंतु उनकी वही अपील आज भी कायम है। यह पुस्तकालय भागलपुर वासियों की दृष्टि और पहल की प्रतीक्षा कर रहा है। एक पहलू यह भी देखें कि भागलपुर जिले की कुल आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 3,032,226 है। यह बिहार की कुल आबादी का 2.92 फीसदी है। मैने पुस्तकालय में वर्तमान सदस्य संख्या को जानना चाहा तो क्षोभ से भर उठा उत्तर मिला – “अब साठ लोग पुरने वाला है। मुझे कुछ पत्रकारों के माध्यम से यह ज्ञात हुआ कि सदस्य संख्या बढाने के लिये कोई अभियान ही नहीं चलाया गया है। इस तरह तो यह धरोहर आत्महत्या की ओर बढ रही है। मैं जानता हूँ कि इतना संवेदनहीन शहर तो नहीं हो सकता भागलपुर। मुझे उम्मीद है कि प्रबुद्ध प्रशासन जानकारी प्राप्त होते ही इस विषय को प्राथमिकता से संज्ञान में लेगा तथा पुस्तकालय के संरक्षण एवं प्रबन्धन के लिये आवश्यक दिशा निर्देश जारी किये जायेंगे।

महोदय, भगवान पुस्तकालय से संबंधित अपने विचारों को मैने वेब माध्यम से उठाया था तथा इस दिशा में देश-विदेश से अनेकों साहित्यकारों एवं पुस्तक प्रेमियों की प्रतिक्रियायें प्राप्त हुई हैं। वाराणसी से दैनिक जागरण में कार्यरत वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्यामबिहारी श्यामलनें लिखा है कि “भागलपुर के ऐतिहासक भगवान पुस्‍तकालय में अनेक दुर्लभ पुस्‍तकें और पांडुलिपियों का होना तो इसे महत्‍वपूर्ण बनाता ही है, इस तथ्‍य से यह और दुर्लभ हो जाता है कि‍ इसके साथ हमारी भाषा के महान साहित्‍यकारों की सम्‍बद्घता और स्‍मृतियां भी जुड़ी हुई हैं। इसके संरक्षण के लिए आगे आने वाली संस्‍था से अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह यहां की दुर्लभ पांडुलिपियों को सबसे पहले तो वीडियो वर्जन में फिल्‍मीकृत करने जैसी समुचित पहल करे और ऐसा ही भरसक प्रयास पुरानी पुस्‍तकों को लेकर भी हो। इसके साथ ही पुस्‍तकालय विज्ञान के किसी योग्‍य जानकार से संपर्क कर तमाम पुस्‍तक-संपदा के सूचीकरण और नियमित संरक्षण-कार्य के लिए परामर्श ले। यह कार्य बिहार में भी पटना के खुदा बख्‍श लाइब्रेरी या सिन्‍हा पुस्‍तकालय जैसे ठोस संस्‍थानों से संपर्क कर पूरा किया जा सकता है। इस पुस्‍तकालय के साथ हमारे प्रथम राष्‍ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का भी सीधे जुड़ाव रहा है। आवश्‍यकता केवल इस बात की है कि ढंग से पहल हो और जाहिरन यह अभियान भागलपुर की धरती से शुरू हो तो बात आगे बढ़ सकती है”।कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक तथा वरिष्ठ वामपंथी विचारक श्री जगदीश्वर चतुर्वेदीनें राज्य सरकार से इस मामले में दखल देने की उम्मीद की है। बोधि प्रकाशन से साहित्यकार तथा प्रकाशक श्री माया मृग जीनें पुस्तकालयों के संरक्षण और संग्रहण को एक कौशल बताते हुए किसी भी तरह की सहायता के लिये प्रस्तुत होने की बात कही है। जयपुर से वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती सरस्वती माथुरनें टिप्पणी की है कि जागते को जगाया जाना अधिक कठिन कार्य है; उन्होंने पुस्तकालय की दुर्दशा पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। लंदन से वरिष्ठ कथाकार एवं प्रतिष्ठित हिन्दी सम्मान “कथा यू.के के समन्वयक श्री तेजेन्द्र शर्मानें पुस्तकालय संरक्षण को महत्वपूर्ण सरोकार माना है। दिल्ली विश्वविद्यालय से संगीता कुमारी, फिल्म निर्माण क्षेत्र से जुडी पंखुडी पल्लवी, सुदूर बस्तर क्षेत्र के भोपालपट्टनम से श्री संदीप राजनें भगवान पुस्तकालय के वर्तमान हालात पर अपनी चिंता व्यक्त की है। पुस्तकालय क्षेत्र से जुडे श्री गणेश कुमार साहूनें लिखा है कि“आए दिन हमे पढ्ने और सुनने मे आता है कि पुस्तकालय मे आई टी और इससे जुड़े प्रयोगों पर देश भर मे ढेर सारे सेमिनार/अधिवेशन आयोजित किए जाते है पर क्या कभी इस देश के तथाकथित पुस्तकालय बुद्धिजीवी ने सोचा भी होगा कि असली सेमिनार/अधिवेशन तो पुस्तकालय को बचाने से शुरू होता है”शारजाह से अभिव्यक्ति-अनुभूति वेब पत्रिकाओं की सम्पादिका तथा राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती पूर्णिमा वर्मननें सुझाव दिया है कि“किसी डिग्रीधारी अनुभवी लायब्रेरियन का सहयोग लेना चाहिये। अवकाश प्राप्त लाइ्ब्रेरियन भी सहयोग कर सकते हैं”।  मुम्बई से वरिष्ठ लेखिका मधु अरोडानें सुझाव दिया है कि “यह एक बड़ा काम है क्‍योंकि सारी पुस्‍तकों को खोजना और उनका रिकॉर्ड आदि करना होगा। इसके लिये विभिन्‍न पुस्‍तकालयों की सहायता लेना होगा। पुस्‍तकालयों को पत्र लिखकर उनसे वहां के प्रशिक्षित लोग बुलवाए जायें और काम को करने के प्रयास किये जायें”। इसी संदर्भ को आगे बढाते हुए रांची से वरिष्ठ रंगकर्मी एवं आदिवासी मामलों के जाने माने लेखक श्री अश्विनी कुमार पंकजनें लिखा है कि “पुस्तकों का रखरखाव और पुस्तकालय का संचालन बहुत मुश्किल काम है। इसके लिए विशेषज्ञों की सलाह ली जानी चाहिए। मुझे संदेह है कि कोई एनजीओ ऐसे पुस्तकालय का रखरखाव दीर्घकालीन समय तक कर सकेगा। बेहतर यही होगा कि स्थानीय प्रशासन और नागरिकों को इसके लिए जिम्मेदार और जवाबदेह बनाया जाए। जो इसके रखरखाव की पूरी योजना बनाएं, उसका ब्लूप्रिंट सामने रखें तभी जो मदद करना चाहते हैं उनकी भूमिका स्पष्टतः तय हो सकेगी और यह कारगर भी होगी। पुस्तकालय का कंप्यूटीकरण और रेयर पुस्तकों का डिजिटाइजेशन भी जरूरी है और यह कार्यसूची में शामिल रहे”पुणे से कवि तथा  गीतकार श्री विश्वदीपक तनहानें पुस्तकालय की देख रेख के लिये अनुभवी लाईब्रेरियन की आवश्यकता पर जोर दिया तो रायपुर से श्रीमती नीलिमा गडकरीनें लिखा कि “पाण्डुलिपि प्रबंधन का काम बेहद गंभीर और जटिल विषय है तथा इस में किसी कुशल प्रबंधन और पुस्तकालय विशेषज्ञ का सामंजस्य होना जरुरी है. मुझे लगता है इसमें स्थानीय विश्वविद्यालय और स्थानीय प्रशासन की भी सहायता ली जा सकती है”|जयपुर से टीवी पत्रकार श्री आर्य मनुनें पुस्तकालयों की प्रत्येक शहर में हो रही दुर्दशाओं पर ध्यान दिलाते हुए भगवान पुस्तकालय के बेहतर प्रबन्धन की अपील की है। बिहार से ही फिल्म निर्माता तथा पत्रकार श्री भवेश नन्दन झानें लिखा है कि“अपने धरोहरों से लोगों का ध्यान हटता जा रहा है। कमोबेश सभी जगहों के हालात एक जैसे हैं, मधुबनी के पुस्तकालय जहाँ हम घंटों सुकून से पढ़ा करते थे आज दुर्दशा का शिकार है। इन मामलों में सरकारी तंत्र से खराब रवैया आम लोगों का होता है, जिनके लिए ये बना है”। दंतेवाडा, छत्तीसगढ से श्री चन्द्र मण्डावीनें अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है कि “देश के कई हिस्सो मे हमारी प्राचीन धरोहरें आज इसी तरह उपेक्षा का दर्द झेलते हुये विलुप्ति के कगार तक पहुच गयी हैं”। रांची से लेखक श्री रवि बाजपेयी लिखते हैं कि“अपनी धरोहरों की देखरेख हमारी जिम्मेदारी है, सरकार की नहीं| यदि लोग चाहेंगे तो स्थानीय प्रशासन व सरकार अपना काम करेगी| भागलपुर के लोगों को इस कुव्यवस्था के बारे में बताना आवश्यक है, निश्चय ही स्थानीय लोग इस पुस्तकालय के बचाव के लिए आगे आयेंगे”। वरिष्ठ कथाकार श्री बलराम अग्रवालनें पुस्तकों के प्रति संवेदनशीलता को अपने पूर्वजों के प्रति आदर की अभिव्यक्ति के साथ जोडा है। मास्को से वरिष्ठ लेखक श्री अनिल जनविजयनें इसके संरक्षण में सभी प्रकार के सहयोग की मनोभावना के साथ आगे आने की इच्छा अभिव्यक्त की है। दंतेवाडा से सामाजिक कार्यकर्ता श्री संजय महापात्रनें लिखा है कि“यह आनेवाली पीढी के साथ हमारा अन्याय है”। राँची से पत्रकार श्री पुष्य मित्रनें भगवान पुस्तकालय की स्थिति पर दु:ख जताते हुए यहाँ जारी कुप्रबन्धन की ओर ध्यान दिलाया है। उनके अनुसार सदस्य बनाने की प्रक्रिया से ले कर पुस्तकों का रख रखाव सभी कुछ चिंताजनक है। जगदलपुर से श्री हेमंत नागलिखते हैं कि स्थानीय प्रशासन को इसके संरक्षण में आगे आना चाहिये। सिलचर, असाम से श्री आकाश वर्मानें इस दिशा में कुछ शीघ्र किये जाने की अपील की है। अमेरिका से हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका “हिन्दी चेतना” की सम्पादिका श्रीमती सुधा ओम ढींगरालिखती है कि “हम विदेशी लाइब्रेरियों में हिन्दी साहित्य को जुटाने और सुरक्षित करवाने की कोशिश कर रहे हैं और भारत में यह हाल है” 

महोदय यह कुछ प्रतिक्रियायें भर हैं तथापि इससे प्रसन्नता होती है कि पुस्तकालय और इसके संरक्षण को ले कर अभी भी हमारा समाज तथा लेखक वर्ग जागरूक एवं चिंतित है। यह भी महत्वपूर्ण है कि वे धरोहरें जो आने वाली पीढी की अमानत हैं अगर वर्तमान द्वारा उपेक्षित भी की जा रही हैं तो भी उनका समुचित संरक्षण दाहित्व बनता है। जैसा कि जानकारी प्राप्त हुई है कि राज्य सरकार द्वारा पुस्तकालय को अनुदान भी प्राप्त होता है अत: आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया स्वयं संज्ञान ले कर पुस्तकालय के समुचित प्रबन्धन के लिये दिशा निर्देश प्रदान करने का कष्ट करें। भागलपुर विश्वविद्यालय में पुस्तकालय प्रबंधन का अध्ययन कराया जाता है यदि उनकी सहभागिता प्राप्त हो जाये तो वैज्ञानिक तरीके से तीन लाख से अधिक पुस्तकों का रखरखाव, कैटलॉगिंग तथा आम पाठक/शोधार्थियों तक उनका पहुँचाना संभव हो सकेगा। भागलपुर से ही एक गैर सरकारी संगठब लकी महिला एवं युवा संघ नें भी इस दिशा में कार्य करने की रुचि दिखायी है। उनका पत्र भी मैं साथ ही संलग्न कर रहा हूँ।  

महोदय, यह कार्य बडा उद्देश्य अंतर्निहित रखता है। आपके कुशल निर्देशन/मार्गदर्शन में यदि कार्य सम्पन्न हो जाये तो यह सौगात न केवल भागलपुर शहर के लिये होगी अपितु देश-विदेश के सभी हिन्दी/पुस्तक प्रेमियों के लिये भी होगी। हम सभी साहित्यकार/कलाकार/हिन्दीप्रेमी/विद्यार्थी/शोधार्थी आपकी ओर अपेक्षा भरी निगाह से देख रहे है। हमें अपेक्षा है कि आने वाले वर्ष में जब इस पुस्तकालय के स्थापना की सौंवी वर्षगाँठ मनायी जायेगी तब तक यह एक बेहतर तरीके से प्रबंधित तथा संरक्षित होगा। मुझे अपेक्षा है कि आप इस दिशा में अवश्य कारगर कदम उठायेंगे।

सादर।


भवदीय

अनुलग्नक: -  अ) भगवान पुस्तकालय में खीचे गये कुछ फोटोग्राफ्स।
आ) पुस्तकालय प्रबन्धन पर एक संक्षिप्त नोट।
ई) गैर सरकारी संस्था “लकी युवा एवं महिला संघ” का एक पत्र।

राजीव रंजन प्रसाद
221/7, मोहित नगर
देहरादून (उत्तराखण्ड) – 248006
चलभाष – 07895624088
ई-पता – rajeevnhpc102@gmail.com  


प्रतिलिपि:
1.    कुलपति महोदय, भागलपुर विश्वविद्यालय को इस अनुरोध के साथ कि पुस्तकालय विभाग तथा इसके शोधार्थियों के माध्यम के आपकी पहल द्वारा भगवान पुस्तकालय के बेहतर तथा वैज्ञानिक तरीके से प्रबन्धन की योजना तैयार की जा सकती है।

2.    संचालक – गैर सरकारी संगठन लकी युवा एवं महिला संघ, भागलपुर को इस अपेक्षा के साथ कि स्थानीय सरोकारों को स्थानीय लोग ही बेहतर तरीके से उठा सकते हैं एवं जागृति प्रसारित कर सकते हैं।


 [भगवान पुस्तकालय के मुख्यद्वार की तस्वीर]

[इन पुस्तकों तक पहुँचना असंभव है ये इसी तरह नष्ट हो सकती हैं]

[पुस्तकें तो बहुत हैं तथा दुर्लभ संकलन है किंतु समुचित कैटलॉगिंग व वैज्ञानिक तरीके से रखरखाव का अभाव दिखाई पडता है]

[प्राचीन अलमारियाँ हैं तथा उनमें से अधिक खुलती ही नहीं हैं, किताबें भरी पडी हैं लेकिन उनमें क्रमिकता का अभाव है, यहाँ फुर्सत में केवल अखबार पढने वाले पाठक ही दिखे। सदस्य संख्या को 60 से आगे बढाने के लिये भी कुछ किया जाना दिखाई नहीं पडता।]

[गैर सरकारी संस्था का इस दिशा में पहल हेतु पत्र] 

बस्तर मे जीवित पुरापाषाणकाल और कातिल विचारधारायें।

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बस्तर क्षेत्र के इतिहास की विवेचना हम बस्तर क्षेत्र के इतिहास की विवेचना हम अत्यधिक सतही प्रमाणों के आधार पर कर पाते हैं। संभवत: हमारे युग को ज्ञान की लालसा ही नहीं रही और हमारी पीढी केवल उन विषयों के अध्ययन तक सिकुडती जा रही हैं जिसके केन्द्र में पैसा बैठा हुआ है। मगध क्षेत्र के बस्तर से अंतर्सम्बन्धों पर काम करते हुए भी यही दु:खद आश्चर्य मेरे सम्मुख था कि अंग्रेजों नें नालंदा के पुरावशेषों को बाहर लाने का जितना काम कर दिया वहीं आज भी हम ठहरे हुए हैं। न तो अब तक नालंदा विश्वविद्यालय का मुख्यद्वार प्राप्त हुआ है न ही उन पुरा-पुस्तकालयों का स्थल जिन्हें खिलजी नें आग लगा कर मिटाने का यत्न किया था। यही हाल वैशाली की उस पुरा-संसद का है जहाँ राजा ‘विशालगढ का किला’ नाम से खुदाई हो रही है। वैशाली में इस स्थल पर विश्व की सबसे प्राचीन संसद विद्यमान है जब इतने सालों में हमारे इतिहासकारों नें उसके अवशेष ही बाहर लाने में कोई रुचि नहीं दिखाई तो बस्तर के अतीत पर प्रामाणिकता से कितनी बात हो सकती है कहना कठिन है। कलिंग, आन्ध्र, कोशल, विदर्भ से घिरा बस्तर (दण्डकारण्य़) का क्षेत्र अपने अतीत को जानते के लिये इन्हीं क्षेत्रों की ओर लोलुप निगाहों से देखता है क्योंकि यहाँ बडी शासन-प्रणालियों की सत्ताएं रही हैं। इसके साथ ही आपको आदिम जीवन शैली को बहुत बारीकी से परखना होगा तो भी अतीत की रेखायें विद्यमान नज़र आयेंगी। 


माडिया जीवन शैली नें पाषाण युगीन अवस्था को अब भी बचा कर रखा है। मृतक स्मृति चिन्ह आज भी एक जीवित परम्परा है। इतना ही नहीं अबूझमाड़िया मुख्यत: स्थानांतरिक खेती करते हैं तथा इनकी कृषि परम्परा को दाही कहा जाता है; यह भी एक पुरा-परम्परा है जिसका सम्बन्ध पाषाण काल से ही है। माडिया जनजाति का बस्तर क्षेत्र में बाहुल्य है तथा इस क्षेत्र में उन्हें खदेडे जाने तथा दुर्गम क्षेत्रों में समेटे जाने जैसे कथनों को अवधारणा ही कहा जायेगा क्योंकि आर्यों के आगमन से बहुत पहले से यह अबूझमाड़ माड़ियाओं की ही भूमि बनी रही है। बिना किसी विवेचना किये एक नव-पुरापाषाण कालीन दृष्य की परिकल्पना कीजिये जब कबीलों के आक्रमण तथा हिंसक पशुओं से सुरक्षा पाने के लिये आदिम समाज नें अपने आवास के इर्फगिर्द पत्थरों की बाड बना कर उसे सुरक्षित करना आरंभ किया होगा। उसने नुकीली लकडी से मिट्टी खोद कर बीज बोना और पत्थर के हँसिये से फसल काटना आरंभ किया होगा। इस दृश्य को साकार आज भी अबूझमाडिया करते हैं। वही जंगल जला कर खेती और आखेट। यह प्रकृया इतनी सहज उनके जीवन में रच बस गयी है कि इन्हें आज के विचारक समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद जैसी घुट्टी जबरन पिलाने को आतुर हैं अपितु इनसे ही बहुत कुछ सीखे जाने की आवश्यकता है। माड़िया समाज में खेती पर पूरे गाँव का अधिकार होता है यही कारण है कि जमीन सम्बन्धी विवाद उनके बीच नहीं देखे जाते। मूल आवश्यकता संरक्षण की है किंतु जनजातियों को उपेक्षित रख कर अथवा किसी विचारधारा प्रधान युद्ध में झोंक कर नहीं। आवश्यकता अनावश्यक परम्पराओं को तोडने के लिये उनको किसी बौद्धिक हथियार से कुचलने की भी नहीं है।    


इसकाल से एक अन्य अंतर्सम्बन्ध है अमूझमाड का विवस्त्र जीवन; अपितु महिलाओं का वक्षस्थलों को न ढक कर स्वाभाविक रहना भी अतीत से वर्तमान तक जुडी हुई कड़ी ही है। आश्चर्य है कि अरुन्धति राय का आलेख “वाकिंग विद द कामरेड्स” आदिवासी परम्पराओं की झूठी दास्तान प्रस्तुत करता है जिसे शहरी जिन्दाबाद-मुर्दाबाद वादी वर्ग नें बिना तर्क के हजम भी किया और आउटलुक जैसी पत्रिका नें बिना जाँच के छापा भी। अरुन्धति लिखती हैं (पृष्ठ – 75) कि “एक शाम अलाव के पास बैठी एक बूढी औरत उठी और उसने दादा लोगों के लिये एक गीत गाया। वह माड़िया आदिवासी थी जिनके बीच रिवाज था कि औरतें शादी के बाद चोलियाँ उतार दें और छातियाँ खुली रखें।....। औरतों के खिलाफ यह पहला मामला था जिसके खिलाफ पार्टी नें अभियान चलाने का फैसला किया”। यह वाक्यांश असत्य है। पहली और महत्वपूर्ण बात कि माडिया स्त्रियों में शादी के पहले हो या शादी के बाद; चोली (ब्ळाउज शब्द का प्रयोग अरुन्धति नें किया है) पहनने का चलन पुरा-काल से ही नहीं रहा है और इस रहन में उनकी स्वाभाविकता के पीछे हजारों साल का जैसे थे वाली जीवन शैली ही है। हमने समय के साथ पहला बदलाव देखा कि महिलाओं नें कमर पर पहने जाने वाले कपड़े के साथ खोंस कर लुंगी बाँध कर उससे वक्षस्थलों को ढकना आरंभ कर दिया था। अपनी बात सिद्ध करने के लिये मैं कुछ विद्वानों के उद्धरण लेना चाहूंगा। पं. केदारनाथ ठाकुर की 1908 में प्रकाशित पुस्तक इस सम्बन्ध में सबसे प्राचीन मानी जाती है उनकी नवकार प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक “बस्तर भूषण” के पृष्ठ 48 से माडिया स्त्री जीवन का उल्लेख लीजिये वे लिखते हैं “साधारण लोग रस्सी से गुहाद्वार और उपस्थ के सामने पत्ते बाँध लेते हैं। इसी प्रकार स्त्रियाँ भी बाकी सब शरीर खोले रहती हैं....चाहे राजा महाराजा आवैं इनका मामूली यही ठाठ है”। चोली इसके बाद भी जीवन शैली में उपस्थित नहीं दिखती अपितु डॉ. नारायण चौरे नारायणपुर और निकटवर्ती क्षेत्रों का अध्ययन कर अपनी किताब आदिवासियों के घोटुल (पृष्ठ -18) में लिखते हैं कि “गले में रंग बिरंगी लाल-सफेद घुंघचियों की माला, मोतियों की, काँच की, रंगीन गुरियों की, लाख या कौड़ी की, घास की बीजों की मालायें पहनती हैं। इनके स्तन खुले रहते है। इसका कारण वे अपने ही प्रेमी को अपना बना लेना चाहती हैं। घोटुल की मोटियारी के मतानुसार स्तन को वे लड़कियाँ ढकती हैं जिन्हें प्रेम करना नहीं आता, जो प्रेम को पाप समझे, प्रेम एसों के लिये गिरगिट की तरह होता है, जो उससे भूत की तरह भागे या भय खाए”। उपरोक्त उदाहरणों को यहाँ प्रस्तुत करने का मायना है कि समय के साथ साथ अब जा कर चोलियाँ माडिया स्त्री जीवन में स्वयं उपस्थित हुई और हो भी जायेंगी किंतु इस प्रक्रिया को किसी भ्रामक तर्क के आईने में देखना उचित नहीं। मेरा मानना है कि स्वत: होने वाले परिवर्तन, परम्पराओं में भी अपनी पुरातनता की खुशबू सहेज लेते हैं किंतु इस स्वाभाविकता का ‘लाल सलाम’ जबरन है और अनुचित है।


इसी आलोक में कुछ बातें बस्तर के बहुत पुराने अतीत की। प्रागैतिहासिक काल से ही यहाँ मानव रहा है। इन्द्रावती, नारंगी और कांगेर नदियों के किनारों से पुरा-पाषाण काल के मूठदार छुरे मिले हैं। उस समय का आदमी जिन उपकरणों से पशुओं की खाल या पेड़ों की छाल उतारता था, हड्डी तोड़ने, मांस काटने या चमडे में छेद करने में काम आने वाले उसके जो औजार थे, वे यहाँ मिले हैं। इसके बाद का समय यानी कि मध्य-पाषाणकाल; इन्द्रावती नदी तो खोज करने वालों के लिये खजाना हो सकती है। फ्लिट, चार्ट, जैस्पर, अगेट जैसे पत्थरों से बनाये गये तेज धार वाले हथियार इन्द्रावती नदी के किनारों पर खास कर खड़क घाट, कालीपुर, भाटेवाड़ा, देउरगाँव, गढ़चंदेला, घाटलोहंगा के पास मिले हैं। नारंगी नदी के किनारे भी गढ़बोदरा और राजपुर के आसपास ऐसे औजार और हथियार देखे जा सकते हैं। खोजने वालों को इन जगहों से कई तरह के खुरचन के यंत्र, अंडाकार मूठ वाला छुरा और छेद करने वाले औजार मिल रहे हैं। ये तो स्वाभाविक है क्योंकि उन दिनों आदमी की निर्भरता या तो शिकार पर रही होगी या कंदमूल पर। 


बस्तर और इसके आसपास के उत्तर-पाषाण युग का आदमी अच्छे किस्म के पत्थरों से कई कामों को एक साथ करने वाले उपकरण और औजार बनाने लगा। इस समय दांत वाले हड्डियों से बने हंसिये का उपयोग फसल काटने के लिये किया जाता था। विकास लगातार चलने वाली प्रक्रिया है इसीलिये इतिहास का हर अगला काल बेहतर औजारों के किये जाना गया। यानी कि उत्तर-पाषाणकाल का आदमी छोटे और प्रयोग करने में आसान हथियार बनाने लगा था; इनको लकड़ी, हड्डी या मिट्टी की मूठों में फँसा कर बाँधा जाता था। हथियार तो चर्ट, जैस्पर या क्वार्ट्ज जैसे मजबूत पत्थरों से ही बनाए जाते थे। इस समय के अवशेष इन्द्रावती नदी के किनारों पर मिलेंगे खास तौर पर चित्रकोट, गढ़चंदेला तथा लोहांगा के आसपास...। नव पाषाणकाल तक आते आते यहाँ के आदमी चित्रकार हो गये थे। कई गुफायें उपलब्ध हैं जिनकी छतों पर शिकार करने, शहद इकट्ठे करने, नाचने-गाने, जानवरों की लड़ाईयाँ, आग की पूजा, पेड़-पौधों से संबंधित बहुत से चित्र बने मिलेंगे। जैसा जीवन वे जी रहे थे उसे चित्र बना कर हमारे लिये इतिहास छोड़ गये। नड़पल्ली पहाड़ी दक्षिण बस्तर में है जहाँ लगभग चार हजार फुट की उँचाई पर एक नव-पाषाण काल की गुफा है जिसमें हिरणों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। इन्द्रावती नदी के किनारे, मटनार गाँव के पास भी इस समय के बने गुफा-चित्र मिलते हैं जिसमें जानवरों की आकृतियाँ बनायी गयी हैं। मटनार में एक चित्र ने मेरा ध्यान खींचा था जिसमें आदमी की हथेलियों से किसी अलौकिक शक्ति की पूजा का संकेत मालूम पड़ता है। फरसगाँव के पास आलोर गाँव में भी चिड़िया के चित्र बने हुए हैं। ये गुफा चित्र ही बताते हैं कि तब इन्द्रावती नदी में नाव चलायी जाने लगी होगी इतनी ही नहीं  मछली का शिकार करने के प्रमाण भी मिलते हैं।  


बस्तर और इसके आसपास नव पाषाणकाल में मानव सभ्यता का ठीक-ठाक विकास हो गया था। उस समय का आदमी खेती करने लगा था; जानवर पालना जान गया था; घर बना कर रहने लगा था; बर्तन बनाना जान गया था....।  इसी समय से आदमी जंगल जला कर, खाली हुई जमीन को नुकीली लकड़ी से खोद कर खेती करने लगा था। वह अपनी फसल बचाने के लिये झोपड़ी बना कर रहने लगा होगा। अनाज और पानी जमा करने के लिये बनाये गये मिट्टी के बर्तन के अवशेष कई जगहों पर मिले हैं। नव-पाषाण काल के पेड़ काटने के लिये बनाये गये पत्थर के औजार तो देखने लायक हैं। समय के साथ अनाज, जानवरों और औजारों के लिये कबीलों में आपसी झगड़े भी हुए। घरों और पालतू जानवरों को हिंसक जानवरों से बचाने के लिये पत्थर की बाड़ लगायी जाने लगी। उसूर, छोटे ड़ोंगर, गढ़चंदेला और गढ़धनोरा में नवपाषाणकाल के अवशेष और उपकरण देखे जा सकते हैं। गढ़चंदेला, गढ़धनोरा और वोदरा में तो उँची पहाड़ी पर नवपाषाण काल के बने आवास स्थल भी देखने को मिल जायेंगे। पाषाणयुग के बाद ताम्र और लौह युग आये। सभ्यता के इन युगों की बहुत सीमित जानकारी ही मिल पायी है। इन युगों के कुछ उपकरण दक्षिण बस्तर में मिले हैं इनमे बहुत खास है नुकीले बेल्ट वाली एक कुल्हाड़ी।


बी. डी. कृष्णास्वामि अपनी कृति “प्री हिस्टोरिक बस्तर” में उल्लेख करते हैं कि ईसा से लगभग एक सहस्त्राब्दि पूर्व महापाषाणीय शवागारों का प्रचनल था। शवों को गाड़ने के लिये बड़े शिलाखंडों का प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार के शवगारों के उस समय के अवशेष करकेली, सकनपल्ली, हांदागुडा, गोंगपाल, नेला-कांकेर तथा राये में मिल जायेंगे। उन दिनों भी शव के साथ कब्र में अन्न, जल, अस्त्र-शस्त्र और मिट्टी के बर्तन जैसी चीजें रखी जाती थी। आज भी बस्तर के माड़िया ठीक यही करते हैं; इसी तरह शवागारों के उपर स्तंभों को गाडते हैं। यह परम्परा बहुत खूबसूरती से हजारों हजार साल का सफर तय करती हुई आज तक आ पहुँची है। जैसा कि मैंने आरंभ में कहा था समय स्वयं परम्पराओं को खूबसूरत स्वरूप दे देता है तथा उनमें आधुनिकता का स्त: समावेश होने लगता है, इन्हें खण्डित करने की आवश्यकता नहीं। मृतक स्तम्भ समय के साथ नक्काशीदार खम्बों में भी परिवर्तित हुए। अस्त्र-शस्त्र, चिडिया, जानवर या आदमी की आकृतियों नें इन मृतक स्तम्भों में जगह बनाना आरंभ किया। गायता के स्मृति स्तंभ कर कपडा लपेटने की प्रथा भी प्राचीन स्वरूप में नये बदलाव का संकेत देती है। अबूझमाड एक जीवित संग्रहालय है जहाँ अब सोच की खुली ऑक्सीजन कम हो गयी है। जंगल के भीतर आन्ध्र और निकटवर्ती राज्यों से घुस आये तथाकथित क्रांतिकारियों नें बिना विचार किये जीवन शैली तहा परम्पराओं में जो बदलाव जाने की कोशिश आरंभ की है वह संवेदनहीनता है। माओवाद के नाम पर माड क्षेत्र में जारी युद्ध में मारे जाने वाले अधिकतम लोग माडिया ही हैं क्योंकि उन्हें ही अग्रिम पंक्ति में खडा किया गया है। मारे जाने के बाद उनके अंतिम कर्म तो परम्परागत हों भले ही बंदूख वालों को ईश्वर पर आस्था नहीं तथापि इतिहास पर तो होनी चाहिये? लाल रंग के जिन स्तूपों जिनका निर्माण मृतकों की स्मृतियों को जिन्दा रखने के बहाने इन दिनों देखने में आ रहा है वे प्राचीन काल में बनाये जाने वाले युद्ध स्तंभों जैसे हैं इनका आदिम परम्पराओं से कोई लेना देना नहीं है। विचारधारा अपनी जगह है, युद्ध और उसकी सच्चाईयाँ अपनी जगह है किंतु माड क्षेत्र की जीवित परम्परा को इस तरह मरते देख कर असंतोष होता है कि वह माडिया जो अपने पहचान के संकट से कभी नहीं गुजरा उसे पहचानना कठिन हो जायेगा। क्रांति माडिया स्त्रियों को हरी बुश्शर्ट पहना कर, बंदूख थमा देने से आनी होती तो कब का आ जाती। माडिया बच्चे हरे भरे जंगल के बीच गुजरी सडक से हो कर स्कूल जायें लेकिन मांदर की थाप पर उनके कदम थिरकना न भूलें तो क्रांति आयेगी। माडिया दफ्तरों तक पहुँचें, खेती के तरीकों में आधुनिकता लायें, अस्पतालों और बिलजी जैसी मूलभूत आवश्यकतायें उनके घर तक आ पहुँचे किंतु जब उसका देहावसान हो तो परिजन परम्परा के पुरातनता की खुशबू बनाये रखें और स्मृति स्तंभ उसकी यादों को चिरजीवी रखें तब आयेगी माडिया क्षेत्रों में क्रांति साथ ही वे जीवित रख पायेंगे विश्व की सबसे प्राचीनतम और सुन्दरतम परम्परायें। मुझे लगने लगा है कि इस जीवित पुरापाषाणकाल को कातिल विचारधाराओं से बचाना आवश्यक है।      

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प्राचीन बस्तर - रामायणकालीन दण्डकारण्य का इतिहास [1]

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सान्ध्य दैनिक - ट्रू सोल्जर में प्रकशित दिनांक 26.07.2012


रामायण को ले कर प्रगतिशील कहे जाने वाले समाज के अपने पूर्वाग्रह हैं तथा उसके बीच अंतर्निहित अतीत की ओर कोई शोध भरी दृष्टि से देखने का जोखिम नहीं उठाना चाहता। धार्मिक समाज भी मन की गुफाओं में प्रसन्न है; वह सदियों से स्थापित कविता की कल्पनाशीलता से बाहर नहीं आना चाहता तथा घटना के उपर आरोपित बिम्बों को पृथक करने का प्रयास नहीं करता। आज जब हम यह रटते इतराते रहते हैं कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ तो फिर प्राचीन अतीत के साहित्य को खारिज करते हुए क्या एक पूरे कालखण्ड का दर्पण तोडने का दुस्साहस हमारे ही पूर्वाग्रहों का नहीं है? वस्तुत: तर्क की आड़ में प्राचीन कविता के आलंकारिक तत्वों की पूर्णत: अव्हेलना कर के हमने मिथक और इतिहास को पृथक-पृथक करने का कार्य अब भी मनोयोग से नहीं किया है। हमें मध्यकालीन चारण-भाटों की नृप-स्तुतियों में तो इतिहास नजर आता है और अतिश्योक्तियों में भी प्रमाण तलाशने का दावा कर लिया जाता है किंतु पुरा अतीत को सम्प्रदाय विशेष की मनोभ्रांति कह कर खारिज कर देते हैं....हमारी यह वृत्ति हमें एक दिन बहुत भारी पडने वाली है। बस्तर के रामायणकाल पर बात करने से यह भूमिका इस लिये क्योंकि दण्डकारण्य क्षेत्र की उपेक्षा इतिहास अन्वेषण ही नहीं धार्मिक महत्व, दोनो ही दृष्टियों से हुई है। विचारधारा वादी इतिहासकारों का यदि बस चले तो जर्मनी या पोलैंड से किसी सोच का ताला बस्तर की पुरातनता पर जड कर निश्चिंत ही हो जायें और वापस मुगल सल्तनत पर अपने अध्ययन में व्यस्त दिखने लगें। 

धर्म के झंडाबरदारों को भी या तो अयोध्या नज़र आती है या श्रीलंका किंतु उस बस्तर अथवा दण्डकारण्य की धार्मिक महत्ता पर मौन किसलिये जब कि हनूमान भी इसी धरती नें दिये चूंकि किष्किन्धा राज्य के दण्डकारण्य में होने के प्रमाण मिलते हैं, राम के वनवास का दस वर्ष से अधिक समय यहीं के जंगलों में गुजरा है तथा उन्होंने गोदावरी नदी के पास जिस पंचवटी में वनवास काल बिताया था वह स्थान भी दण्ड़कारण्य में ही है। राम विंध्य पार कर दण्ड़कारण्य आये, उन दिनों यह क्षेत्र सभ्यता का बड़ा केंद्र भी हुआ करता था। अगस्त्य, सुतीक्ष्ण, शबरी, शम्बूक, माण्डकर्णि, शरभंग आदि ऋषि-मुनियों की यही कर्मस्थली रही है। तब शूर्पणखा, खर, दूषण, त्रिशिरा, अकम्पन, मारीच जैसे बलशाली राक्षस दण्ड़कारण्य में ही रहा करते थे और रावण की मर्यादा से बंधे हुए थे। सीता का रावण के द्वारा अपहरण भी दण्डकारण्य में ही हुआ तथा जटायु नें भी इसी पावन धरती पर प्राण त्यागे। सुग्रीव को राज्य दिला देने के बाद थोड़े समय के लिए राम जिस प्रस्त्रवण पर्वत पर रहने लगे थे वह स्थान भी दण्ड़कारण्य में ही है। 

प्राचीन समय के साहित्य से उस समाज की कल्पना करना हो तो हमें एक पूरा भूगोल गठित करना होगा जिसके साथ साथ मिथक कथा की यात्रा चल रही है। जनश्रुतियों, मुहावरों तथा लोकगीतों के पास भी ठहर कर बैठना होगा तभी किसी क्षेत्र की पुरातनता के प्रमाण दबे पाव आपकी ओर पहुँच सकते हैं। आईये वर्तमान में अतीत की कुछ आहट तलाशते हैं। दण्डकारण्य और बस्तर की साम्यता कहता बस्तर के काकतीय शासक दिक्पाल देव का एकशिलालेख दंतेवाडा से प्राप्त हुआ है जो दण्डकारण्य क्षेत्र में बस्तर राज्य होने की घोषणा करता है – 

‘दण्डकारण्य निकट वस्तर देशे राज्यं चकार। (1703 ई.) 

अपने एक लेख में मैने दण्डक जनपद के अरण्य होने की कथा प्रस्तुत की थी। इसी आलोक में बस्तर के ही प्राचीन दण्डकारण्य क्षेत्र होने का एक जीवित साक्ष्य हैं “दण्डामि माडिया आदिवासी” जो अबूझमाड के पर्वतीय क्षेत्रों से लगे मैदानों में आज भी निवास करते हैं। पहचान के साथ जुडा दण्डामि शब्द तथा मैदान क्षेत्र को आवास के लिये चुनना उनके एक समय के सांस्कृतिक परिवर्तन का हिस्सा होने को प्रमुखता से सत्यापित करता है। इसका सम्बन्ध उस काल के राजा दण्ड के शासन की स्मृतियों से प्रतीत भी होता है। इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल रतनपुर शिलालेख में उद्धरित दण्डकपुर का सम्बन्ध नारायणपुर तहसील के तन्नामक ग्राम से जोडते हैं इतना ही नहीं दण्डवन नाम से आज भी छोटे डोंगर के निकट के वन, बेडमाकोट के निकट के जंगल अथवा कोण्डागाँव के निकट के कुछ वन क्षेत्र आदिम समाज के बीच भी जाने जाते हैं। नारायणपुर के समीपस्थ क्षेत्रों में कसादण्ड, गौर दण्ड, बघनदण्ड जैसे गाँव भी मिलते हैं जिनमें उपसर्ग की तरह चिपका दण्ड शब्द प्राचीनता एवं एतिहासिकता की ओर ही इशारा करता है। 

प्राचीन ग्रंथों में दण्ड़कारण्य क्षेत्र की दक्षिणी सीमा गोदावरी और शैवल पर्वत मानी गयी है जबकि पूर्वी सीमा कलिंग तक जाती है। महानदी इसकी उत्तरी सीमा बनाती है तथा रामायण-काल में इस क्षेत्र की पश्चिमी सीमा विदर्भ जनपद से मिल जाती थी। इस तरह संपूर्ण वर्तमान बस्तर तथा आस-पास के कुछ क्षेत्र ‘प्राचीन बस्तर या दण्डकारण्य’ कहे जा सकते हैं। वाल्मीकी रामायण का अरण्य काण्ड वस्तुत: प्राचीन बस्तर अथवा दण्डकारण्य के इतिहास-भूगोल के दस्तावेजीकरण की तरह भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिये वाल्मीकि रामायण में दो मंदाकिनी नदियों का उल्लेख मिलता है। अरण्यकाण्ड में उल्लेखित मंदाकिनी नदी अयोध्याकाण्ड की उल्लेखित मंदाकिनी नदी से पूर्णत: भिन्न हैं। अरण्यकाण्ड की मंदाकिनी अत्रि, शरभंग, सुतीक्ष्ण और अगस्त्य के आश्रम से महिमामंडित दंडकारण्य़ की मंदाकिनी है; वायुपुराण में इसी मंदाकिनी का उल्लेख इन्द्रनदी के नाम से भी हुआ है जिसे वर्तमान में इन्द्रावती के नाम से जाना जाता है। 

लेखक तथा स्वतंत्रता सेनानी पंडित सुन्दरलाल त्रिपाठी नें बस्तर के भूगोल को निरूपित करने के लिये वाल्मीकी रामायण से राम के राज्याभिषेक के समय का एक प्रसंग उद्धरित किया है जहाँ मंथरा कैकेयी को याद दिलाती है कि अयोध्या से दक्षिण में दण्डकारण्य का क्षेत्र है जिसके निकट वैजयंतपुर में असुर राजा तिमिराध्वज राज करते हैं– 

दिशमास्थाय कैकेयी दक्षिणान दण्डकान प्रति। 
वैजयंतपुरमिति ख्यातं पुरं यत्र निमिध्वज:॥ 

दण्डकारण्य के भूगोल को कालांतर में भास नें अपने नाटक “प्रतिभा”, कालिदास नें “मेघदूत” तथा भवभूति नें “उत्तर रामचरित” में स्पष्ट किया है। 

रामायणकाल का वर्णन करते ग्रंथों में साल वन, पिप्लिका वन, मधुबन, केसरी वन, मतंगवन, आम्रवन आदि का वर्णन स्थान स्थान पर मिलता है यही वर्तमान बस्तर के भी प्रमुख पादप-वृक्ष-वनसमूह हैं। अरण्यकाण्ड का यह श्लोक देखें जो कि साल वनों तथा कंदमूल की दण्डकारण्य में प्रचुरता के विषय में उल्लेख है – 

समिदिभस्तियकलशै: फलमूलैश्च स्भोभितम। 
आरण्यैश्च महावृक्षै: पुष्पै: स्वादुफलैवृर्तम॥ 

दण्ड से प्रारंभ कर के राम के वनवास काल तक का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करने से यह सत्य निकल कर आता है कि आद्य एतिहासिक युग में आर्यों का प्रसार बस्तर तक हो गया था, इसका उल्लेख वाल्मीकी रामायण (अरण्यकाण्ड), अर्थशास्त्र, पद्मपुराण, रघुवंश, कामसूत्र, जातकों तथा जैन ग्रंथों आदि में भी मिलता है। बस्तर की स्थानीय परम्पराओं तथा स्थलों के नाम भगवान राम के साथ संबंध स्थापित करते हैं। इसका उदाहरण बस्तर क्षेत्र में शबरी नदी, रामगिरि पर्वत, चित्रकूट; नारायणपुर तहसील स्थित कोसलनार, राममेंटा, रामपुरम, रामारम, लखनपुरी, सीतानगर, सीतारम, रावणग्राम आदि हैं (वी डी झा, उपरिवत 1982, पृ 11-12)। अर्थात वैदिक साहित्य में उल्लेखित शव विसर्जन तथा कब्र निर्माण विषय निर्देशो का अक्षरक्ष: पालन करने वाले अबूझमाड़िया एवं दण्डामि माड़िया वैदिक आर्यों के सम्पर्क में आये थे तथापि उन्होंने अपनी मूल परम्पराओं को जीवित रखा। पं. गंगाधर सामंत नें बस्तर क्षेत्र को रावण का उद्यान कहा है। उन्होंने भी माड़ियाओं को बस्तर की प्राचीनता से निवास कर रही जनजाति निरूपित किया है। वे भी गोदावरी नदी, श्रीराम गिरि और शबदी नदी के अंतर्सम्बन्ध को राम के वनवास क्षेत्र से ही जोड कर देखते हैं। गंगाधर सावंत रावण और बस्तर क्षेत्र में उसके निरंतर आगमन को सिद्ध करने के लिये एक जनश्रुति का सहारा लेते हैं। वे कहते हैं स्थानीय लोग गिद्ध पक्षी को “रावना” कहते हैं संभवत: वे तब पुष्पक विमान से साम्यता, आकार व उसके रावण का वाहन होने के कारण एसा कहने लगे होंगे।

रामायणकालीन बस्तर निश्चित ही दो संस्कृतियों के प्रयाग का समय रहा। यह आर्यों का पुनरागमन काल था चूंकि एसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकु वंश के शासक दण्ड को शुक्राचार्य नें अपनी पुत्री से बलात्कार किये जाने से क्रोधित हो कर माडियाओं के सहयोग से वन्य क्षेत्र से खदेड दिया तथा उसके शासन प्रतीकों को आग के हवाले कर के क्षेत्र को निरा अरण्य बना दिया होगा। इसके बाद जितनी भी ज्ञात घटनायें हैं उनके कवितातत्वों को अलग करने के पश्चात ऋषि अगस्त्य के विन्ध्य पार कर के दक्षिणापथ आने तथा सर्वप्रथम यहाँ आश्रम के संचालन का उल्लेख मिलता है। आर्यों के आगमन की अगली आहट राम के कदमों के साथ ही आरंभ होती है। एक अन्य महत्वपूर्ण संदर्भ जो समझ आता है कि राम नें केवल युद्ध का मार्ग नहीं चुना अपितु संधि के मार्ग का ही अधिकतम उपयोग किया। रामायण में वर्णित तत्कालीन बस्तर की कई जनजातियों को प्रतीकों के माध्यम से श्लोको/काव्यग्रंथों में स्थान मिला है जैसे गीध (वर्तमान गदबा जनजाति से साम्यता); शबरी (शबर/ बोंडो परजा जनजाति); वानर, भालू आदि। इस संभी प्रतीकों में सहसम्बद्ध एवं वर्णित गुणों को वर्तमान की उपस्थित जनजातियों में अथवा उनके गोत्र चिन्हों की पहचान को सामने रख कर भी देखा जा सकता है। राम का युद्ध खर दूषण से हुआ; राम और रावण (दो भिन्न संस्कृतियों) के बीच एक बडे युद्ध की रूपरेखा जो दण्डकारण्य में तैयार हुई वह पूरी तरह से आर्य-द्रविड संघर्ष या इस तरह के किसी तर्क का अक्षरक्ष: सत्य आख्यान नहीं माना जा सकता चूंकि रावण से युद्ध करने वाली राम की सेना दण्डकवन और निकटवर्ती आम जनजातियों की निर्मित थी। यह उस काल के जटिल समाजशास्त्र को समझने का पहलू मात्र है कि राम शबरी के बेर ही नहीं खाते अपितु शबर जनजाति के साथ प्रेम का संबंध गठित कर लेते हैं। राम के लिये जटायु मित्र हैं और जटायु की वर्णित सभी विशेषताये बस्तर की गदबा जनजातियाँ धारण करती हैं। राम सुग्रीव का साथ ही नहीं देते अपितु वानर-भालू के प्रतीक धारण करने वाली शक्तिशाली जनजातियों से मित्रता भी हासिल कर लेते हैं। राम दण्डक प्रवास के दौरान कुछ सेनाओं से भी युद्ध करते हैं जिसके लिये आम जनजातियाँ ही उनकी सहयोगी होती हैं। डॉ. हीरालाल शुक्ल लंका को भी गोदावरी डेल्टा में ही निरूपित करते हैं।

रामायण में वर्णित वानर कौन थे यह विवाद का विषय रहा है कई विद्वान मुण्डा जनजातियों से उन्हें जोड कर देखते हैं तो कुछ विद्वानों नें छत्तीसगढ की ही उराँव जनजाति को रामायण कालीन वानर माना है। डॉ. हीरालाल शुक्ल नें अपनी पुस्तक रामायण का पुरातत्व में वानर प्रजाति के सभी गुणों का प्राचीन ग्रंथो से प्राप्त उल्लेखों के आधार पर अध्ययन किया है। उनके अनुसार ऋष्यमूक, पम्पासर तथा किष्किन्धा के ज्ञान के आधार पर कहा जा सकता है कि प्राचीन किष्किन्धा जनपद अर्थात वर्तमान कोरापुट, कालाहांडी तथा काकिनाडु जिलों में निवास करने वाली आदिम प्रजाति कंध ही प्राचीन वानर प्रजाति की उत्तराधिकारिणी कही जा सकती है। केदारनाथ ठाकुर (1908) भी इस बात का उल्लेख अपनी कृति बस्तर भूषण मे करते हुए कहते हैं कि कंध (खोंड, कोंडा) स्वयं को वानरवंशी मानते हैं। इस जाति का गोत्रप्रतीक वानर है तथा वंशो के नाम सुग्री, हनु, जाम्ब आदि हैं जो कि इन्हें रामायण में वर्णित वानर प्रजाति के बहुत निकट ले आते हैं। डॉ. हीरालाल आगे उल्लेख करते हैं कि कंध के अन्य पर्यायवाची खोंड, कोडा, कुई, कुवि तथा कुबि प्रभृति है जो इन्हें कोयतूर (गोंड) जनजाति के निकट अधिक सिद्ध करती है। प्रकृति की दृष्टि से ये बस्तर की दण्दामि माडिया प्रजाति से बहुत भिन्न नहीं हैं। इन कडियों को आपस में जोडने पर यह स्पष्ट नहीं होता कि आखिर राक्षस किसे कहा गया है? कई विद्वान गोंड जनजाति की कुछ शाखाओं में राक्षस होने की साम्यता तलाशते हैं तो कुछ के अनुसार प्राक मध्यवर्ती द्रविड जन या आन्ध्र जन प्राप्त विवरणों एवं प्राचीन ज्ञात भूगोल के अधिक निकट मिलते हैं। सातवाहनों और राक्षसों के बीच साम्यता के कई उदाहरण इतिहासकार तलाशते हैं। 

इस सभी उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि रामायण कालीन बस्तर विभिन्न मूल जनजातियों से आर्यों का संघर्ष ही नहीं संधि काल भी रहा है। मेरे एसा मानने के कुछ अन्य कारण भी हैं। बस्तर क्षेत्र में न केवल आर्य आगमन अपितु सुदूर दक्षिण के क्षेत्रों से भी आगमन एवं आक्रमण के उल्लेख मिलते हैं। रामायणकालीन वृतांतों अथवा जनश्रुतियों में जनजातियों के मध्य संघर्ष की कथा नहीं मिलती, किसी तरह के गृहयुद्ध का कोई उल्लेख नहीं है यद्यपि सिंहासन अथवा सत्ता को ले कर पारिवारिक खींचतान की अवश्य कुछ कथायें विद्यमान हैं। एसे में बस्तर और राम के सम्बन्धों को संघर्ष के साथ कम तथा सांस्कृतिक सम्मिलन के साथ अधिक देखना चाहिये। राम के बस्तर से निकल कर दक्षिण की ओर प्रस्थान करने के पश्चात के संघर्ष की भले ही व्यापक समीक्षायें की जायें। रामायणकालीन बस्तर अनेक जनजातिगत विशेषताओं से युक्त क्षेत्र रहा है तथा प्रतीत होता है कि आदिकाल से ही यह क्षेत्र संस्कृति सम्मिश्रण की मध्यरेखा ही बना रहा है। इस कडी के साथ चल कर भी प्रतीत होता है कि तत्कालीन बस्तर अपने लचीलेपन के कारण मिटने से बचा भी रहा।
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चित्र प्रस्तुति: http://www.johann-rousselot.com/ से साभार; 
यह तस्वीर दंतेवाडा के निकट खींची गयी बतायी जाती है।

हृषिकेश सुलभ जी नें दुर्लभ तस्वीरों का खजाना हममें बाँट दिया..

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हृषिकेश सुलभ जी से मुलाकात और यादें बस्तर की...।
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हृषिकेश जी को यत्र तत्र पढने का मौका मिला है तथा नाटक में रुचि हेने के कारण उनकी इस क्षेत्र में सक्रियता के समाचारों से भी परिचित होता रहा हूँ। साहित्य शिल्पी के लिये मैने एक आलेख भी हृषिकेष जी को शुभकामनायें प्रदान करने के लिये लिखा था जब 2010 में उन्हें इन्दु शर्मा कथा सम्मान प्राप्त हुआ था। इन सब के बाद भी मुझे जानकारी नहीं थी कि हृषिकेश जी का सम्बन्ध बस्तर से भी है। प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव पर लिखे मेरे आलेख पर जब उन्होंने टिप्पणी की तथा बस्तर से जुडे अपने संस्मरण बाँटे तब उनसे मिलने की प्रबल इच्छा और बलवति हो गयी। पटना आकाशवाणी केन्द्र में वे कार्यरत हैं और वहीं उनसे मुलाकात भी हुई। हृषिकेश जी जितना बडा व्यक्तित्व हैं उतने ही सरल भी हैं, उनसे मिल कर लगा ही नहीं कि यह हमारी पहली मुलाकात है। 

हृषिकेश जी 1980 के दौर में बस्तर में रहे हैं। यह दौर रेडियो का ही था। इस दौर में कार्यक्रम बालवाडी में मेरी कवितायें भी आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित होती थीं। जगदलपुर में रंगकर्म की पहचान कहे जाने वाले एम ए रहीम मेरे प्रति बहुत स्नेह रखते थे और बालवाणी से युववाणी तक के मेरे सफर में उनके साथ और मार्गदर्शन की अनेको मधुर स्मृतियाँ मेरे पास हैं, जो हृषिकेश जी के साथ बैठ कर जैसे ताजा हो गयीं। हृषिकेश जी बताते हैं कि कैसे जगदलपुर में अपनी नौकरी ज्वाईन करने के लिये वे उत्साह से निकलते हैं लेकिन जब केशकाल की सुन्दर किंतु दुर्गम घाटियों को पार करने लगते हैं तो बस्तर की एक तस्वीर उनके दिमाग में बनने लगती है। जगदलपुर उनके विचार में एक अति पिछडा गाँव प्रतीत होता है और वे नगर में उतरते ही सबसे पहले सामने दिखने वाले राजस्थान लॉज में कमरा ले लेते हैं। तभी उनकी नजर सामने एसटीडी पर पडती है और तब वे अहसास करते हैं कि जिस शहर में आकाशवाणी है वहाँ बुनियादी सुविधायें न होने का प्रश्न ही नहीं। धीरे धीरे जगदलपुर ही नहीं बस्तर नें भी उन्हें अपना बना लिया, इतना अपना कि हृषिकेश जी आज भी जब बस्तर की बात करते हैं तो उनकी आँखों में वहाँ की स्मृतियों में डूब जाने वाला रंग स्पष्ट नजर आता है। हृषिकेश जी बस्तर के गाँव गाँव घूमे तथा लोक जीवन और लोकगीतों को रिकॉर्ड किया है। उन्होंने बताया कि कई दुर्लभ रिकॉर्डिंग्स अभी भी उनके पास हैं तथा उस समय की खीची हुई तस्वीरें भी। हृषिकेश जी उन सौभाग्यशाली बस्तर प्रेमियों में से हैं जिन्हें निश्चिंतता से अबूझमाड घूमने-देखने और अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

उनके बताये दो संस्मरण मर्मस्पर्शी हैं। पहला लाला जगदलपुरी जी की सादगी से सम्बन्धित है। उन दिनों मध्यप्रदेश (तब छत्तीसगढ राज्य नहीं बना था) के मुख्यमंत्री थे अर्जुन सिंह। अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए मुख्यमंत्री नें लाला जगदलपुरी से मिलना तय किया और गाडियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड गया। लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। यह प्रसंग असाधारण है तथा दो व्यक्तित्वों के विषय में बहुत कुछ कहता है। दूसरा प्रसंग है ब्रम्हदेव शर्मा से संबंधित। जिन दिनों ब्रम्हदेव शर्मा कलेक्टर थे उन दिनों उनके फरमान से शोषित मानी गयी आदिवासी युवतियों की उनके शोषक एनएमडीसी के कर्मचारी युवको से शादी करवा दी गयी। यह किसी समस्या का समाधान कैसे हो सकता था? शायद हमारे व्यूरोक्रेट्स स्वयं को सर्वज्ञाता समझने की गफलत में रहते हैं और उसी नजरिये से आदिवासी समाज और उनकी समस्याओं को समझते व समाधान सुझाते हैं। हृषिकेश जी बताते हैं कि जब तक ब्रम्हदेव कलेक्टर थे ये शादियाँ तभी तक टिकीं उसके बाद बहुतायत आदिवासी युवतियाँ परित्यक्तायें हो गयीं। परिणाम इतने घातक हुए कि कुछ युवतियाँ गंगामुण्डा में वेश्यावृत्ति करने के लिये बाध्य हो गयीं थीं। 

हृषिकेश जी नें अपनी स्मृतियों से बहुत पुराने दिन ताजा किये। उन्होंने गायक लोककलाकार याद किये, गाँवों में बिताये दिन याद किये, बस्तर में बनायी जाती तरह तरह की शराब और उसके तरीके याद किये, वहाँ की मस्ती, सादगी, अपनत्व.....बहुत कुछ हमारी घंटे भर की मिलाकार में बाहर आता रहा। उन्होंने आज के हालात के लिये गहरा दु:ख जाहिर किया और बस्तर का जो दुष्प्रचार किया जा रहा है एवं जिस तरह की तस्वीर देश दुनिया के सामने रखी जा रही है उसके प्रति असहमति भी जतायी। हृषिकेश जी नें बस्तर में बिताये अपने दिनों के दौरान 1910 के एक क्रांतिकारी लाल कालेन्द्र सिंह पर केन्द्रित एक नाटक भी लिखा था जिसकी प्रति अब उनके पास नहीं है। मृच्छकटिकम् की पुनर्रचना “माटीगाड़ी” और फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास का नाट्यांतर मैला आँचल लिखने वाले रचनाकार से बस्तर की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं के नाट्यरूपांतरण का अनुरोध तो कर ही सकता हूँ। हृषिकेश जी ने मुझे लाल कालेन्द्र पर आलेख पूरा करने के लिये प्रोत्साहित किया है और जल्दी ही मैं यह कार्य पूरा भी करूंगा। हृषिकेश जी एक और अनुरोध कि जो तस्वीरें आपके पास हैं तथा वे बस्तरिया महकते जिन्दा गीत भी जिनकी रिकॉर्डिंग आपके पास हैं उन्हें कृपया हम सब के साथ भी बाँट दीजिये। आपकी निगाह से देखें लोग - तीन दशक पहले का जिन्दा और सांस लेता बस्तर। 
[यह आलेख पटना से हृषिकेश जी से मिलाकात के पश्चात] 
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हृषिकेश जी नें अपना वायदा निभाते हुए 1980-81 के दौर के बस्तर की कुछ जीवंत तस्वीरें साझा की हैं। ये तस्वीरें इतिहास का हिस्सा तो बन ही गयी हैं साथ ही यह समझने में भी सहायक हैं कि लाल-हिंसा के वर्तमान दौर नें इस अंचल से क्या क्या छीन लिया है।  

चित्र-1 - बस्तर की एक आदिवासी युवती।


चित्र - 2 काकसाड़ नाच की तैयारी


चित्र -3 बस्तरिया युगल [चेलक और मोटियारी]


चित्र-4 बालों में पड़िया 


चित्र-5 हाट में पिया को निहारती आँखें


चित्र-6 सोड़ी औरत


चित्र-7 सियाड़ी की लता से रस्सी बनाते हाँथ


चित्र-8 बस्तरिया युवक


चित्र - 9 दोनी और पत्तल बनाती युवती


चित्र-10 हाट जाने की तैयारी


चित्र-11 अचरज भरी आँखें


चित्र-12 जंगल में साथ साथ जीवन 


चित्र-13 तीरथगढ जलप्रपात 


चित्र-14 चित्रकोट जलप्रपात 


चित्र-15 कोटुम्सर की गुफा


चित्र-16 मार्डिन नदी का पथरीला पाट 


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बस्तर के भौगोलिक परिवेश पर विमर्श - रामायण काल से वर्तमान तक

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सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में दिनांक 3.08.2012 को प्रकाशित

मैं इन्द्रवती नदी के बूँद-बूँद को, अपने दृगजल की भाँति जानता आया हूँ। 
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प्राचीन बस्तर अथवा दण्डकारण्य के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की आवश्यकता है। कितना जटिल था वह समाज अथवा कितना उनमुक्त? कितना बटा हुआ था अथवा कितना मिलनसार? यह समाज जिस भौगोलिक दायरे में बंधा हुआ था वह मायने रखता है। यदि हम वर्तमान की जनजातियों और उसकी प्राचीन बस्तर से किसी तरह की साम्यता देखने वाली अंतर्दृष्टि चाहते हैं तो प्राचीन पुस्तकें दिशा निर्देश देती हैं। वाल्मीकी  रामायण, महाभारत, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, वामन पुराण, पद्म पुराण, मारकण्डेय पुराण, कालिदास रचित रघुवंश, भवभूति रचित उत्तर रामचरित, कथा सरितसागर आदि ग्रंथों में प्राप्त विवरणों के आधार पर प्राचीन बस्तर के भूगोल पर एक दृष्टि डाली जा सकती है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि पुरातनता में भारत भूमि के दो मोटे विभाजन उत्तरापथ तथा दक्षिणापथ के रूप में किये जा सकते थे तथा लम्बे समय तक इस स्पष्ट विभाजन की सीमा रेखा विन्ध्य पर्वत ही बना रहा है। रामायण काल से प्रारंभ हो कर लगभग तेरहवी शताब्दी तक दण्डकारण्य क्षेत्र की सीमा के अंतर्गत प्राचीन बस्तर राज्य, जयपुर जमीन्दारी, गोदावरी के उत्तर का कुछ क्षेत्र तथा चाँदा जमीन्दारी का क्षेत्र सम्मिलित था। यह भी उल्लेखनीय है कि दण्डकारण्य की स्वतंत्र पहचान रही है एवं इसकी उपस्थिति को कलिंगारण्य के समानांतर माना गया था। 

बस्तर क्षेत्र (दण्डकारण्य) का भौगोलिक अध्ययन सर्वप्रथम भवभूति नें किया था। रियासतकालीन बस्तर तथा उसके भूगोल का स-विस्तार वर्णन पं. केदारनाथ ठाकुर नें अपनी पुस्तक “बस्तर भूषण” (1908) में किया है। महाराजा प्रवीरचन्द्र नें अपनी पुस्तक “आई प्रवीर दि आदिवासी गॉड” (1966) में तत्कालीन बस्तर रियासत के भूगोल की बानगी प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि “प्रमुखत: यह कहा जा सकता है कि यह रियासती भूखण्ड उत्तरी सीमा से शनै:-शनै: ढलवा होता जाता है और दक्षिण सीमा गोदावरी तक निरंतर नीचा होता गया है”।  

लाला जगदलपुरी नें अपनी पुस्तक “बस्तर इतिहास एवं संस्कृति” में बस्तर क्षेत्र को चार प्राकृतिक विभागों में बाँटा है – 
अ) उत्तर की निचली भूमि जो छत्तीसगढ के मैदान का सिलसिला है। 
ब) उत्तरपूर्वी पठार – यह केशकाल की तेलिन घाटी से आरंभ हो कर जगदलपुर के दक्षिण में तुलसी डोंगरी तक गया है। 
स) अबूझमाड़ का क्षेत्र 
द) दंतेवाडा घाटी जिसके पूर्व में विशाल पठार उत्तर में अबूझमाड तथा पश्चिम में बैलाडिला की पहाडियाँ हैं। 

प्रो. जे. आर वर्ल्यानी तथा प्रो. व्ही डी साहसी नें अपनी पुस्तक “बस्तर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास” में इस वर्गीकरण को अधिक सरल करते हुए प्राकृतिक दृष्टि से बस्तर को छ: भागों में बाँटा है - 
अ) उत्तर का निम्न या मैदानी भाग – इसका विस्तार उत्तर बस्तर, परलकोट, प्रतापपुर, कोयलीबेड़ा, और अंतागढ़ तक है। 
ब) केशकाल की घाटी – यह घाटी तेलिन सती घाटी से प्रारंभ हो कर जगदलपुर के दक्षिण में स्थित तुलसी डोंगरी तक लगभग 160 वर्गमील क्षेत्र में विस्तृत है। 
स) अबूझमाड़ – यह क्षेत्र बस्तर के मध्य में स्थित है। इसके उत्तरपूर्व में रावघाट पहाडी घोडे की नाल की तरह फैली है। यहाँ कच्चे लोहे के विशाल भंडार हैं। 
द) उत्तरपूर्वी पठार- यह पठार कोंडागाँव और जगदलपुर में फैला है। पठार का ढाल तीव्र है। 
ई) दक्षिण का पहाडी क्षेत्र – इसके अंतर्गत दंतेवाडा, बीजापुर व कोंटा के उत्तरी क्षेत्र आते हैं। 
फ) दक्षिणी निम्न भूमि – इसके अंतर्गत कोंटा क्षेत्र का संपूर्ण भाग तथा बीजापुर क्षेत्र का दक्षिणी भाग आता है। 

भूगोल एक लम्बे कालखण्ड तक अपरिवर्तनशील रहता है जब तक कि बडे भू-वैज्ञानिक बदलाव न हों। अत: बस्तर क्षेत्र के वर्तमान भूगोल को ही प्राचीन पुस्तकों में शब्दश: चित्रित पाया जा सकता है कि यहाँ की मनोरम हरित वसना धरती पहाड़ों, पठारों और मैदानों में विभाजित है। दंतेवाड़ा की तराइयों, बीजापुर की उँचाईयों और केशकाल घाटी की खाईयों ने बस्तर को विविधता, विचित्रता और उन्मुक्तता दी है तो रहस्य और रोमांच भी। यहाँ खुले मैदान और सघन वन; उर्वरा खेत और बंजर पथरीली भूमि; नदियाँ, झरने, ताल-तलाब तो सूखे फटे पानी पानी चीखते टीले-टपरे; बेहिसाब गर्मी से बिबाईयाँ होते मैदान तो महीनों तक जम कर बरसने वाली बरसातें जसी स्पष्ट विविधतायें विद्यमान हैं। 

इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल नें पुरा-भूगोल पर अपनी पैनी दृष्टि डाली है तथा उन्होंने बस्तर की अनेक पर्वत श्रंखलाओं का सम्बन्ध प्राचीन ग्रंथों में प्राप्त विवरणों के आधार पर बस्तर क्षेत्र से स्थापित किया है। उनके विवरणों का ही संक्षेपीकरण अन्य विद्वानों के विचारों की सहमतियों से मिलाते हुए प्रस्तुत कर रहा हूँ। पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी, पं केदारनाथ ठाकुर, महाराजा प्रवीर, लाला जगदलपुरी, प्रो. वर्लयानी, प्रो. साहसी तथा डॉ. हीरालाल शुक्ल के विवरणों को जोड कर यह तस्वीर मिलती है कि प्राचीन बस्तर की उत्तरपूर्वी सीमा है शुक्तिमान/शुक्तिमत पर्वत [कनिंघम; आर्कियोलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट, XIII, 24-26]। शुक्तिमान पर्वत वस्तुत: बस्तर को शेष छतीसगढ से पृथक करने वाली सिहावा तथा कांकेर के दक्षिण में स्थित पहाडियाँ हैं। शुक्तिमत पर्वत दण्डकारण्य की उत्तरपूर्वी सीमा है जो पूर्व में ओडोशा में अवस्थित महेन्द्र पर्वत से मिल जाती है। आधुनिक बस्तर की मातला दोंगरी, रावघाट, तेलिनघाटी तथा सिहावा पहाड़ की शाखाओं को प्राचीन शुक्तिमान पर्वत माना जा सकता है जो उत्तर बस्तर को घेरे हुए हैं। इस शाखा की प्रमुख प्रशाखा परलकोट, परलकोट-परतापपुर-कोईलीबेडा-अंतागढ-कांकेर-सिहावा तक फैली हुई है। रामायण में उत्तरवर्ती पर्वत श्रंखलाओं के अंतर्गत चित्रकोट एवं अयोमुख पर्वतों का उल्लेख मिलता है। इन्हें वर्तमान के साथ निम्न तरह से समझा जा सकता है – अ) चित्रकूट पर्वत: - रामायण के अयोध्याकाण्ड के अनुसार चित्रकोट में मंदाकिनी (इन्द्रावती) तथा मालिनी (नारंगी) नामक दो नदियाँ थी। वाल्मीकी रामायण में चित्रकोत को शालवनों से घिरा हुआ माना गया है। ब) अयोमुख पर्वत:- इस पर्वत की ओर सीतांवेषण के लिये सुग्रीव नें अंगद को भेजा था। संस्कृत में अयस का अर्थ है लोहा तथा अयोमुख एसा पर्वत प्रतीत होता है जिसके मुख में लोहा हो। गोंडी में मेटा का अर्थ पर्वत है तथा लोहे के लिये कच्च या कच्चा प्रयोग में आता है। इस आधार पर पश्चिमोत्तर बस्तर में (रावघाट तथा अबूझमाड से संलग्न क्षेत्रों में) कई पहाडियाँ कच्चामेटा के नाम से जानी गयी हैं। 

मध्यवर्ती पर्वत श्रंखलाओं के लिये विशेष रूप से प्रस्त्रवण पर्वतका उल्लेख मिलता है। प्रस्त्रवण को आधुनिक बस्तर से आन्ध्र के खम्माम तक विस्तृत माना जा सकता है। बस्तर की बैलाडिला पर्वत श्रंखला, विनता, टिकनपल्ली, अरनपुर, गोलापल्ली, किलेपल्ली, गोगोण्डा तथा उसूर की पहाडियों के लिये प्रस्त्रवण प्रयुक्त होता है।  

बस्तर क्षेत्र की पूर्ववर्ती पर्वत श्रंखलाओं का सीधा सम्बन्ध महेन्द्र पर्वतसे स्थापित होता है। महेन्द्र पर्वत वर्तमान ओडिशा में महानदी के दक्षिण में गंजाम जिले व उसके पार्श्व में व्याप्त है। समुद्र तल से इसकी उँचाई 5000 फीट है। बस्तर से महेन्द्र पर्वत का सम्बन्ध जोडने वाली श्रंखलायें हैं –अ) माल्यवान पर्वत: - माल्यवान को प्रस्त्रवण पर्वत के एक शिखर के रूप में निरूपित किया गया है। बस्तर में तुलसी डोंगरी पहाडी माल्यवान कही जा सकती है।ब) क्रौंचगिरि:- यह पहाडी कोरापुट जिले में अवस्थित है तथा शबरी नदी इससे लग कर प्रवाहित होती है। रामायण के अरण्य़ काण्ड में उल्लेख “क्रौंचारण्यमतिक्रम्य मतंगस्याश्रमंतरे” के अनुरूप यहीं पर मतंग मुनि का आश्रम होना माना जा सकता है। स) ऋष्यमूक पर्वत:- रामायण में उल्लेखित विवरणों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किन्धा राज्य के बीच बहुत दूरी नहीं थी एवं मलय पर्वत भी निकट ही था। इस आधार पर इसकी उपस्थिति शबरी नदी के निकट ओडिशा में ही सिद्ध होती है। इसी क्षेत्र में बाली-सुग्रीव नाम के एक पर्वत की उपस्थिति है जिससे लग कर गोदावरी के तट पर उत्तर की ओर किष्किन्धा पर्वत है। यही ऋष्यमूक पर्वत है जिसका विस्तार कालाहाण्डी से कोरापुट तक व्याप्त है। 

दक्षिणवर्ती पर्वत श्रंखलाओं की बस्तर में स्थिति को जानने के लिये मलय पर्वतके विस्तार को समझना आवश्यक है। मलय पर्वत वर्तमान पूर्वीघाट पर्वत श्रंखलाओं के लिये प्रयोग में आता है। लगभग 2000 फीट की उँचाई वाली पर्वत श्रंखलायें समुद्रतट से समानांत स्थित हैं। मलय पर्वत श्रंखला के अंतर्गत ही दक्षिण बस्तर व उससे जुडी आन्ध्रप्रदेश की पहाडियाँ आती हैं। सुकमा की गोलापल्ली (दक्षिण पश्चिम में कोण्टा तक विस्तार), उसूर (कोटपल्ली से भोपालपट्टनम), बरहा डोंगरी (दंतेवाडा तथा बीजापुर के मार्ग में) जिसकी एक शाखा दक्षिणोन्मुख हो कर चिंतलनार, फोतकेल तथा कोण्टा को घेरे हुए है मलय पर्वत की उप-शाखायें हैं। इसकी एक अन्य उप-शाखा बीजापुर से होती हुई उसूर की पहाडियों से मिल कर भोपालपट्टनम की ओर चली गयी हैं। प्राचीन बस्तर के इतिहास में इसी श्रंखला के रामगिरि पर्वत का अत्यधिक वर्णन प्राप्त होता है। आन्ध्रप्रदेश के खम्माम जिले के अंतर्गत भद्राचलम तालुका में रामगिरि पर्वत की अवस्थिति मानी जा सकती है जिसका वर्णन कालिदास नें भी मेघदूत में विभिन्न आयामों से किया है। 

पश्चिमी घाट से जुडे पर्वतों को पुराणों में सह्य पर्वत माना गया है। गोदावरी नदी को सह्यपर्वत से ही निकला बताया गया है। इस अतिविस्तृत पर्वत श्रंखला की एक उपशाखा कुञवान पर्वतकी पहचान बस्तर क्षेत्र में होती है। कुञवान पर्वत पर कबन्ध नामक राक्षस का निवास बताया जाता है। प्राचीन काव्यकृतियों में इसे इन्द्रावती तथा गोदावरी के मध्य का क्षेत्र बताया गया है इस आधार पर अबूझमाड ही कुञवान प्रतीत होता है। अबूझमाड विविध पहाडियों के समूह के रूप में परलकोट/कुटरू से प्रारंभ हो कर नारायणपुर तथा छोटे डोंगर तक फैला हुआ है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र प्राकृतिक अवरोधों से घिरा हुआ है। अबूझमाड क्षेत्र में ही राकसमेटा (राक्षस पर्वत) नाम की कई पहाडियाँ हैं। एक छोटी पहाडी राक्षस पडेका (राक्षस हड्डी) कही जाती है जिसके पीछे मान्यता है कि यह अस्थियों के ढेर लगने के कारण निर्मित हुई हैं। एक रोचक पहाडी कोईलीबेडा के जीमरतराई गाँव के निकट है जिसके पत्थर अस्थियों जैसे गुणधर्म रखते हैं। इन्हें जलाने पर हड्डियों जैसी गंध आती है।  

वर्णित प्रकार की पर्वत श्रंखलायें बस्तर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति और भैगिलिक विविधता के लिये ही नहीं विशिष्ठ जैव-विविधताओं के लिये भी जानी जाती हैं। प्रत्येक प्राकृतिक विभाग प्राचीन काल से मानव विकास के आयामों को अपनी परिधियों के भीतर गढता रहा तथा हर परिधि नें अपने आँचल में अनन्य प्रकार की जनजातियों को संरक्षण दिया है। नदियों के विस्तार को समख कर ही उसके कारण बने भैगोलिक क्षेत्रों और उत्पन्न हुई विविधताओं को समझा जा सकता है। विश्वेसर पाण्डेय के ग्रंथमन्दार मंजरी (वाराणसी, 1955) में वर्गीकरण मिलता है कि रामायण और परवत्री साहित्य के आधार पर दण्डकारण्य क्षेत्र प्राचीन काल से ही दो प्राकृतिक भागों में बँटा था तथा इन्द्रावती नदी इसको विभाजित करने का कार्य करती थी। इस आधार पर उत्तरी भाग को शुक्तिमत क्षेत्र तथा दक्षिणी भाग को सप्तगोदावरी क्षेत्र या गौतमी प्रदेश कहा गया है। बस्तर क्षेत्र की नदी-प्रणालियाँ दो वृहत सरिताओं का जलागम क्षेत्र निर्मित करती हैं। ये नदियाँ हैं महानदी तथा गोदावरी। 

महानदी ओडिशा की सबसे विशाल नदी है जो प्राचीन बस्तर के सिहावा की पहाडियों से निकलती है। यह सिहावा से प्रवाहित हो कर कांकेर जिले की ओर बढती है तत्पश्चात बिलासपुर तथा रायगढ होते हुए सम्बलपुर (ओडिशा) में प्रवेश करती है। यहाँ से दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रवाहित होती हुई महानदी कटक शहर से गुजर कर बंगाल की खाडी में विसर्जित होती है। बस्तर के उत्तर पूर्व में केशकाल के निकट तेलिनघाटी की पहाडियों से उत्तर की ओर प्रवाहित होने वाली कुछ नदियाँ महानदी सरितप्रणाली के अंततर्गत आती हैं एवं उसके जलागमक्षेत्र का हिस्सा हैं। इनमें सेन्दर, चिनार, दूध, हतकुल, दूरी, तेन्दुला (इसपर तेन्दुला बांध भी बना हुआ है), कांकेर तथा तेलनदी प्रमुख हैं। 

गोदावरी नदीका जलागम बस्तर की धरती का बहुत वृहत क्षेत्र है। बस्तर तथा आन्ध्रप्रदेश से गुजरते हुए गोदावरी के प्रवाह में दस सहायक नदियाँ बायीं ओर से तथा ग्यारह दाहिनी ओर से मिलती हैं। पूर्णा, कदम, प्राणहिता तथा इन्द्रावाती बायीं ओरकी महत्वपूर्न नदियाँ हैं जबकि दायीं ओर की नदियों में मंजरी, सिन्दकना, मनेर और किनरसिनी हैं। प्राचीनकाल में (1320 तक) गोदावरी बस्तर की दक्षिणपूर्वी सीमा बनाने का कार्य करती थी। अब बस्तर के अनेक क्षेत्रों के महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश व ओडिशा में चले जाने के कारण गोदावरी अब बस्तर के मात्र दस मील क्षेत्र में ही प्रवाहमान है व भद्रकाली के निकट बस्तर की सीमा बनाती है। बस्तर स्थित गोदावरी की सहायक नदियों में इन्द्रावती, शबरी, तालपियर, गुब्बेक, उसूर प्रमुख हैं। 

इन्द्रावती और उसकी सहायक नदियो पर चर्चाइस लिये भी आवश्यक है कि यही बस्तर की प्रमुख नदी प्रणाली है जो संभाग के मध्यभाग से प्रवाहित होती है। रामायण में वर्णित मंदाकिनी नदी वर्तमान इन्द्रावती ही है। यह बस्तर क्षेत्र की 240 मील की यात्रा कर इसे दो भागों में विभक्त कर देती है। इन्द्रावती ओडिशा प्रांत के कालाहांडी के पास रामपुर घुमल नामक स्थान से उत्पन्न होती है जहाँ से तीस मील तक दक्षिण-पश्चिमोन्मुख होती हुई कालाहाण्डी व कोरापुट जिले की परिधियों से होते हुए बस्तर की सीमा में प्रवेश करती है। इन्द्रावती नदी ही जगदलपुर के निकट चित्रकोट जलप्रपात का निर्माण करती है। चित्रकोट के निकट ही नारंगी नदी इन्द्रावती से मिलती है तथा लगभग दस मील और आगे चलने पर भँवरडिंग नदी आ कर मिल जाती है। यहाँ से आगे बढते ही इन्द्रावती नदी अबूझमाड की दक्षिणी सीमा बन जाती है तथा भोपालपट्टनम के निकट आ कर गोदावरी से मिल जाती है। इन्द्रावती नदी के किनारे जगदलपुर, चित्रकोट, बारसूर तथा तिम्मेड़ एतिहासिक स्थान हैं। इन्द्रावती नदी की अनेको सहायक नदियाँ हैं जिनमें कांकेर, काकडीघाट, केंदा, कोतरी, कोमरा, कोयर, खण्डी, गुडरा, गोंईन्देर, चारगाँव, चिंतावागु, डंकिनी, दंतेवाडा, दहकोंगा, दुर्ग, नारंगी, बेरुडी, गुरियाबहार, बोरोदा, भँवरडिंग, माड़िन, माडी, मातलाघाट, मान्देर, माकडी, रायकेरा, रावघाट, वड़ी, वालेर, संकिनी, ताडुकी, तथा सिंगार बहार।  

शबरी नदीकोरापुट की सिंगारम नामक पहाडी से निकलती है तथा सर्पिल गति से उत्तरपश्चिम में प्रवाहित हो कर कोरापुट के दक्षिण में पाँच मील की दूरी पर आगे बढ जाती है एवं प्राचीन जयपोर राज्य की सीमा में प्रवेश करती है। यहाँ से दक्षिणोन्मुख हो कर यह कोरापुट व बस्तर की सीमा का निर्धारण करती है। पुन: पश्चिम की ओर मुड कर तुलसीडोंगरी से होते हुए शबरी नदी बस्तर में बहने लगती है। सुकमा में कुछ दूर बहने के पश्चात शबरी सुकमा तथा मालकागिरि एवं कोण्टा तथा मालकागिरि के बीच की सीमारेखा बनती हुई प्रवाहित होती है। आगे यह भद्राचलम होते हुए गोदावरी नदी में समाहित हो कर अपनी यात्रा समाप्त करती है। शबरी नदी दोर्ला क्षेत्र की पूर्वी सीमा निर्धारण का कार्य भी करती है। इसके प्रांत भाग में दर्जनों दोर्ला बस्तियाँ हैं; पथा पेंटा, आरगट्टा, मनीकोंटा, बिरला, एर्राबोर, मूलाकिसोली, जगारम, मेट्टागुडा, नँजमगुडा, आसिरगुडा, इंजरम आदि। दक्षिण में शबरी नदी के तटवर्ती क्षेत्र कोण्टा तक दोर्ला जनजाति मिलती है व ढोंढरा इनका सबसे बडा गाँव है। शबरी की प्रमुख सहायिकाओं में पोट्टेरु नदी मलकांगिरि (कोरापुट) में बालीमेरा के पास शबरी से मिलती है; कांगेर नदी टाँगरी डोंगरी से निकल कर अपने उत्तरपूर्व में शबरी से मिलती है जहाँ से यह नदी मालकांगिरि में प्रवेश कर पुन: बस्तर की ओर लौटती है। मालेंगर नदी बैलाडिला की दक्षिणी श्रेणियों से निकल कर सुकमा और दुब्बाटोटा के बीच शबरी से मिलती है। तीरथगढ के निकट मालेंगर नदी 150 फुट की ऊँचाई से गिर कर तन्नामक प्रपात बनाती है। सिलेरू नदी कोण्टा के नीचे शबरी से आ मिलती है। शबरी नदी के तत पर गुप्तेशवर, तिलवर्ती, सुकमा, मिस्सा, ढोंढरा व कोण्टा आदि एतिहासिक गाँव हैं। 

कालिदास के रघुवंश तथा भवभूति के उत्तररामचरित में मुरला नदी का उल्लेख मिलता है जिसको महर्षि अगस्त्य के आश्रम के निकट से हो कर बहना बताया जाता है। इस आधार को बस्तर की तीसरी प्रमुख नदी तालपेरु या तालपियरके साथ जोड कर देखा जाता है। अपने ग्रंथ बस्तर भूषण (1908) में वर्णन करते हुए पं केदारनाथ ठाकुर लिखते हैं कि तालपियर बैलाडिला पहाड की नंदराज गुहा से निकली है; यह नदी बीजापुर, फोतकेल, कोतापाल होती हुई गोदावरी में समाहित हो जाती है। इसके अलावा टिकनपल्ली-गोलापल्ली की पहाडियों से निकलने वाली गुब्बेल नदीकोतापल्ली के नीचे गोदावरी नदी से मिलती है। यह बस्तर के दक्षिणी निम्नभूमि के पश्चिमी भाग को सींचती है। उसूर से निकलने वाली उसूर नदीवारंगल तथा बस्तर की सीमा पर गोदावरी से मिलती है। 

वर्तमान बस्तर और प्राचीन बस्तर की भौगोलिक पहचान को निरूपित करते ही प्राचीन बस्तर का इतिहास साकार हो उठता है। इसी ज्ञात भूगोल आधार ही बस्तर क्षेत्र का प्राचीन गौरव निरूपित होता है एवं प्राचीन काल में इस की सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों पर एक समझ विकसित होती है। भूगोल और वर्तमान जनजातियों का अंतर्सम्बन्ध, भूगोल तथा पुरा-ग्रंथों में वर्णित जनजातियों की उपस्थिति के स्थल तथा वर्तमान से साम्यतायें एक अलग विश्लेषण का विषय है जिसपर मैं अगले आलेखों में चर्चा करूंगा। इस आलेख के उपसंहार के लिये मुझे लाला जगदलपुरी के उस यात्रावृतांत से बेहतर कुछ नहीं मिलता जहाँ वे इन्द्रावती नदी के गोदावरी में समाहित हो जाने का वर्णन इन शब्दों में करते हैं – “एक छोर से दूसरे छोर तक पत्थरों का सिलसिला कुछ एसा चला गया है जैसे कि विभिन्न आकार प्रकार की पाषाण मूर्तियाँ वहाँ स्थापित कर दी गयी हों। पानी के हाँथो तराशी गयी इन आकृतियों में आप अपनी मनचाही आकृति तलाश कीजिये, अवश्य मिलेगी। रेत पर कुछ दूर चलने के बाद संगम की दुरंगी धाराओं नें हमें मुग्ध कर दिया। नीली और गेरुई धाराओं नें अपने में समोये रखा, थकान मिटा दी। मानना पडेगा कि इस संगम में गोदावरी को समर्पित हो कर भी इन्द्रावती अपनी पहचान नहीं खोती। उसके पानी का गेहुँआ रंग स्पष्ट दिखाई देता था। इन्द्रावती का गेहुँआ पानी कुछ गर्म लगता था, किंतु गोदावरी का नीला जल काफी ठंडा मालूम होता था।....। इंद्रावती-गोदावरी मिलाप। इधर पहाडियाँ, उधर पहाडियाँ बीच में संगम का बहता बहता दुरंगा पानी। नीला जल, गेरुआ जल। आन्ध्र, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सीमा-रेखायें”। 

बस्तर भूमि की पहचान शास्वत है तथा बनी रहनी चाहिये। इसीलिये ‘बस्तर के भूगोल’ को ‘बस्तर के वर्तमान’ पर अपनी समझ विकसित करने से पहले जानना आवश्यक है। बस्तर की पहचान उसके पर्वत, उसकी मिट्टी उसकी सरितायें और उसके वनवासी हैं। लाला जगदलपुरी जैसे बस्तरियों नें इस भूमि को बूझने के लिये जीवन लगा दिया और बूझा भी क्या खूब कि उनकी ही एक पंक्ति से समझिये -“मैं इन्द्रवती नदी के बूँद-बूँद को/ अपने दृगजल की भाँति जानता आया हूँ”। हाँ यही बस्तर की धरती को जानने का वास्तविक सूत्र है।  
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दुर्भाग्य!! बस्तर से यह विरासत मिट जायेगी {प्राचीन बस्तर का समाजशास्त्र [संदर्भ: - रामायण काल]}

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सांध्य दैनिक ट्रू-सोल्जर (रायपुर) से दिनांक 7.08.2012 को प्रकाशित
बस्तर पर जानकारी एकत्रीकरण के लिये आर्य-द्रविड अंतर्सम्बन्धों को बारीकी से समझना आवश्यक है। वस्तुत: हमारे पूर्वाग्रह गहरे हैं तथा हम अपनी-अपनी पहचान की मानसिकताओं के साथ इतने अधकचरे तरीके से जुडे हुए हैं कि यह मानते ही नहीं कि वह सब कुछ जो भारत भूमि से जुडा हुआ है, हमारा ही है; आर्य भी हम हैं और द्रविड भी हम। अपनी ही चार पीढी से उपर के पूर्वजों का नाम जानने में दिमाग पर बल लग जाते हैं फिर किस काम का वह छ्द्म गौरव जो हमारी मानसिकताओं को वर्ण और रक्त की श्रेष्ठताओं जैसी अनावश्यक बहसों में उलझाता है। रामधारी सिंह दिनकर की कृति “संस्कृति के चार अध्याय” एक उत्कृष्ट रचना है जो एसी सभी बहसों को अपने तार्कित उत्तर से संतुष्ट करती है। “मूल निवासी कौन?” इस झगडे का निबटारा तो शायद वह पहली कोषिका भी नहीं कर सकती जिसके विभाजन नें ही यह सम्पूर्ण जीवजगत पैदा किया है। जब यह धरती सबकी एक समान रही होगी तब हर रंग, हर रूप तथा हर नस्ल का मानव यहाँ यायावरी करता हुआ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र भटकता रहा होगा। इस भूमि पर कई घूमंतू मानव प्रजातियों ने कदम रखे; जब द्रविड इस देश में आये यहाँ आग्नेय जाति (अनुमानित मूल स्थान - यूरोप के अग्निकोण) वालों की प्रधानता थी और कुछ नीग्रो जाति (अनुमानित मूल स्थान - अफ्रीका) के लोग भी विद्यमान थे। अत: अनुमान किया जा सकता है कि नीग्रो और आग्नेय लोगों की बहुत सी बातें पहले द्रविड सभ्यता (अनुमानित मूल स्थान पश्चिम एशिया) में आयीं और पीछे द्रविड-आर्य मिलन होने पर आर्य सभ्यता (अनुमानित मूल स्थान मध्य एशिया) में भी। वर्तमान भारत क्षेत्र में रहने वाले प्राचीन निवासियों के मूल स्थानों के लिये मैने इतिहास की कई पुस्तकों में भी झांका लेकिन अधिकांश में पूर्वाग्रह ही अधिक नजर आता है। अत: दिनकर की ही पुस्तक के उद्धरण मुझे उचित जान पडते हैं जो “अंडा पहले आया कि मुर्गी” वाली बहस को अधिक तूल न दे कर समरस्ता के मर्म की बात करते हैं। 

 प्राचीन बस्तर रामायणकाल में दक्षिणा पथ की बहुतायत गतिविधियों का केन्द्र रहा होगा तथा इस सब का प्रारंभ महर्षि अगस्त्य के विन्ध्य पर्वत पार करने की रोचक कथा के साथ होता है। कथा नें कविता तत्व की मोटी गिलाफ ओढी हुई है। कथा कहती है कि विन्ध्य अपना आकार निरंतर बढा रहा था जिस कारण सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर पहुँचनी बन्द हो गई। इससे निजात पाने के लिये महर्षि ने विंध्याचल पर्वत से कहा कि उन्हें तप करने हेतु दक्षिण में जाना है अतः मार्ग दे। विंध्याचल महर्षि के चरणों में झुक गया। अगस्त्य ने कहा कि विन्ध्य उनके वापस आने तक झुका ही रहे तथा वे पर्वत को लाँघकर दक्षिण को चले गये। उसके पश्चात वहीं आश्रम बनाकर तप किया तथा रहने लगे। यह दक्षिण की महत्ता तथा विन्ध्य की दो संस्कृतियों के बीच दीवाल की तरह खडे होने की पुष्टि करती हुई कथा है। प्राचीन आश्रम संस्कृति तथा शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन करने पर यह समझ विकसित होती है कि अगस्त्य एक पूरी संस्था की तरह कार्य कर रहे थे तथा वे उत्तर दक्षिण को एक सूत्र में बाँधने की प्रथम ज्ञात कडी हैं। हमनें उनका एक अध्यापक, एक उपदेशक, एक ज्ञानी, एक यायावर, एक दिव्यास्त्र निर्माता तथा योजनाकार का रूप तो जाना है लेकिन उनकी वास्तविक उपलब्धि कम ही लोग जानते हैं कि महर्षि अगस्त्य नें ही तमिल भाषा के आदि व्याकरण “अगस्त्यम” की रचना की है। यह रचना सिद्ध करती है कि अगस्त्य केवल दण्डकारण्य तक ही सीमित नहीं रहे अपितु सुदूर दक्षिण तक उन्होंने यात्रा की व वहाँ का जन जीवन यहाँ तक कि भाषा को भी एक व्यवस्था प्रदान करने का यत्न किया। 

दण्डकारण्य के प्राचीन समाजशास्त्र का आज भी महत्व विद्यमान है। दक्षिणापथ का उत्तरी भाग था दण्डकारण्य; यहाँ राक्षस जाति के निवास की जगह उनके आक्रमणों का ही विवरण अधिक मिलता है। प्राचीन विवरणों के आधार पर उन जनजातियों को जिन्हें राक्षस कहा गया है, उनका निवास दक्षिण के बस्तरेतर क्षेत्र अर्थात आन्ध्र व उस से लग कर सुदूर दक्षिण तक प्रतीत होते हैं। यह भी ज्ञात होता है कि लम्बे समय तक क्षेत्र में किसी समाजसेवी की तरह कार्य करते हुए अगस्त्य नें दण्डकारण्य क्षेत्र में निवासरत अनेक जनजातियों के मध्य समन्वय का वातावरण उत्पन्न कर लिया था। महर्षि अगस्त्य का आश्रम क्षेत्र वर्तमान बस्तर के भीतर ही था जो इस दिशा में किये गये श्री सूर्य कुमार वर्मा के 1906 में सरस्वति पत्रिका में प्रकाशित शोध आलेख द्वारा भली प्रकार सिद्ध किया गया है। राम के वनवास से पहले तक अगस्त्य मुनि का आश्रम ही दो संस्कृतियों का समंवय स्थल बन गया था जिसका स्थानीय जनजातियों के सहयोग और योगदान के बिना संचालित होना संभव प्रतीत नहीं होता। राम के वनागमन से पूर्व इस क्षेत्र में निवासरत जनजातियों पर राक्षसों के कुछ हमलों का जिक्र होता है; उदाहरण के लिये लंका को हस्तगत करने के बाद रावण दक्षिण विजय के लिये निकला जिसका कि उल्लेख वाल्मीकी रामायण में मिलता है – युद्धं मे दीयतामिति निर्जिता: स्मेति वा ब्रूत [वह दक्षिण में एक नगर से दूसरे नगर पहुँचता और चुनौती देता कि या तो मुझसे युद्ध करो या पराजय स्वीकार करो]। वानर जनजाति का नेतृत्व कर रहे बालि नें रावण को न केवल युद्ध में पराजित कर दिया अपितु बंदी भी बना लिया। इस प्रसंग का अंत होता है जब रावण-बालि संधि हो जाती है। रावण नें बालि के अलावा मांधाता (बस्तर का वर्तमान मंधोता ग्राम) के जनजातियों के सरदारों से भी समझौते कर लिये और लंका लौटने से पहले दण्डकारण्य क्षेत्र में अपने प्रतिनिधि खर-दूषण के रूप में किसी निगरानी चौकी या सत्ता प्रतीक की तरह छोड दिये थे। उल्लेख मिलता है कि उनके साथ चौदह हजार राक्षसों की एक टुकडी भी थी जिसका कार्य आतंक प्रसारित कर रावण की सत्ता का भय बनाये रखना था। यह कथा आगे बढती है जब राम का वनागमन होता है। पं केदारनाथ ठाकुर अपनी कृति बस्तर भूषण (1908) में उल्लेख करते हैं कि “राम पहले भारद्वाज आश्रम से होते हुए रत्नगिरि में आये। रत्नगिरि से चल कर बस्तर राज्य तथा कांकेर राज्य की पश्चिमी सीमा से होते हुए वे गोदावरी तक आये, वहाँ से गोदावरी के बहाव की ओर कुछ दिन घूमते रहे तत्पश्चात पर्णशाला में आ कर निवास किया। यहीं पर सीता हरण हुआ। रामचन्द्र जी सीता को गोदावरी नदी के पूर्व तथा इशान में ढूंढने लगे। यही पर उनकी शिवरी भीलनी (शबरी) से भेंट हुई। शिवरी नदी (शबरी नदी) के पूर्व तथा जैपुर राज्य में एक पर्वत है जिसे आज रामगिरि के नाम से जाना जाता है उसके चारो ओर असंख्य छोटी बडी पहाडियाँ हैं, इसी समूह में उत्तर की ओर रंफा पहाड है जिसे जैपुर स्टेट के लोग किष्किंधा पहाड़ कहते हैं। इन पहाडों पर वर्तमान समय में रेड्डी लोग वास करते हैं जो स्वयं को वानर का वंशज मानते हैं”।

बहुत अधिक कार्य अब तक इस दिशा में नहीं हुए हैं जो इतिहास प्रदत्त प्रमाणों का बारीकी से विश्लेषण करें। ब्रिटिश शासक ग्रिग्सन नें 1937 ई. में इस काल के प्रमाणों को एकत्र करने व दस्तावेजबद्ध करने के लिये कैप्टन गिब्सन को नियुक्त किया था। कहा जाता है कि गिब्सन नें बहुत सी जानकारियाँ एकत्रित भी कर ली थी। उसी समय द्वितीय विश्व युद्ध छिड गया। गिब्सन सारी एकत्र सामग्री व जानकारी को ले कर इंग्लैंण्ड चले गये व वहीं युद्ध में मारे गये। इसके बाद स्वतंत्र भारत के किसी शासक, नेता या जिलाधीश नें इस तरह का कार्य करने की जहमत नहीं उठायी। अगला प्रामाणिक कार्य उपलब्ध होता है डॉ. हीरालाल शुक्ल का जिनकी किताब “लंका की खोज” एवं “रामायण का पुरातत्व” अद्वितीय दस्तावेज हैं। डॉ. शुक्ल नें बस्तर क्षेत्र में उपस्थित रामायणकालीन जनजातियों की वर्तमान जनजातियों से तुलना व साम्यता को विस्तार से प्रस्तुत करने का यत्न किया है। उनके अनुसार रामायण युगीन वनेचर प्रजातियों में आग्नेय परिवार से सम्बद्ध जनजातियाँ हैं - निषाद, गृद्ध तथा शबर; अगर मध्यवर्ती द्रविड परिवार की बात की जाये तो उससे सम्बद्ध प्रजातियाँ हैं – वानर तथा राक्षस। 

रामायण में चिन्हित आग्नेय परिवार की जनजातियों नें आर्यों से शीघ्र निकटता तथा मैत्री कर ली थी। निषाद प्रजाति का उल्लेख मूल रूप से उत्तरप्रदेश के संदर्भों में प्राप्त होता है। राम को गंगा पार कराना एवं राम-निषाद मैत्री का बडा ही मर्मस्पर्शी वर्णन रामायण में प्राप्त होता है। बस्तर के ‘कुण्डुक’ स्वयं को निषाद वंश का मानते हैं तथा इस जनजाति का विश्वास है कि वे त्रेता युग में राम के साथ ही गंगातट से दण्डक तक आये। यह प्रजाति आज भी नाविक ही है एवं इनकी उपस्थिति चित्रकूट के निकटवर्ती क्षेत्रों में सीमित रह गयी है। रामायण में वर्णित दूसरी प्रजाती है गृद्ध। गोदावरी की पार्श्ववर्ती पर्वतमालाओं पर इनका निवास माना गया है। गिद्ध इन जनजातियों का प्रतीक रहा होगा। इनके प्रमुख नायक सम्पाति तथा जटायु का आर्य जनजातियों से तालमेल प्रतीत होता है। रामायण में पंख कटने के बाद जिस प्रस्त्रवण पर्वत (बैलाडिला) के निकट जटायु के दम तोडने का वर्णन है उस स्थल को आज गीदम के नाम से जाना जा रहा है। जगदलपुर के जाटम ग्राम में अब भी गदबा जनजाति के घर हैं जिनका सम्बन्ध गृद्ध प्रजाति से जोड कर देखा जाता है। बस्तर की गदबा प्रजाति प्रतीक पूजक है तथा गृद्ध आज भी इनके यहाँ “टोटेम” है। जिस प्रकार बस्तर में हल प्रतीक के वाहकों को हलबा कहा गया उसी प्रकार गृद्ध प्रतीक के वाहक गदबा कहलाने लगे। यह प्रजाति आज विलुप्ति पर पहुँच गयी है। लोग कृषक अथवा मजदूर हैं तथा अब इन्हें पहचानना कठिन होता जा रहा है। राम-शबरी मिलन और शबरी के प्रेम से खिलाये गये जूठे बेर एक महान प्रेरक प्रसंग है। इसी कथा नें शबर जनजाति की पहचान को उसकी प्राचीनता से जोडा है। ऐतरेय ब्राम्हण में शबरों को आर्य देश की सीमा पर स्थित बताया गया है अत: यह क्षेत्र निश्चित ही दण्डकारण्य है। साक्ष्यों के आधार पर एवं पुरा-भूगोल पर किये गये विश्लेषण के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि शबरी का आश्रम शबरी तथा गोदावरी नदी के संगम पर स्थित था। डब्ल्यु जी ग्रिफिथ नें मध्य भारत की कोल प्रजाति को शबर माना है (क़ोल ट्राईब्स ऑफ सेंट्रल इंडिया, 1946)। डॉ. हीरालाल शुक्ल भी इन्हें ओडिशा और बस्तर के सीमावर्ती क्षेत्रों में चिन्हित करते हैं। शबर जनजाति के लोग गोंड अथवा खोंड की तुलना में भिन्न होते हैं। इनकी स्त्रियाँ नासिका तथा हनु में गुदना करती हैं एवं कपोलों में भी गहरी रेखायें गुदवाती हैं। कर्ण-आभूषण दर्शनीय होते हैं व कान में चौदह तक छेद कराने का चलन पाया गया है। प्राचीन ग्रंथों के आधार पर शबरों के दो विभेद पाये गये हैं – पर्ण शबर तथ नग्न शबर। नग्न शबर प्रजाति आर्यों के निकट नहीं आ पायी थी व अपनी मूलावस्था में रहने के कारण यह नामांकरण हुआ है। बंडा परजा जनजाति ही नग्न शबर मानी जाती है। 

मध्यवर्ती द्रविड परिवार की वानर तथा राक्षस जातियाँ एक समय में ताकतवर तथा सक्रियतम रही हैं। यह तो पहचान ही लिया गया है कि काकिनाडु (पूर्वी गोदावरी) सहित कोरापुट व कालाहाँडी के आंशिक क्षेत्र किष्किन्धा जनपद के अंतर्गत आते थे। रामायण में किष्किन्धा के निवासियों के लिये वानर पहचान का प्रयोग है। वानरो की जो प्रजातिगत विशेषतायें कही जाती हैं उसके अनुसार वे भावुक, चपल, ताम्रवदना अथवा कनकप्रभ उल्लेखित होने के कारण सोने जैसे वर्ण के होते थे। आज भी खम्माम, बस्तर, कोरापुट तथा कालाहाण्डी की आदिम प्रजातियाँ (इन क्षेत्रों में निवास करने वाली कंध जनजातियों को विद्वानों नें वानर माना है) बालि का स्मरण करती हैं। बस्तर में बालिजात्रा धूमधाम से मनाया जाने वाला पर्व है। कंध प्रजाति का गोत्र चिन्ह वानर है तथा वंशों के नाम सुग्री, जाम्ब तथा हनु आदि मिलते हैं। नृत्य आदि अवसरों पर कंध लोग आज भी पूँछ धारण करते हैं। कन्ध के अन्य पर्यायवाची खोंड, कोडा, कुई तथा कुवि हैं जो इन्हें कोयतुर (गोंड) जनजातियों के निकट सिद्ध करते हैं। प्रकृति की दृष्टि से ये लोग दण्डामि माडिया के भी निकट नजर आते हैं। रामायण में जिसे राक्षस कहा गया है वैदिक साहित्य नें उन्हें दस्यु सम्बोधित किया है। यह जनजाति प्रखर योद्धा रही है तथा इन्होंने आर्यों की आधीनता को अस्वीकार कर सर्वदा युद्ध का मार्गानुसरण किया है। राक्षसों के लिये ऋग्वेद में क्रव्याद: अर्थात कच्चा मांसाहार करने वाले; मृघ्रवाच: अर्थात जिनकी भाषा न समझ आये; अदेवयु: अर्थात देवताओं को न मानने वाले; अनास अर्थात जिनकी नाक छोटी व उठी हुई हो; शिश्नदेवा: अर्थात लिंगोपासक कहा गया है। इनमें गर्धर्व विवाह का प्रचलन था तथा बलात् विवाह करने की वृत्ति को भी बाद में राक्षस विवाह नामांकरण से जाना गया। राक्षसों के भी तीन विभेद बताये गये हैं - विराध (असुर), दनु (दानव) तथा रक्ष (राक्षस)। ये तीनों सैद्धांतिक रूप से एक साथ रावण की सत्ता में प्रतीत होती हैं किंतु रावण के घायल होने पर विराध (असुर) शाखा का प्रसन्नता व्यक्त करना (वाल्मीकी रामायण 6.59.115-6) यह बताता है कि ये आपसी मतभेद के भी शिकार थे। विराध शाखा की उपस्थिति दण्डकारण्य के दक्षिणी अंचल में मानी जाती है। यह भी उल्लेख मिलता है कि रावण नें इन्द्रावती व गोदावरी के मध्य के अनेक दानवों (दनु शाखा) का वध किया था – हंतारं दानवेन्द्राणाम। राक्षसों (रक्ष शाखा) की मूल उपस्थिति को आन्ध्रप्रदेश से माना जा सकता है।

रामायण कालीन बस्तर के जटिल समाजशास्त्र को समझने के लिये उपरोक्त सभी विवरणों को एक साथ देखना होगा। दण्डकारण्य की अपनी ही तरह की संस्कृति थी जिसमें गंगाजमुनी सम्मिश्रण होने लगा तब भी उसनें इन्द्रावती का वेग और गोदावरी की विराटता को मजबूती से थामे रखा। यह दो संस्कृतियों के मध्य का क्षेत्र होने के कारण कई अनेकताओं का समागम स्थल है। यह ज्ञात होता है कि कई जनजातियाँ जैसी अवस्था में रामायण काल में रहती होंगी अब भी उनमें बहुत कुछ नहीं बदला है। यहाँ के समाजशास्त्र नें दक्षिण से उसकी पहचान अलग रखी व उत्तर से भी स्वयं को मिलने नहीं दिया। यहाँ से जुडे केवल आर्य-द्रविड युद्ध के ही प्रसंग नहीं हैं अपितु कई द्रविड प्रजातियों के आपसी संघर्ष का भी यह क्षेत्र रहा है जहाँ समय समय पर शक्तिशाली आर्य व रक्ष प्रजातियों ने कभी मैत्री तो कभी युद्ध द्वारा अपनी शक्ति व सत्ता के केन्द्र स्थापित किये। यह अनोखा स्थल है जहाँ आश्रम संस्कृति भी पूरे चरम पर थी तो उसका विरोध भी पूरी निर्ममता से होता रहा। मेरा मानना है कि प्राचीन ग्रंथों से मिल रहे सूत्रों को जब तक इतिहासकार बारीकी से नहीं पकडेंगे वे बस्तर के अतीत की न्यायपूर्ण व्याख्या नहीं कर सकेंगे। वर्तमान में दण्डकारण्य क्षेत्र पुन: युद्धभूमि बना हुआ है तथा आन्ध्र ओडिशा महाराष्ट्र से भीतर घुस कर खास विचारधारा के बुद्धिजीवियों नें इसे अपना उपनिवेश बना लिया है। युद्धरत दिखने वाले लोग बस्तर की वही जनजातियाँ हैं जिनमें से प्रत्येक अपनी पुरातन परम्पराओं की थाती सम्भाले अतीत का जीवत प्रमाण है।दुर्भाग्य!! बस्तर से यह विरासत मिट जायेगी।

[यह तस्वीर मित्र राकेश सिंह जी के संकलन से]
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बस्तर, प्राचीन स्त्रीराज्य की विरासत है – संदर्भ: महाभारत काल

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सान्ध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में दिनांक 23.08.2012 को प्रकाशित 

स्त्री नें हमेशा बराबरी और सम्मान की लडाई लडी है। भारत भर में एसे उदाहरण कम ही देखने को मिले हैं जहाँ उसने यह अधिकार पाया है। इस आधी आबादी के पास अगर कोई उदाहरण है तो वह पाषाणकालीन अतीत की ओर इशारा करता है जब मातृसत्तात्मक जीवन शैलियों का चलन था। प्राचीन बस्तर क्षेत्र जिसे रामायण काल में “दण्डकारण्य”, महाभारत काल में “कांतार” तथा गुप्त काल में “महाकांतार” कहा गया एक एसे इतिहास की ओर इशारा करता है जहाँ लगभग तेरहवी शताब्दी के पूर्वार्ध (1335 ई.) तक स्त्रीसत्ता का ही प्रमुखता से उल्लेख प्राप्त होता है। महाभारतकालीन वीरांगना प्रमिला से आरंभ हो कर यही विशिष्ठता नागकालीन राजकुमारी मासक देवी तक पहुँचती है; यद्यपि कालांतर में भी “रानी चो रिस (1878-1882 ई.)” जिसमें कि तत्कालीन रानी जुगराज कुँअर नें अपने ही पति राजा भैरमदेव के विरुद्ध सशस्त्र आन्दोलन का संचालन किया था; राजमाता सुबरन कुँअर जो कि 1910 के महान भूमकाल के सूत्रधारों में थीं तथा महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी (1921-1936 ई.) जिन्होंने बैलाडिला की खदानों को निजाम के हाँथो जाने से बचाने के लिये प्राणों की आहूति दे दी जैसे उदाहरण मिलते हैं। क्या एक लम्बे समय तक युद्ध में उलझ जाने और उसके पश्चात शांतिकाल में प्राचीन दण्डकारण्य एक स्त्री-शासित प्रदेश बन गया था? इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन बस्तर में रामायणकाल को दो संस्कृतियों के संघर्ष, मैत्री तथा सम्मिश्रण का समय माना जायेगा। इसके बाद का समय अपेक्षाकृत स्थायित्व दर्शाता है; बडी सभ्यताओं नें अपनी अपनी सुविधा के क्षेत्रों पर अब तक कब्जा हासिल कर लिया है तथा प्राचीन बस्तर अंचल पुन: अपने आप में सिमटता जाता प्रतीत होता है। 

इस काल खण्ड तथा इसकी विशेषताओं पर चर्चा करने से पूर्व उन तथ्यों पर बात करते हैं जो मूल महाभारत कथा के साथ “कांतार” अर्थात प्राचीन बस्तर का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। उत्तरापथ में आर्यों का समुचित विस्तार हो गया था अत: महाभारत की मूल कथा वहीं से अपना अधिक सम्बन्ध रखती है तथापि पाण्डवों के वनवास के कुछ प्रसंग कांतार की भूमि में घटित हुए प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि वर्तमान बस्तर के कई गाँवों के नाम महाभारत में वर्णित पात्रों पर आधारित हैं, उदाहरण के लिये गीदम के समीप नकुलनार, नलनार; भोपालपट्टनम के समीप अर्जुन नली, पुजारी; कांकेर के पास धर्मराज गुडी; दंतेवाड़ा में पाण्डव गुडी नामक स्थलों प्रमुख हैं। कई आदिवासी देवता भी इस कालखण्ड का पुरातत्व अपने नामों में छुपाये हुए हैं जिनमें प्रमुख हैं -  भीमुलदेव, पाण्डुरों, पाण्डुराजा आदि। बस्तर की परजा (घुरवा) जनजाति अपनी उत्पत्ति का सम्बन्ध पाण्डवों से जोड़ती है। बस्तर भूषण (1908) में पं केदारनाथ ठाकुर नें उसूर के पास किसी पहाड़ का उल्लेख किया है जिसमें एक सुरंग पायी गयी है। माना जाता है कि वनवास काल में पाण्डवों का यहाँ कुछ समय तक निवास रहा है। इस पहाड के उपर पाण्डवों के मंदिर हैं तथा धनुष-वाण आदि हथियार रखे हुए हैं जिनका पूजन किया जाता है। महाभारत के आदिपर्व में उल्लेख है कि बकासुर नाम का नरभक्षी राक्षस एकचक्रा नगरी से दो कोस की दूरी पर मंदाकिनी के किनारे वेत्रवन नामक घने जंगल की सँकरी गुफा में रहता था। वेत्रवन आज भी बकावण्ड क्षेत्र में मिलते हैं तथा यह नाम बकासुर से साम्यता दर्शाता भी प्रतीत होता है; अत: यही प्राचीन एकचक्रा नगरी अनुमानित की जा सकती है। बकासुर भीम युद्ध की कथा अत्यधिक चर्चित है जिसके अनुसार एकचक्रा नगर के लोगों नें बकासुर के प्रकोप से बचने के लिये नगर से प्रतिदिन एक व्यक्ति तथा भोजन देना निश्चित किया। जिस दिन उस गृहस्वामी की बारी आई जिनके घर पर पाण्डव वेश बदल कर माता कुंती के साथ छिपे हुए थे तब भीम नें स्वयं बकासुर का भोजन बनना स्वीकार किया। भीम-बकासुर का संग्राम हुआ अंतत: भीम नें उसे मार डाला। महाभारत में वर्णित सहदेव की दक्षिण यात्रा भी प्राचीन बस्तर से जुडती है। दो तथ्य रुचिकर लग सकते हैं पहला कि भीम शब्द का सम्बन्ध बस्तर क्षेत्र के अनेक देवताओं से जुडना सिद्ध होने के बाद भी विष्णु पुराण में यह उल्लेख मिलता है कि कांतार निवासी, कौरवों की ओर से महाभारत महा-समर में सम्मिलित हुए थे। द्रौपदी के लिये सम्मान का भी जनजातियों में अभाव दिखता है विशेषरूप से दण्डामि माडिया ‘बोली’ में ‘पांचाली’ एक अपशब्द है।

कृष्ण का आगमन भी कांतार भूमि मे हुआ है। कांकेर (व धमतरी) के निकट सिहावा के सुदूर दक्षिण में मेचका (गंधमर्दन) पर्वत को मुचकुन्द ऋषि की तपस्या भूमि माना गया है। मुचकुन्द एक प्रतापी राजा माने गये हैं व उल्लेख मिलता है कि देव-असुर संग्राम में उन्होंने देवताओं की सहायता की। उन्हें समाधि निद्रा का वरदान प्राप्त हो गया अर्थात जो भी समाधि में बाधा पहुँचायेगा वह उनके नेत्रों की अग्नि से भस्म हो जायेगा। मुचकुन्द मेचका पर्वत पर एक गुफा में समाधि निन्द्रा में थे। इसी दौरान का कालयवन और कृष्ण का युद्ध चर्चित है। कृष्ण कालयवन को पीठ दिखा कर भाग खडे होते हैं जो कि उनकी योजना थी। कालयवन से बचने का स्वांग करते हुए वे उसी गुफा में प्रविष्ठ होते हैं तथा मुचकुन्द के उपर अपना पीताम्बर डाल कर छुप जाते हैं। कालयवन पीताम्बर से भ्रमित हो कर तथा कृष्ण समझ कर मुचकुन्द ऋषि के साथ धृष्टता कर बैठता है जिससे उनकी निद्राभंग हो जाती है। कालयवन भस्म हो जाता है। यही नहीं, कृष्ण के साथ बस्तर अंचल से जुडी एक अन्य प्रमुख कथा है जिसमें वे स्यमंतक मणि की तलाश में यहाँ आते हैं। ऋक्षराज से युद्ध कर वे न केवल मणि प्राप्त करते हैं अपितु उनकी पुत्री जाम्बवती से विवाह भी करते हैं।    

महाभारत में दक्षिण क्षेत्र के माल जनपद का उल्लेख मिलता है। कालिदास नें भी मेघदूत में माल क्षेत्र के भूगोल की विस्तृत व्याख्या की है जो इसे रामगिरि (ओडिशा) से  उत्तर पश्चिम का क्षेत्र (कांतार) घोषित करते हैं। महाभारत में माल क्षेत्र को शाल वन से घिरा हुआ बताया गया है। इस आधार पर माल जनपद की मालदा अथवा मालवा के पठार से की जाने वाली तुलना तर्कपूर्ण नहीं प्रतीत होती व इसे कोरापुट तक विस्तृत प्राचीन बस्तर का क्षेत्र ही माना जाना चाहिये। बस्तर का वर्तमान में बहुचर्चित क्षेत्र माड़ वस्तुत: माल जनपद के अपभ्रंश के रूप में आज भी जाना जाता है एवं यहाँ के निवासी माडिया कहे जाते है।    

एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है। युधिष्ठिर नें जब अश्वमेध यज्ञ का घोडा छोडा था, तब उस घोडे की रक्षा में स्वयं अर्जुन सेना के साथ चला था। दक्षिण की ओर चलते चलते युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का घोडा “स्त्री राज्य” में पहुँच गया। - “उवाच ताम महावीरान वयं स्त्रीमण्डले स्थिता:” (जैमिनी पुराण)। स्त्री राज्य (कांतार) की शासिका का नाम प्रमिला था। उल्लेखों से ज्ञात होता है वह बड़ी वीरांगना थी। प्रमिला देवी के आदेश से अश्वमेध यज्ञ के घोडे को बाँध कर रख लिया गया। घोडे को छुडाने के लिये अर्जुन नें रानी प्रमिला तथा उनकी सेना से घनघोर युद्ध किया; किन्तु आश्चर्य कि अर्जुन की सेना लगातार हारती चली गयी। स्त्रियाँ युद्ध कर रही थीं इसका अर्थ यह नहीं कि वे साधन सम्पन्न नहीं थी जैमिनी पुराण से ही यह उल्लेख देखिये कि किस तरह स्त्रियाँ रथों और हाँथियों पर सवार हो कर युद्धरत थीं – “रथमारुद्य नारीणाम लक्षम च पारित: स्थितम। गजकुम्भस्थितानाम हि लक्षेणापि वृता बभौ॥“; इसके बाद युद्ध का जो वर्णन है वह प्रमिला का रणकौशल बयान करता है। प्रमिला नें अपने वाणों से अर्जुन को घायल कर दिया। अब अर्जुन नें छ: वाण छोडे जिन्हें प्रमिला नें नष्ट कर दिया। विवश हो कर अर्जुन को ‘मोहनास्त्र’ का प्रयोग करना पड़ा जिसे प्रमिला नें अपने तीन सधे हुए वाणों से काट दिया। अब प्रमिला अर्जुन को ललकारते हुए बोली – “मूर्ख! तुझे इस छोटी सी लडाई में भी दिव्यास्त्रों का अपव्यय करना पड़ गया?” – [प्रमीला मोहनास्त्रं तत सगुणम सायकैस्त्रिभि:। छित्वा प्राहार्जुनं मूढ! मोहनास्त्रम न भाति ते॥]  इस उलाहने नें अर्जुन के भीतर ग्लानि भर दी। अर्जुन नें रानी प्रमिला के समक्ष विनम्रता का परिचय दिया एवं संधि कर ली। इसके बाद ही यज्ञ के घोडे को मुक्त किया गया। 

अपने आलेख का प्रारंभ मैने स्त्री अस्मिता तथा उसके प्रतिमानों के उदाहरणों के तौर पर प्राचीन बस्तर को सामने रख कर किया था। इस कथन की पुष्टि मार्कण्डेयपुराण, वात्स्यायन के कामसूत्र, वाराहमिहिर की वृहत्संहिता तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों में वर्णित उल्लेखों से भी होती है। वस्तुत: कांतार के स्त्रीराज्य होने का विवरण सर्वप्रथम महाभारत में ही मिलता है जहाँ शांति पर्व में उल्लेख है कि कलिंग के राजा की पुत्री चित्रांगदा के स्वयंवर के अवसर पर स्त्री राज्य के अधिपति सुग्गल भी आये थे -  सुग्गलश्च महाराज: स्त्री राज्याधिपतिश्च य:। यह स्त्री राज्य एक बडे विमर्श की पृष्ठभूमि बनता है। कौटिल्य नें जिस तरह से कांतार में स्त्री राज्य का उल्लेख किया है उसके अनुसार यह प्रतीत होता है कि दक्षिण से उत्तर की ओर लाये जाने वाले माणिक्यों को इस राज्य से हो कर गुजरना पडता था। साथ ही इस क्षेत्र के खनिजों की जानकारी व महत्ता का विवरण भी चाणक्य उपस्थित करते हैं। महाभारत काल से आगे बढ कर नाग युग के आगमन तथा उसके बहुत बाद भी स्त्री ही सामाजिक व्यवस्था की धुरी बनी रही है। वात्स्यायन का कामसूत्र स्त्री राज्य के अंत:पुर में पुरुषों के होने की व्यवस्था का वर्णन करता हैं – ग्रामनारीविषये स्त्रीराज्ये च युवानांअंतपुरसधर्माणा एकैकस्या: परिग्रहभूता:। वस्तुत: रामायणकाल तथा महाभारत काल के उल्लेख कालांतर में घटित हुई परिस्थितियों की भूमिका बने हैं। वर्तमान समय के स्त्री विमर्श को भी पुरा अतीत की पृष्ठभूमि में ही समझना होगा तभी हम आधुनिक सामाजिक संगठनों को समझ सकते हैं।    
   
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प्रस्तुत दीवार चित्र प्राचीन बस्तर के महाभारत काल से सम्बन्धित उस कथा से जुडा है जब कृष्ण चतुराई से कालयवन का वध करते हैं। 

नेताजी सुभाष के साथी क्रांतिकारी मोहन लहरी पंचतत्व में विलीन [संस्मरण तथा अंतिम यात्रा की तस्वीरें]

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दैनिक छत्तीसगढ (रायपुर) में प्रकाशित संस्मरण 

दैनिक छत्तीसगढ - दिनांक 30 अगस्त 2012 (पृष्ठ - 8)

पृष्ठ 8 से आगे----
दैनिक छत्तीसगढ - दिनांक 30 अगस्त 2012 (पृष्ठ - 11)

सान्ध्य दैनिक - ट्रू सोल्जर (रायपुर) में प्रकाशित संस्मरण
सान्ध्य दैनिक ट्रू सोल्जर (30.08.2012)
दिनांक 30.08.2012 की सुबह महान क्रांतिकारी तथा नेताजी सुभाष के साथी श्री मोहन लहरी का देहावसान हो गया। 
पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंतिम यात्रा कांकेर शहर के मुख्य मार्गों से हो कर निकाली गयी। 
 जिला प्रशासन के सहयोग से कांकेर के गणमान्य नागरिकों एवं कुछ पत्रकारों की उपस्थ्ति में उन्हें अंतिम प्रस्थान स्थल तक पहुँचाया गया। 
गार्ड ऑफ ऑनर देने के पश्चात उनके पार्थिव शरीर को अग्नि प्रदान की गयी। 
मोहन लहरी अमर हो गये। वे बस्तर की धरती को यह सौभाग्य दे गये कि इसकी मिट्टी में एक सच्चा सपूत आज मिल कर एकाकार हो गया। 
चित्र सौजन्य कांकेर से पत्रकार मित्र तामेश्वर सिन्हा। 

राजेन्द्र यादव के हंस-महल में बस्तर के युवा कहानीकार तरुण भटनागर की सेंधमारी

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राजेन्द्र यादव के उस दुस्साहस की सराहना अवश्य करूंगा जहाँ उन्होंने युवा कथाकार तरुण भटनागर के साथ हुए अपने संवादों के पत्र ‘हंस के सितम्बर-2012 अंक’ का सम्पादकीय बना कर प्रस्तुत किये हैं। राजेन्द्र यादव बेनकाब हुए हैं और तरुण ने निर्भीक और गैर-समझौतावादी लेखन की अद्वितीय परिभाषा गढी है। 

पहले चर्चा हंस में ही प्रकाशित तरुण भटनागर की कहानी“चाँद चाहता था कि धरती रुक जाये”की करते हैं। यह बस्तर के परिवेश पर केन्द्रित एक गैर राजनीतिक कहानी है; आदि से अंत तक इसमें अगर कुछ है तो उस समाज की पीडा है जिससे उसकी परम्पराओं-मान्यताओं, जीने के तरीकों और मुस्कुराहटों को संगीनों की नोक पर छीन लिया गया है। तरुण अबूझमाड़ी मिथक-कथाओं से अंधेरे का समाजशास्त्र गढ़ते हुए अपनी कहानी का प्रारंभ करते हैं। वे बस्तर के अंधेरे को दिल्ली के एक प्रतिष्ठित विद्यालय के एंथ्रोपोलोजी विभाग के किसी रटंत छात्र की कॉपी तक खीँच कर लाये हैं जिसके भीतर उन्होंने घोटुल का पूरा चित्र बनाया है। जहाँ आवश्यक हुआ तरुण समाजशास्त्र से काव्यशास्त्र की ओर भी बढे हैं और अपनी बात किसी कविता की तरह कहते प्रतीत होते हैं“....मैंने एक बार उन्हें बेतरह देखा था और बाद में दुनिया घूमते हुए बहुत सी जगह उन्हें तलाशता रहा, रियो-डी-जेनिरो के समुद्री किनारों से ले कर यूरोप के मादक स्ट्रिपटीज तक। एसी फड़फडाती देहें कहीं और देखने को नहीं मिली फिर। मिट्टी और अंधेरे की देह। सूत दर सूत तराशी गयी देह, जिसका जरा सा भी माँस इधर से उधर हो कर दैवीय रेखाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता”। इसके बाद कहानी उन बाहरी आदमियों की तरफ बढ़ती है जो क्रांति करने अबूझमाड में घुस आये हैं। निश्चित ही ‘बाहरी आदमी’ एक व्यापक शब्द है तथा साफगोई से लिखा गया। नये लेखकों को छद्म प्रगतिशीलता के प्रतिमानों को तोडना आना ही चाहिये अगर वे स्पष्ट नहीं लेखेंगे तो समकालीन कही जाने वाली उसी तालाब की मछली बन कर रह जायेंगे जहाँ पानी भी सडा हुआ है और खाने के लिये भी एक मछली के पास विकल्प दूसरी मछली ही है। तरुण सीधे सीधे लिखते हैं“बाहरी आदमी पिछले बीस सालों से यही सब इन लोगों को समझा रहा है। पर लोग समझ नहीं पा रहे हैं। उसकी बात एक अजीब सी बात पर पहुँचकर खत्म होती है”। कुछ और उद्धरण देखिये “तुम....(उसने एक भद्दी सी गाली दी) शताब्दियों से एक-सा काम करते आए हो, तुम क्या समझोगे विचार। जब कुछ नया करने का जतन जी नहीं, सलीका ही नहीं तो तुम...(उसने फिर एक भद्दी सी गाली दी) खाक समझोगे इसे”। कहानी पढ़ते हुए जिस अंश पर बाध्य हो कर मुझे रुकना पडा वह उस पीडा का प्रस्तुतिकरण थी जहाँ थमायी गयी बंदूख को ले कर आम आदिवासी की मन: स्थिति सामने आती है। कहानी का अंश देखें - “’किसको मारना है?’ उसको इस तरह से पूछना बड़ा अजीब लगा। जब मारने की वजह न हो तो यह कितना तो अजीब होता है। कितना कितना तो आत्मग्लान। कितना तो पीड़ित। ‘अबे मारना नहीं है। क्रांति क्रांति’....क्रांति फिर अबूझ शब्द”।तरुण ने घोटुल को माओवादियों द्वारा बंद कराये जाने की कोशिशों का आदिवासियों द्वारा किये गये प्रतिरोध और फिर उन पर की गयी जबरदस्ती का साफगोई से वर्णन किया है “लडके चले गये। जब लौटे तो उनके हाँथ में वे चार बंदूखें थी, जो उस आदमी ने उन्हें दी थी। आदमी खडा था। वे चारो आदमी के पास आये और उनके सामने वे बंदूकें जमीन पर पटक दी। आदमी उन सभी पर लाल पीला होता वहाँ से चला गया। कह गया कि अबकी बार  आएगा उसके साथ और भी साथी होंगे और तब कोई भी हथियार नहीं पटकेगा। तब सबको मानना पडेगा कि घोटुल निरर्थक है। घोटुल को बंद करना समतामूलक समाज के लिये निहायत ही जरूरी है”।तरुण जब जब एंथ्रोपोलॉजी का जिक्र करते हैं उनकी भाषा कटाक्षपूर्ण प्रतीत होती है, वे संभवत: जान बूझकर वहाँ अंग्रेजी के संवाद गढ़ते हैं। इसके साथ ही जंगल के समाजशास्त्र की अनुपम बानगी भी प्रस्तुत करते हैं जो किसी भी वैज्ञानिक विश्लेषण से परे है, जिसे कोई रटंत-विद्या आत्मसात नहीं कर सकती। घोटुल में जीवन साथी के चयन को ले कर आदिवासी कन्या के पास अपना स्त्रीविमर्श उपलब्ध है, अपना नैसर्गिक अधिकार“उसे नाज़ है, वह लडकी है। उसे नाज है कि सिर्फ वही तय कर सकती है। उसके भीतर से हूक उठेगी और वह नाम, वह देह, वह आत्मा उसकी हो जायेगी। उसे उसकी होना पडेगा। लडकी का तय किया जंगल का उसूल”। कहानी उस भय की सत्ता का भाग बनती है जहाँ - ”बुजुर्ग ने वादा किया कि आग अब कभी नहीं जलेगी। रात को घोटुल के सामने अँधेरे, वीराने और सन्नाटे की जिम्मेदारी उसे लेनी पडी....फिर भी घोटुल एकदम से वीरान नहीं हो पाया था। वे लोग रात को वहाँ आ जाते। आग नहीं जलती थी। शराब के मिट्टी के पात्र तोड डाले गये थे। वाद्य यंत्र जला दिये गये थे। कुछ लोग बायसन के हॉर्न और कौड़ियाँ बचा लाए थे। उन्हें उन्होंने इन आदिम झोंपडियों में छिपा लिया था, जिन्हें बरसों पहले उन्होंने छोडा था।”मैने जब कहानी पहली बार पढी तो इसके अंत तक पहुँचते पहुँचते मेरी आँख नम हो गयी। शायद इसलिये कि बस्तर को जीने और देखने का सौभाग्य मिला है मुझे। अनेक जीवंत कहानियाँ मैने अपने आदिवासी साथियों से सुनी हैं व उन आदिम सांस्कृतिक-सामुदायिक स्थलों को देखा है जिसे कभी घोटुल कहते थे। मर्मस्पर्शी शब्दों में तरुण ने वह सब लिखा है कि बस्तर को देखने जानने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भीतर की सिसक जाग उठेगी“कहते हैं बस्तर के कुछ युवा आज भी जाने किस उम्मीद में रात के जंगल में किसी रिक्त स्थान पर इकट्ठा होना चाहते हैं। जाने क्यों चाँद आज भी मुँह फेरने से पहले उस अंधेरी जगह को ताकता है। जाने क्यों तो....घोटुल की जगह अब बंदूख थी। उन्माद और प्यार की जगह गुस्सा था। जंगल ने कभी किसी लडकी को रात को उस अंधेरी खाली जगह पर सिसकते सुना था। धडकनों की जगह अब एक शुष्क सी आग थी। वे कई दिनों तक जलते रहे। फिर एक दिन सबसे पहले एक युवा सामने आया। उसने बंदूख अपने हाथ में उठा ली और उस बाहरी आदमी से कहा – बताओ किसको मारना है”। दिल्ली विश्वविद्यालय के एंथ्रोपोलॉजी की कक्षा के उस विद्यार्थी से कहानी का उपसंहार गढा गया है जिसकी चर्चा से कहानी की भूमिका आरंभ हुई थी। वह बस्तर में बड़ा अधिकारी हो कर आया है तथा घोटुल बंद हो जाने की खबरों को अपनी किताबी ज्ञान से मूल्यांकित कर इन्हे बचाने की योजना बनाता है। हथियार को खदेडने के लिये हथियार की सोच के साथ उसकी योजना खत्म होती है; वह सोच जो अपनी की तरह के एंथ्रोपोलॉजिकल अध्ययन ने उसे थमाई है। तरुण कहानी के अंत में लिखते हैं “जंगल में घात लग चुकी है। जंगल की घात संसार की एकमात्र घात है, जो टूटती नहीं, जो बडे इत्मीनान से बीत जाने देती हैं शताब्दियाँ”। 

तरुण की कहानी नितांत सफल कही जायेगी चूंकि राजेन्द्र यादव जैसे पुराने मठाधीश अपने पत्र में इतने तिलमिलाये प्रतीत होते हैं कि कहानी को खारिज करने के लिये उन्हें झूठ का सहारा लेना पडता है। हंस पत्रिका के सम्पादक राजेन्द्र यादव कहानी को अस्वीकृत करने का कारण बताते हुए पहले पत्र में कहानी का सार लिखते हैं -  “कुछ मेधावी विद्यार्थी मार्क्सवाद का सहारा ले कर उन्हें लडाकू ही नहीं बनाना चाहते, इस घोटुल संस्कृति को समाप्त भी कर देना चाहते हैं। वे आदिवासी युवाओं को बंदूख थाम कर लडने के लिये उकसाते हैं”। पहली बात कि “मेधावी छात्र” राजेन्द्र जी का अपना जुमला है क्योंकि लेखक ने “बाहरी व्यक्ति” शब्द का पूरी कहानी में इस्तेमाल किया है। मेधावी छात्र का इशारा अगर कहीं इस कहानी से मिलता है वह दिल्ली विश्वविद्यालय के उस एंथ्रोपोलोजी के छात्र के लिये व्यंग्य रूप में दिखाई पडता है जो बाद में बस्तर में अधिकारी बन कर आता है तथा अपनी ही तरह से स्थिति की व्याख्या करता है एवं निर्णय लेता है। अब जब कहानी के मूल तत्व में दिक्कत नहीं तो यह खारिज क्यों की जा रही थी। इसे राजेन्द्र जी तर्कपूर्वक कहते हैं कि “यह नहीं बताया गया है कि जिनके खिलाफ वे आदिवासियों को लामबंद कर रहे हैं, वे कौन हैं? बडे कॉरपोरेट संस्थान, जो सरकारों को खरीद रहे हैं, जमीन की खुदाई कर के हजारो करोड के प्लेटिनम, सोना, चाँदी लाद कर विदेशों मे पहुँचा रहे हैं, जंगलों को काट रहे हैं, पानी पर एकाधिकार किये हुए है – वे आदिवासियों को ही खत्म कर देना चाहते हैं”। राजेन्द्र जी का यह तर्क हो सकता है कि आन्द्रप्रदेश, बंगाल या झारखण्ड के विषय में सही हो लेकिन सपाट टिप्पणियों से पहले बस्तर को उन्हें जानना-पढ़ना पडेगा। पहली बात कि बस्तर में राजेन्द्र जी के ये “मेधावी” छात्र आन्ध्रप्रदेश के मुलुगु जंगलों के आदिवासियों द्वारा अस्वीकृत हो जाने की अपनी असफलताओं के कारण 80 के दशक में प्रविष्ठ हुए और इस लिये भी कि महाराष्ट्र, ओडिशा तथा आन्ध्र से सीमायें मिलल्ने के कारण अबूझमाड की स्वर्गतुल्य धरती बेहतर पनाहगार बन सकती थी। इस दौर तथा इसके बाद भी साधारण आन्दोलनों के बाद ही बस्तर की बोधघाट तथा मावली भाटा जैसी परियोजनाओं पर ताले लग गये। वर्तमान में भी बैलाडिला को छोड कर कोई अन्य खदान बस्तर के सात जिलों की परिधि में नही है। अब कुछ घोषित स्टील निर्माण की परियोजनायें अवश्य है जिनपर विवाद और संघर्ष जारी है किंतु इन सबसे माओवाद का कोई लेनादेना नही है। साठ और सत्तर के दशक में एक बड़ा आन्दोलन कर चुकी बस्तर की आदिवासी जनता को “तथाकथित मेधावियों” द्वारा जागरूक करने की बात हास्यास्पद है। माओवादी उस बस्तर को क्या संगठित करेंगे जो अनेको बार केवल घुमाई जाने वाली आम की डाल या मिर्च से ही एकत्रित और आन्दोलित हो उठा था। इन मेधावियों ने केवल स्थापित जनजातीय संतुलन को ध्वस्त किया है और परम्पाराओं का लहू ठीक उसी तरह सोखा है जैसा कि तरुण की कहानी में कहा गया है। बस्तरिये चिर-आन्दोलनकारी हैं; अतीत के अन्य ग्यारह सशस्त्र विद्रोह और उनके कारणों वाले इतिहास के पन्नों को उलटिये; जब-जब खुद उठ खडे हुए, बदलाव आया है। पनाहगार हमेशा बाहरी व्यक्ति होता है अत: तर्क, तरुण की सोच के अधिक करीब पहुँचता है। कहानी में अबूझमाड में वैचारिक आन्दोलन के कारण वहाँ के समाजशास्त्र पर हुए बदलावों की विवेचना मात्र है जिसमें कहीं भी लेखक किसी धारा-विचारधारा की आड लेता नहीं दिखता लेकिन सम्पादक का विरोध शायद इसी बात को ले कर है? तरुण का राजेन्द्र यादव को दिया गया तर्क बस्तर-विमर्श की नयी अंतर्दृष्टि देता है –“लोग दुनिया को दो तरह की धारणाओं से ही समझते हैं या समझना चाहते हैं – पूंजीवाद और मार्क्सवाद, पर जनजातीय समाज के मामले में एक और बात है जो इन दोनो के दायरे में नहीं आती। ये दोनो विचार पूँजी से उत्पन्न विचार हैं। अगर संसार में पूँजी न होती तो मार्क्स की दरकार नहीं होती। पर उस समाज का क्या जिसमें पूँजी की दरकार ही न हो? या जिसकी उत्पत्ति होने और चरित्र में पूँजी का होना न हो?” तरुण ने आगे लिखा है “जनजातीय समाज में आज जो अन्याय, अत्याचार हमे दिखता है, वह एक पूँजीविहीन समाज को पूँजी के दो विपरीत विचारों में घसीटने की त्रासदी है”। राजेन्द्र यादव ने पहले पत्र में लिखा है कि “कहानी बहुत इकहरा और घातक संदेश देती है। आपने अरुन्धति राय, गौतम नवलखा और डॉ. विनायक सेन के लेख पढे होंगे?” यह पढ़ कर समझ नहीं आता कि सिर पीटा जाये या बस हँस कर रह जाये? ये लिये गये नाम इकहरे हैं और एक ही विचारधारा के द्योतक हैं जो स्वयं राजेन्द्र यादव की भी है। राजेन्द्र जी उस दकियानूसियत के शिकार हैं जहाँ “बौद्धिक अंधविश्वास” जमीनी हकीकत से रूबरू ही नहीं होने देता। बस्तर पर कई लेखकों के उद्धरण लिये जा सकते हैं लेकिन मैं एक निर्विवाद नाम लेता हूँ जो बस्तर की आत्मा लाला जगदलपुरी का है (पता नहीं राजेन्द्र जी नाम भी जानते हैं या नहीं?)। माओवादी गतिविधियो पर उनकी यह पंक्ति निचोड है कि “यदि नक्सली भी मनुष्य हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग अपनाना चाहिये”। इस मनुष्यता शब्द का दायरा बड़ा किया जाना चाहिये और इसमें लाल-हत्या के अंध-समर्थकों को भी शामिल किये जाने की आवश्यकता है। ‘सरकारी’, ‘सत्ता’ ‘विश्वरंजन जैसों की निगाह’ आदि लिख कर राजेन्द्र यादव ने एक साहित्यकार की नहीं एक राजनीतिक की भाषा प्रयोग की है तथा उनकी इच्छा थी कि तरुण की अभिव्यक्ति को मार डाला जाये। यह तो लेखक का दुस्साहस कहिये कि ‘हंस में छपने के सार्टिफिकेट’ का मोह त्याग कर तरुण केवल सच्चे तर्क; हिम्मत के साथ रखते रहे। हंस का यह अंक जिसके पिछले पन्ने पर पूरे एक पेज में मध्य-प्रदेश की भाजपा सरकार का विज्ञापन छपा है उसका सम्पादक अपने लेखक को सरकारी प्रवृत्ति, सरकारी दृष्टि, सरकारी मदद आदि जुमलों से डराये तो थोथा लगता है। तरुण ने राजेन्द्र यादव को जो पैना जवाब दिया है मैं उसका कायल हो गया –“शब्द हमारी सबसे क्रूर इजादों में से एक हैं शायद। गाँधी ने इस पर लिखा है। उन्होंने इसे वाक् हिंसा कहा; शब्द जो हिंसक हो कर अपराध करते हैं। शब्द जो हिंसा तक कर सकते हैं”।अपने दूसरे पत्र में राजेन्द्र यादव ने कहानी को “मान कर लिखा गया” का आरोप लगाते हुए सवाल उठाया है कि ”उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिये क्या हम उन्हें वैसा ही छोड दे, जैसा वे हजारों सालों से हैं? या क्या उन्हें शेर चीतों की तरह उनके स्वाभाविक जीवन और परिवेश में सुरक्षित और संरक्षित रख कर दूर से ही पर्यटकों को इन अभयारण्यों में उनके दर्शन का तमाशा बनाये रखना बहुत मानवीय है?“ वे आगे लिखते हैं कि “आपने जवाब नहीं दिया कि क्यों अच्छे खासे ब्रिलियेंट नौजवान अपनी जान की बाजी लगा कर उन्हें अपने आधिकारों के प्रति जागरूक कर रहे हैं?” राजेन्द्र जी ने इस पत्र में बस्तर के बारे में बोलने के लिये कुछ लोगों को ही ऑथेंटिक मान कर उन का नाम बार-बार लिया है और तरेर पर प्रश्न लपेट कर तरुण को मारा है कि इन समाजसेवियों की यात्राओं/लेखों के जिक्र पर आप क्यों चुप है? राजेन्द्र जी मुझे लगता है कि या तो आपने कहानी ठीक से नहीं पढी या बस्तर के बारे में कुछ नहीं जानते। यह ब्रम्हदेव शर्मा ही थे जो आपकी सवाल वाली सूची में भी शामिल हैं, जिन्होंने 70 के दशक में बिलकुल उसी तरह एक्ट किया जैसा तरुण की कहानी का “मेधावी प्रशासक” अपनी समझ आदिम समाज पर आरोपित करने के यत्न में करता है। आदिवासियों को संरक्षित क्यों रखा जाये, क्यों वहाँ सडकें न बने, स्कूल तोड दिये जायें, नहरें न हों आदि आदि ब्रम्हदेव शर्मा से पूछिये क्योंकि अबूझमाड को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने का विचार उनका ही था। इसका पालन इतनी कडाई से करवाया गया कि वहाँ जाने के लिये कलेक्ट्रेट से अनुमति लेनी पडती थी। आखिरकार मुख्यधारा से काट कर यह क्षेत्र राजेन्द्र जी के “मेधावियों” का स्वर्ग बना दिया गया। 

कहानी कहीं भी ‘एसा होना चाहिये’ या ‘एसा नहीं किया जाये’ आदि नहीं कहती। तरुण भटनागर की कहानी घटनाओं का भावुक प्रस्तुतिकरण है जो पाठकों को वस्तुस्थिति समझने का दृष्टिकोण प्रदान करती है। इस कहानी से आरंभ कर आप चाहे अरुन्धति को पढे या गौतम को किसने रोका है? क्यों एक लेखक कहानी को वैसे ही लिखे जैसा कि परिपाटी है या जैसा सम्पादक चाहता है। खारिज कीजिये लेकिन जायज कारणों पर; अन्यथा पत्रिकाओं को यह साफ-साफ लिखना चाहिये कि वे “वाम राजनीतिक विचारधारा की प्रचार पुस्तिकायें” हैं, इससे निर्पेक्ष लेखकों को सुविधा रहेगी कि वे अपनी रचनाओ को कहाँ भेजें। दूसरी बात राजेन्द्र जी ये सरकारी, संघी, सत्ता-वत्ता वाली गालियाँ देने की बजाय प्रस्तुत कथानकों पर अच्छी चर्चायें तो तो बेहतर रहेगा अन्यथा पत्रिकाओं की हालत आप जाते ही हैं। यह एसी ही वृत्तियों का नतीजा है कि पाठक प्रकाशित एकमत – एकसुर और एकनिश्कर्ष से उकता गया है। यह हिन्दी, सम्पादकों की ही मारी बिचारी है। अंत में इस बात के लिये राजेन्द्र यादव की सराहना करूंगा कि उन्होंने तरुण के साथ अपने पत्राचार को प्रकाशित किया और उनकी कहानी भी छाप दी। क्या तरुण से पत्रोत्तर पाने के बाद कहानी से ‘सरकारी’ होने का दाग धुल गया था अथवा हंस के सम्पादक की आँखें खुल गयी थीं; यह स्पष्ट नहीं हो पाया है। 

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