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Channel: सफर - राजीव रंजन प्रसाद
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ईसा-पूर्व के साम्राज्य और गौरवशाली बस्तर

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सान्ध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में दिनांक 11.09.12 को प्रकाशित 
बौद्ध और जैन मतों का प्रादुर्भाव भारतीय समाजशास्त्र, राजनीति तथा इतिहास की दृष्टि से क्रांतिकारक रहा है। भगवान बुद्ध और महावीर दोनो ही समकालीन थे तथा इस दौर में उत्तरापथ के मगध क्षेत्र पर विशाल साम्राज्यों के निर्माण की रूप रेखा भी चल रही थी। महाकाव्यों के युग से यदि ज्ञात इतिहास का कोई अंतर्सम्बन्ध जुडता है तो उसके लिये हमें प्राचीन मगध (वर्तमान बिहार में अवस्थित) की राजधानी राजगृह तक पहुँचना होगा। 

प्राचीन भारतीय इतिहास से प्राप्त उद्धरणों के अनुसार मगध के एक साम्राज्य बनने की कथा का प्रारम्भ होता है जब कुरुवंशी राजा वसु नें इस क्षेत्र को विजित किया था। उनके निधन के पश्चात बार्हद्रथ सत्तासीन हुए जिनके नाम पर ही बार्हद्रथ वंश पडा तथा मगध की वास्तविक सत्ता और गौरव का प्रारंभिक इतिहास यही से ज्ञात होता है। जरासंध इसी वंश में उत्पन्न प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक थे एवं महाभारत कालीन इतिहास इसकी पुष्टि करता है। अंधक-वृष्णि-संघ के राजा श्रीकृष्ण नें पाण्डवों की सहायता से जरासंध का अपनी कूटनीति से वध करवा दिया था। इस राजनीतिक हत्या के बाद बार्हद्रथ वंश का विनाश होने लगा। इस वंश के अंतिम शासक थे - रिपुंजय जिनका उसके ही मंत्री पुलिक नें वध कर दिया था। पुलिक की सत्ता नें अभी पहला कदम भी नहीं रखा था कि भट्टिय नाम के महत्वाकांक्षी सामंत नें विद्रोह कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप उनके पंद्रह वर्षीय पुत्र बिम्बिसार को 543 ईसा पूर्व में सत्ता हासिल हुई। बिम्बिसार नें हर्यंक वंश की नींव रखी; वे भगवान बुद्ध के जीवन काल में मगध के शासक थे। कहते हैं उन्होंने तत्कालीन प्रचलित परिपाटी के उलट एक स्थायी सेना रखी हुई थी जिसनें उनकी शक्ति को अपराजेय बना दिया था। बिम्बिसार की आस्था भगवान बुद्ध पर थी जो उनके समकालीन भी थे तथापि उनका शासन सही मायनों में धर्मनिर्पेक्ष माना जायेगा चूंकि जैन मत के अनुसार भी उन्हें सम्मान प्राप्त है और यह भी उल्लेख मिलता है कि वे ब्राम्हणों को भूमिदान आदि भी करते रहते थे। बिम्बिसार की हत्या उनके ही पुत्र अजातशत्रु नें की तत्पश्चात राजगृह से मगध की सत्ता संभाली। अजातशत्रु भी बौद्ध और जैन धर्म का समान आदर करते थे। उन्होंने एक बौद्ध स्तूप का भी निर्माण करवाया था। उनके ही शासनकाल में प्रथम बौद्ध संगिति राजगृह के निकट सप्तपर्णी गुफा में हुई थी। अजातशत्रु की हत्या उनके पुत्र उदायिन (460 – 444 ईसा पूर्व) नें की तथा सत्ता संभाली। उदायिन नें ही राजधानी को राजगृह से गंगा तथा सोन नदी के संगमस्थल पर पाटलीपुत्र के निकट स्थानांतरित कर दिया था। 

यही वह समय भी था जब भारत की राजनीति जनपदो में बँटी हुई थी। इस काल में बाईस महाजनपदों (बौद्ध साहित्य में 16 जनपदों का उल्लेख करता है तथा जैन साहित्यों में भी 16 ही महाजनपदों का उल्लेख है। जैन ग्रंथों के उल्लेख बौद्ध ग्रंथों से बाद के हैं जिसमें दक्षिणभारत के कुछ जनपद अतिरिक्त सम्मिलित हैं। पाणिनी के अष्टाध्यायी में 22 महाजनपद बताये गये हैं।) का उल्लेख मिलता है। यदि शासन प्रणाली की बात की जाये तो बहुतायत महाजनपदों पर किसी न किसी राजा का एकतंत्रात्मक शासन था। ‘गण’ और ‘संघ’ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था। कुछ राज्यों में भूमि सहित अर्थिक स्रोतों पर ‘राजा’ और ‘गण’ सामूहिक नियंत्रण रखते थे। हर महाजनपद की राजधानी को क़िले से घेर कर सुरक्षित किया जाता था। दण्ड़कारण्य का क्षेत्र उन दिनों विंध्य पर्वत के दक्षिण में स्थित अश्मक महाजनपद (600 – 321 ईसा पूर्व) का हिस्सा था, जिसकी राजधानी पोतलि थी। बौद्ध साहित्य में इस प्रदेश का, जो गोदावरी तट पर स्थित था, कई स्थानों पर उल्लेख मिलता है। 'महागोविन्दसूत्तन्त' में  अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त का उल्लेख है। सुत्तनिपात में अस्सक को गोदावरी-तट पर बताया गया है। इसकी राजधानी पोतन, पौदन्य या पैठान (प्रतिष्ठानपुर) में थी। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में भी अश्मकों का उल्लेख किया है। बुद्ध को अपने धर्म का प्रचार करने के लिये अश्मक जनपद से सहायता मिलती रही।

मगध क्षेत्र में अगला शासन शैशुनाग वंश का था, जिसके संस्थापक शिशुनाग माने जाते हैं; इसका काल लगभग पाँचवीं से चौथी शताब्दी ई. पू. के मध्य तक का रहा है। अवंति जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी, की शक्ति को तोड देना उनकी सबसे बडी उपलब्धि थी जिसके बाद बहुतायत मध्य क्षेत्र मगध का हिस्सा बने। शिशुनाग के उत्तराधिकारी कालाशोक के द्वारा कलिंग विजय का उल्लेख मिलता है तथापि दण्डक क्षेत्र के उनके आधीन होने की जानकारी नहीं मिलती। बौद्ध धर्म की दृष्टि से यह समय इस लिये भी उल्लेखनीय है क्योंकि द्वितीय बौद्ध संगति इसी काल में बुलाई गयी थी जिसमें कि वैशाली के भिक्षुओं को संघ से बहिष्कृत कर दिया गया था। शैशुनाग वंश की समाप्ति महापद्मनंद के उदित होने के साथ साथ हुई। महापद्मनंद के द्वारा अपने समकालीन जिन राज्यों पर अधिकार कर विशाल साम्राज्य का निर्माण करने का उल्लेख मिलता है उनमें इक्ष्वाकु, पांचाल, काशी, हैहय, कलिंग, अश्मक, कुरु, मैथिलि, शूरसेन तथा वीतिहोत्र राज्य प्रमुख हैं। अर्थात महापद्मनंद के आधीन वह अश्मक जनपद भी हो गया था जिसका हिस्सा प्राचीन बस्तर रहा है। आधीनस्त क्षेत्र होने के बाद भी नंदयुगीन मगध की राजनीति नें सीधे तौर पर दण्डकारण्य को प्रभावित किया हो यह उल्लेख तो नहीं मिलता तथापि बौद्ध तथा जैन दोनों ही मतो के प्रचारकों का प्रादुर्भाव दक्षिणापथ की ओर समय-समय पर होता रहा। जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण भारत तथा पश्चिम भारत में प्रसारित हुआ जहाँ ब्राम्हणवादिता की जडे तब तक मजबूत नहीं हुई थीं। जैन धर्म के दक्षिण में पुष्पित पल्लवित होने का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण समझ में आता है कि महावीर के निर्वाण के 200 वर्ष पश्चात मगध में भारी सूखे की स्थिति आ गयी थी। यह अकाल लगभग बारह वर्षों तक रहा तथा इस समय बाहुभद्र के नेतृत्व में जैन सम्प्रदाय का एक धड़ा दक्षिणापथ की ओर पलायन कर गया। इसके साथ ही जैन धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार दक्षिणी भारत के क्षेत्रों में हुआ जिसका हिस्सा दण्डकारण्य (प्राचीन बस्तर) क्षेत्र भी था। दक्षिण की ओर पलायन कर गये इसी जैन संप्रदाय को बाद में दिगम्बर भी कहा गया है जब कि अकाल के समय स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध में ही रह गये जन मतावलम्बी कालांतर में श्वेताम्बर के रूप में वर्गीकृत हुए। 

महापद्मनंद के स्थापित साम्राज्य का अंतिम राजा था धनानंद जिसे चाणक्य की सहायता से पराजित कर चन्द्रगुप्त (322 - 298 ईसा पूर्व) नें मौर्य वंश की नींव रखी थी। आश्चर्य किंतु सत्य यह था कि जिस मौर्य के एकतंत्र-साम्राज्य का हिमालय से ले कर मैसूर तक विस्तार हो गया था, वह आटविक जनपद शासित दण्ड़क और कलिंग क्षेत्र नहीं हथिया सका। मौर्य कालीन प्राचीन बस्तर उस ‘आटविक जनपद’ का हिस्सा था जो स्वतंत्र शासित प्रदेश बन गया था। कौटिल्य का अर्थशास्त्र “अटवि” सेना के महत्व को प्रतिपादित करता है जिससे यह पुष्टि होती है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने बस्तर क्षेत्र की जनजातियों के सम्मिलन्न से एक टुकडी का गठन कर उसे अपनी सेना का हिस्सा बनाया था। कालांतर में मौर्य शासक अशोक ने कलिंग़ (261 ईसा पूर्व) को जीतने के लिये भयानक युद्ध किया। एक लाख सैनिक मारे गये, डेढ़ लाख सैनिक कैद किये गये। कलिंग ने अशोक की आधीनता स्वीकार कर ली। अशोक नें जब आक्रमण किया तो उसके प्रतिरोध में दण्डक के योद्धा भी कलिंग के समर्थन में आ गये। यद्यपि कलिंग नें तो अशोक की आधीनता स्वीकार कर ली किंतु आटविक जनपद के दण्ड़क क्षेत्र पर ‘मौर्य-ध्वज’ स्वप्न ही रहा। अपनी इस विफलता को सम्राट अशोक ने स्वीकार करते हुए पत्थर पर खुदवाया – ‘अंतानं अविजितानं; आटविक जन अविजित पड़ोसी है’। इसके साथ ही अशोक नें आटविक जनता को उसकी ओर से चिंतिन न होने एवं स्वयं को स्वतंत्र समझने के निर्देश स्वयं दिये थे – “एतका वा मे इच्छा अंतेषु पापुनेयु; लाजा हर्बं इच्छति अनिविगिन हेयू; ममियाये अखसेयु च में सुखमेव च; हेयू ममते तो दु:ख”। तथापि गंभारतापूर्वक अशोक के शिलालेखों का अध्ययन करने पर मुझे यह प्रतीत होता है कि आटविक क्षेत्र की स्वतंत्रता अशोक को प्रिय नहीं रही थी साथ ही यहाँ की जनजातियों की ओर से अशोक के साम्राज्य को यदा-कदा चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा होगा। इस सम्बन्ध में अशोक का तेरहवा शिलालेख उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने स्पष्ट चेतावनी जारी की है कि अविजित आटविक जन किसी प्रकार की अराजकता करते हैं तो वह उनका समुचित उत्तर देने के लिये भी तैयार है। यह कथन इस लिये भी महत्व का है क्योंकि इससे उस सम्राट की बौखलाहट झलकती है जो विशाल साम्राज्यों को रौंद कर उनपर मौर्य ध्वज लहरा चुका था लेकिन आटविक क्षेत्र के आदिवासी जन उसकी सत्ता और आदेश की परिधि से बाहर थे। इसी शिलालेख में अशोक नें आदिम समाज को दी हुई अपनी धमकी पर धार्मिक कम्बल भी ओढाया है और वे आगे लिखवाते हैं कि “देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी वनवासी लोगों पर दयादृष्टि रखते हैं तथा उन्हें धर्म में लाने का यत्न करते हैं।“ यहाँ उल्लेख करना होगा कि मौर्ययुगीन बस्तर क्षेत्र को तब सम्यता से दूर मानना सही व्याख्या नहीं होगी। निश्चित ही सम्राट अशोक नें आटविक क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार की कोशिश की होगी तथा उनसे पूर्ववर्ती शासकों द्वारा भी एसा किया गया होगा। जनपदकाल से ले कर अशोक तक प्राचीन बस्तर में बौद्ध धर्म को ले कर भ्रम व अस्पष्टता की स्थिति होने का मूल कारण है कि इस समय तक यह धर्म अपने हीनयानी सिद्धांतों व नीतियों पर आधारित था जिसमें मूर्तिपूजा का कोई स्थान नहीं था। आज बस्तर क्षेत्र से बौद्ध धर्म तथा भगवान बुद्ध से सम्बन्धित जो भी शिल्प-अवशेष प्राप्त होते हैं वे बहुतायत अशोक एवं उसके बाद के ही हैं। यहाँ की तत्कालीन सभ्यता उच्च कोटि की रही होगी जिसका कि प्रमाण खुदाई में प्राप्त इस युग के पॉलिशयुक्त पात्रों के माध्यम से हो जाता है।     

अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य कमजोर पड़ गया था। इसका लाभ उठा कर कलिंग ने स्वयं को स्वतंत्र कर लिया। कलिंग में महामेघवंश (186 – 72 ईसा पूर्व) का उदय हुआ। कलिंग के जैन राजा 'खारवेल' को आर्य महाराज, महामेघवाहन, कलिंगाधिपति, लेमराज, धर्मराज महाविजय राज आदि सम्बोधन प्राप्त थे। उसने मौर्य शासकों के ‘मगध’ को कलिंग साम्राज्य का एक प्रांत बना दिया। राजा खारवेल की आधीनता में आटविक राज्य के अधिकांश क्षेत्र आ गये थे। यह उल्लेख मिलता है कि खारवेल नें आटविक जनों की सहायता से ही पश्चिम में भोजक (विदर्भ) तथा रठिक (महाराष्ट्र) राज्यों को परास्त किया था। इस पश्चिम विजय की जानकारी खारवेल के प्रसिद्ध हाथीगुंफा अभिलेख से होती है तथा इसमें बस्तर क्षेत्र के लिये ‘अपराजेय विद्याधराधिवास’ का प्रयोग किया गया है। इसी अभिलेख से यह भी जानकारी मिलती है कि इसी विद्याधराधिवास क्षेत्र (प्राचीन बस्तर) से खारवेल नें अपने शासन के चौथे वर्ष में रत्न तथा बहुमूल्य सामग्रियाँ छीन ली थीं। यह उल्लेख तत्कालीन बस्तर के दीन हीन नहीं अपितु एक सम्पन्न क्षेत्र होने का आभास दिलाता है। महामेघवाहन-राज्य की स्थापना के साथ दण्ड़कारण्य में जैन-धर्म का भरपूर प्रचार-प्रसार हुआ। बस्तर तथा इसके निकटवर्ती ओडिशा क्षेत्रों से अनेक जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनका निर्माणकाल खारवेल के शासन के समकक्ष पहुँचता है। जैपोर में एसी ही प्राप्त जैन मूर्तियों को रखा गया है जिनमें अधिकतम दिगम्बर प्रतिमायें हैं; सप्तमुखी सर्प की छाया में ध्यानस्त एक दिगम्बर जैन मूर्ति विशेष ध्यान खींचती है। एक उल्लेख (एच.टी.डब्ल्यु; 27.06.1976) अतिमहत्वपूर्ण है जिसके अनुसार बोरिगुम्मा खण्ड के निकट के गाँवों में जैन मंदिर होने के प्रमाण व अवशेष मिलते हैं जिनमें पकनीगुडा तथा कोठारगुडा प्रमुख हैं। स्थानीय आदिवासियों नें यहाँ प्राप्त जैन मूर्तियों को अपना देवता निरूपित कर पूजा आरंभ कर दी है तथा इन्न मूर्तियों के आगे पशु-बलि भी दी जाती है। जैन मतावलम्बियों के प्रभाव में बस्तर का क्षेत्र बहुत लम्बे समय तक रहा है जिसके साक्ष्य के लिये नागयुगीन बस्तर की धरण महादेवी का खुदवाया शिलालेख (1069 ई.) देखा जा सकता है जिसमें महापरिव्राजक पण्डित सोम, साधु सोमन तथा जिणग्राम आदि की चर्चा है। इन्हें अपने शासन के छठवे वर्ष में राजा खारवेल ने राज्य में करमुक्त व्यवस्था लागू कर दी थी। 

सातवाहन राजवंश (72 ईसा पूर्व से 202 ई.) का केन्द्रीय दक्षिण भारत पर अधिकार था। ईसा के जन्म से 22 वर्ष पूर्व, राजा सातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहन निर्बल होते चले गये। सातवाहनों का पुनरुत्थान ईसा के जन्म के 106 वर्ष बाद, तब हुआ जब, गौतमपुत्र सातकर्णी सिंहासन पर बैठे। 'शक-यवन-पल्हवों' को पराजित कर राजा सातकर्णी ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र  आदि पर विजय प्राप्त करते हुए राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने कौशल, कलिंग तथा दण्ड़कारण्य के दुर्बल शासक ‘चेदि महामेघवाहन’ को पराजित किया। सातवाहनों की पूर्णरूपेण समाप्ति 350 ई. तक हो गयी थी। सातवाहनों के प्राचीन बस्तर क्षेत्र के लिये किये गये कार्यों का अधिक उल्लेख दे पाने में इतिहास अभी भी मौन साधे हुए है। 

यह उल्लेख करना उचित होगा कि ईसापूर्व का बस्तर घने जंगलों नें तथा दुर्गमतम प्राकृतिक परिस्थितियों के बाद भी एक प्रगतिशील क्षेत्र था। तत्कालीन सभी बडे साम्राज्यों नें इस क्षेत्र पर अधिकार करने अथवा उससे समझौता कर अपने साम्राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने को आवश्यक समझा। भगवान बुद्ध तथा महावीर के मतो का यहाँ भी समुचित प्रचार-प्रसार हुआ। ये उदाहरण यह भी विचार प्रस्तुत करते हैं कि ईसापूर्व में जब प्राचीन बस्तर क्षेत्र प्रगति तथा गौरव का इतिहास रच रहा था वह अचानक गुमनामी के अंधेरे में कैसे गुम हो गया? इसके लिये इतिहास के आगे के पन्ने पलटने होंगे। 

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ह्वेनसांग की दक्षिणापथ यात्रा और सातवाहन साम्राज्य

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रायपुर से प्रकाशित होने वाले सांध्य दैनिक -  ट्रू सोल्जर में दिनांक 3.10.2012 को प्रकाशित 

प्राचीन बस्तर क्षेत्र में सातवाहनों (72 ई-350 ई तक) की सत्ता का उल्लेख ह्वेनसांग द्वारा अपने यात्रा वृतांत में किया गया है। चीनी यात्री की यह यात्रा यद्यपि 629 से ले कर 645 ई तक ठहरती है। यात्रावृतांत का सूक्षमता से अध्ययन करने पर इसमें तत्कालीन बस्तर का इतिहास ही नहीं मिलता अपितु ह्वेनसांग नें अनेकों निकटवर्ती शासनों के क्षेत्रफल, भूगोल, जनश्रुतियों, मिथकों, आदि; सभी कुछ को उल्लेखित किया है। बौद्ध साहित्य तथा उनके समकालीन एवं पूर्ववर्ती विचारकों व उनसे जुडे साक्ष्यों को वे अतीत से भी खोज निकालते हैं तथा उनका विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हैं। इस यात्रावृतांत में बस्तर के लिये पो-लो-मो-लो-कि-ली; कलिंग के लिये कई-लिंग-किया; कोशल क्षेत्र के लिये क्यि-वस-लो तथा आन्ध्र के लिये अन-त-लो नाम का प्रयोग ह्वेनसांग द्वारा किया गया है। एस एन राजगुरु (आई ओ, खण्ड-4 भुवनेश्वर, 1966) के अनुसार पो-लो-मो-लो-कि-ली बस्तर के अभिलेखों में वर्णित भ्रमरकोट्य मण्डल है। उनके अनुसार यह पर्वत कालाहाण्डी तथा बस्तर की सीमा पर अवस्थित है। एन के साहू अपनी पुस्तक बुद्धिज्म इन ओडिशा में पो-लो-मो-लो-कि-ली को परिमल गिरि मानते हुए इसे सम्बलपुर एवं बालंगीर की सीमा पर स्थित गंधमर्दन पर्वत निरूपित करते हैं। इन सभी क्षेत्रों की जानकारियों को सामूहिक रूप में देखने पर ही प्राचीन बस्तर की तत्कालीन अवस्था का अनुमान लगाया जा सकता है। 

ह्वेनसांग के अनुसार बौद्ध महायान शाखा के महान दार्शनिक ‘नागार्जुन’ ईसा की दूसरी शताब्दी में पो-लो-मो-लो-कि-ली के मठ में रहते थे जो दक्षिण कोसल की राजधानी से दक्षिण-पश्चिम में 300 ली की दूरी पर अवस्थित था। इस क्षेत्र के स्वामी सो-तो-पो-हो (सातवाहन) थे और वही इस मठ के संरक्षक थे। यह विवरण ह्वेनसांग द्वारा कोशल तथा बस्तर क्षेत्र में महान दार्शनिक नागार्जुन के सम्बन्ध में जानकारी एकत्रीकरण की कोशिश के रूप में ही दिया गया है; नागार्जुन और ह्वेनसांग समकालीन नहीं थे। इस दृष्टि से यह समझना भी आवश्यक हो जाता है कि बौद्ध साहित्य तथा सिद्धांतों की खोज में ह्वेनसांग केवल वर्तमान की परिधियाँ ही नहीं नाप रहे थे अपितु बहुत सूक्षमता से उन्होंने अपने समय से पहले के इतिहास का अंवेषण भी किया है। ह्वेनसांग कलिंग में प्रवेश से पहले प्राचीन बस्तर क्षेत्र का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि “हम एक भारी निर्जन वन में पहुँचे जिसके चारो ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष सूर्य की आड़ लिये हुए आकाश से बातें करते थे”। कलिंग और उसके सीमांत क्षेत्रों जिसमें स्वाभाविकत: बस्तर का क्षेत्र भी सम्मिलित हो जाता है के विषय में ह्वेनसांग बताते हैं कि “जंगल-झाडी सैंकडो कोस तक लगातार चली गयी है। यहाँ पर कुछ हरापन लिये हुए नीले हाँथी मिलते हैं जो निकटवर्ती सूबों में बडे दाम पर बिकते हैं। मनुष्य का स्वभाव उग्र है परंतु वे अपने वचन का पालन करने वाले विश्वसनीय लोग हैं। बहुत थोडे लोग बुद्ध धर्म पर विश्वास करते हैं, अधिकतम लोग विरुद्ध धर्मावलम्बी ही हैं”। प्रकृति के अलावा भी यदि ह्वेनसांग द्वारा प्रस्तुत तथ्य का विश्लेषण किया जाये तो अंग्रेजों के समय तक हाँथी जयपोर (वर्तमान में ओडिशा में अवस्थित) एवं बस्तर रियासत में प्रमुखता से पाये जाते थे। अंग्रेज अधिकारी मैक्जॉर्ज जो कि बस्तर में 1876 के विद्रोह के दौरान प्रशासक था, नें हाथी और उससे जुडी तत्कालीन राजनीति पर एक रोचक उल्लेख अपने एक प्रतिवेदन में किया है – “रियासतों में छोटी छोटी बातों के लिये झगडे होते थे। जैपोर और बस्तर के राजाओं के बीच झगड़े की जड़ था एक हाँथी। जैपोर स्टेट ने बस्तर के जंगलों से चोरी छुपे हाँथी पकड़वाये। इसके लिये वे हथिनियों का इस्तेमाल करते थे। उनकी इसी काम के लिये भेजी गयी कोई हथिनी बस्तर के अधिकारियों ने पकड़ ली। यह बड़ा डिस्प्यूट हो गया। अंतत: अंग्रेज आधिकारियों को इस हथिनी के झगड़े में बीच बचाव करना पड़ा। हथिनी को सिरोंचा यह कह कर मंगवा लिया गया कि बस्तर स्टेट को वापस कर दिया जायेगा लेकिन फिर उसे जैपोर को सौंप दिया गया”। वर्तमान में बस्तर में हाथी नहीं मिलते हैं अत: इस उद्धरण को यहाँ उल्लेखित करने के पीछे मेरा मंतव्य ह्वेनसांग के उल्लेखों और प्राचीन बस्तर में अंतर्सम्बन्ध दर्शाना है। 

कलिंग से जोड कर ह्वेनसांग नें एक मिथक कथा को उल्लेखित किया है जिसके अनुसार “एक समय यह क्षेत्र बहुत घना बसा हुआ था। इतना घना कि रथो के पहियों के धुरे एक दूसरे से रगड खाते थे। एक महात्मा जिन्हें पाँचों सिद्धियाँ प्राप्त थी वे एक उँचे पर्वत पर निवास करते थे। किसी कारण उनकी शक्तियों का ह्रास हो गया तथा लज्जित हो कर उन्होंने श्राप दे दिया जिससे वृद्ध-युवा, मूर्ख-विद्वान, सब के सब समान रूप से मरने लगे, यहाँ तक कि सम्पूर्ण जनपद का नाश हो गया”। इस कथा का सम्बन्ध मैने कलिंग के एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ह्वेनसांग पूर्व की घटनाओं, उद्धरणों और जनश्रुतियों आदि से करने की कोशिश की किंतु हर बार मेरा ध्यान बस्तर से जुडी राजा दण्ड की उस कथा की ओर ही गया जहाँ शुक्राचार्य के अभिशाप से पूरा दण्डकारण्य जनपद नष्ट हो गया था। उल्लेखनीय है कि कलिंगारण्य तथा दण्डकारण्य समानांतर हैं एवं इन दोनों ही क्षेत्रों के इतिहास को जुडवा भाईयों की कहानी की तरह ही देखना उचित प्रतीत होता है। 

ह्वेनसांग कलिंग से दण्डकारण्य होते हुए कोशल तक पहुँचते हैं। अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम इस कोशल क्षेत्र की सीमा के भीतर प्राचीन बस्तर, वर्तमान छत्तीसगढ के उत्तरी हिस्सों (कोशल और सन्निकट के क्षेत्र), बरार और बहुतायत गोण्डवाना को सम्मिलित कर लेते हैं एवं राजधानी चाँदा, नागपुर अथवा अमरावती को मानते हैं। फगुर्सन नें ह्वेनसांग द्वारा दिये गये माप ‘ली’ (अर्थात छ: ली का एक मील) को आधार बना कर बैरागढ को कोसल की राजधानी बताया है। महायान सम्प्रदाय की सार्वभौमिकता ही ह्वेनसांग की यात्रा कालीन दक्षिणापथ को एक साथ जोडती प्रतीत होती है तथा राजधानी के स्पष्ट नामोल्लेख न होने के कारण इस विवाद को इतिहासकारों की झोली में डालते हुए हम उस विवरण की ओर लौटते हैं जहाँ ह्वेनसांग कहते हैं कि “विधर्मी तथा बौद्ध दोनो यहाँ पर हैं जो उच्च कोटि के बुद्धिमान और विद्याध्ययन में परिश्रमी हैं। कोई सौ संघाराम और दस हजार से कुछ ही कम साधु हैं जो सब के सब महायान सम्प्रदाय का अनुशीलन करते हैं”। यह कथन निस्संदेह सिरपुर से जुडता है किसकी वर्तमान में अवस्थिति रायपुर से 85 किलोमीटर की दूरी पर है। कभी श्रीपुर कहलाने वाला सिरपुर सोमवंशी राजाओं के समय में कोशल की राजधानी भी रहने का गौरव प्राप्त कर चुका है। इस क्षेत्र में निरंतर जारी खुदाई से इतिहास शनै: शनै: सजीव होने लगा है तथा यह तथ्य सामने आ रहा है कि नालंदा और तक्षशिला से भी प्राचीन शिक्षा-केन्द्र था सिरपुर। सिरपुर में उत्खनन कार्य करा रहे पुरातत्ववेत्ता डॉ अरुण कुमार शर्मा के अनुसार खुदाई में प्राप्त एक स्तूप का सम्बन्ध सीधे ही भगवान बुद्ध से है। यह स्तूप सांची के स्तूप से अलग है और पत्थरों से निर्मित है। पत्थर के स्तूपों के बारे में कहा जाता है कि ऐसे स्तूप भगवान बुद्ध के निर्देशन में ही बनते थे। बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख है कि बुद्ध ईसा पूर्व छठीं सदी में सिरपुर आए थे; तब यहां बौद्ध विहारों की स्थापना शुरू हुई। ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने भी इस क्षेत्र में कई स्तूपों का निर्माण कराया। सिरपुर के आलोक में महायान सम्प्रदाय के महान विचारक नागार्जुन की चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। 

नागार्जुन दूसरी सदी में न केवल नालंदा में विद्यार्थी थे अपितु बाद में बहुत समय तक वहाँ के प्रधान भिक्षु के रूप में भी कार्यरत रहे। नागार्जुन का सम्बन्ध प्राचीन बस्तर और कोसल से रहा है तथा उनका अनुमानित जीवनकाल 150 ई – 250 ई के मध्य माना जाता है। नागार्जुन माध्यमिक (मध्य मार्ग) मत के संस्थापक थे जिनकी ‘शून्यता’ (ख़ालीपन) की अवधारणा के स्पष्टीकरण को उच्चकोटि की बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि माना जाता है। प्राचीन बस्तर में नागार्जुन की अवस्थिति का एक प्रमाण उनका तत्कालीन सातवाहन वंश के राजा {संभवत: यज्ञश्री (173-202)} को लिखा एक पत्र (सुहारिल्लेख, ‘मैत्रिपूर्ण पत्र’) भी है। तथापि ह्वेनसांग नें नागार्जुन के दर्शन और उनकी महानता का वर्णन करने में कोताही नहीं की है। ह्वेनसांग बताते हैं कि नगर के दक्षिण में एक संघाराम है जिसमें नागार्जुन रहा करते थे। एक बार लंका निवासी देव-बिधिसत्व शास्त्रार्थ के लिये आया। द्वारपाल के माध्यम से मिलने से पूर्व नागार्जुन नें आगंतुक की प्रतिष्ठा में एक पात्र में जल भर कर दिया। देव-बोधिसत्व पहले तो जल को देख कर चुप हो गये फिर एक सूई निकाल कर उसमें डाल दी। यह पात्र पुन: नागार्जुन तक पहुँचा तो वे उत्साहित हो कर बोले यह व्यक्ति सूक्ष्म ज्ञान से भरा हुआ है जिसे हृदयंगम करने का सुअवसर हैं इन्हें भीतर बुलाया जाये। नागार्जुन में इसके पश्चात अपने शिष्यों को दो महाविद्वानों के बीच हुए इस मौन वार्तालाप के विषय में बताया कि वस्तुत: उन्होंने ज्ञान की निर्मलता और ग्राह्यता का संदेश जल-पात्र के रूप में भेजा था जिसके प्रत्युत्तर में अपने सूक्ष्म संदेहों की बात देव-बोधिसत्व द्वारा की गयी। ह्वेनसांग बाद में देव-बोधिसत्व में ज्ञान के अहंकार और उसका नागार्जुन द्वारा किये गये निराकरण का भी जिक्र अपने वृतांतों में करते हैं। नागार्जुन से सम्बन्धित कई पुरा-स्थलों को प्राचीन बस्तर में खोजा जाना शेष है। ह्वेनसांग का यह विवरण देखें – “लगभग 300 ली दक्षिण पश्चिम चल कर हम ब्रम्हगिरि नामक पहाड पर पहुँचे। इस पहाड की सूनसान चोटी सबसे ऊँची है। इस स्थान पर सद्वह राजा नें नागार्जुन बोधिसत्व के लिये चट्टान खोद कर उसके भीतर मध्य-मार्ग में एक संघाराम बनवाया था। इस संघाराम के नष्ट किये जाने का उल्लेख भी ह्वेनसांग करते हैं तथापि इसके आकार प्रकार के विवरण से यह प्रतीत होता है कि इस स्थल की खोज एक बडे एतिहासिक धरोहर से हमें परिचित करायेगी। 

प्राचीन बस्तर की जानकारी सीमांत आन्ध्र की उपलब्ध जानकारियों के विश्लेषण के बिना पूरी नहीं होती। ह्वेनसांग लिखते हैं कि दक्षिण दिशा में एक घने जंगल मे जा कर कोई 900 मील चल कर हम ‘अन-त-लो’ (आन्ध्र) देश में पहुँचे। यहाँ की प्रकृति गर्म तथा मनुष्य साहसी होते हैं। वाक्य विन्यास एवं भाषा मध्य भारत से भिन्न है। यह स्थान भी आंशिक रूप से भगवान बुद्ध के प्रभाव में आया एवं एक शून्य पहाड का जिक्र ह्वेनसांग करते हैं जिस स्थान पर जिन-बोधिसत्व नाम के विद्वान द्वारा हेतुविद्या शास्त्र की निर्मिति का उल्लेख मिलता है। उपरोक्त विवरणों से ह्वेनसांग की दक्षिणापथ यात्रा के दौरान बस्तर भी आने का स्पष्ट उल्लेख है तथा कई राज्यों के मध्य की कडी के रूप में एक घना वन प्रदेश भी यह जान पडता है। ह्वेनसांग के माध्यम से यह भी निरूपित करने में हमे सहायता मिलती है कि महान विद्वान नागार्जुन प्राचीन बस्तर से ही सम्बद्ध थे तथा उन दिनों यह क्षेत्र सातवाहनों द्वारा शासित था। नागार्जुन का इतना अधिक सम्मान था कि उनकी सुरक्षा के लिये शासन द्वारा अंगरक्षक भी प्रदान किये गये थे।  

प्राचीन बस्तर में सत्ता का केन्द्र मौर्य सामाज्य के पतन के बाद से ही बदलने लगा था। 72 ई. पूर्व से ले कर 200 ई. तक का समय इस क्षेत्र में दक्षिण भारत के बढते हुए प्रभावों का समय रहा। सातवाहन राजवंश का केन्द्रीय दक्षिण भारत पर अधिकार था। 22 ई. पूर्व में राजा सातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहन निर्बल होते चले गये। सातवाहनों का पुनरुत्थान 106 ई. के बाद, तब हुआ जब, गौतमपुत्र सातकर्णी सिंहासन पर बैठे। 'शक-यवन-पल्हवों' को पराजित कर राजा सातकर्णी ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र आदि पर विजय प्राप्त करते हुए राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने कौशल, कलिंग तथा दण्ड़कारण्य के दुर्बल शासक ‘चेदि महामेघवाहन’ को पराजित किया। 350 ई. तक यहाँ सातवाहनों की समाप्ति हो गयी थी। इस समय इक्ष्वाकुओं ने दण्ड़कारण्य के पूर्वीभाग पर अपनी संप्रभुता स्थापित की तो उत्तरी भाग में वाकाटकों का प्रभुत्व हुआ। वाकाटक शब्द का प्रयोग प्राचीन भारत के उस राजवंश के लिए किया जाता है जिसने तीसरी सदी के मध्य से छठी सदी तक शासन किया था। तीसरी शताब्दि के मध्य तक वाकाटक संप्रभुता सम्पन्न हो गये थे। 

बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं

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यह असाधारण सत्य है कि छत्तीसगढ राज्य का बस्तर क्षेत्र अगर किसी एक व्यक्ति को अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक पहचान के रूप में जानता है तो वह लाला जगदलपुरी हैं। तिरानबे वर्ष की आयु, अत्यधिक क्षीण काया तथा लगभग झुक चुकी कमर के बाद भी लाला जी अपनी मद्धम हो चुकी आँख को किसी किताब में गडाये आज भी देखे जाते हैं। अब एक छोटे से कमरे में सीमित दण्डकारण्य के इस ऋषि का जीवन असाधारण एवं अनुकरणीय रहा है। लाला जगदलपुरी दो व्यवस्थाओं के प्रतिनिधि हैं; उन्होंने राजतंत्र को लोकतंत्र में बदलते देखा तथा वे बस्तर में हुई हर उथलपुथल को अपनी पैनी निगाह से जाँचते-परखते तथा शब्दबद्ध करते रहे। वह आदिम भाषा हो या कि उनका लोक जीवन लाला जी से बेहतर और निर्पेक्ष कार्य अब तक किसी नें नहीं किया है। डोकरीघाट पारा का कवि निवास लाला जगदलपुरी के कारण एक पर्यटन स्थल बना हुआ है तथा एसा कोई बुद्धिजीवी नहीं जो बस्तर पर अपनी समझ विकसित करना चाहता हो वह लाला जी के चरण-स्पर्श करने न पहुँचे। लाला जी की व्याख्या उनका ही एक शेर बखूबी करता है  - 

एक गुमसुम शाल वन सा समय कट जाता,
विगति का हर संस्करण अब तक सुरक्षित है। 
मिट गया संघर्ष में सबकुछ यहाँ लेकिन, 
गीतधर्मी आचरण अब तक सुरक्षित है।  
(मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश – 1983)

रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव के समय में दुर्ग क्षेत्र से चार परिवार विस्थापित हो कर बस्तर आये थे। इन परिवारों के मुखिया थे - लोकनाथ, बाला प्रसाद, मूरत सिंह और दुर्गा प्रसाद। इन्ही में से एक परिवार जिसके मुखिया श्री लोकनाथ बैदार थे वे शासन की कृषि आय-व्यय का हिसाब रखने का कार्य करने लगे। उनके ही पोते के रूप में श्री लाला जगदलपुरी का जन्म 17 दिसम्बंर 1920 को जगदलपुर में हुआ था। लाला जी के पिता का नाम श्री रामलाल श्रीवास्तव तथा माता का नाम श्रीमती जीराबाई था। लाला जी तब बहुत छोटे थे जब पिता का साया उनके सिर से उठ गया तथा माँ के उपर ही दो छोटे भाईयों व एक बहन के पालन-पोषण का दायित्व आ गया। लाला जी के बचपन की तलाश करने पर जानकारी मिली कि जगदलपुर में बालाजी के मंदिर के निकट बालातरई जलाशय में एक बार लाला जी डूबने लगे थे; यह हमारा सौभाग्य कि बहुत पानी पी चुकने के बाद भी वे बचा लिये गये।   

लाला जी का लेखन कर्म 1936 में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं – मिमियाती ज़िन्दगी दहाडते परिवेश (1983); पड़ाव (1992); हमसफर (1986) आँचलिक कवितायें (2005); ज़िन्दगी के लिये जूझती ग़ज़लें  तथा गीत धन्वा (2011)। लाला जगदलपुरी के लोक कथा संग्रह हैं – हल्बी लोक कथाएँ (1972); बस्तर की लोक कथाएँ (1989); वन कुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990); बस्तर की मौखिक कथाएँ (1991)। उन्होंने अनुवाद पर भी कार्य किया है तथा प्रमुख प्रकाशित अनुवाद हैं – हल्बी पंचतंत्र (1971); प्रेमचन्द चो बारा कहानी (1984); बुआ चो चीठीमन (1988); रामकथा (1991) आदि। लाला जी नें बस्तर के इतिहास तथा संस्कृति को भी पुस्तकबद्ध किया है जिनमें प्रमुख हैं – बस्तर: इतिहास एवं संस्कृति (1994); बस्तर: लोक कला साहित्य प्रसंग (2003) तथा बस्तर की लोकोक्तियाँ (2008)। यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का बहुत सा कार्य अभी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्य वश कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर लिये गये। यह 1971 की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से बाहर गये थे कि एक गाय नें यह सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये; आज भी लाला जगदलपुरी की अनेक पाण्डुलिपियाँ अ-प्रकाशित हैं किंतु हिन्दी जगत इतना ही सहिष्णु व अच्छे साहित्य का प्रकाशनिच्छुक होता तो वास्तविक प्रतिभायें और उनके कार्य ही मुख्यधारा कहलाते। 

लाला जगदलपुरी जी के कार्यों व प्रकाशनों की फेरहिस्त यहीं समाप्त नहीं होती अपितु उनकी रचनायें कई सामूहिक संकलनों में भी उपस्थित हैं जिसमें समवांय, पूरी रंगत के साथ, लहरें, इन्द्रावती, हिन्दी का बालगीत साहित्य, सुराज, छत्तीसगढी काव्य संकलन, गुलदस्ता, स्वरसंगम, मध्यप्रदेश की लोककथायें आदि प्रमुख हैं। लाला जी की रचनायें देश की अनेकों प्रमुख पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में भी स्थान बनाती रही हैं जिनमें नवनीत, कादम्बरी, श्री वेंकटेश्वर समाचार, देशबन्धु, दण्डकारण्य, युगधर्म, स्वदेश, नई-दुनिया, राजस्थान पत्रिका, अमृत संदेश, बाल सखा, बालभारती, पान्चजन्य, रंग, ठिठोली, आदि सम्मिलित हैं। लाला जगदलपुरी नें क्षेत्रीय जनजातियों की बोलियों एवं उसके व्याकरण पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। लाला जगदलपुरी को कई सम्मान भी मिले जिनमें मध्यप्रदेश लेखक संघ प्रदत्त “अक्षर आदित्य सम्मान” तथा छत्तीसगढ शासन प्रदत्त “पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान’ प्रमुख है। लाला जी को अनेको अन्य संस्थाओं नें भी सम्मानित किया है जिसमें बख्शी सृजन पीठ, भिलाई; बाल कल्याण संस्थान, कानपुर; पड़ाव प्रकाशन, भोपाल आदि सम्मिलित है। यहाँ 1987 की जगदलपुर सीरासार में घटित उस अविस्मरणीय घटना को उल्लेखित करना महत्वपूर्ण होगा हब शानी को को सम्मानित किया जा रहा था। शानी जी स्वयं हार ले कर लाला जी के पास आ पहुँचे और उनके गले में डाल दिया; यह एक शिष्य का गुरु को दिया गया वह सम्मान था जिसका कोई मूल्य नहीं; जिसकी कोई उपमा भी नहीं हो सकती।   

केवल इतनी ही व्याख्या से लाला जी का व्यक्तित्व विश्लेषित नहीं हो जाता। वे नाटककार एवं रंगकर्मी भी हैं। 1939 में जगदलपुरे में गठित बाल समाज नाम की नाट्य संस्था का नाम बदल कर 1940 में सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख दिया गया। इस ससंथा द्वारा मंचित लाला जी के प्रमुख नाटक थे – पागल तथा अपनी लाज। लाला जी नें इस संस्था द्वारा मंचित विभिन्न नाटकों में अभिनय भी किया है। 1949 में सीरासार चौक में सार्वजनिक गणेशोत्सव के तहत लाला जगदलपुरी द्वारा रचित तथा अभिनित नाटक “अपनी लाज” विशेष चर्चित रहा था। लाला जी बस्तर अंचल के प्रारंभिक पत्रकारों में भी रहे हैं। वर्ष 1948 – 1950 तल लाला जी नें दुर्ग से पं. केदारनाथ झा चन्द्र के हिन्दी साप्ताहित “ज़िन्दगी” के लिये बस्तर संवाददाता के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने हिन्दी पाक्षिक अंगारा का प्रकाशन 1950 में आरंभ किया जिसका अंतिम अंक 1972 में आया था। अंगारा में कभी ख्यातिनाम साहित्यकार गुलशेर अहमद खां शानी की कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं; उल्लेखनीय है कि शानी भी लालाजी का एक गुरु की तरह सम्मान करते थे। लाला जगदलपुरी 1951 में अर्धसाप्ताहिक पत्र “राष्ट्रबंधु” के बस्तर संवाददाता भी रहे। समय समय पर वे इलाहाद से प्रकाशित “लीडर”; कलकत्ता से प्रकाशित “दैनिक विश्वमित्र” रायपुर से प्रकाशित “युगधर्म” के बस्तर संवादवाता रहे हैं। लालाजी 1984 में देवनागरी लिपि में निकलने वाली सम्पूर्ण हलबी पत्रिका “बस्तरिया” का सम्पादन प्रारंभ किया जो इस अंचल में अपनी तरह का अनूठा और पहली बार किया गया प्रयोग था। लाला जी न केवल स्थानीय रचनाकारों व आदिम समाज की लोक चेतना को इस पत्रिका में स्थान देते थे अपितु केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल, गोरख पाण्डेय और निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकारों की रचनाओं का हलबी में अनुवाद भी प्रकाशित किय जाता था। एसा अभिनव प्रयोग एक मिसाल है; तथा यह जनजातीय समाज और मुख्यधारा के बीच संवाद की एक कडी था जिसमें संवेदनाओं के आदान प्रदान की गुंजाईश भी थी और संघर्षरत रहने की प्रेरणा भी अंतर्निहित थी।      

लाला जगदलपुरी से जुडे हर व्यक्ति के अपने अपने संस्मरण है तथा सभी अविस्मरणीय व प्रेरणास्पद। लाला जगदलपुरी के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह नें शासकीय सहायता का प्रावधान किया था जिसे बाद में आजीवन दिये जाने की घोषणा भी की गयी थी। आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शासन नें 1998 में यह सहायता बिना किसी पूर्व सूचना के तब बंद करवा दी; जिस दौरान उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। लाला जी नें न तो इस सहायता की याचना की थी न ही इसे बंद किये जाने के बाद किसी तरह का पत्र व्यवहार किया। यह घटना केवल इतना बताती है कि राजनीति अपने साहित्यकारों के प्रति किस तरह असहिष्णु हो सकती है। लाला जी की सादगी को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेष सुलभ एक घटना का बहुधा जिक्र करते हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जगदलपुर आये थे तथा अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए उन्होंने लाला जगदलपुरी से मिलना निश्चित किया। मुख्यमंत्री की गाडियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड गया। लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। लाला जी इसी तरह की सादगी की प्रतिमूर्ति हैं। आज उम्र के चौरानबे वसंत वे देख चुके हैं। कार्य करने की धुन में वे अविवाहित ही रहे। जगदलपुर की पहचान डोकरीनिवास पारा का कवि निवास अब लाला जगदलपुरी के भाई व उनके बच्चों की तरक्की के साथ ही एक बडे पक्के मकान में बदल गया है तथापि लाला जी घर के साथ ही लगे एक कक्ष में अत्यधिक सादगी से रह रहे हैं। लाला जी अब ठीक से सुन नहीं पाते, नज़रें भी कमजोर हो गयी हैं। भावुकता अब भी उतनी ही है; हाल ही में जब मैं उनसे मिला था तो वे अपने जीवन के एकाकीपन से क्षुब्ध थे तथा उनकी आँखें बात करते हुए कई बार नम हो गयीं। लाला जगदलपुरी के कार्यों, उपलब्धियों व जीवन मूल्यों को देखते हुए उन्हें अब तक पद्म पुरस्कारों का न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। लाला जगदलपुरी को पद्मश्री प्रदान करने माँग अब कई स्तरों पर उठने लगी है; यदि सरकार इस दिशा में प्रयास करती है तो यह बस्तर क्षेत्र को गंभीरता से संज्ञान में लेने जैसा कार्य कहा जायेगा चूंकि बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं।

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लाला जगदलपुरी को पद्मश्री की माँग को ले कर एक हस्ताक्शर अभियाच चलाया गया था जिसमें देश विदेश से अनेकों हस्ताक्षर प्राप्त हुए हैं- http://signon.org/sign/padmshree-for-lala-jagdalpur.fb21?source=c.fb&r_by=5402702
     
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समुद्रगुप्त की महाकांतार (प्राचीन बस्तर) पर विजय

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दक्षिण भारत को प्रमुखता के साथ इतिहास की पुस्तकों में जगह नहीं मिली है। वस्तुत: जब उत्तर भारत में साम्राज्यों के उत्थान पतन के दौर रहे तब भी सम्पूर्ण दक्षिणापथ के पास अपना गौरवशाली इतिहास व राजनीति रही है। प्राचीन बस्तर जिसे मौर्य काल में स्वतंत्र आटविक जनपद क्षेत्र कहा गया इसे समकालीन कतिपय ग्रंथों में महावन भी उल्लेखित किया गया है। साम्राज्यवादी शासक समुद्रगुप्त को दक्षिण विजय के लिये प्रमुखता से जाना है तथा वे गुप्त वंश के सर्वाधिक ख्यातिनाम विजेता रहे। उनके साम्राज्य विस्तार के लिये दक्षिण क्षेत्र की ओर बढने के कारणों को समझने के लिये मौर्य सत्ता की बिखरती हुई कडियों से बात आरंभ करनी होगी। अशोक वह आखिरी मौर्य सम्राट थे जिन्होंने विशाल भारतीय क्षेत्र में सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक एकता का सूत्रपात किया था। तथापि उनकी दान शीलता एवं युद्ध को वर्जित कर देने की नीति के सकारात्मक परिणाम तो हुए किंतु इसके कारण सत्ता कमजोर भी होती गयी। अशोक के बाद उसके उत्तराधिकारी इतने महत्वहीन शासक रहे कि इतिहासकारों को इस काल के शासकों के नाम व उनका कालक्रम निर्धारण करने में माथापच्ची करनी पडती है।

पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र नें मौर्य शासक बृहदर्थ को मार कर शुंगवंश (185 ई.पू से 73 ई.पू तक) की स्थापना की थी। कहा जाता है कि जब बृहदर्थ अपनी सेना का निरीक्षण कर रहे थे उसी समय उनके ही सेनापति पुष्यमित्र नें उनकी हत्या कर दी। पुष्यमित्र शुंग नें जिस क्रांति का नेतृत्व किया, उसे ब्राम्हण पुनर्स्थापन काल के रूप में भी जाना जाता है। धार्मिक असहिष्णुता का यह युग नहीं कहा जा सकता चूंकि इसी काल में विदिशा के निकट विभिन्न बौद्ध स्तूपों का निर्माण शासन द्वारा होने दिया था। पुष्यमित्र नें यवनों को परास्त किया तथा अपनी विजय के फलस्वरूप अश्वमेध यज्ञ भी किया था। महत्वपूर्ण है कि शुंग के समय में बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों को मिलने वाले राज्याश्रय तथा अनुदानों को बंद करवा दिया गया था। संस्कृत को पुन: प्रोत्साहन मिला तथा इसी समय में पतंजलि नें महाभाष्य एवं मनु नें मनुस्मृति की रचना की। महाभारत के नये रूप की रचना भी इसी काल में हुई थी। उल्लेखनीय है आटविक जनपद अथवा दण्डकारण्य पर इनके द्वारा अधिकार करने की कोई चेष्टा कभी नहीं की गयी। यह पुष्यमित्र का ही समय तथा जब मौर्य शासन के पतन से उत्पन्न अस्थिरताओं का लाभ उठा कर कलिंग राज महामेघवाहन नें अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। उनकी ही पीढी के तीसरे शासक कलिंगराज खारवेल द्वारा उडीसा के उदयगिरि में हाथीगुंफा अभिलेख प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण करवाया गया है जिसके अनुसार उनके वंशज 'ऐल वंश' के चेति या चेदि क्षत्रिय थे। राजा ख़ारवेल ने भारत के सुदूर प्रदेशों को जीतकर अपने अधीन भी कर लिया था जिसमें प्राचीन बस्तर का क्षेत्र भी आता है। उन्होंने मगध सत्ता को भी विजित किया तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि ख़ारवेल अपने जीते हुए लम्बे समय तक अधिकार नहीं रख पाये तथा एक स्थायी साम्राज्य स्थापित करने में विफल रहे। खारवेल की प्रसंशा एसे शासक के रूप में करनी होगी जिसने कर-मुक्त व्यवस्था अपने शासित क्षेत्रों में लागू कर दी थी। मगध की राजनीति नें अगली करवट ली जब शुंग वंश अंतिम शासक देवभूति का वध कर के उसके प्रधानमंत्री वासुदेव कण्व में मगध की सत्ता संभाली व कण्व राज्य (72 ई.पू से 27 ई.पू तक) की स्थापना की। कण्व राजा सुशर्मा का वध कर के दक्षिण भारत से मगध की ओर बढे आन्ध्र सातवाहन साम्राज्य (27 ई.पू से 225 ई. तक) नें मगध की सत्ता पर अपना नियंत्रण हासिल किया। 22 ई. पूर्व में राजा सातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहन निर्बल होते चले गये। सातवाहनों का पुनरुत्थान 106 ई. के बाद, तब हुआ जब, गौतमपुत्र सातकर्णी सिंहासन पर बैठे। 'शक-यवन-पल्हवों' को पराजित कर राजा सातकर्णी ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। अवन्ति, सौराष्ट्र आदि पर विजय प्राप्त करते हुए राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने कौशल, कलिंग तथा दण्ड़कारण्य के दुर्बल शासक ‘चेदि महामेघवाहन’ को पराजित किया।

180 ई. के आरम्भ से, मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप में यूनानी, शक, पार्थी और अंततः कुषाण राजवंश भी स्थापित हुए। उत्तर भारत के बडे क्षेत्र में चीन से सम्बद्ध युइशि जाति के राजवंश ‘कुषाण’ (60-240 ई.) की सत्ता स्थापित हो गयी थी। कुषाण राजवंश के अत्यधिक प्रभावशाली शासक कनिष्क हुए हैं; प्राचीन बस्तर से सम्बद्ध बौद्ध धर्म की महायान शाखा के महान दार्शनिक नागार्जुन इस युग के समकालीन महानतम विचारकों में थे तथा प्राचीन बस्तर में इन दिनों सातवाहनों का अधिकार था। कनिष्क पर बौद्ध धर्म की महायान शाखा का गहरा प्रभाव था। कनिष्क नें अपने समय में बौद्ध धर्म की चौथी संगीति का आयोजन कश्मीर के 'कुण्डल वन' में किया था। इसी संगीति में बौद्ध धर्म दो भागों - हीनयान और महायान में विभाजित हो गया। इस संगीति में दार्शनिक नागार्जुन भी शामिल हुए थे।

मौर्य सत्ता के पश्चात का बस्तर पूरी तरह स्वाधीन नहीं कहा जा सकता। महामेघवाहन वंश के राजा खारवेल नें जब इस क्षेत्र को जीता तो यहाँ जैन धर्म का बढ चढ कर प्रचार-प्रसार हुआ; यद्यपि यह अल्पावधि के लिये ही था। सातवाहनों की बस्तर पर सत्ता के समयों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार को देखा गया। महावन क्षेत्रों में जनजातियों की धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला किये जाने अथवा बलात उन्हें शासित राजाओं के धर्म का अनुयाई बनाने के उल्लेख प्राप्त नहीं होते। अपितु सातवाहनों के पश्चात जैन व बौद्ध दोनो ही धर्मों के अस्तित्व के चिन्ह प्राचीन बस्तर से विलुप्त होने लगे थे। उत्तर और दक्षिण की इस खींचतान भरी राजनीति का निश्चित ही बस्तर पर असर पड रहा था। दक्षिण से उत्तर की ओर हुए दो बडे आक्रमण जिसमें महामेघवाहन वंश के खारवेल तथा उसके पश्चात सातवाहन शासक यद्यपि उत्तर भारत की राजनीति पर अपनी पकड बनाने में असफल रहे तथापि अपनी पहचान निश्चित रूप से इस शासनों नें छोडी है और चूंकि प्राचीन बस्तर क्षेत्र इन दोनों ही सत्ताओं के अधिकार में रहा अत: विवेचनात्मक दृष्टि से तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को देखना आवश्यक हो जाता है। बस्तर के वन क्षेत्र आवागमन के मार्ग भी थे जिसकी तस्दीक सातवाहन काल में ही प्राचीन बस्तर में आये चीनी यात्री ह्वेनसांग भी करते हैं तथा कोशल-कलिंग-आन्ध्र की अपनी यात्राओं के दौरान वे प्राचीन बस्तर के घने जंगलों को अपने वर्णन में कई बार सम्मिलित भी करते हैं। मौर्य युग तक आटविक जन उनकी सेना का हिस्सा थे तथा चन्द्रगुप्त नें तो एक अटवि टुकडी ही बना कर उसे अपनी सेना में सम्मिलित किया था (अर्थशास्त्र; कौटिल्य)। आशोक के पश्चात एसी किसी सैन्य टुकडी की जानकारी नहीं मिलती अपितु बस्तर क्षेत्र में मौर्य सत्ता के हस्तक्षेप के प्रति असंतोष भी झलकता है। नागार्जुन एक धुरी हैं जो नालंदा से जुडते हैं कनिष्क की सत्ता में सम्मानित हैं तथा दक्षिण भारत में महायान शाखा के प्रमुख प्रचारक भी हैं। नागार्जुन प्रमाण हैं कि तत्कालीन बुद्धिजीविता सत्ता की सीमाओं से आगे की बात थी तथा विद्वानों का सम्मान सत्तायें किया करती थीं। मध्य भारत और प्राचीन बस्तर की सत्ता में भी उतार चढाव और अस्थिरता की स्थिति निरंतर बनी रही। लगभग 350 ई. तक प्राचीन बस्तर में सातवाहनों की समाप्ति हो गयी थी। इस समय इक्ष्वाकुओं ने दण्ड़कारण्य के पूर्वीभाग पर अपनी संप्रभुता स्थापित की तो उत्तरी भाग में वाकाटकों का प्रभुत्व हुआ। वाकाटक शब्द का प्रयोग प्राचीन भारत के उस राजवंश के लिए किया जाता है जिसने तीसरी सदी के मध्य से छठी सदी तक शासन किया था। तीसरी शताब्दि के मध्य तक वाकाटक संप्रभुता सम्पन्न हो गये थे। राजा प्रवरसेन-प्रथम ने दण्ड़कारण्य के कुछ क्षेत्रों को अज्ञात राजाओं से इसे अपने आधीन किया था।

वाकाटकों के दक्षिण में उदय के साथ ही उत्तर-पूर्वी भारत में गुप्त वंश का उदय हुआ जिसका प्रारंभिक राज्य वर्तमान उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कुछ हिस्से थे। मध्य भारत से नाग शासक कुषाणों को गहरी चुनौती प्रस्तुत कर रहे थे। गुप्त साम्राज्य के प्रथम ज्ञात राजा हैं श्रीगुप्त जिनसे प्रारंभ हो कर गुप्त साम्राज्य नें विशाल भारत के एकीकरण का अद्भुत कार्य सम्पन्न कर दिखाया जिसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका समुद्रगुप्त नें निभाई थी।  समुद्रगुप्त का शासनकाल (325-380 ई.) राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। समुद्रगुप्त एक असाधारण विजेता थे जिनकी महान विजयों कारण विन्सेट स्मिथ ने उन्हें नेपोलियन कहा था। दक्षिणापथ विजय उनका समसे महत्वपूर्ण अभियान था जिसमें उन्होंने बारह महत्वपूर्ण विजय प्राप्त की हैं। उनकी सम्पूर्ण दक्षिणापथ का संक्षेपीकरण किया जाये तो उन्होंने 1) महाकोसल (सम्बलपुर, रायपुर, बिलासपुर आदि छत्तीसगढ के क्षेत्र) के राजा महेन्द्र; 2) महाकांतार (प्राचीन बस्तर) के राजा व्याघ्रराज; 3) कोसल (महानदी के किनारे का क्षेत्र तथा ओडिशा का सोनपुर) के राजा मंतराज; 4) पिष्टपुर (आन्ध्र राज्य के गोदावरी तट से समुद्र तट तक) के राजा महेन्द्रगिरि; 5) कोट्टूर (ओडिशा का गंजाम क्षेत्र) के राजा स्वामीदत्त; 6) विजिगापट्टनम (वर्तमान विशाखापट्टनम); 7) काँची (तमिलनाडु का वर्तमान काँजीवरम) के राजा विष्णुगोप; 8) अवमुक्त (गोदावरी के आसपास का क्षेत्र) के राजा नीलराज; 9) वेंगी (पल्लोर और निकटवर्ती क्षेत्र) के राजा हस्तिवर्मन; 10) पालक्क (आन्ध्र का किल्लुर क्षेत्र) के राजा उग्रसेन; 11) देवराष्ट्र (आन्ध्र के विशाखापट्टनम का निकटवर्ती क्षेत्र) के राजा कुबेर तथा कुशलस्थलपुर (तमिलनाडु का उत्तरी अर्काट जिला) के राजा धनंजय को पराजित किया था। इस तरह दक्षिण भारत के इतने विशाल क्षेत्र पर पहली बार किसी एक सत्ता का ध्वज लहराने लगा था।

रायबहादुर डॉ. हीरालाल नें छत्तीसगढ के इतिहास पर समुद्रगुप्त के आक्रमण का उल्लेख करते हुए लिखा है “समुद्रगुप्त ने महाकौशल अर्थात वर्तमान छत्तीसगढ के राजा महेन्द्र से लडाई की और उसे हरा दिया। इसी प्रकार महाकांतार के राजा व्याघ्रराज को भी हराया था। यहा महाकांतार बस्तर का भाग रहा होगा जहाँ वर्तमान में भी घना जंगल है”। उल्लेखनीय है कि महाकांतारम कांतार, महावन जैसे नामों से बस्तर क्षेत्र को महाभारत समेत अनेक प्राचीन ग्रंथों में सम्बोधित किया गया है। महाकांतार पर समुद्रगुप्त की विजय वर्ष 350 ई. में हुई थी तथा यहाँ के वाकाटक वंश के राजा व्याघ्रराज नें सम्राट की आधीनता स्वीकार कर ली थी। यद्यपि व्याघ्रराज के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं कई इतिहासकार उन्हें नल वंश से सम्बन्धित मानते हैं तो कुछ वाकाटक नरेश। नल-वाकाटक दोनो ही राजवंश लम्बे समय तक एक दूसरे को पराजित करते हुए लगभग बारी बारी से प्राचीन बस्तर क्षेत्र में शासक रहे हैं अत: इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक है। व्याघ्रराज अगर वाकाटक नरेश रहे होंगे तो भी उनके पश्चात नल सत्ता का प्राचीन बस्तर क्षेत्र में प्रादुर्भाव हो जाता है। मूल विवेचना का विषय राजवंशों की पहचान अथवा व्याघ्रराज द्वसरा समुद्रगुप्त की आधीनता स्वीकार करना नहीं है अपितु इसके बाद समुद्र गुप्त द्वारा वाकाटक नरेश को स्वायत्त शासन करने का अधिकार देना है। समुद्रगुप्त से बस्तर का सम्बन्ध केवल विजय तक ही सीमित रहा चूंकि उसकी सेनाओं के यहाँ से हटते ही इस वन प्रदेश पर उनके सत्ताचिन्ह नहीं मिलते। समुद्रगुप्त के बाद भी किसी गुप्त शासक नें महाकांतार पर पुन: अधिकार प्राप्त करने की कभी चेष्टा नहीं की। बस्तर गुप्त-वाकाटक सांस्कृतिक सम्बन्धों का अवश्य दर्शनीय स्थल हैं जहाँ गुप्त कालीन अनेक मूर्तियाँ व अवशेष यत्र-तत्र से प्राप्त हो जाते हैं। विवेचनायोग्य तथ्य है कि समुद्रगुप्त महाकांतार जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र को स्वायत्त रखने के लिये क्यों सहमत हुए? मौर्य यहाँ अपने सत्ता के चिन्ह क्यों नहीं छोड सके? सम्भवत: इस गहन वन क्षेत्र को किसी राजा-सम्राट द्वारा जीता जाना केवल एक प्रतीक की तरह ही रहा होगा और यहाँ कि आदिवासी जनता अपने स्वाभिमान को किसी विजेता की सत्ता के आगे गिरवी रखने को तत्पर कभी नहीं दिखी। यहाँ तो वही सफल शासक रहे जो उनके अपने हो सके।

इतिहासकार अगर कवि भी हो तो घटनाओं के विवरण अत्यधिक रोचक रूप में प्रस्तुत होते हैं। बस्तर के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. के. के. झा नें समुद्रगुप्त पर पूरा खण्डकाव्य लिखा है। यह खण्डकाव्य समुद्रगुप्त के विजय ही नहीं उसके पश्चात उसे जीवन की निस्सारता पर हुए बिध को बेहद रुचिकर तरीके से प्रस्तुत करता है। डॉ. झा व्याग्रराज को नल शासक निरूपित करते हैं तथा यह मानते हैं कि समुद्रगुप्त नें युद्ध लड कर नहीं अपितु विवाह सम्बन्ध द्वारा प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर अधिकार किया था। प्रस्तुत है डॉ. के के झा रचित खण्डकाव्य से संबंधित पंक्तियाँ -

विशाल वन प्रांतर आवेष्ठित, दण्डकारण्य में था यह राज्य
गुरु शुक्राचार्य श्राप से कभी हुआ था निश्चित त्याज्य।

समय फिरा फिर इस अरण्य का, रघुपति का जब हुआ आगमन,
उनके अद्भुत वीर कृत्य से, राक्षस रहित हुआ था यह वन।

सुख समृद्धि पुन: लौटी थी, नल-कुल शासित अंचल था
सद्य: व्याघ्र राज राजा थे, उनका राज्य अचंचल था।

युद्ध नहीं उनको अभीष्ठ था, स्वतंत्रता उनको प्रिय थी,
उनकी शक्ति संधि चर्चा को गति देने को ही सक्रिय थी।

परम-पवित्र परिणय पश्चात संधि सफल सम्पन्न हुई,
सम्बन्धी सह मित्र भावना सहज रूप प्रतिपन्न हुई।

व्याघ्रराज नें निज कन्या का दान किया गुप्त नृपवर को,
नल-कुल में प्रसन्नता छाई, पाकर सर्वश्रेष्ठ वर को।

व्याघ्रराज से मैत्री कर के अतिप्रसन्न थे मागध भूप,
गरुड स्तम्भ स्थापित करवाया, इस मैत्री के प्रतीक स्वरूप।

क्या बस्तर के ‘नल वंशीय शासक’ मूलत: आदिवासी थे?

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सांध्य दैनिक ट्रू-सोल्जर में दिनांक 6.12.12 को प्रकाशित 

महाभारत के ‘नलोपाख्यान’ में नल-दमयंती की अतयंत रोचक प्रेम-कहानी वर्णित है। यही कथा महाकांतार क्षेत्र से नलों का सम्बन्ध जोडने की एकमात्र कडी प्रतीत होती है। विदर्भ देश के राजा भीम की पुत्री दमयंती और निषध के राजा वीरसेन के पुत्र नल दोनों ही अति सुंदर थे तथा एक दूसरे की प्रशंसा सुनकर बिना देखे ही परस्पर प्रेम करने लगे। विवाहेच्छुक इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम दमयंती के स्वंवर में पहुचे तथा प्रेमकहानी ज्ञात होने के कारण वे सभी नल का रूप धारण कर ही आये थे। प्रेम को सही प्रेमी की पहचान स्वत: हो जाती है तथा इसके बाद नल-दमयंती का मिलन हो जाता है। इसी बीच नल अपने भाई पुष्कर से जुए में अपना सब कुछ हार जाता है। दोनों प्रेमी-दम्पति बिछुड़ जाते है; दमयंती चेदि देश के राजा सुबाहु की पत्नि की सैरन्ध्री बन कर कुछ समय व्यतीत करती है, किंतु फिर अनेक कष्टों से गुजर कर अपने पैत्रिक परिवार में पहुंच जाती है। इस बीच नल का संघर्ष जारी है तथा उसे कर्कोटक नामक के सांप नें डस लिया था जिससे कि उसका रंग काला पड़ गया था। दोनो प्रेमी विरहातुर हैं, मिलना चाहते हैं; लेकिन एक दूसरे को बेहतर जीवन देने की चाहत है इस लिये नल यह जान कर भी दमयंति से नहीं मिलते कि वह कहाँ है। दमयंति के पिता इस प्रेम के मर्म को जानते हैं अत: नल को ढूंढने की युक्ति लगाई जाती है; वे दमयंती के स्वयंवर की घोषणा करते हैं। कश्मकश तथा संघर्ष का अंत होता है जब नल-दमयंती का पुन: मिलन होता है। कथा सुखांत है तथा इसके अंत में अपने सौतेले भाई पुष्कर से पुनः जुआ खेलकर नल अपना खोया हुआ राज्य-सम्पदा पुन: प्राप्त कर लेते हैं। विस्तार से पढने योग्य यह कथा अत्यधिक रोचक है जिसमें स्थान स्थान पर प्रेम के लिये किये जाने वाले संघर्ष तथा बलिदान तथा विश्वास की पराकाष्ठा प्रतीत होती है। 

कहा जाता है कि इसी नल राजा के वंशजों नें नल साम्राज्य की नींव रखी थी। शतपथ ब्राम्हण में ‘नल नैषध’ का उल्लेख है। यह एक एसा राजा प्रतीत होता है जिसकी तुलना मृत्यु के देवता यम से की गयी है। पाणिनी नें अष्टाध्यायी में निषध राज्य का उल्लेख किया है जिसे विदर्भ से लगा हुआ बताया गया है। इसके अलावा संस्कृत का प्रसिद्ध महाकाव्य श्रीहर्षकृत ‘नैषधीयचरित’ तथा त्रिविक्रम भट्ट की कृति ‘नलचम्पू’ आदि के साथ साथ नल राजाओं का विवरण वाण की ‘कादम्बरी’ एवं सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ में भी प्राप्त होता है। रामायण में उल्लेख है – नैषणं दमयंतीव भैमी पतिमनुव्रता। तथाहमिक्ष्वाकुवरं रामं पतिमनुव्रता (सुन्दरकाण्ड सर्ग 24; 9.13)॥ इस श्लोक में उल्लेख है कि सीता अपने पतिव्रत की तुलना दमयंती से करती हैं। इन पौराणिक आख्यानों व उद्धरणों का सम्बन्ध भारत के किस क्षेत्र से रहा है यह जानना आवश्यक हो जाता है। पाणिनी के विदर्भ से लगा क्षेत्र नल-राज्य की सीमा अथवा दिशा प्रदान नहीं करता। विष्णु पुराण के अनुसार विन्ध्य तथा पयोष्णि के पास निषध का होना माना जाता है लेकिन यह जानकारी भी उचित उत्तर प्रदान नहीं करती। महाभारत में निषध की राजधानी ‘गिरिप्रस्थ’ बतायी गयी है इस आधार पर उपरोक्त सभी सम्मितियों को जोड कर इतिहासकार डॉ हीरालाल शुक्ल नैषध को ‘महाकांतार’ अथवा ‘महावन’ के साथ जोड कर देखते हैं जो कि प्राचीन बस्तर का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में अनेक नाम नल से जुडे हुए हैं जैसे - नलमपल्ली, नलगोंडा, नलवाड़, नलपावण्ड, नड़पल्ली, नीलवाया, नेलाकांकेर, नेलचेर, नेलसागर आदि। शास्त्रों में उल्लेख है कि कर्कोटक नाम के सर्प नें नल को डसा था; बस्तर में ककोटिक और इससे मिलते कई गाँव हैं। इतना ही नहीं बस्तर की प्राण सरिता इन्द्रावती का नाम-साम्य नल-दम्यंति के पुत्र-पुत्री इन्द्रसेना व इन्द्रसेन से मिलता है। 

बस्तर में नलवंश के राजाओं का ज्ञान हमें साहित्यिक, अभिलेखीय तथा मौद्रिक साधनों से ज्ञात होता है। नलों के अभिलेख तीन ताम्रपत्रों, दो शिलालेखों, समुद्र गुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख, प्रभावती गुप्त का दानपत्र, चालुक्य राजा पुलेकिशन द्वितिय का ऐहोल अभिलेख, पल्लव मल्ल नन्दिवर्धन का उदयेन्दिरम ताम्रपत्र तथा नल राजाओं के सिक्के; इस काल का इतिहास जानने के प्रमुख साधन हैं। नलवंश की कमजोरियों का यदा-कदा लाभ सीमावर्ती शासकों ने भी उठाया तथा वेंगी के राजा का भी बस्तर पर आक्रमण हुआ था। उसका कवि बिल्हण अपने काव्यग्रंथ “बिक्रमांक देव चरितम” में बस्तर का उल्लेख कई बार करता है। इन सब के दृष्टिगत भी नल वंश के शासक और उनके बस्तर आगमन व शासन का समय विवादित रहा है (प्राचीन छत्तीसगढ, प्यारेलाल गुप्त, पृ-227)। दण्डकारण्य अंचल तथा छत्तीसगढ के दुर्ग में नलवंशीय शासकों के सिक्के व शिलालेख मिले हैं। अत: इतना निष्कर्ष तो सहज निकाला जा सकता है कि नलों को प्रसिद्धि इसी अंचल से प्राप्त हुई (मध्यप्रदेश के पुरातत्व का संदर्भ ग्रंथ, पृष्ठ 389)। पाँचवी से ले कर आठवी शताब्दी तक नलवंशीय शासक बस्तर तथा दक्षिण कोसल के भूभाग पर राज करते रहे (मध्यप्रदेश के पुरातत्व का संदर्भ ग्रंथ, पृष्ठ 47)। इन संदर्भों के साथ यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि क्या बस्तर के वे नल शासक जिन्होंने लगभग 300-925 ई. तक इन अरण्य क्षेत्रों में शासन किया वे ही ‘नलों’ के वास्तविक उत्तराधिकारी थे? स्वयं नल शासक तो यही मानते थे एवं अपने प्रत्येक अभिलेख मे स्वयं को नलान्वय लिखवाते रहे हैं; प्राप्त शिलालेखों, स्वर्णमुद्राओं तथा ताम्रपत्रों से कुछ एसे ही तथ्य प्रकाश में आये हैं (कलचुरी नरेश और उनका काल पृ 3)। वायुपुराण तथा ब्रम्हाण्ड पुराण से ज्ञात होता है कि नल के वंशज कोसल पर शासन करते थे। ईसा की चैथी शताब्दि से ले कर ग्यारहवी शताब्दी तके के जो आलेख प्राप्त हुए हैं उनमें ‘नलवंश प्रस्तुत’, ’नलवंश कुलांवय’ आदि उल्लेखों के आधार पर इन शासकों को नलवंशी मानने में कोई संदेह नहीं है (बस्तर का राजनैतिक व सांस्कृतिक इतिहास, पृ 15)। 

तथापि बडा प्रश्न यह है कि राजा नल स्वयं तो इक्ष्वाकुवंशीय थे तो यह नल राजवंश पृथक अस्तित्व में कैसे आया एवं इन्हें भी इक्ष्वाकु क्यों नहीं कहा गया? एक समस्या यह भी सामने आती है कि अतीत में अनेक छोटे-बडे राजवंशों नें अपने कुल को महिमामण्डित करने के लिये कभी अपना सम्बन्ध पाण्डवों से जोडा है तो कभी प्राचीन शास्त्रों के किसी चर्चित चरित्र से। क्या एसा ही कोई प्रयास तो बस्तर शासित नलों नें नहीं किया तथा अपनी आरंभिक अवस्था में वे आंचलिक व आदिवासी ही रहे हों? यह संभावना डॉ. हीरालाल शुक्ल भी व्यक्त करते हैं कि नल प्रकृतिपूजक वनवासी रहे होंगे? डॉ. शुक्ल का कथन है कि नल तृणविशेष (शादूलं हरितं प्रोक्तं नड्वलं नलसंयुक्तम – हलायुध कोष में वर्णित) अथवा वृक्षविशेष (नल: पोटगल: शून्यमध्यश्च छमनस्थता। नलस्तु मधुरस्तिक्त: कषाय: कफरक्तजित् – भावप्रकाश में वर्णित) का नाम है एवं बस्तर के नल कहे जाने वाले राजाओं में यह व्याघ्रराज एवं वाराहराज तक प्रतीक चिन्ह रहा होगा एवं इसके बाद के राजाओं तक आते आते पौराणिक यशगाथा से प्रभावित राजा नल ही प्रतीक व वंशक्रम के आदिपुरुष मान लिये गये होंगे। यह संभावना लगती है कि बस्तर के नल आरंभ में वाकाटक राजाओं के आधीन माण्डलिक राजा रहे होंगे किंतु शक्ति संचय के पश्चात वे एक विस्तृत राज्य के अधिकारी बने। प्रतीत होता है कि इसी समय वे अपना आदिवासी आवरण हटा कर आर्य संस्कृति की उस रौ में बह निकले होंगे जिसका कि गुप्त काल और इसके पश्चात तेजी से बढता प्रभाव बस्तर अंचल पर भी पडा था। इतिहास के इतने पुराने कालखण्ड की चर्चा करते हुए एसी कई संभावनाओं को टटोलना आवश्यक हो जाता है। 

महाकांतार (प्राचीन बस्तर) क्षेत्र पर नलवंश के राजा व्याघ्रराज (350-400 ई.) की सत्ता का उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशास्ति से मिलता है। व्याघ्रराज का समय दण्ड़क क्षेत्र पर गुप्त राजवंश के साम्राज्यवादी सम्राट समुद्रगुप्त के आक्रमण के लिये जाना जाता है। यह आश्चर्य का विषय है कि समुद्रगुप्त ने महाकांतार को साम्राज्य का हिस्सा बनाये जाने के स्थान पर नल-राजा व्याघ्रराज को अपनी छत्र-छाया में शासन करने की स्वतंत्रता दी। व्याघ्रराज के बाद वाराहराज (400-440 ई.) महाकांतार क्षेत्र के राजा हुए। वाराहराज ने अपने वन-राज्य में स्वर्णमुद्रायें प्रचलित की जिनमें ‘श्रीवाराहराजस्य’ लिखा गया तथा नंदी अंकित था। एसे 29 सोने के सिक्के एडेंगा से प्राप्त हुए हैं। वाराहराज का शासनकाल वाकाटकों से जूझता हुआ ही गुजरा। राजा नरेन्द्र सेन ने उन्हें अपनी तलवार को म्यान में रखने के कम ही मौके दिये। वाकाटकों ने इसी दौरान नलों पर एक बड़ी विजय हासिल करते हुए महाकांतार का कुछ क्षेत्र अपने अधिकार में ले लिया था। भवदत्त वर्मन (400-440 ई.) ने अपने पिता वाराहराज से मिली सत्ता को प्रसार और सम्पन्नता दी। राज्य की अर्थव्यवस्था ‘श्रीभवदत्तराजस्य’ अंकित स्वर्णमुद्राओं से संचालित होती थी। उनके द्वारा वर्ष 445 ई. के लगभग वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन पराजित हुए, उनकी राजधानी नंदीवर्धन पर भी अधिकार कर लिया गया था। अब महाकांतार से कोशल तक तथा कोरापुट से बरार तक के क्षेत्र पर नंद-त्रिपताका लहराने लगी। भवदत्त वर्मन के देहावसान के बाद अर्थपति भट्टारक (460-475 ई.) राजसिंहासन पर बैठे। अर्थपति एक दानी शासक थे। उनके केसरिबेडा ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि उन्होंने कौत्स गोत्रीय ब्राम्हण दुर्गार्य, रविरार्य तथा रविदत्तार्य को केसेलक गाँव दान में दिया था। अडेंगा में ‘श्री अर्थपति राजस्य’ अंकित दो स्वर्ण मुद्रायें भी प्राप्त हुई हैं। इस समय तक नलों की स्थिति क्षीण होने लगी थी जिसका लाभ उठाते हुए वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन नें पुन: महाकांतार क्षेत्र के बडे हिस्सों पर पाँव जमा लिये। नरेन्द्र सेन के पश्चात उसके पुत्र पृथ्वीषेण द्वितीय (460-480 ई.) नें भी नलों के साथ संघर्ष जारी रखा। अर्थपति भटटारक को नन्दिवर्धन छोडना पडा तथा वह नलों की पुरानी राजधानी पुष्करी लौट आया। पुष्करी के भी अर्थपति के शासनकाल में ही वाकाटकों द्वारा तहस नहस किये जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। अर्थपति की मृत्यु के पश्चात नलों को कडे संघर्ष से गुजरना पडा जिसकी कमान संभाली उनके भाई स्कंदवर्मन (475-500 ई.) नें जिसे विरासत में एक लुटी हुई सियासत प्राप्त हुई थी। उन्होंने शक्ति संचय किया तथा तत्कालीन वाकाटक शासक पृथ्वीषेण द्वितीय को परास्त कर नल शासन में पुन: प्राण प्रतिष्ठा की। पोड़ागढ का प्रस्तराभिलेख भी स्पष्ट करता है कि स्कंदवर्मन ने नष्ट पुष्करी नगर को पुन: बसारा – “नृपतेर्भवदत्तस्य सत्पुत्रेगान्यान्य संथिताम भ्रष्टामाकृष्य राजर्द्धि शून्यमावास्य पुष्करीयम”। अल्पकाल में ही जो शक्ति व सामर्थ स्कन्दवर्मन नें एकत्रित कर लिया था उसने वाकाटकों के अस्तित्व को ही लगभग मिटा कर रख दिया। उसके समकालीन वाकाटक नरेश देवसेन की विलासिता नें भी स्कन्दवर्मन के साम्राज्य विस्तार में महति भूमिका अदा की थी। यद्यपि स्कंदवर्मा की मृत्यु के पश्चात महाकांतार में नल शासन की अवस्थिति तथा दशा दिशा पर बहुत जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं। उनके पश्चात के शासकों के नाम व शासनावधि की समुचित जानकारी निकाल पाने में अभी इतिहासकार सफल नहीं हुए हैं। यह प्रतीत होता है कि वाकाटकों नें पुन: नलों को परास्त किया हो। संभावना है कि वाकाटक नरेश हरिषेण नें स्कंदवर्मन के पश्चात के शासको को परास्त कर राज्य विस्तार किया होगा। इसी समय में पूर्वी गंग नाम के एक राजवंश के शक्तिशाली हो कर उदित होने की जानकारी भी प्राप्त होती है। यह विश्वास किया जा सकता है कि वाकाटक नरेश हरिषेण की आधीनता में ही पूर्वी गंग त्रिकलिंग के शासक बने तथा वे वाकाटकों व आन्ध्र के शासकों के बीच प्रतिरोधक का कार्य करते रहे। एक चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन (567-597 ई)  के इस मध्य नलों पर आक्रमण किये जाने के कुछ प्रमाण मिलते हैं जो बताते हैं कि सिमट जाने के बाद भी बस्तर और कोरापुट के कुछ क्षेत्रों पर नलों की पकड बनी ही रही थी। चालुक्य राजा विक्रमादित्य प्रथम (655-788 ई.) के अभिलेख से भी नल शासित क्षेत्रों पर उनके प्रभाव की जानकारी मिलती है। इस उतारचढाव वाले दौर से भी एक तथ्य स्पष्टता से बाहर आता है कि भले ही चालुक्यों का महाकांतार क्षेत्र पर 788 ई. तक बहुत या कम प्रभाव प्रतीत होता है किंतु चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात नल पुन: शक्तिशाली हो उठे और पृथ्वी राज (634-675 ई.) नें महाकांतार में अपने शत्रुओं चालुक्यों तथा पल्ल्वों को परास्त कर नल साम्राज्य को पुन: संगठित किया। अब राजधानी को श्रीपुर (आधुनिक सिरपुर) ले जाया गया। इसके पश्चात विरूपराज (675-700 ई.) का समय अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण प्रतीत होता है। विरूपराज नें राजाधिराज की उपाधि ग्रहण की थी। उनके पश्चात विलासतुंग (700-740 ई.) नें राज्यभार ग्रहण किया। उनके द्वारा उत्कीर्ण राजिम अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने स्वर्गीय पुत्र की स्मृति तथा उसके पुण्यलाभ के लिये एक विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया था। विलासतुंग नें अपने समय में महनदी तथा तेल नदी के तटवर्ती क्षेत्रों पर अधिकार कर राज्य विस्तार किया। उनके पुत्र पृथ्वीव्याघ्र (740-765 ई.) नें राज्य विस्तार करते हुए नेल्लोर क्षेत्र के तटीय क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। यह उल्लेख मिलता है कि उन्होंनें अपने समय में अश्वमेध यज्ञ भी किया। पृथ्वीव्याघ्र के पश्चात के शासक कौन थे इस पर अभी इतिहास का मौन नहीं टूट सका है। इसके लगभग डेढ सौ साल के पश्चात पुन: एक नलवंशी शासक भीमसेन (लगभग 900 – 925 ई.) का पता चलता है जिसने गंजाम-कोरापुट क्षेत्र में एक ताम्रपत्र प्रचरित किया था। इस उल्लेख से डेढ सौ साल की खामोशी को पढने की यही संभावना हाँथ लगती है कि सोमवंशियों ने नलों को इस अवधि में गंजाम की ओर धकेल दिया होगा। तथापि भीमसेन द्वारा धारण की गयी उपाधियाँ जैसे परममाहेश्वर, महाराजाधिराज आदि इस दौर का उसे शक्तिशाली शासक निरूपित करती हैं। नलवंश का इतिहास भीमसेन के पश्चात अप्राप्त है; यह संभावना है कि धीरे धीरे नल वंश का महाकांतार में पतन होने लगा। 

नल शासन व्यवस्था के आधीन कई माण्डलिक राजा थे। अतिशयोक्ति नहीं है कि दीर्घकाल तक नल-राजवंश ने महाकांतार क्षेत्र को स्थिर शासन प्रदान किया। मंदाकिनि तथा गोदावरी नदियों ने यात्रिपथ को दक्षिण के वेंगी राज्य से सम्बद्ध कर दिया था, जिससे कि वाणिज्य का विकास हुआ। यह संस्क़ृत-भाषी दण्ड़क वनवासियों का युग था; नल युग में शिक्षा और साहित्य समृद्ध हुआ। प्रशासनिक व्यवस्था में ग्रामीण भागीदारी को समुचित महत्व दिया गया था। किंतु शनै:-शनै: राजा लड़-झगड़ कर मोहताज हो गये। राज्य में सोने की मुद्राओं का स्थान रौप्य अथवा चाँदी की मुद्राओं ने ले लिया। पहले शांति का, फिर समृद्धि का और अंतत: लगभग बारहवी शताब्दि तक नल वंश का महाकांतार से पूरी तरह ह्रास हो गया।  

बस्तर की नल सत्ता (300-925 ई. तक) का सामाजिक आर्थिक पक्ष।

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सांध्य दैनिक ट्रू-सोल्जर में दिनांक 14.12.12 को प्रकाशित
प्राचीन बस्तर के नल साम्राज्य की सामाजिक-आर्थिक दशा और दिशा का विवेचन आवश्यक है। यह युग जब मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया था; गुप्त साम्राज्य नें महाकांतार को शासन स्वायत्ता दे दी और वे भी उत्तर भारत की राजनीति में ही केन्द्रीभूत रह गये। महाकांतार की राजनीति को वाकाटक सत्ता की एक मात्र चुनौती निरंतर मिलती रही थी इसके बाद भी नल साम्राज्य (300-925 ई. तक) नें शांतिप्रिय एवं स्थिर सत्ता प्रदान की। राजनीतिक स्थिरता के साथ ही साथ यह समय एक महान धार्मिक आन्दोलन के पटाक्षेप का भी रहा; अब बुद्ध और जैन धर्म के ज्ञान और दर्शन का आलोक सिमटने लगा था। वैदिक धर्म का पुनरुत्थान होने लगा। 

नल साम्राज्य के समय का महाकांतार केन्द्रीय सत्ता के अंतर्गत अनेकों अर्ध स्वतंत्र राज्यों में बटा हुआ था जिन्हें मण्डल कहा जाता था। उस काल के ज्ञात मण्डल हैं - चक्रकोट्ट मंडल (यह वेंगी तथा दक्षिण कोसल के मध्य अवस्थित था जिसपर इस क्षेत्र को बस्तर तथा कोरापुट क्षेत्र की सम्मिलित क्षेत्र में उपस्थित माना जा सकता है जिसकी राजधानी बारसूर थी); भ्रमरकोटय मण्डल (यह चक्रकोट्ट मण्डल का पूर्वी क्षेत्र रहा है। इसे आधुनिक उपरकोट कहा जा सकता है तथा राजधानी तरभ्रमरक थी। यहाँ नल आधीनता में तुष्टीकर राजवंश का शासन चल रहा था);  खिडिडरश्रृंग मण्डल (धारकोट, बडबढ, शेरगढ तथा सोरढ जमीन्दारियों का संयुक्त क्षेत्र); कमल मण्डल (कालाहाण्डी तथा राजिम का क्षेत्र);  वड्डाडि मण्डल (यह मदगोल क्षेत्र का वाचक है तथा नरसीपटम के पूर्व में अवस्थित है); शूय क्षेत्र (बस्तर से लगा कालाहाण्डी का क्षेत्र); नलवाडी (यह अनेक मण्डलों का समूह रहा होगा तथा नल सत्ता का केन्द्रीय क्षेत्र होना चाहिये); कमण्डलु पट्ट (यह एक जनपद का वाचक था जिसके अंतर्गत भीमनगर ग्राम भी आता था)। राज्य की इकाईयो के रूप में मण्डल, भोग, विषय, पुर, ग्राम आदि विभाजन प्रचलित थे। प्रत्येक मण्डल में अनेक छोटे प्रांत आते थे जिसके अधिकारी सामंत कहे जाते थे। छोटे प्रांतो के बाद की इकाई राष्ट्र थी जिसके अधिकारी राष्ट्रकूट कहे जाते थे। राष्ट्र भुक्तियों में बँटा हुआ था जिसके बाद की इकाई पुर (नगर) तथा ग्राम थे। नल शासन ’सम्राट केन्द्रित’ था तथा शासक स्वयं को ‘राजा’, ‘महाराज’ अथवा ‘महाराजाधिराज परमेशवर’ आदि विभूषित करते थे। राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राज्याधिकार प्राप्त करता था जिसे भट्टारक कहा जाता था। राजमहिषि को भट्टारिका सम्बोधन प्राप्त था। राजप्रासाद के कर्मचारियों के पद  - रहस्याधिकृत (गुप्तचर विभाग का प्रमुख), महाबलाधाकृत (सेनापति), संधिविग्रहिक (विदेश मंत्री), प्रतीहार, विनयासुर, प्रतिनर्तक, भट (सिपाही) आदि थे। शासन प्रबन्ध अमात्यों (मंत्रियों) द्वारा चलाया जाता था। नल साम्राज्य के अंतिम ज्ञात शासकों में भीमसेन (लगभग 900 – 925 ई.) प्रमुख हैं तथा उनके समय तक सामंत व्यवस्था का पूरी तरह आधुनिकीकरण हो गया था। अब सामंत शक्तिशाली थे एवं अपने क्षेत्र के आंतरिक मामलों में स्वतंत्र होते थे; यद्यपि सामंतो को राजाज्ञा का पालन करना आवश्यक था। सामंतो के कार्यों पर राजा की ओर से संधिविग्रहिक निगरानी रखते थे।

प्राचीन बस्तर में नल-राजशाही अनियंत्रित अथवा निरंकुश नहीं थी। शासक धर्मभीरु थे तथा जनता के सुख-दु:ख में सहभागी भी थे। ज्ञात लगभग सभी नल अभिलेखों में धर्म को सत्ता संचालन का आधार माना गया है जिसके अभाव में नरक की कामना की गयी है – “षष्टि वर्षसहस्त्राणि स्वर्गे नन्दति भूमिद:। आक्षेप्ता चानुमंता च तान्येव नरके वसेत”। अभिलेखों में यह उल्लेख मिलता है कि गाय, ब्राम्हण तथा प्रजा का कल्याण ही राजा का कल्याण है – “स्वस्ति गो ब्रम्हाणप्रजाभ्य: सिद्धिरस्तु”। राजा अत्यंत धर्मभीरु होते थे जिसकी परिणति में ब्राम्हणों को भूमिदान-लाभ प्राप्त होता रहा है। उल्लेख मिलता है कि भवदत्तवर्मन (400-440 ई.) नें अपनी पत्नी अचली भट्टारिका के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध से अनुग्रहीत हो कर पाराशरगोत्रीय ब्राम्हण मात्राढयार्य तथा उसके आठ पुत्रों को कदम्बगिरि ग्राम दान में दिया था। अर्थपति (460-475 ई.) नें कौत्सगोत्रीय ब्राम्हण रविरार्य तथा रविदत्तार्य को केसेलक गाँव दान में दिया था। स्कंदवर्मा (475-500 ई.) नें अपने माता-पिता तथा पितामह के धर्मलाभार्थ, पुष्करी में भगवान विष्णु का पवित्र पादमूल निर्मित करवाया था। विलासतुंग (700-740 ई.) नें अपने स्वर्गीय पुत्र की पुण्याभिवृद्धि के लिये विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया तथा काश्यपगोत्रीय ब्राम्हण भट्टपाजूनि को कूर्मतला नामक गाँव दान दिया था। भवदत्त वर्मा के ऋद्धिपुर ताम्रपत्र से यह ज्ञात होता है कि उस युग में न्याय का अलग विभाग रहा होगा जिसका कार्य सभी विवादों व झगडों को निबटाना रहा होगा – “सर्ववाद परिहीन:”; अंतिम न्यायाधीश राजा हुआ करता था।   

नल युगीन प्राचीन बस्तर की जीवन शैली में वेद-वर्णित चारो वर्णों (ब्राम्हण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र) का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त कुछ व्यवसाय भी जो उस समय प्रचलित थे जैसे शिल्पकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि भी बाद में जाति सूचक हो गये। वैश्यों की संख्या समाज में सर्वाधिक थी तथा व्यावसायी, उद्योगपति, पशुपालक आदि होने के कारण यह धनी वर्ग था तथा राज्य को प्रमुखता से कर इसी वर्ग से प्राप्त होता था। प्राचीन बस्तर में जाति व्यवस्था का बहुत कठोरता से पालन होता होगा एसा प्रतीत नहीं होता। राजा भवदत्त वर्मा (क्षत्रिय) की पत्नि अचली (वैश्य) थी। भवदत्त वर्मा के ऋद्धिपुर ताम्रपत्र का टंकणकर्ता/खनक एक ब्राम्हण - पद्दोपाध्याय का पुत्र बोपदेव है – ‘पद्दोपाध्यायपुत्रस्य पुत्रेण बोप्पदेवेन क्षतिमिदं’। उस युग में उपाध्याय वेदपाठी ब्राम्हण होते थे तथा बोपदेव द्वारा खनक (खनक जाति शूद्र मानी गयी है) का कार्य करना समाज में एक प्रकार के खुलेपन की दिशा बताता है। निश्चित ही समाज में दास प्रथा भी विद्यमान रही होगी। एक प्राचीन नल अभिलेख में ‘जांतुरदास’ का उल्लेख किया गया है – “भक्त्या जांतुरदासेन”। किंतु इस विवरण के साथ यह भी ज्ञात होता है कि जांतुरदास एक कवि थे एवं राजा स्कन्दवर्मा के पोडागढ अभिलेख के वे रचयिता थे; यह कार्य ब्राम्हणों का माना जाता था।  तद्युगीन एक दास द्वारा अभिलेख लेखन एवं छंद रचना किया जाना यह दर्शाता है कि सामाजिक जटिलतायें - रूढीवादिता और ढकोसलावाद में इस समय तक तब्दील नहीं हुई थीं। जान्तुरदास नें पोड़ागढ अभिलेख में तेरह पद्यों की रचना आर्या तथा अनुष्टुप छंदो के अंतर्गत की है। जांतुरदास का यह छंद देखिये जिसमें अंत्यानुप्रास अलंकार अद्भुत रूप में प्रयुक्त हुआ है – “अप्रवेश्यं भटैश्चेदं सदां करविसर्जितं। श्रीचक्रद्रोणपुत्रायं यथोचितं”। समाज में आश्रम व्यवस्था का भी आंशिक रूप से ही पालन होने के प्रमाण मिलते हैं। स्कंदवर्मा के अभिलेखों में अग्रहार का उल्लेख है; अग्रहारों में ब्रम्हचारी शिक्षा ग्रहण किया करते थे। इस युग के प्राय: सभी ज्ञात ब्राम्हण गृहस्थ थे। वानप्रस्थ तथा सन्यास को एक ही आश्रम – ‘यति’ माना जाने लगा था। कालिदास नें भी अपनी कृति रघुवंश में तीन ही आश्रम का उल्लेख किया है। उल्लेख मिलता है कि राजा स्कंदवर्मन नें यतियों को दक्षिणा दी – “सत्वोपभोज्यं विप्राणां यतीनात्जच विशेषत:”। नल अभिलेखों में चार ऋणों से मुक्त होने की अवधारणा के प्रचलन का भी संकेत मिलता है। देवऋण से मुक्त होने के लिये यज्ञ, ऋषिऋण से मुक्त होने के लिये अध्ययन, पितृऋण से मुक्त होने के लिये संतानोत्पत्ति तथा मनुष्यऋण से मुक्त होने के लिये गो-ब्राम्हण पूजा समाज में व्याप्त थी। 

नलयुगीन बस्तर का समाज मूल रूप से संस्कृतभाषी था। भाषा में प्राकृत तथा स्थानीयता के प्रभाव के उदाहरण भी कहीं कहीं दृष्टिगोचर होते हैं। ताम्रपत्रों-शिलालेखों से उद्धरित कुछ नाम जैसे मालि, बोप्पदेव, सामंताक, आगिस्मामि, भट्टपाजिनि आदि प्राकृत के निकट हैं। यह संभावना बनती है कि आदिवासी तथा कृषक समाज संस्कृत समझता अवश्य रहा होगा किंतु जनसाधारण की बोलचाल की अपनी ही भाषा-बोली विद्यमान रही होगी। इस युग में नारी की स्थिति संतोषजनक मानी जा सकती है। उसे यज्ञादि में समान रूप से भाग लेने का अधिकार था साथ ही राजस्त्रियों द्वारा दान आदि किये जाने के उल्लेख ताम्रपत्रों व शिलालेखों से प्राप्त होते हैं। अभिजात्य वर्ग द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र कलात्मक होते थे जिसकी पुष्टि उस युग की प्राप्त मूर्तियों से होती है। राजिम स्थित राजा विलासतुंग द्वारा निर्मित मूर्तियों में मुमुट, वैजयंतिमाला, केयुर, कुण्डल, भुजबन्ध, कंगण, हार, कर्णशोभन, तीन लडियों वाली मोतियों की माला आदि गहने प्रमुखता से देखे गये है। तद्युगीन देव-मूर्तियाँ कई प्रकार के केश विन्यासों एवं बालों में पुष्पसज्जा की ओर इशारा करती हैं जिससे सहज अंदाजा लगता है कि समाज में श्रंगार महत्वपूर्ण स्थान रखता था। भोजन के प्रकारों का विवरण नहीं मिल सका है किंतु क्षीर तथा सोम का पेय में प्रचलन था। बस्तर क्षेत्र में महुवे के पेड बहुतायत संख्या में है अत: स्वाभाविक था कि मधुकलतिया (महुवे की शराब) चलन में थी। अभिलेखों के अनुसार मनोरंजन के लिये शिकार करने तथा जलक्रीडा किये जाने का उल्लेख मिलता है। राजिम से प्राप्त मूर्तियों में मृदंग दृष्टव्य है तथा देवी देवताओं की नृत्य मुद्रा दृश्टिगोचर हो रही है; यह निर्विवाद है कि नृत्य संगीत आमोद-प्रमोद का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे होंगे। 

वैदिक युग से ही दो तरह के सिक्के राजवंशो द्वारा चलन में लाये गये थे पहला ‘निष्क’ जो कि चित्रपूर्ण तथा अंक पूर्ण मुद्रा थी जब की दूसरी ‘हिरण्य’ कहलाती थी; यह  स्वर्ण पिण्ड मात्र होता था किंतु उसपर कोई चित्र या अंक नहीं उकेरा जाता था। नलवंशीय बस्तर में ये दोनो ही प्रकार चलन में थे। घना जंगल और अत्यधिक पिछडा क्षेत्र कहे जाने वाले आज के बस्तर में एक समय में स्वर्ण तथा रौप्य (चाँदी) मुद्राओं से अर्थव्यवस्था संचालित थी यह बात आश्चर्य से भर देती है। बात 1939 ई. की है जब स्थानीय प्रशासन को किसी व्यक्ति के पास राजनान्दगाँव के एडेंगा गाँव से प्राचीन सोने के सिक्के पाये जाने की भनक लगी; जब तक उन्हें प्राप्त किया जाता, एक सोनार नें कई सिक्के गला दिये थे। यह नल युगीन बस्तर की विरासत थी। यह सौभाग्य था कि बत्तीस सोने के सिक्के अच्छी हालत में प्राप्त कर लिये गये; इनमें उनत्तीस सिक्कों पर वाराहराज (400-440 ई.); एक सिक्के पर भवदत्तराज (400-440 ई.) तथा दो सिक्कों पर अर्थपतिराज (460-475 ई.) अंकित है। राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार “कर-प्रणाली” थी। एडेंगा से प्राप्त राजों के नाम अंकित मुद्राओं के अतिरिक्त राजा भवदत्त के ऋद्धिपुर ताम्रपत्र के अनुसार सभी कृषकों को हिरण्य अथवा अन्य प्रकारों (रौप्य, अन्न आदि) से कर चुकाने के निर्देश दिये गये हैं – “विषयोचिता: हिरण्यादय: सर्व्वप्रत्याया: दातव्या:”। राज्य द्वारा दान में दी गयी भूमि पर भी निश्चित कर लिया जाता था। राज्य एसी समस्त भूमि का स्वामि था जिसका कोई उत्तराधिकारी न हो शेष निजी सम्पत्ति होते थे तथा उन पर भूमिकर देय था। निजी सम्पत्ति माने जाने के कारण भूमि का क्रय-विक्रय भी होता था। भूमि के मानक माप निवर्तन (लगभग ढाई एकड) , हल (लगभग 5 एकड) तथा वाटक (यह 5 कुल्यवाप के बराबर होता था; एक कुल्यवाप निर्धारित आकार की टोकरी भरे बीज बोये जाने जितनी क्षमता भर भूमि होती थी) थे। तौल भी पूर्णत: विकसित प्रक्रिया थी। सोना चाँदी तौलने के लिये कर्ष (80 रत्ती) या पल (320 रत्ती) प्रयोग में आते थे। भारी वस्तुओं के लिये माप थे कुडव (चार पल के बारबर); प्रस्थ (चार कुडव के बराबर); आढक (चार प्रस्थ के बाराबर); द्रोण (चार आढक के बराबर) आदि।  

नल समृद्ध और शक्तिशाली थे। उनके समकालीन भारत के मध्य क्षेत्र में वाकाटक शक्तिशाली सत्ता थी जिनकी दृष्टि प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर कई कारणों से हमेशा लगी रही। पहला कि कलिंग और वाकाटकों के बीच में बडी दीवार थे नल और दूसरा व्यापार की दृष्टि से उत्तर से दक्षिण की ओर जाने का मार्ग नल राज्य की सीमा से हो कर गुजरता था। इस परिस्थिति में भी प्राचीन बस्तर में नल सत्ता वह गौरवशाली अतीत है जिसे वाकाटकों द्वारा रौंदा नहीं जा सका। कुछ प्रश्न अवश्य उठते हैं कि आदिवासी समाज और सत्ता के बीच कैसे सम्बन्ध रहे होंगे? क्या नल साम्राज्य के विषय में हम अब तक जितना जानते हैं वह आदिवासियों की अवस्थिति तथा उनकी दशा दिशा का प्रस्तुतिकरण नहीं है? एसा नहीं मानने के कई कारण उपलब्ध हैं पहला कि वह आदिवासी समाज जो मौर्य सेना में अपनी हिस्सेदारी निभाता रहा हो नल सत्ता की निश्चित ही ढाल बनता रहा होगा। दूसरा कि मुख्यधारा की राजनीति से बस्तर के आदिवासी 1966 के बाद पृथक हुए हैं अन्यथा इस अंचल की प्रजा जागरूक भी रही है तथा साहसी भी। आदिवासी जनता ही राजा की पदाति सेना, कृषक तथा आखेट की सहयोगी रही होगी। उल्लेख मिलते हैं कि नल शासकों की कृषि से आय सीमित थी। इसका कारण आदिवासी समाज में दाही/स्थानांतरिक तथा सामूहिक खेती का प्रचलन तथा कृषि के सदियों पुराने तरीकों का विद्यमान होना था। बस्तर एक लचीला समाज भी रहा है इसलिये जीवित तथा जिन्दादिल है और लम्बे समय से अपनी पहचान बनाये रख सका है। नल साम्राज्य का बार बार व विभिन्न कोणों से विश्लेषण आवश्यक है चूंकि आज की स्थिति तक पहुँचने की पडताल हमें प्राचीन बस्तर के अतीत में उतर कर इसी विन्दु से करनी होगी। एसा क्यों हुआ कि जिस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था स्वर्ण मुद्रायें संचालित करती हों वह कौडियों का हो कर रह गया? एसा क्यों हुआ कि जहाँ जान्तुरदास जैसे कवि और विद्वान रहे थे वह अशिक्षा और अंधकार के दलदल की ओर जाता गया? एसा क्यों हुआ कि जहाँ बुद्ध का भी प्रभाव रहा और महावीर का भी; जहाँ ह्वेनसांग भी आये और नागार्जुन भी वह क्षेत्र पहचान खोने की स्थिति तक पहुँच गया? इतिहास के अगले पन्ने सम्भवत: इन प्रश्नों का उत्तर रखते हों। उपसंहार में यह कहा जा सकता है कि नल शासन काल बस्तर के सर्वश्रेष्ठ समयों मे रहा है। बस्तर के इतिहास में नल शासक हमेशा वह बुनियाद माने जायेंगे जहाँ से संगठित सत्ता तथा व्यवस्थित प्रशासन का प्रारंभ होता है।

लाला जगदलपुरी जी को उनके जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनायें

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बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं [आलेख] 
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यह असाधारण सत्य है कि छत्तीसगढ राज्य का बस्तर क्षेत्र अगर किसी एक व्यक्ति को अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक पहचान के रूप में जानता है तो वह लाला जगदलपुरी हैं। तिरानबे वर्ष की आयु, अत्यधिक क्षीण काया तथा लगभग झुक चुकी कमर के बाद भी लाला जी अपनी मद्धम हो चुकी आँख को किसी किताब में गडाये आज भी देखे जाते हैं। अब एक छोटे से कमरे में सीमित दण्डकारण्य के इस ऋषि का जीवन असाधारण एवं अनुकरणीय रहा है। लाला जगदलपुरी दो व्यवस्थाओं के प्रतिनिधि हैं; उन्होंने राजतंत्र को लोकतंत्र में बदलते देखा तथा वे बस्तर में हुई हर उथलपुथल को अपनी पैनी निगाह से जाँचते-परखते तथा शब्दबद्ध करते रहे। वह आदिम भाषा हो या कि उनका लोक जीवन लाला जी से बेहतर और निर्पेक्ष कार्य अब तक किसी नें नहीं किया है। डोकरीघाट पारा का कवि निवास लाला जगदलपुरी के कारण एक पर्यटन स्थल बना हुआ है तथा एसा कोई बुद्धिजीवी नहीं जो बस्तर पर अपनी समझ विकसित करना चाहता हो वह लाला जी के चरण-स्पर्श करने न पहुँचे। लाला जी की व्याख्या उनका ही एक शेर बखूबी करता है - 

एक गुमसुम शाल वन सा समय कट जाता,
विगति का हर संस्करण अब तक सुरक्षित है। 

मिट गया संघर्ष में सबकुछ यहाँ लेकिन, 
गीतधर्मी आचरण अब तक सुरक्षित है। 
(मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश – 1983)

रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव के समय में दुर्ग क्षेत्र से चार परिवार विस्थापित हो कर बस्तर आये थे। इन परिवारों के मुखिया थे - लोकनाथ, बाला प्रसाद, मूरत सिंह और दुर्गा प्रसाद। इन्ही में से एक परिवार जिसके मुखिया श्री लोकनाथ बैदार थे वे शासन की कृषि आय-व्यय का हिसाब रखने का कार्य करने लगे। उनके ही पोते के रूप में श्री लाला जगदलपुरी का जन्म 17 दिसम्‍बर 1920 को जगदलपुर में हुआ था। लाला जी के पिता का नाम श्री रामलाल श्रीवास्तव तथा माता का नाम श्रीमती जीराबाई था। लाला जी तब बहुत छोटे थे जब पिता का साया उनके सिर से उठ गया तथा माँ के उपर ही दो छोटे भाईयों व एक बहन के पालन-पोषण का दायित्व आ गया। लाला जी के बचपन की तलाश करने पर जानकारी मिली कि जगदलपुर में बालाजी के मंदिर के निकट बालातरई जलाशय में एक बार लाला जी डूबने लगे थे; यह हमारा सौभाग्य कि बहुत पानी पी चुकने के बाद भी वे बचा लिये गये। 

लाला जी का लेखन कर्म 1936 में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं – मिमियाती ज़िन्दगी दहाडते परिवेश (1983); पड़ाव (1992); हमसफर (1986) आँचलिक कवितायें (2005); ज़िन्दगी के लिये जूझती ग़ज़लें तथा गीत धन्वा (2011)। लाला जगदलपुरी के लोक कथा संग्रह हैं – हल्बी लोक कथाएँ (1972); बस्तर की लोक कथाएँ (1989); वन कुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990); बस्तर की मौखिक कथाएँ (1991)। उन्होंने अनुवाद पर भी कार्य किया है तथा प्रमुख प्रकाशित अनुवाद हैं – हल्बी पंचतंत्र (1971); प्रेमचन्द चो बारा कहानी (1984); बुआ चो चीठीमन (1988); रामकथा (1991) आदि। लाला जी नें बस्तर के इतिहास तथा संस्कृति को भी पुस्तकबद्ध किया है जिनमें प्रमुख हैं – बस्तर: इतिहास एवं संस्कृति (1994); बस्तर: लोक कला साहित्य प्रसंग (2003) तथा बस्तर की लोकोक्तियाँ (2008)। यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का बहुत सा कार्य अभी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्य वश कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर लिये गये। यह 1971 की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से बाहर गये थे कि एक गाय नें यह सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये; आज भी लाला जगदलपुरी की अनेक पाण्डुलिपियाँ अ-प्रकाशित हैं किंतु हिन्दी जगत इतना ही सहिष्णु व अच्छे साहित्य का प्रकाशनिच्छुक होता तो वास्तविक प्रतिभायें और उनके कार्य ही मुख्यधारा कहलाते। 

लाला जगदलपुरी जी के कार्यों व प्रकाशनों की फेरहिस्त यहीं समाप्त नहीं होती अपितु उनकी रचनायें कई सामूहिक संकलनों में भी उपस्थित हैं जिसमें समवांय, पूरी रंगत के साथ, लहरें, इन्द्रावती, हिन्दी का बालगीत साहित्य, सुराज, छत्तीसगढी काव्य संकलन, गुलदस्ता, स्वरसंगम, मध्यप्रदेश की लोककथायें आदि प्रमुख हैं। लाला जी की रचनायें देश की अनेकों प्रमुख पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में भी स्थान बनाती रही हैं जिनमें नवनीत, कादम्बरी, श्री वेंकटेश्वर समाचार, देशबन्धु, दण्डकारण्य, युगधर्म, स्वदेश, नई-दुनिया, राजस्थान पत्रिका, अमृत संदेश, बाल सखा, बालभारती, पान्चजन्य, रंग, ठिठोली, आदि सम्मिलित हैं। लाला जगदलपुरी नें क्षेत्रीय जनजातियों की बोलियों एवं उसके व्याकरण पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। लाला जगदलपुरी को कई सम्मान भी मिले जिनमें मध्यप्रदेश लेखक संघ प्रदत्त “अक्षर आदित्य सम्मान” तथा छत्तीसगढ शासन प्रदत्त “पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान’ प्रमुख है। लाला जी को अनेको अन्य संस्थाओं नें भी सम्मानित किया है जिसमें बख्शी सृजन पीठ, भिलाई; बाल कल्याण संस्थान, कानपुर; पड़ाव प्रकाशन, भोपाल आदि सम्मिलित है। यहाँ 1987 की जगदलपुर सीरासार में घटित उस अविस्मरणीय घटना को उल्लेखित करना महत्वपूर्ण होगा हब शानी को को सम्मानित किया जा रहा था। शानी जी स्वयं हार ले कर लाला जी के पास आ पहुँचे और उनके गले में डाल दिया; यह एक शिष्य का गुरु को दिया गया वह सम्मान था जिसका कोई मूल्य नहीं; जिसकी कोई उपमा भी नहीं हो सकती। 

केवल इतनी ही व्याख्या से लाला जी का व्यक्तित्व विश्लेषित नहीं हो जाता। वे नाटककार एवं रंगकर्मी भी हैं। 1939 में जगदलपुरे में गठित बाल समाज नाम की नाट्य संस्था का नाम बदल कर 1940 में सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख दिया गया। इस ससंथा द्वारा मंचित लाला जी के प्रमुख नाटक थे – पागल तथा अपनी लाज। लाला जी नें इस संस्था द्वारा मंचित विभिन्न नाटकों में अभिनय भी किया है। 1949 में सीरासार चौक में सार्वजनिक गणेशोत्सव के तहत लाला जगदलपुरी द्वारा रचित तथा अभिनित नाटक “अपनी लाज” विशेष चर्चित रहा था। लाला जी बस्तर अंचल के प्रारंभिक पत्रकारों में भी रहे हैं। वर्ष 1948 – 1950 तल लाला जी नें दुर्ग से पं. केदारनाथ झा चन्द्र के हिन्दी साप्ताहित “ज़िन्दगी” के लिये बस्तर संवाददाता के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने हिन्दी पाक्षिक अंगारा का प्रकाशन 1950 में आरंभ किया जिसका अंतिम अंक 1972 में आया था। अंगारा में कभी ख्यातिनाम साहित्यकार गुलशेर अहमद खां शानी की कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं; उल्लेखनीय है कि शानी भी लालाजी का एक गुरु की तरह सम्मान करते थे। लाला जगदलपुरी 1951 में अर्धसाप्ताहिक पत्र “राष्ट्रबंधु” के बस्तर संवाददाता भी रहे। समय समय पर वे इलाहाद से प्रकाशित “लीडर”; कलकत्ता से प्रकाशित “दैनिक विश्वमित्र” रायपुर से प्रकाशित “युगधर्म” के बस्तर संवादवाता रहे हैं। लालाजी 1984 में देवनागरी लिपि में निकलने वाली सम्पूर्ण हलबी पत्रिका “बस्तरिया” का सम्पादन प्रारंभ किया जो इस अंचल में अपनी तरह का अनूठा और पहली बार किया गया प्रयोग था। लाला जी न केवल स्थानीय रचनाकारों व आदिम समाज की लोक चेतना को इस पत्रिका में स्थान देते थे अपितु केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल, गोरख पाण्डेय और निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकारों की रचनाओं का हलबी में अनुवाद भी प्रकाशित किय जाता था। एसा अभिनव प्रयोग एक मिसाल है; तथा यह जनजातीय समाज और मुख्यधारा के बीच संवाद की एक कडी था जिसमें संवेदनाओं के आदान प्रदान की गुंजाईश भी थी और संघर्षरत रहने की प्रेरणा भी अंतर्निहित थी। 

लाला जगदलपुरी से जुडे हर व्यक्ति के अपने अपने संस्मरण है तथा सभी अविस्मरणीय व प्रेरणास्पद। लाला जगदलपुरी के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह नें शासकीय सहायता का प्रावधान किया था जिसे बाद में आजीवन दिये जाने की घोषणा भी की गयी थी। आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शासन नें 1998 में यह सहायता बिना किसी पूर्व सूचना के तब बंद करवा दी; जिस दौरान उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। लाला जी नें न तो इस सहायता की याचना की थी न ही इसे बंद किये जाने के बाद किसी तरह का पत्र व्यवहार किया। यह घटना केवल इतना बताती है कि राजनीति अपने साहित्यकारों के प्रति किस तरह असहिष्णु हो सकती है। लाला जी की सादगी को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेष सुलभ एक घटना का बहुधा जिक्र करते हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जगदलपुर आये थे तथा अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए उन्होंने लाला जगदलपुरी से मिलना निश्चित किया। मुख्यमंत्री की गाडियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड गया। लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। लाला जी इसी तरह की सादगी की प्रतिमूर्ति हैं। आज उम्र के चौरानबे वसंत वे देख चुके हैं। कार्य करने की धुन में वे अविवाहित ही रहे। जगदलपुर की पहचान डोकरीनिवास पारा का कवि निवास अब लाला जगदलपुरी के भाई व उनके बच्चों की तरक्की के साथ ही एक बडे पक्के मकान में बदल गया है तथापि लाला जी घर के साथ ही लगे एक कक्ष में अत्यधिक सादगी से रह रहे हैं। लाला जी अब ठीक से सुन नहीं पाते, नज़रें भी कमजोर हो गयी हैं। भावुकता अब भी उतनी ही है; हाल ही में जब मैं उनसे मिला था तो वे अपने जीवन के एकाकीपन से क्षुब्ध थे तथा उनकी आँखें बात करते हुए कई बार नम हो गयीं। लाला जगदलपुरी के कार्यों, उपलब्धियों व जीवन मूल्यों को देखते हुए उन्हें अब तक पद्म पुरस्कारों का न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। लाला जगदलपुरी को पद्मश्री प्रदान करने माँग अब कई स्तरों पर उठने लगी है; यदि सरकार इस दिशा में प्रयास करती है तो यह बस्तर क्षेत्र को गंभीरता से संज्ञान में लेने जैसा कार्य कहा जायेगा चूंकि बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं।

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प्रस्तुत चित्र लाला जगदलपुरी जी के कल और आज का है। एक चित्र जब लाला जगदलपुरी युवा थे तथा एक वर्तमान का चित्र केवल दो माह पुराना। लाला जगदपुरी जी को जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनायें। उनका आशीर्वाद हमेशा हमारे सर पर बना रहे। माँ दंतेश्वरी से यही मंगल कामना है। 

नल युगीन बस्तर के अविस्मरणीय नायक थे स्कंदवर्मन

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सान्ध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में 18.12.12 को प्रकाशित
इतिहास की पडताल करने पर नलयुगीन शासक स्कंदवर्मन (475-500ई.)विलक्षण नायक नज़र आते हैं। उन्हें विरासत में एक ध्वस्त राजधानी तथा मुट्ठी भर साथी ही मिले थे। इससे विचलित हुए बिना उन्होंने न केवल नल सत्ता को पतन से उबारा अपितु पुन: उसके गौरव की भी स्थापना की। वह नल साम्राजय जिसे सम्राट समुद्रगुप्त नें अपने आधीन कर लेने के बाद भी एक स्वतंत्र सत्ता बनाये रखा था वस्तुत: अर्थपति भट्टारक (460-475ई.)के समय के आते आते कमज़ोर हो गया था। अर्थपति एक विलासी शासक प्रतीत होते हैं, कदाचित व्यसनी। वे आम जनता का विश्वास और सहानुभूति खो चुके थे और बहुतायत समय सुरा-सुन्दरी में डूबे हुए ही व्यतीत करते थे। इतिहास गवाह है कि एसे शासक कभी भी सत्ता पर पकड़ नहीं बनाये रख सके हैं। मध्य क्षेत्र में अत्यधिक शक्तिशाली वाकाटक नरेशों को एसे ही समय की प्रतीक्षा लम्बे समय से थी। वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण (460-480ई.)नें नलों की राजधानी नन्दिवर्धन पर तीन दिशा से हमला कर दिया। यह इतना शक्तिशाली हमला था कि अंतत: अर्थपति भट्टारक को अपनी राजधानी छोड कर भागना पड़ा। अपनी बार बार पराजय तथा असफलताओं से त्रस्त वाकाटक राजा इतने उद्वेलित थे कि पृथ्वीषेण नें नल साम्राज्य को जड़ से उखाड देने के संकल्प के साथ ही आक्रमण किया था। अर्थपति नल साम्राज्य की प्राचीन राजधानी पुष्करी की ओर भागे लेकिन वहाँ तक भी उनका पीछा किया गया। स्वयं पृथ्वीषेण अपनी सेना के साथ पुष्करी पहुँचे और इस नगरी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया। एक-एक प्रासाद और मकान तोड़ दिया गया। इसके बाद पृथ्वीषेण ने अर्थपति भट्टारक को उसके हाल पर छोड़ दिया और वह नव-विजित राजधानी नन्दिवर्धन लौट आया।   

अर्थपति गहन विषाद में रहने लगे। वे ध्वस्त राजधानी और कदमों से नापी जा सकने जितनी भूमि पर बची सत्ता के साथ रह गये थे। मदिरा ने साथ नहीं छोड़ा इसलिये शीघ्र ही शरीर ने साथ छोड़ दिया। अर्थपति के निधन के बाद उनके छोटे भाई स्कंदवर्मन का अत्यधिक साधारण समारोह में राजतिलक किया गया। यह राजतिलक केवल परम्परा के निर्वाह के लिये ही था क्योंकि उनके पास न तो भूमि थी न ही कोई अधिकार। कहते हैं संयमी और दूरदर्शी व्यक्ति कभी हौसला नहीं खोते तथा केवल लक्ष्यदृष्टा होते हैं। स्कंदवर्मन ने अपने विश्वासपात्र साथियों के साथ खुले वातावरण में बैठक की तथा अपने दिवास्वप्न से मित्रो को अवगत कराया। वे महाकांतार से वाकाटकों को खदेड़ कर नल-राज पताका पुन: प्रशस्त करना चाहते थे। सभी साथी हँस पडे; यह असंभव था। वह तथाकथित राजा जो इस समय पत्थर पर बैठ कर चन्द साथियों को सम्बोधित कर रहा हो महान वाकाटक सत्ता को खदेड़ना चाहता था – नितांत असंभव ही तो था।  

क्या उन्होंने दिवास्वप्न देखा था? स्कंदवर्मन एक कुशल योजनाकार थे; अद्भुत संगठन क्षमता थी उनमें।  वे स्वयं घर घर पहुँचने लगे। उनका चित्ताकर्षक व्यक्तित्व और प्रखर वक्ता होना शनै:-शनै: कार्य करने लगा। राजधानी से दूर महाकांतार की सीमाओं में रह रही प्रजा को सैन्य-प्रशिक्षण दिया जाने लगा। बीस सैनिकों की संख्या दो सौ में बदली। दो सौ सैनिकों की संख्या दो हजार तक पहुँची और दिन प्रति दिन नागरिक जुटते रहे। वाकाटक राजाओं को कमजोर करने का कार्य उनकी जन-विरोधी नीतियों नें भी स्वत: कर दिया था। वाकाटकों से असंतुष्ट धनाड्यों ने चुप-चाप स्कंदवर्मन तक आर्थिक मदद भी पहुँचायी। पहले छापामार शैली में छुट-पुट आक्रमण किये गये। छोटी छोटी जीत, शस्त्रों और सामंतों के पास संग्रहित करों की लूट से प्रारंभ हुआ अभियान अब स्वरूप लेने लगा। वाकाटकों के आधीन अनेकों सामंतो ने अवसर को भांपते हुए अपनी प्रतिबद्धता बदल ली। महाकांतार के आधे से अधिक भाग से पृथ्वीषेण खदेड़ दिये गये, नल-त्रिपताका का गौरव लौटने लगा। इधर राजा पृथ्वीषेण की मृत्यु के पश्चात वाकाटक और भी कमजोर हुए थे; ज्येष्ठ पुत्र देवसेन नें महाकांतार की सत्ता संभाल ली थी। 

अपनी ओर बढते हुए खतरे को भाँप कर नन्दिवर्धन किले को सुरक्षित करने में स्वयं राजा देवसेन ने रुचि ली; किंतु चिड़िया के खेत चुगने के बाद। स्कंदवर्मन के हाँथियों ने नन्दिवर्धन किले के मुख्यद्वार को धकेलना आरंभ किया ही था कि राजधानी को साँप सूंघ गया। देवसेन के लिये यह समझ पाना ही कठिन हो रहा लगा था कि कैसे इतने अल्पकाल में नल पुन: शक्तिशाली हो गये हैं। मुख्य द्वार तोड़ दिया गया। पैदल सैनिक शोर करते हुए किले के भीतर घुस आये। पीछे पीछे घुड़सवार सैनिकों ने मोर्चा संभाला हुआ था। तभी महल के उपर ‘श्वेत-ध्वज’ लगा दिया गया। सुसज्जित हाँथी पर लगे स्वर्ण हौदे पर आसीन हो कर स्कंदवर्मन ने नन्दिवर्धन किले के भीतर प्रवेश किया। देवसेन को उसी शैली में  निर्वासित कर दिया गया जैसा हश्र कभी अर्थपति भट्टारक का हुआ था। अपने पुत्र हरिषेण और कुछ विश्वासपात्र साथियों के साथ वे कोशल की ओर भाग गये।    

यह घटना प्राचीन अवश्य है किंतु इसकी प्रासंगिकता में लेशमात्र भी कमी नहीं आयी है। जनता उसी के साथ खडी होती है जो स्वयं जमीन से आ कर जुडे। यही किसी आन्दोलन का प्राचीनतम स्वरूप है तथा एसे ही आज भी संघर्ष होते हैं। इस उदाहरण का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिये कि उसी महाकांतार क्षेत्र में आज जारी माओवादी आतंकवाद को जन-संघर्ष कह दिया जाये। हमे यह समझना चाहिये कि क्रांतिकारी कनपट्टी पर बन्दूक धर दिये जाने से पैदा नहीं होते। क्रांति का अंतिम लक्ष्य भले ही वैश्विक हो तथापि वह अपने नितांत क्षेत्रीय व लौकिक कारणों की उपलब्धता के बाद ही किसी क्षेत्र में पनप सकती है। स्कंदवर्मन एक जननायक इस लिये थे क्योंकि वे जुडना जानते थे जिसके लिये आम जन की निजता, उनके सरोकारों, उनकी मान्यताओं, उनकी परम्पराओं की हत्या करने की आवश्यकता नहीं है जैसा कि वर्तमान में माओवादी कर रहे हैं। एक जननायक को एक आम आदिवासी का वैसे ही बन जाने की आवश्यकता है जैसे कि वे स्वयं हैं। कंधे पर बंदूख की बट मार मार कर लाये जाने वाले बदलाव कभी शास्वत नहीं हो सकते अपितु इससे एक भटका हुआ समाज जन्म लेगा जो अपनी जडों से बलात काट दिये जाने के कारण नितांत अदूरदर्शी और घातक हो सकता है। बस्तर में स्कंदवर्मन को पहला जन नायक कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी तथा वाकाटकों को महाकांतार अर्थात प्राचीन बस्तर क्षेत्र से खदेडने को पहली सफल क्रांति भी कहा जा सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि नल राजाओं का शासनकाल जन-प्रियता तथा स्थिरता के लिये जाना जाता है चूंकि उनमें जमीन से जुडे होने की दक्षता विद्यमान थी। 

बस्तर, बारसूर और गंग-राजवंश – बिखरी कडियाँ।

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किसी समय ओड़िशा के जगन्नाथपुरी क्षेत्र के राजा गंगवंशीय थे। राजा की छ: संतानें उनकी व्याहता रानियों से थी तथा एक पुत्र दासी से उत्पन्न था। अनेक घटनायें अतीत के पन्नों में दर्ज है जहाँ राजा प्रेम अथवा वासना में इस तरह डूबा रहा करता कि अंतत: गणिकाओं, दासियों तथा नगरवधुओं नें उनसे अपनी मनमानियाँ करवायी हैं तथा सत्ता पर अपने परिजनों अथवा पुत्र को अधिकार दिलाने में सफल हो गयी हैं। इस गंगवंशीय राजा नें भी यही किया तथा दासी पुत्र सत्ता का अधिकारी बना दिया गया। छ: राजकुमार राज्य के बाहर खदेड दिये गये। इनमें से एक राजकुमार नें अपने साथियों के साथ किसी तत्कालीन शक्तिहीन हो रहे नल-राजाओं के गढ महाकांतार के एक कोने में सेन्ध लगा दी तथा वहाँ बाल-सूर्य नगर (वर्तमान बारसूर) की स्थापना की।

यह कथा तिथियों के अभाव में इतिहास का हिस्सा कहे जाने की अपेक्षा जनश्रुतियों की श्रेणी में ही वर्गीकृत रहेगी। पं. केदारनाथ ठाकुर (1908) नें अपनी किताब “बस्तर भूषण (1908)” में इस घटना का इतिहासिक तथ्य की तरह वर्णन किया है। इसे बस्तर के इतिहास की शून्यता में कई स्थानों/तिथियों में जोडने की गुंजाईश दिखती है। पहली संभावना बनती है नल राजा स्कंदवर्मन (475-500 ई.)की मृत्यु के बाद; चूंकि इसके पश्चात लम्बे समय तक नल शासन का उल्लेख प्राचीन बस्तर के अब तक उपलब्ध एतिहासिक प्रमाणों से प्राप्त नहीं होता। प्राय: शक्तिशाली राजाओं की संततियाँ विरासत को संभाल पाने में नाकाबिल साबित होती रही हैं। अत: हो सकता है कि  इसी समय वाकाटकों नें पुन: नलों को परास्त किया हो। यह संभावना है कि वाकाटक नरेश हरिषेण नें स्कंदवर्मन के पश्चात के शासको को परास्त कर राज्य विस्तार किया होगा। इसी समय में पूर्वी गंग नाम के एक राजवंश के शक्तिशाली हो कर उदित होने की जानकारी भी प्राप्त होती है। यह विश्वास किया जा सकता है कि वाकाटक नरेश हरिषेण की आधीनता में ही पूर्वी गंग त्रिकलिंग के शासक बने तथा वे वाकाटकों व आन्ध्र के शासकों के बीच प्रतिरोधक का कार्य करते रहे।

प्राचीन बस्तर पर शासन करने वाले गंग राजाओं नें स्वयं को त्रिकलिंगाधिपति कहा है अत: यह समझना आवश्यक हो जाता है कि यह प्राचीन भूगोल में किस क्षेत्र का परिचायक है। त्रिकलिंग का उल्लेख पहले-पहल ग्रीक-यूनानी लेखकों की इतिहास लेखन के उद्देश्य से रची गयी कृतियों में मिलता है। ग्रीक लेखक प्लीनी नें कलिंग को गंगरिदेसकलिंगे, मक्को कलिंगे एवं कलिंग नामक तीन उपविभागों में बाँटा है। पूर्वीगंगों के ताम्रपत्रों में उन्हें त्रिलिंगाधिपति घोषित किये जाने का अनेको बार उल्लेख मिलता है। त्रिकलिंग एवं कलिंग पर गंग राजाओं के आधिपत्य का विवरण वज्रहस्त पंचम, राजराज प्रथम एवं चोडगंग के ताम्रपत्रों में मिलता है। चोड़गंग के ताम्रपत्र एक कथा की ओर इशारा करते हैं कि गंग राजाओं की वंशावली राजा कामार्ण्णव से प्रारंभ होती है जिन्होंने अपने चार भाईयों की सहायता से एक नये राज्य की स्थापना की जिसे त्रिकलिंग कहा गया। दानपत्रों के उल्लेख त्रिकलिंग को कलिंग के पश्चिम में अवस्थित सिद्ध करते हैं। त्रिकलिंग क्षेत्र की व्याख्या अनेक इतिहासकार/विद्वानों नें अपने अपने तरह से की है। कुछ इतिहासकार इसे तीन राज्यों का सम्मिलित क्षेत्र मानते हैं जैसा कि कनिंघम का मंतव्य है जिनके अनुसार धनकट, अमरावती व आन्ध्र मिला कर त्रिकलिंग बनते हैं। फ्लीट त्रिकलिंग को गंगा के मिहाने तक प्रसारित मानते हैं जबकि कीलहार्न प्राचीन तेलंगाना को  ही त्रिकलिंग मानते हैं। डीसी गाँगुली त्रिकलिंग के अंतर्गत उत्तरी कलिंग (गंजाम); दक्षिणी कलिंग (गोदावरी क्षेत्र) तथा मध्य कलिंग (विशाखापट्टनम) मानते हैं। शक संवत 1280 के श्रीरंगम ताम्रपत्र के अनुसार त्रिकलिंग के पश्चिम में महाराष्ट्र, पूर्व में कलिंग, दक्षिण में पाण्डय देश एवं उत्तर में कान्यकुब्ज हैं – “पश्चात पुरस्तादपि यस्य देशौ ख्यातौ महाराष्ट्रकलिंगसंज्ञो:। आर्वादुदक पाण्ड्यकान्यकुब्जौ देशो स्मतत्रापि तिलिंगनामा”। उपरोक्त विवरणो से त्रिकलिंग के पृथक व एक स्वतंत्र राज्य होने का उल्लेख बनता है जिसे गंग राजाओं नें बसाया होगा तथा यह प्राचीन बस्तर की कुछ भूमि समेत कोरापुट व कालाहाण्डी क्षेत्रों के लिये संयुक्त रूप से प्रयोग में लाया जाने वाला नाम रहा होगा। इस सत्य की सबसे अधिक ठोस रूप में पुष्टि ओडिशा म्यूजियम, भुवनेश्वर में संरक्षित रखे ब्रम्हाण्डपुराण के ताडपत्र से होती है जिसमे एक श्लोक त्रिकलिंग क्षेत्र की स्पष्ट जानकारी प्रदान करता है। इस श्लोक का अंतिम शब्द ताडपत्र में अस्पष्ट है तथापि इसके अनुसार झंझावती से वेदवती नदी के मध्य का क्षेत्र त्रिकलिंग है जबकि इससे लग कर अर्थात झंझावती से ऋषिकुल्या तक का क्षेत्र कलिंग है – अषिकुल्यां समासाद्य यावत झंझावती नदी, कलिंग देशख्यातो देशाना गर्हितस्तदा। झंझावतीं सभासद्य यावद वेदवती नदी, त्रिकलिंगड़गीति ख्यातो...”। झंझावती, नागवल्ली नदी की सहायक सरिता है जबकि वेदवती इन्द्रावती का उपनाम। अत: विवादों को दृष्टिगत रखते हुए भी इस समहति पर पहुँचना होगा कि प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर पूर्वीगंग वंश का शासन 498 – 702 ई. के मध्य रहा होगा।

गंगवंश का प्रथम ज्ञात राजा इन्द्रवर्मन है जिसने अपने जिरजिंगी दानपत्र (537 ई.) में स्वयं को त्रिलिंगाधिपति कहा है। इसका राज्य क्षेत्र समुद्रतट तक विस्तृत बताया जाता है। दूसरा गंग राजा सामंतवर्मन था जिनका पोन्नुतुरू दानपत्र भी उन्हें त्रिलिंगाधिपति घोषित करता है। सामंतवर्मन की राजधानी सौम्यवन थी जिसे वर्तमान श्रीकाकुलम जिले में वंशधारानदी के तट पर अवस्थित माना जाता है। सामंतवर्धन के पश्चात राजा हस्तिवर्मन का उल्लेख नरसिंहपल्ली ताम्रपत्र तथा उरलाम दानपत्र से प्राप्त होता है। हस्तिवर्मन द्वारा त्रिलिंगाधिपति के स्थान पर सकलकलिंगाधिपात उपाधि धारण करने का उल्लेख मिलता है तथा उनके द्वारा कलिंगनगर को राजधानी बनाया गया था। हस्तिवर्मन का उत्तराधिकारी इन्द्रवर्मन द्वितीय था जिसके समय में त्रिकलिंग के दक्षिणी क्षेत्रों पर चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितिय नें अधिकार कर लिया था। इसके पश्चात गंगवंशीय राजा इन्द्रवर्मन तृतीय का उल्लेख मिलता है जिसने 632 ई. में तेकाली पत्र जारी किया था। एक अन्य अभिलेख में देवेन्द्रवर्मन का चिकाकोल पत्र (681 ई.) प्राप्त हुआ है। गंगवंशीय अंतिम प्राप्त अभिलेख है देवेन्द्रवर्मन के पुत्र अनन्तवर्मन का धर्मलिंगेश्वर दानपत्र (702 ई.) जिसके पश्चात इस राजवंश का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है

दुर्गमतम क्षेत्र होने के कारण प्राचीन बस्तर के इतिहास को एक क्रम में देखने से कई समस्यायें आ जाती है। हम काल निर्धारण करते हुए पूरी तरह आश्वस्त नहीं रह सकते तथापि यह मान सकते हैं कि स्कन्दवर्मन के पश्चात  नल वंश का महाकांतार में पतन होने लगा; अत बिना किसी बड़े प्रतिरोध के गंग राजवंश जो कि दण्ड़क वन क्षेत्र में “बाल सूर्य” (वर्तमान बारसूर) नगर और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में सीमित था अब महाकांतार क्षेत्र का वास्तविक शासक बन गया। इस राजवंश की शासन-प्रणाली तथा राजा-जन संबंधों पर बात करने के लिये समुचित प्रमाण, ताम्रपत्र अथवा शिलालेख उपलब्ध नहीं हैं तथापि गंग राजाओं का स्थान बस्तर की स्थापत्य कला की दृष्टि से अमर हो गया है। बालसूर्य नगर की स्थापना के पश्चात गंग राजाओं नें अनेकों विद्वानों तथा कारीगरों को आमंत्रित किया जिन्होंने राजधानी में एक सौ सैंतालीस मंदिर तथा अनेकों मंदिर, तालाबों का निर्माण किया। गंगमालूर गाँव से जुडा “गंग” शब्द तथा यहाँ बिखरी तद्युगीन पुरातत्व के महत्व की संपदाये गंग-राजवंश के समय की भवन निर्माण कला एवं मूर्तिकला की बानगी प्रस्तुत करती हैं। बारसूर मेंअवस्थित प्रसिद्ध मामा भांजा मंदिर गंग राजाओं द्वारा ही निर्मित है। कहते हैं कि राजा का भांजा उत्कल देश से कारीगरों को बुलवा कर इस मंदिर को बनवा रहा था। मंदिर की सुन्दरता ने राजा के मन में जलन की भावना भर दी। इस मंदिर के स्वामित्व को ले कर मामा-भांजा में युद्ध हुआ। मामा को जान से हाँथ धोना पड़ा। भाँजे ने पत्थर से मामा का सिर बनवा कर मंदिर में रखवा दिया फिर भीतर अपनी मूर्ति भी लगवा दी थी। आज भी यह मंदिर अपेक्षाकृत अच्छी हालत में संरक्षित है। आज का बारसूर ग्राम अपने खंड़हरों को सजोए अतीत की ओर झांकता प्रतीत होता है।

बारसूर नगर के एतिहासिक अतीत को देखते हुए उसके संरक्षण के लिये किये जाने वाले कार्यों की सराहना करनी होगी। अभी जो प्रयास हुए हैं उनके तहत कुच प्राचीनमंदिर व भव्य प्रतिमायें अगली पीढी के लिये बचा ली गयी हैं तथापि बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है। यह नगर इतिहासकारों व पुरातत्वविदों की समग्रदृष्टि तथा विषद शोध की माँग करता है तभी हम गंग वंशीय अतीत पर प्रामाणिकता से कुछ कहने की स्थिति में होंगे। बारसूर वैसे भी प्राचीन मंदिरों व भग्नावशेषों से पटी पडी नगरी है जो स्वयं को पढे और पुन: गढे जाने की राह तक रही है।

राजीव रंजन प्रसाद के उपन्यास “आमचो बस्तर” पर डॉ. कौशलेन्द्र की समालोचना

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नक्सलवाद बस्तर का मैलिग्नेण्ट कैंसर है डॉ. कौशलेन्द्र

“आमचो बस्तर” को प्रकाशित हुए दूसरा वर्ष हो गया है। इस बीच हार्ड बाउंड तथा पेपरबैक दोनो संस्करण बाजार में आ गये हैं। प्रसन्नता इस बात की अधिक है कि मुझे अब भी प्रतिक्रियायें निरंतर प्राप्त हो रही हैं। नवीनतम समालोचनात्मक प्रतिक्रिया दी है कांकेर (बस्तर) के डॉ. कौशलेन्द्र नें। इस समालोचना को उन्होंने अपने ब्ळोग “बस्तर की अभिव्यक्ति” पर भी प्रकाशित किया है। यह समालोचना मैं अपने मित्रों के लिये उपलब्ध करवा रहा हूँ: -
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राजीव रंजन प्रसाद का हालिया लिखा उपन्यास आमचो बस्तरअपनी ही धरती पर बेगानों के साथ मिलकर अपनों द्वारा क्रूरता से छिछियाये हुये पीड़ित संसार का इतिहास है, अतीत की गुफाओं में दफ़न किये जा चुके बस्तर के देशभक्त महानायकों की गौरवपूर्ण समाधि बनाने और उन पर श्रृद्धासुमन अर्पित कर बस्तर के इतिहास को पुनर्जीवित करने का सार्थक और स्तुत्य प्रयास है, शोषण की अजस्र प्रवाहित विषधारा के प्रति व्यापक चिंता है, छोटी-छोटी समस्याओं के विराट ज्वालामुखी हैं, विदूप हो ठठाते विकास की कड़्वी सच्चायी है, पत्रकारिता की निष्ठा पर अविश्वास है, गोलियों से बहे निर्दोष ख़ून और मासूम चीखों से अपने अहं को तुष्ट करती सत्ता की कहानी है, दुनिया के द्वारा ख़ारिज़ किये जा चुके आयातित विचारों की पोटली में छिपे बम हैं....और हैं ढेरों प्रश्न जो किसी भी निष्पक्ष पाठक को झकझोरने, अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने और एक नई क्रांति के लिये पृष्ठभूमि की आवश्यकता पर चिंतन करने को विवश करते हैं। 

उपन्यास के भीतर से एक आह उठती है  मेरे बस्तर! क्या तुम इसी प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी लोकतंत्र का हिस्सा हो? क्या बस्तर भारत का ही हिस्सा है?”  देश को आज़ाद हुये आधी सदी से भी अधिक समय बीत जाने के बाद इस तरह के आह भरे प्रश्न आज़ादी के स्वरूप और औचित्य के लिये चुनौती हैं।  

कई बार मैं यह सोचने के लिये विवश हुआ हूँ कि नैसर्गिक सौन्दर्य और प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर बस्तर कहीं इस आर्यावर्त की अभिषप्त भूमि तो नहींत्रेतायुग में रावण का उपनिवेश रहा दण्डकवन, कलियुग में दुनिया के लिये अबूझ हो गया बस्तर, बीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश, भोसले और अरब आततायियों से आतंकित बस्तर, स्वतंत्र भारत में स्वाधीनसत्ता की गोलियों से भूने जाते निर्दोष गिरिवासियों-वनवासियों के शवों पर सिसकता बस्तर और वर्तमान में लाल-सबेरा के लाल-रक्त से प्रतिदिन स्नान करता बस्तर कब तक शोषित होता रहेगा और क्यों?

बस्तर की माटी में पले-बढ़े, अपने सर्वेक्षण और चिंतन को कलम के माध्यम से अभिव्यक्त करते राजीव रंजन प्रसाद के उपन्यास आमचो बस्तरके पात्र भी इन्हीं प्रश्नों से जूझते नज़र आते हैं। बस्तर के प्राच्य इतिहास को अपने में समेटे इस ऐतिहासिक उपन्यास की प्रथम यवनिका उठते ही एक गोला सा दगता है- आख़िर सुबह क्यों नहीं होती?” प्रश्न स्वगत उत्तर के रूप में अपने को और भी स्पष्ट करता है- रोज-रोज माओवादी हमलों में मारे जा रहे आदिवासियों से वैसे भी दुनिया का क्या उजड़ता है?”

प्रकृति ने तो बस्तर को बड़ी उदारता से सब कुछ बाँटा पर मनुष्य ने बस्तर को छलने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत की स्वतंत्रता के 12 वर्षों बाद बस्तर के वनवासियों के साथ भारत सरकार द्वारा एक क्रूर परिहास किया गया; उन्हें बताया गया कि भारत सरकार के द्वारा विजय चन्द्र भंज देव को बस्तर का महाराजा घोषित किया गया है, अब वे ही आप सबके महाराजा हैं।

प्रवीर चन्द्र भंज देव को अपना महाराजा ...अपना अन्नदाता ...अपना भगवान मानने वाले बस्तर के भोले-भाले लोगों को नहीं पता कब किसकी हुक़ूमत आयी और कब किसकी ख़त्म हो गयी। उन्हें दिल्ली नहीं मालुम, उन्हें भारत सरकार नहीं मालुम। उन्हें बदला हुआ सत्य न बताकर उनकी आस्था भंग की गयी। बस्तर राज्य को भारतसंघ में स्वेच्छा से सम्मिलित कर चुके महाराजा प्रवीर को भारत सरकार ने बस नाम भरका पूर्व राजा  मानने से इंकार करते हुये उनके छोटे भाई को नाम भरका राजा घोषित कर दिया, एक ऐसा राजा घोषित कर दिया जिसका कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं था। किंतु ...इस घोषणा में जिस बात का अस्तित्व था वह था झूठी शान की दिलासा में दो भाइयों को एक-दूसरे का शत्रु बनाकर सत्ता में बैठे लोगों की अहं की तुष्टि। इस तुष्टि का परिणाम हुआ 31 मार्च 1961 को बस्तर के लोहण्डीगुड़ा में आदिवासियों पर पुलिस की बर्बर फ़ायरिंग। और फिर बस्तर राजमहल में निहत्थे प्रवीरचन्द्र भंज देव की पुलिस द्वारा बर्बर हत्या। क्या स्वतंत्र भारत की यही तस्वीर है?

उपन्यासकार राजीव रंजन की एक बड़ी पीड़ा यह भी है कि देश के लोग बस्तर को अन्धों के हाथी की तरह देखते रहे हैं ...वह भी अपनी पूरी ज़िद के साथ। दूर दिल्ली में बस्तर के प्रति एक आम धारणा देश की संचार एवं सूचना व्यवस्था का परिहास करती है – “ ... अरे बस्तर से आये हो, लेकिन तुमने तो कपड़े पहन रखे हैं।

लोगों की दृष्टि में बस्तर कैसा है, लेखक ने इसका  बख़ूबी वर्णन किया है –“बस्तर में ख़ूबसूरती तलाशने के लिये दिल्ली से एक बड़ी पत्रिका के पत्रकार और प्रेस फ़ोटोग्राफ़र आये थे। जंगल-जंगल घूमे। उन्हे यहाँ की हरियाली में ख़ूबसूरती नज़र नहीं आयी। चित्रकोट और तीरथगढ़ जैसे जलप्रपात उन्हें सुन्दर नहीं लगे, न ही कुटुमसर जैसी गुफ़ाओं के रहस्य ने उन्हें रोमांचित किया। जिस ख़ूबसूरती की तलाश थी वह थी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी निर्वस्त्र आदिवासी युवती।

बस्तर में ख़ूबसूरती तलाशने आये एक फ़्रांसीसी जोड़े को भी किसी नग्न आदिवासी युवती की तलाश थी। घुटनों से ऊपर स्कर्ट और टीशर्ट पहनने वाली रीवा को देखकर स्थानीय युवक के मन प्रश्न उठता है कि आख़िर इतने ख़ुलेपन और न्यूनतम वस्त्रभूषा के बाद भी इन्हें बस्तर में निर्वस्त्र आदिम जीवन को ही देखने की उत्कंठा क्यों है?” आगे लेखक ने चुटकी लेते हुये लिखा है- “ ....वह पिछड़ों के नंगेपन और विकसितों के नंगेपन के बीच के अंतर का विश्लेषण कर रहा था।

लेखक बस्तर की इस कृत्रिम छवि से व्यथित है इसलिये उसे ऐतिहासिक हवाला देते हुये बस्तर राज्य के पूर्व मंत्री की हैसियत वाले एक पात्र के माध्यम से यह स्पष्ट करना पड़ा कि, “राजा अन्नमदेव से पहले नाग राजाओं की शासन पद्धति गणतंत्रात्मक थी। वैदिक युग से नागों के युग तक बस्तर की जनता का भौतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में विकास हुआ था।आगे, लेखक ने बस्तर की त्रासदी को रेखांकित करते हुये एक स्थान पर लिखा - जब एक समाज बाहर और भीतर के द्वार बन्द करले तो समझिये उस समाज ने पीछे की ओर दौड़ लगाना आरम्भ कर दिया है। राजा अन्नमदेव गणतांत्रिक व्यवस्था को कायम नहीं रख सके ...

बस्तर की पृष्ठभूमि पर यह उपन्यास जंगल से दूर किसी महानगर के भव्य भवन के वातानुकूलित कक्ष में सुने-सुनाये मिथकों और कल्पना के सहारे नहीं लिखा गया बल्कि बस्तर के जंगल के भीतर बैठकर लिखा गया। इसीलिये उपन्यास एक ऐतिहासिक अभिलेख बन पड़ा है जिसके अतीत में खोये पात्र अत्याचार के विरुद्ध जूझते हुये और शोषण को अपनी नियति स्वीकार कर चुके आधुनिक पात्र विकास की आशा में बड़ी उत्सुकता से बस्तर से बाहर की ओर झाँकते नज़र आते हैं। गहन वन के अंधेरों को बेचकर ख़ुद के लिये रोशनी का ज़ख़ीरा जमा करते लोग बस्तर के अंधेरों को बनाये रखने के हिमायती हैं। अंधेरों के ख़िलाफ़ लड़ने की कसम खाते हुये कुछ तत्वों ने रूस और चीन से आयातित विचारों के सहारे एक समानांतर सत्ता कायम कर ली है जो अब ख़ुद भी अंधेरे बेचने लगी है। सत्ता के गलियारों में नक्सलवाद और माओवाद एक अज़ूबा फ़ैशन बनता जा रहा है जिसे समझने और समझाने की कोशिश में लेखक ने आदिवासी समाज की एनाटॉमी, प्रशासन की फ़िज़ियोलोजी और सत्ता की पैथो-फ़िज़ियोलॉजी का पूरी ईमानदारी के साथ विश्लेषण किया है। इस विश्लेषण के प्रयास में एक कुशल जुलाहे की भूमिका निभाते हुये लेखक को अपनी बीविंग मशीन में आगे-पीछे के कई तानों-बानों को आपस में पिरोना पड़ा है जिसके कारण यह उपन्यास अतीत और वर्तमान की कई कहानियों को अपने में समेट कर चल सकने में समर्थ हो सका।

जल संसाधन की दृष्टि से बस्तर सम्पन्न है परन्तु बस्तर से होकर बहने वाली इन्द्रावती का लाभ पड़ोसी आन्ध्रप्रदेश के हिस्से में जाता है, लेखक ने इस जनसरोकार पर बहस छेड़ते हुये मुआवज़े के हक़ की बात अपने पाठकों के समक्ष रखी है।

आज़ादी के बाद विकास की गंगा बहाये जाने का दावा करने वाली राज्यों की देशी सरकारों के पक्षपातपूर्ण सत्य को उजागर करने में, जहाँ भी अवसर मिला लेखक पीछे नहीं हटता –“बचपन का अर्थ होता है तितली हो जाना, खिलखिलाना, कूदना, सपने बुनना और जगमग आँखों से आकाश के सारे तारे लूट लेना ...लेकिन ऐसा बचपनशैलेष ने एक बार फिर भरी निगाह से देखा ...नहीं, उसमें बचपन था ही कहाँवह लड़की आठ वर्ष की अधेड़ थी।”         

आदिवासी समाज की समस्याओं का निर्धारण वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नहीं किया जा सकता। किंतु किया यही जाता है इसलिये बस्तर को विकास की धारा में शामिल करने का प्रयास एक पाखण्ड से अधिक और कुछ नहीं हो पाता। स्वतंत्र भारत की शिक्षानीति पर प्रहार करते हुये लेखक ने कई प्रश्न उठाये हैं- सोमली नहीं समझ पाती कि पढ़ायी क्यों ख़रीदी जानी चाहिये। .... पेट्रोल और डीजल को सब्सिडी देने वाली सरकारें शिक्षा के लिये भी ऐसा ही क्यों नहीं करतीं? एक जैसी स्कूल ड्रेस कर देने से एक जैसी शिक्षा तो नहीं हो जाती?  ....क्या यह ख़तरनाक नहीं है कि विद्यार्थियों में उन संस्थानों का गर्व हो जाये जहाँ सुविधा-सम्पन्नता अधिक है? ...ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि जैसे स्कूल की ड्रेस एक जैसी होती है वैसे ही सबके स्कूल भी एक जैसे ही हों? उसी स्कूल में कलेक्टर का लड़का भी पढ़े तो वहीं झाड़ूराम की लड़की भी?”
देश में लागू की गयी व्यवस्था जब अपने नागरिकों में भेद करने लगे तो प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं – “ये तरक्की शालिनियों के ही हिस्से में क्यों है? यह कैसी व्यवस्था है जिसमें पिसने वाला अंततः मिट जाता है। व्यवस्था ऐसा सेतु क्यों नहीं बनती जिसका एक सिरा शालिनी हो और दूसरा सोमली?”

सरकारी तंत्र ने वर्ग भेद समाप्त करने के नाम पर वर्ग भेद को समाज में इस कदर व्याप्त कर दिया है कि जंगल से शहर तक इसकी कटु अनुभूति पीछा नहीं छोड़ती –“कितनी अजीब बात है शालिनी, जगदलपुर में आदिवासी-ग़ैरआदिवासी वाली गालियाँ सुनते रहे; अब पिछड़ों और ग़ैर-पिछड़ों वाली गालियाँ सुनो।

नक्सलवाद बस्तर का मैलिग्नेण्ट कैंसर है। नक्सलवाद के प्रति आदिवासियों के स्वाभाविक झुकाव का दावा करने वाले नक्सली दावों की पोल खोलते हुये लेखक ने हक़ीक़त का बयान करते हुये स्पष्ट कर दिया है कि अपनी मोटियारिन के दैहिक शोषण से उफ़नाये ठुरलू ने फावड़े से मुंशी की हत्या कर दी और जंगल में भागकर नक्सलियों की शरण में चला गया। ठुरलू के नक्सली बन जाने की घटना की व्याख्या लेखक ने अपने एक पात्र मरकाम के द्वारा कुछ इस तरह की- ठुरलू का नक्सलवादी हो जाना परिस्थिति का परिणाम है, किसी विचारधारा का नहीं।

सन् 1857 की क्रांति से तुलना करते हुये लेखक ने आधुनिक नक्सलियों की विचारधारा का विरोध कुछ इस तरह से किया- जैसे चिंगारी से आग लग जाती है वैसे ही क्रांति भी स्वतः स्फूर्त होती है। क्रांति आयातित नहीं होती, क्रांति के लिये बड़ी-बड़ी विचारधाराओं की किताबें नहीं चाटी जातीं, ...”

नक्सलियों द्वारा बारूदी सुरंगों के ज़रिये की जाने वाली हत्याओं की दैनिक परम्परा में शासकीय कर्मचारी की मौत पर लेखक का आक्रोश बहुत ही सधे शब्दों में व्यक्त होता है –“देवांगन आम आदमी थे या नहीं इस पर बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों में मतभिन्नता हो सकती है। देवांगन तथाकथित क्रांतिकारियों के मापक में कितने डिग्री के आम आदमी कहलायेंगे इस पर समाजसेवियों तथा प्रबुद्ध लेखकों में महीनों का विचारमंथन अवश्यम्भावी है।

नक्सलियों द्वारा बलात् स्थापित आदिवासी क्रांति के हश्र की एक निहायत भोली और विवश अनुभूति लेखक की कलम से कुछ इस तरह व्यक्त होती है – “ .....अपने घर से उठाये जाने के बाद बोदी को महीनों शारीरिक और मानसिक यातनाओं के दौर से गुज़रना पड़ा। अब उसे याद नहीं कि वह कितने शरीरों के लिये मोम की गुड़िया बनी। क्या क्रांतिकारियों के शरीर नहीं होते?”

नक्सलियों के सच को प्रतिबिम्बित करती एक अभिव्यक्ति देखिये – “झोपड़ी के दरवाजे पर एक कागज़ चिपकाया गया जिस पर लाल स्याही से कुछ लिखा हुआ था। लिखे हुये अक्षर कोई नहीं समझता किंतु लाल रंग के आतंक से अब कौन परिचित नहीं? सुबह अंधेरा और फैला ....गाँव खाली हो गया।

नक्सलियों की तथाकथित जनक्रांति पर लेखक की चिंता पाठक को झकझोरती है – “यह कैसी क्रांति होने जा रही है जिसमें मरने और मारने वाला तो आदिवासी होगा लेकिन इस खेल के सूत्रधार शतरंज खेलेंगे।
कुख्यात ताड़मेटला काण्ड, जिसमें केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों को नक्सलियों द्वारा उड़ा दिया गया था, पर चर्चा करते हुये लेखक ने कहा है – “वे क्रांति कर रहे थे। उन्हें इतना लहू चुआना था कि एक-एक दिल में दहशत घर कर जाये। वे उन सभी के घरों में घना अंधेरा करने की नीयत से ही आये थे जो क्रांति की राह में रोड़ा बन गये हैं। ..... वो औरंगज़ेब के ज़माने थे जब व्यवस्थायें तलवार की नोक पर बदला करती होंगी। माओ के नाम पर ख़ून-ख़राबों ने कई दशक देख लिये, क्या बदल गयाकहाँ आयी वह लाल सुबहक्या आवाज़ उठाने का तरीका हथियार ही हैक्या लहू बहेगा तो ही बदलाव की कालीन बनेगा?”

शहरों में बैठकर जंगल के बारे में की जा रही पत्रकारिता की संदिग्ध निष्ठा लेखक को उद्वेलित करती है। प्रकाशन का व्यापार किसी लेखक के लेखनधर्म को किस तरह दुष्प्रभावित करता है इस पर एक व्यंग्य देखिये – “जानकारियाँ काफ़ी नहीं होतीं।......पाठक क्या पढ़ेंगे उसकी नब्ज़ पकड़ो। फिर नक्सलवाद क्या है? यह सोशियो-इकोनॉमिक प्रॉब्लेम है। ...तुम दोनों को अभी और पढ़ने की ज़रूरत है। मार्क्स को पढ़ो, लेनिन और माओ को जानो, चे ग्वेरा के संघर्ष को समझो तभी नक्सलवाद को गहराई से जान सकोगे। तभी तुम बस्तर के नक्सलवाद का सही विश्लेषण कर सकोगे।
 “मैंने बस्तर पर आर्टिकल लिखा था। मुझे नारायणपुर में रहते बीस साल से अधिक हो गये। मुझे सिखाता है कि बस्तर कैसा है और मुझे क्या लिखना चाहिये।
पत्रकारिता के हो रहे नैतिक पतन से आहत लेखक का एक व्यंग्य देखिये –“ देवी जी प्रयोग करके देखिये। आप ग़ुलाब हैं, ग़ुलाबी ड्रेस में ख़ूबसूरत दिखती हैं। कल हमारी रिपोर्ट ले जाइयेगा और अदब से झुककर खन्ना से मिलियेगा।
खन्ना के केबिन से बाहर आने के बाद निधि सीधे दीपक के पास आयी और बगल में बैठ गयी ...
क्या हुआ ? दीपक मुस्कराया।
कल मैटर लग जायेगा।
यह मेरी लिखी हुयी लाइन का नहीं, तुम्हारी नेक-लाइन का कमाल है।

पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता भी बस्तर की त्रासदियों में अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभाती है, लेखक की यह पीड़ा कुछ इस तरह अभिव्यक्त हुयी है – “ .....इन घटनाओं में राष्ट्रीयसमाचार बनने के तत्व क्यों नहीं हैं? दिल्ली के पास साउण्ड है, कैमरा है और एक्शन है ...नौकर ने मालिक का क़त्ल किया राष्ट्रीय ख़बर है। बाप ने बेटी का क़त्ल कर दिया सी.बी.आई. जाँच करेगी। बियर-बार में क़त्ल हुआ समूचा राष्ट्र आन्दोलन करेगा। मानव केवल दिल्ली या कि नगरों-महानगरों में रहते हैं जिनके अधिकार हैं?”

बस्तर के सच्चे इतिहास की सदा ही उपेक्षा की जाती रही है। लेखक ने प्रश्न किया है – “क्यों इतिहास बाबरों-अकबरों और अंग्रेजों के ही लिखे जाते हैं? भारत देश के इतने विशाल भूभाग के प्रति ओढ़ा गया अन्धकार क्या नक्सलियों को प्रोत्साहन नहीं है? क्या जयचन्दों और मीर ज़ाफरों की कहानिय़ाँ ही पाठ्यपुस्तकों में परोसी जायेंगी ? क्या गुण्डाधुर, डेबरीधुर, यादव राव, व्यंकटरव, गेंद सिंह जैसे संकल्पी और साहसी आदिवासी इतिहास के किसी पन्ने को दस्तक देने की क्षमता रख सकते हैं? क्या यह होगा कि अगले सौ-पचास साल बाद जब बस्तर का इतिहास लिखा जायेगा तो इसके नायक बदल चुके होंगे? अतीत के इन आदर्शों की स्मृतियों पर लाल खम्बे गड़ चुके होंगे?”

बस्तर की जनजातीय परम्परायें अनोखी और आकर्षक रही हैं। बस्तर एक दीर्घकाल तक शेष विश्व के लिये अबूझ रहा। बस्तर अपने घरेलू और बाहरी शोषकों के लिये उर्वर चारागाह रहा। बस्तर एक जीती जागती प्रयोगशाला रहा। पर्यटन की दृष्टि से विश्व स्तर का स्थान होते हुये भी बस्तर उपेक्षित रहा। बस्तर की धरती अमीर है पर इसके निवासी सदा ग़रीब रहे। बस्तर को दूर बैठकर करीब से देखने का एक अवसर है आमचो बस्तर
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रहस्यमयी नागलोक तथा बस्तर में नाग शासन (760 – 1324 ई.)

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हमारी कल्पनाशीलता नें नागों को अत्यधिक कलात्मकता और रहस्यमयता प्रदान की है। नाग सदियों से कविताओं का विषय रहे हैं। नाग आज की सिनेमा के किरदार भी हैं, जहाँ वे मनुष्य रूप में परिवर्तित हो कर प्रेम करते हैं, नृत्य करते हैं और पुन: अपने लोक में लौट जाते हैं। रोमांचित करती हैं नाग और उनके पाताल लोक से जुडी कहानियाँ। प्राचीन बस्तर में जहाँ नाग शासकों का उल्लेख मिलता है वहाँ एक अध्येता के रूप में मेरे मन में भी एसी ही रोमांचित कर देने वाली कहानियाँ प्रश्न खड़े करने लगीं। पहला प्रश्न तो यही कि नाग कौन थे? इसका उत्तर जटिल नहीं है चूंकि इतिहासकार मानते हैं कि पर्वतो (नग) में निवास करने वाली जनजातियाँ ही नाग कहलाने लगीं। दक्षिणापथ से नागों का सम्बन्ध प्राचीनकाल से जोडा भी जाता रहा है। वाल्मीकी रामायण (5.12.12) में नाग कन्याओं के अप्रतिम सौन्दर्य का उल्लेख है। रावण नें बलपूर्वक कई नागकन्याओं का हरण किया था – “प्रमथ्य राक्षसेन्देण नागकन्या: बलाद्धृता:”। नाग पाताल लोक में रहते थे जिसकी राजधानी भोगावती थी। पाताल लोक के सप्तगोदावरी क्षेत्र में होने की पुष्टि वामनपुराण के इस श्लोक से होती है – “पर्जन्यं तत्र चामंत्रय प्रेषयित्वा महाश्रमे। सप्तगोदावरे तीर्थे पातालम गमत कपि:”। अर्थात पाताल लोक और गोंडवाना पर्यायवाची शब्द कहे जा सकते हैं। इसके साथ ही भोगावती की भौगोलिक स्थिति की जानकारी रामायण के अरण्य काण्ड (32:13-14) से प्राप्त होती है जिसके अनुसार महर्षि अगस्त्य के आश्रम के निकट नागों की यह राजधानी अवस्थित थी। भोगावती का उल्लेख यदाकदा एक नदी के रूप में भी होता है जिसके विवरणों के विश्लेषन से इसे इन्द्रावती नदी माना जा सकता है। महाभारत के अनुसार भी भोगावती दक्षिणापथा में ही स्थित है जिसके शासक वासुकि, तक्षक तथा एरावत थे। दक्षिणापथ में महाभारत युग तक आर्यों की घुसपैठ बढ गयी थी जिसकारण नाग-आर्यों के बीच कई संघर्ष भी हुए। महाभारत में एसी कई कथाये उपलब्ध हैं। बौद्धग्रंथों में भोगावती का उल्लेख हिरण्यमयी नगरी के रूप में किया गया है। प्राचीन बस्तर के नाग शासक सोमेश्वरदेव प्रथम (1069-1111 ई.)के लिये भी भोगावती स्वामी का उल्लेख कई उपलब्ध एतिहासिक साक्ष्यों में हुआ है। प्राचीन बस्तर में शासन करने वाले सभी नाग राजा भोगावतीपुरवरेश्वर की उपाधि भी धारण करते थे।    

प्रश्न यह भी उठता है कि क्या नाग और गोंड भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? संभवत: महाभारत की एक कथा इसका कोई उत्तर दे सके जिसके अनुसार दुर्योधन के एक भाई कर्ण नें मध्यप्रदेश की पचमढी के निकट किसी नागकन्या के प्रति आसक्त हो कर उससे विवाह कर लिया। नागकन्या के पिता इस बेमेल विवाह से अप्रसन्न व असंतुष्ट थे अत: उन्होंने यह आदेश दिया कि उत्पन्न बालक का पिता के वंश से कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा एवं यह नागवंशी कहलायेगा। इस संतति के वंशज गोंड कहलायेंगे (वार्ड; 1868)। इस कहानी से साम्यता रखते हुए भी बस्तर के गढधनोरा में उपलब्ध एक कहानी गोंडों को कुरुवंश से नहीं जोडती अपितु उनके अनुसार कर्ण एक दानी गोंड राजा था जिसने अपने ही पुत्र की बलि दे दी थी। रसेल तथा हीरालाल (1916) के अनुसार छोटानागपुर के नागवंशी राजा मानते थे कि उनके पूर्वपुरुष नागदेवता और ब्राम्हण कन्या की युति से उत्पन्न हुए थे। 1908 में लाल-कालेन्द्रसिंह रचित बस्तर राज वंशावली (अप्रकाशित) के अनुसार “बस्तर के माडिया क्षेत्रों में नागों के 33 अभिलेख एवं 800 स्वर्ण मुद्रायें मिली हैं। अभिलेख के सभी नृपति स्वयं को पौराणिक नागों से सम्बद्ध करते हैं। बस्तर के बारसूर ग्राम के नेगी आज भी स्वयं को नागवंशी राजाओं के वंशज मानते हैं; तथा ये आदिवासी हैं”। इन मिथक कथाओं से गोंड उत्पत्ति के सूत्र भ्रामक लगते हों तथापि इतना अवश्य सिद्ध होता है कि गोण्डवाना ही वह रहस्यमयी नागलोक है जिसकी चर्चा उपरोक्त संदर्भों में की गयी है।

उल्लेखनीय है कि आधुनिक द्रविडों के पूर्वज कभी सिन्धु घाटी क्षेत्र के आस-पास निवासरत रहे होंगे जिसकी तस्दीक पाकिस्तान के बलुचिस्तान क्षेत्र में बोली जाने वाली द्रविड़ परिवार की ब्राहुई भाषा से होती है जो अब भी लगभग चार लाख लोगों द्वारा बोली जाती है। द्रविड ईसापूर्व तीसरी-चौथी सहस्त्राब्दि में भारत की ओर बढे तथा वर्तमान मध्यप्रदेश उनका प्रमुख ठिकाना बना एवं पद्मावती नागों की राजधानी बनायी गयी। यहाँ से वे अनेक धाराओं-शाखाओं मे विभाजित हो कर विभिन्न दिशाओं में चले गये। बस्तर के नाग शासकों का सम्बन्ध छिन्दक शाखा से जुडा पाया गया है। के पी जायसवाल नें अपनी किताब अंधकारयुगीन भारत (1955) में उल्लेख किया है कि गुप्तराजाओं से पराजय के फलस्वरूप पद्मावती के नाग दक्षिण की ओर चले गये तथा कुछ काल तक उनका शासन होशंगाबाद और जबलपुर जिलों में रहा। यहीं से वे बस्तर की ओर कूच कर गये।

इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल के अनुसार सिन्धु तट से मध्यप्रदेश आ कर बसे नागों नें यहाँ से पलायन करने के पश्चात कर्नाटक में शरण ली; यहाँ उनकी तीन उपशाखाओं का उल्लेख मिलता है – सेन्द्रक शाखा (मैसूर तथा लगभग सम्पूर्ण कर्नाटक में विस्तार), सेनावार शाखा (कर्नाटक के कडूर तथा सिमोगा में शासन) तथा सिन्द शाखा (छ: उपशाखायें जिनमें बस्तर भी सम्मिलित था)। जिन छ: सिन्द क्षेत्रों का उल्लेख है वे हैं – बागलकोट (बगदगे), एरमबिगगे (येलबुर्गा), बेलगवट्टि, हलावूर/बेल्लारी, चक्रकोट तथा भ्रमरकोट। अंतिम दो स्थल अर्थात चक्रकोट एवं भ्रमरकोट वर्तमान बस्तर का हिस्सा हैं। यहाँ शासन करने वाले नाग राजाओं को छिन्दक कहा गया है जिसकी उत्पत्ति सेन्द्रक से ही हुई है। बस्तर के छिन्दक नागों के भी दो घरानों का उल्लेख मिलता है – वरिष्ठ शाखा के मुकुट पर “सवत्सव्याघ्र” प्रतीक अंकित था तथा उनका ध्वज “फणिध्वज” रहा है। नाग की कनिष्ठ शाखा जिसके एक मात्र शासक मधुरांतक देव का ही प्रमुखता से उल्लेख मिलता है; वे “धनुषव्याघ्रलांछन” युक्त मुकुट चिन्ह एवं “कमल के पुष्प एवं कदलीपत्र” के ध्वज का प्रयोग करते थे।     

नल-गंग युगीन महाकांतार अथवा चक्रकोट्य़ में अनेकों स्वतंत्र तथा अर्ध-स्वतंत्र राज्य निर्मित हो गये थे, जिन्हें मण्डल कहा जाता था। आक्रांताओं के लिये यह भूमि सुलभ से सुलभतर होती गयी। नौवी शताब्दी में पूर्वी-चालुक्यों के चक्रकूट पर आक्रमण और विजय की जानकारी प्राप्त होती है। यह प्रतीत होता है कि इसी काल में किसी नागवंशी सामंत को माण्डलिक बनाया गया होगा। वल्लभराज (925-980 ई.)प्रथम ज्ञात नालवंशीय राजा है जिसकी पुष्टि एर्राकोट से प्राप्त एक तेलुगु अभिलेख से होती है। यह प्रस्तराभिलेख बारसूर के निकट उपेत नामक स्थान से प्राप्त हुआ है जिसमें कर उगाही करने वाले संविदाकारों के लिये राजा वल्लभराज की शर्तों का वर्णन है। अगले शासक शंखपाल (980-1012 ई.) के सम्बन्ध में अधिकतम जानकारी साहित्यिक प्रमाणों से उपलब्ध होती है। मालवा के सिन्धुराजा के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल नें महाकाव्य “नवसाहसांकचरित” की 1005 ई. के लगभग रचना की थी जिसमें नागवंशी राजा शंखपाल का उल्लेख है जिसने सिन्धुराज की युद्ध में सहायता की थी। यह भी उल्लेख है कि राजा शंखपाल की पुत्री शशिप्रभा का विवाह सिन्धुराज से किया जाता है। संदर्भों के आधार पर यह संभावना बनती है कि बंगाल के किसी पाल राजा के 1012 ई. में हुए आक्रमण तथा उसी युद्ध में शंखपाल की मृत्यु हो गयी जिसके परिणाम स्वरूप राजा नृपति भूषण (1012-1050 ई.) चक्रकोटय क्षेत्र के राजा हुए। इन्हीं समयों में चोल राजा राजेन्द्र (1011-1022 ई.)के चक्रकोटय पर आक्रमण कर अधिकार करने का भी उल्लेख मिलता है। संभवत: नृपतिभूषण से पुन: स्वयं को स्वाधीन कर लिया होगा। नृपति भूषण के निधन के पश्चात जगदेकभूषण धारवर्ष (1050-1062 ई.)चक्रकोटय के राजा हुए। 1062 ई में उनके निधन के बाद चक्रकोटय में उत्तराधिकार को ले कर संघर्ष हुआ और राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी। इस परिस्थिति का लाभ उठा कर ‘मधुर-मण्डल’ के मधुरांतक देव (1062- 1069 ई.)ने चक्रकोटय पर अपनी “एरावत के पृष्ठ भाग पर कमल-कदली अंकित” राज-पताका फहरा दी। मधुरांतक देव को अपनी क्रूरता तथा निरंकुशता के लिये भी जाना जाता है। कहा जाता है कि उसने जगदलपुर से 22 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित राजपुर नाम के गाँव को नरबलि के लिये एक मंदिर को दान में दे दिया था। मधुरांतक बहुत समय तक शासन नहीं कर सका, जगदेक भूषण धारावर्ष के पुत्र सोमेश्वर प्रथम (1069-1111 ई.)नें युद्ध में उसका वध कर दिया तथा वे चक्रकोटक के निष्कंटक शासक बन गये। सोमेश्वर प्रथम की दो पत्नियाँ थीं सासन महादेवी तथा धारण महादेवी। धारण महादेवी अभिलेखों की दानदात्री भी रही हैं। ग्यारहवी शताब्दी के दंतेवाड़ा से प्राप्त एक शिलालेख में राजा सोमेश्वरदेव प्रथम की बहन मासकदेवी का उल्लेख मिलता है जो किसानों के द्वारा जबरन तथा बार बार लगान वसूली से चिंतित प्रतीत होती हैं। मासक देवी किसानों के बीच जाती हैं उनकी समस्यायें सुनती हैं तथा शासन से अलग इकाई होने के बाद भी समस्या के निदान की सक्रिय पहल करती हैं। वे पाँच महासभाओं के प्रमुखों तथा किसान प्रतिनिधियों के साथ बैठक करती हैं। लिये गये निर्णय को राजाज्ञा की तरह जारी करती हैं कि भविष्य में अनीयमित लगान वसूली किसी शासकीय अधिकारी द्वारा नहीं की जायेगी। एसा करने वाले को विद्रोही तथा राज्य का शत्रु समझा जायेगा। सोमेश्वर देव की माता गुण्ड महादेवी भगवान विष्णु की भक्त थी। उन्होंने नारायणपाल में भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था तथा यह गाँव मंदिर को दान में दे दिया था। नारायणपाल का विष्णु मंदिर आज भी संरक्षित अवस्था में उपलब्ध है। सोमेश्वर प्रथम के शासनकाल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभिलेख कुरुसपाल से प्राप्त हुआ है जिसमें उनकी समस्त युद्ध विजयों की गाथा अंकित है। ज्ञात होता है कि उन्होंने वेंगी पर आक्रमण कर उसे जला दिया था; भद्रपट्टन तथा वज्र के साथ साथ दक्षिण कोसल के बडे क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। उनके उत्तराधिकारी थे कन्हारदेव प्रथम (1111-1153 ई.)। कुरुसपाल अभिलेख, राजपुर ताम्रपत्र और नारायणपाल अभिलेख में कन्हारदेव प्रथम का उल्लेख आता है। यह उनके शासन काल की ही घटना है कि रतनपुर के कलचुरी सामंत जगपालदेव (1145 ई.) नें काकर्य (कांकेर) पर विजय प्राप्त की थी। कन्हार देव प्रथम के बाद चक्रकोटय के इतिहास पर पुन: लगभग पचहत्तर वर्ष का अंधकार मिलता है। बहुत सीमित जानकारी बारसूर अभिलेख से प्राप्त होती है जिसके अनुसार कन्हारदेव द्वितीय (1153-1195)का शासन काल सोमेशवर द्वितीय (1195-1218 ई.)के पहले रहा होगा। सोमेश्वर द्वितीय पहले नगवंशी शासक हैं जिन्हें चक्रवर्ती अर्थात सम्राट होने की उपाधि प्राप्त थी। संभव है विभिन्न माण्डलिक राजाओं नें उनकी आधीनता स्वीकार कर ली होगी। बारसूर अभिलेख के अनुसार उन्होंने बारसूर के ही दो शिवमंदिरों के संचालन के लिये एक गाँव दान में दे दिया था। इसके बाद के शासक थे जगदेकभूषण नरसिंहदेव (1218-1224 ई.)उन्हें मणिकेश्वरी देवी का भक्त बताया गया है। मणिकेश्वरी देवी का मंदिर वर्तमान दंतेवाडा में दंतेश्वरी मंदिर से लग कर अवस्थित है। एसी जानकारियाँ है कि उनके शासनकाल में बस्तर का शिव धर्म तांत्रिक समुदाय में परिवर्तित होने लगा था। वस्तुत: नाग राजाओं की शासन प्रणाली से सम्बन्धित कुछ जानकारी हमें जयसिंह देव (1224-1248 ई.)के समय के अभिलेखों से प्राप्त होती है। महाराजा राष्ट्र का अधिपति होता था जिसके आधीन महामण्डलेश्वर (महामण्डल के शासक) होते थे। इसके बाद माण्डलिक, विषयपति तथा ग्रामनायक आते थे। राजा की सहायता तब पाँच मंत्री किया करते थे जिन्हें पंच प्रधान कहा जाता था। पंचप्रधान के अंतर्गत मुख्यमंत्री, प्रमुख सेनानायक, प्रमुख चामरधारी, राजकुमार तथा गुप्तचर संस्था के प्रमुख सम्मिलित होते थे। नाग युग में कोट या राज्य प्रमुख प्रशासकीय क्षेत्र थे जो नाडु में विभाजित थे। नाडु को प्रशासनिक संभाग अथवा मण्डल भी माना जा सकता है। ये मण्डल जिलों में विभाजित थे जिन्हें वाडि कहा गया है। वाडि अथवा जिलों का अगला विभाजन महानगर, पुर तथा ग्राम के रूप में होता था। इसके बाद इतिहास का एक और अंघेरा समय जो पुन: लगभग पचहत्तर वर्ष का है, आता है जिसके सम्बन्ध में कोई अभिलेख अथवा साक्ष्य सामने नहीं आया है। हरिश्चंद देव (1300-1324 ई.)अगले ज्ञात राजा हैं जो चक्रकोटय में नाग शासन की अंतिम कडी कहे जा सकते हैं। काकतीय राजा अन्नमदेव के साथ उनका संघर्ष 1324 में हुआ तथा उनकी मृत्यु के साथ ही बस्तर के इतिहास का नया अध्याय प्रारंभ होता है।
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माओवादी, मधुरांतक, नरबलि और प्राईवेट अंगों की शेविंग.....उफ़!!!!

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माओवादी नेता सब्यसांची पाँडा का एक साक्षात्कार ‘दैनिक भास्कर’ में कुछ दिनो पहले पढने को मिला। इससे कुछ देर पहले मैं बस्तर के एक नाग वंशीय शासक मधुरांतक देव के विषय में पढ रहा था। ये दोनो ही विषय पता नहीं क्यों मेरी विचार श्रंखला में गुत्थमगुत्था होने लगे। वर्तमान पर बात करने से पहले मधुरांतक से आपको परिचित करा दूं। यह एक कुख्यात नागवंशीय शासक था जिसनें प्राचीन बस्तर अर्थात चक्रकोट पर 1062 से 1069 ई. के मध्य शासन किया। उल्लेखनीय है कि नाग राजाओं का शासन प्रबन्ध उनके राज्य को कई केन्द्रीय शासन द्वारा संचालित स्वायत्त मण्डलों में विभाजित करता था, इन्ही में से एक था मधुर मण्डल जिसमें छिन्दक नागराजाओं की ही एक कनिष्ठ शाखा के मधुरांतक देव का आधिपत्य था। माना जा सकता है कि मधुरांतक देव के पूर्वजों को माण्डलिक चोल राजाओं नें बनवाया होगा चूंकि राजेन्द्र चोल (1012 – 1044 ई.) के मधुर मण्डल पर विजय का उल्लेख अतीत में प्राप्त होता है। कहानी यह है कि चक्रकोट के राजा धारवर्ष जगदेक भूषण (1050 – 1062 ई.) के निधन के पश्चात चक्रकोटय में उत्तराधिकार को ले कर संघर्ष हुआ और राजनीतिक अस्थिरता हो गयी। इस परिस्थिति का लाभ उठा कर ‘मधुर-मण्डल’ के माण्डलिक मधुरांतक देव ने चक्रकोटय पर अपनी “एरावत के पृष्ठ भाग पर कमल-कदली अंकित” राज-पताका फहरा दी।

कहते हैं कि नितांत बरबर और निर्दयी था वह। उसे कुचल देना ही आता था। ड़र के साम्राज्य ने शासक और शासित के बीच स्वाभाविक दूरी उत्पन्न कर दी। उस पर अति यह कि अपनी कुल-अधिष्ठात्री माणिकेश्वरी देवी के सम्मुख नरबलि की प्रथा को नीयमित रखने के लिये उसने राजपुर गाँव को ही अर्पित कर दिया था। यह गाँव वर्तमान जगदलपुर शहर के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। वहाँ से जिसे चाहे उठा लो और देवी के सम्मुख धड़ से सिर को अलग कर दो। जिन खम्बों पर साम्राज्यों की छतें खड़ी  होती है वे शनै: शनै:  कुचले हुए लोगों की आँहों भर से खोखले हो उठते हैं। मधुरांतकदेव नें अपने राजपुर ताम्रपत्र में नरबलि के लिये राजपुर गाँव को दिये जाने का कारण जनकल्याण बताया है। जनता की लाशें बिछा कर कैसा और किस प्रकार का जनकल्याण संभव हो सकता था? लेकिन उसके पास अपने विचार का नशा था जो उसके द्वारा की जाने वाली हर हत्या को जायज ठहराने का कारण बन जाता था।

गंभीरता पूर्वक कई इतिहासकारों के मंतव्यों और ताम्रपत्रों-शिलालेखों के अनुवाद पढने के पश्चात मेरी यह राय बनी है कि यदि किसी कृत्य को गरिमा प्रदान की जाये तो वह प्रथा बन जाती है। नरबलि को मधुरांतक नें त्यौहार बना दिया था अत: यह उसकी मौत के बाद भी प्रथा समाप्त नहीं हुई अपितु किसी न किसी रूप में चलती रही। मधुरांतक के बाद नरबलि के लिये किसी शासक द्वारा गाँव समर्पित करने का उल्लेख तो नहीं मिलता लेकिन मेरिया अर्थात वध्य को पकड़ने के लिये  तरह तरह के हथकंडे अपनाये जाने लगे। कालांतर अपराधी अथवा कभी कभी कोई अनजान यात्री अथवा पडोसी राज्य से किसी व्यक्ति को पकड कर बलि दी जाने लगी। नर बलि के कारण बडे ही जनकल्याणकारी बताये जाते थे उदाहरण के लिये कर्नल मैकफर्सन का प्रतिवेदन (1852) उल्लेखनीय है जिसमें वर्णित है कि “भूमिदेवी की पूजा के निमित्त नरबलि दी जाती है। अकाल मौत से बचने के लिये, शिशु जन्म के अवसर पर, वन्य पशुओं के आतंक से गावों को बचाने के लिये, फसल को खराब होने से रोकने के लिये, गाँव पर, राज्य पर, मुखिया पर अथवा राजा पर कोई विपत्ति आने की स्थिति में भी नर बलि दी जाती है”।

मधुरांतक देव का क्या हुआ यह जानने से पहले चर्चा सव्यसाँची पाँडा की अखबारी समाचार के आलोक में करते हैं। अखबार लिखता है “शोषितों, वंचितों की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले नक्‍सिलयों में आजकल अंदरूनी घमासान मचा है। हाल में पार्टी से निकाले गए माओवादी कमांडर सब्‍यसाची पांडा ने काफी बगावती तेवर दिखाए थे। वह अब बिल्‍कुल अकेला है। ओडिशा में नक्‍सल आंदोलन के 'पोस्‍टर ब्‍वॉय' के तौर पर मशहूर 43साल का पांडा अब खुद को 'ओल्‍ड डॉग' की तरह मानता है जिसका उसकी पार्टी नामोनिशान मिटा देनी चाहती है। ओडिशा का सबसे अहम नक्सली नेता माने जाने वाले पांडा को 'शे गुवेरा' कहलाता था। पांडा ने एक खत लिख कर कई सवाल उठाए थे। उसने नक्‍सलियों के प्राइवेट पार्ट्स 'क्‍लीन शेव' करने के चलन पर जोर देने की परंपरा को भी गलत ठहराया है। उसका कहना है कि यह तेलुगु कैडरों में आम बात है और महिला काडरों को अक्‍सर ऐसा करने की सलाह दी जाती है। उसने लिखा है, 'महिला काडरों को बिना कपड़े के स्‍नान करने को भी कहा जाता है। मुझे समझ नहीं आता कि क्रांति का ऐसे बकवास सिद्धांतों से क्‍या ताल्‍लुक है?

इसे पढने के बाद मेरा दिमाग सन्नाटे में आ गया था। पिछले तीस सालों से बस्तर के जंगलों में तेलगु कैडर नें ही खास तौर पर ‘नरबलियों’ से सन्नाटा पसराया हुआ है। क्या इस तरह की जा रही है क्रांति जिसमें व्यक्ति की इतनी निजता पर भी दिशानिर्देश जारी किये गये हैं? उपरी तौर पर तो अभिव्यक्ति और अन्य तमाम प्रकार की आजादी के लिये लडी जाने वाली इस तथाकथित क्रांति का स्वरूप इतना घृणास्पद होगा मेरी सोच में भी नहीं था। बडी बात यह है कि यह उजागर करने वाला व्यक्ति स्वयं कुख्यात माओवादी रहा है। निजी अंगों से विचार और विचारधारा का क्या अंतर्सम्बन्ध है? अथवा क्या निजी अंगो से ही संबंध है तथा विचारधारायें कम्बल का कार्य करने लगी हैं? उफ़.....।

इस यौनविकार भरी लिजलिजी विचार प्रक्रिया से बाहर निकलते हैं और पाँडा की मन:स्थिति को समझने का यत्न करते हैं। ओपन' मैगजीन ने पांडा के खत अपने पास होने का दावा किया है। मैगजीन ने कहा है कि दुखी मन से लिखे गए इस खत में पांडा ने सीपीआई (माओवादी) के आलाकमान की गतिविधियों पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। खत में पांडा ने ऐसे सनसनीखेज खुलासे किए हैं जिनसे माओवादी नेतृत्‍व में फूट पड़ सकती है। पांडा ने कहा है कि माओवादी नेता खुद को मालिक समझ बैठे हैं और कैडर उनकी गलतियों का विरोध करने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाते हैं। पांडा ने नक्सल नेतृत्व पर अकारण हिंसा फैलाने का आरोप लगाया है। पांडा ने लिखा है, हम कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी में किसी गलती के लिए पार्टी के सदस्‍य को सस्‍पेंड कर सकते हैं और जरूरत पड़ी तो उसकी हत्‍या भी की जा सकती है। पांडा ने सवालिया लहजे में कहा, क्‍या किसी क्रांतिकारी का काम केवल पुलिसवालों की हत्‍या करना ही रह गया है?” यह सवाल महत्वपूर्ण है, एकपूर्व माओवादी नेता द्वारा उठाये जाने के कारण इस सवाल को विषद चर्चा का विषय बनना चाहिये। यह सवाल उन सभी युवाओं के सामने पडना चाहिये जिनके सामने रात दिन क्रांति का ढोल पीटा जा रहा है और बंदूख उठाने के लिये कई उत्प्रेरक सामने रखे गये हैं। यह सवाल क्रांति के नाम पर किसी भी हथियार उठाने वाले को स्वयं से करना ही चाहिये कि क्या वे जाने अनजाने मधुरांतक देव तो नहीं बन रहे?

यह आम आदमी की बलि ही तो है; पांडा आगे लिखते कहते हैं पांडा ने बेवजह किसी खास वर्ग के विध्‍वंस के खिलाफ भी जमकर अपनी भड़ास निकाली है। उसने लिखा है, किसी पर मुखबिर होने का ठप्‍पा लगाकर उसे मारना-पीटना और जला देना ही समस्‍या का हल नहीं है। पांडा ने संबलपुर के पांच-छह गाँववालों, जिन्‍हें 2004में मुखबिर होने के शक में मार डाला गया था, का उदाहरण देते हुए कहा, “केवल मैंने इसका विरोध किया था इस परिप्रेक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि यह उस व्यक्ति के द्वारा कही गयी बाते हैं जो अब तक आउटलुक, तहलका या बीबीसी जैसे खबरदात्री स्थलों में चंद दिन या महीने रहे घूमंतू पत्रकारों अथवा किसी राजनीतिक-विचारधाराबद्ध लेखकों की कही-सुनी-गढी-बढी-चढी बातों से बिलकुल अलग प्रतीत होती हैं। वह व्यक्ति जिसने वर्तमान की इस तथाकथित क्रांति को खाया-पीया-ओढा-बिछाया है उस पर बुद्धिजीवी केवल खखार कर नहीं रह सकते (यद्यपि मौन ही रहने वाला है)। अखबार सब्यसांची पाण्डा का परिचय देते हुए एवं माओवादी संगठनों की आंतरिक गुटबाजी पर जोर दे कर लिखता है कि “सब्यसाची पांडा भाकपा (माओवादी) राज्य (ओडिशा) संगठन का सचिव था। मार्च महीने में दो इतालवी नागरिकों के अपहरण के पीछे इसी का हाथ था। अपहृतों की रिहाई के बदले पांडा ने अपनी पत्‍नी मिली को जेल से छोड़े जाने की मांग की थी। उसे बाद में जमानत पर छोड़ दिया गया था। सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक पांडा नक्सली संगठन में आंध्र प्रदेश कैडर के नक्सलियों के दबदबे से परेशान था और ओडिशा में पांडा की बढ़ती ताकत से आंध्र के नक्सली नेता खुश नहीं थे। यही कारण है कि पांडा को अब तक सेंट्रल कमेटी या पोलित ब्यूरो में जगह नहीं दी गई थी”। 

क्रांति नरबलियों से नहीं आ सकती, प्राईवेट अंगों को शेव करने से भी नहीं आयेगी, महिला कैडरों को निर्वस्त्र नहाते ताकने वाले.....नहीं ला सकते क्रांति। इनसे क्रांति के मायनों की तलाश छोड कर हश्र की बात करते हैं और यहाँ मधुरांतक देव की चर्चा पुन: आवश्यक हो जाती है। इस शासक को एक जनक्रांति नें सत्ता से बेदखल किया था। हाँ, मैं यहाँ उसी बस्तर की बात कर रहा हूँ जिसे क्रांति सिखाने वाले देश भर में पिले पडे हैं। इस क्रांति का नेतृत्व किया था सोमेश्वरदेव (1069 – 1111 ई.) नें। वे दिवंगत नाग राजा धारवर्ष जगदेक भूषण के पुत्र थे। मधुरांतक द्वारा पराजित और निर्वासित किये जाने के बाद वे चक्रकोटय के निकट ही किसी गुप्त स्थान पर रहते हुए जन-शक्ति संचय में लगे थे। उनका कार्य कठिन नहीं था। हाहाकार करती प्रजा को एक योग्य नेता ही चाहिये था। राज्य में विद्रोह अवश्यंभावी था। सोमेश्वर देव ने जनभावना का लाभ उठाते हुए उनके क्रोध को युद्ध में झोंक दिया। आक्रमण हुआ तो किले के भीतर रह रहे नागरिकों में हर्ष का संचार हो गया। मधुरांतक ऐसी सेना को साथ लिये कितनी देर लड़ सकता था जिनकी सहानुभूति और भरोसा उसने खो दिया था? युद्ध समाप्त हुआ। मधुरांतक जंजीरों में जकड़ कर राजा सोमेश्वर के सम्मुख प्रस्तुत किया गया। राजाज्ञा से जब आततायी मधुरांतक के सिर पर हाथी ने अपना पैर रखा तो यह दृश्य देखने के लिये नगर का एक-एक व्यक्ति उपस्थित था। किसी भी आँख में कोई सहानुभूति नहीं थी। क्या आधुनिक मधुरांतकों के पास यह घटना उदाहरण के तौर पर मौजूद है?......या जलक्रीडायें और रेजर की दुकाने ही क्रांति को आगे ठेलती रहेंगी? 
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नागयुगीन (760 – 1324 ई.) प्राचीन बस्तर में प्रशासनिक व्यवस्था।

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नागयुगीन बस्तर वह सबसे महत्वपूर्ण कडी है जिसके अध्ययन द्वारा आधुनिक बस्तर के जनजातीय समाज में विद्यामन अनेक प्रथाओं, उनके सामाजिक ताने बाने को तथा जटिलताओं को समझने का यत्न किया जा सकता है। एक स्पष्ट विभागन रेखा है नागयुगीन समाज तथा उसके बाद के युगों में अत: अध्येताओं को इसी स्थल पर गहरे पानी उतरना चाहिये।

नाग राजाओं नें बस्तर तथा उसके आसपास एक विस्तृत भूभाग पर लगभग चार सौ वर्षों तक अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाये रखी थी। नाग शासन पूरी तरह से राजतंत्रात्मक था तथा युद्ध, न्याय तथा शांति हर अवसर पर किये जाने वाले प्रत्येक निर्णय पर राजा का कथन ही अंतिम माना जाता था। नाग युग में शासक प्रमुखता से राजा, राजाधिराज, महाराजा अथवा महाराजाधिराज जैसी उपाधियाँ धारण करते थे। राजा को दैवीशक्तियों से युक्त माना जाता था। नागयुगीन अभिलेखों में राजा के लिये परमेश्वर, प्रतिगण्डभैरव, परममाहेश्वर, विश्वम्भरेश्वर एवं महामाहेश्वर आदि सम्बोधन भी प्राप्त होते हैं। नागों का शासन क्षेत्र अर्थात तत्कालीन प्राचीन बस्तर चक्रकोटराष्ट्र कहलाता था। राष्ट्र का विभाजन महामण्डल (राज्य) में होता था (1324 ई. के एक अभिलेख में सैरहराजराज्य का उल्लेख मिलता है), जिसके प्रशासक महामाण्डलिक/महामण्डलेश्वर कहलाते थे। अगला विभाजन थे - मण्डल अर्थात नाडु (बारसूर अभिलेख में गोवर्धनाडु का उल्लेख आता है।), जिन्हें प्रशासकीय दृष्टि के वर्तमान संभागों के समतुल्य कहा जा सकता है; माण्डलिक ‘मण्डलाधिपति’ कहलाते थे। प्रत्येक नाडु अनेक ‘वाडि’ (विषय) मे बिभाजित थे, इन्हें वर्तमान प्रशासनिक ईकाइयों में जिलों के समतुल्य रखा जा सकता है; वडि के प्रशासक विषयपति कहलाते थे। यह प्रतीत होता है कि वाडि नागरिकों के कार्यों अथवा व्यावसायवार भी बँटे हुए थे। सोमेश्वरदेव के एक अभिलेख में जिन वाडियों की चर्चा है वे हैं – कुम्हारवाड, मोचिवाड, कंसारवाड, कल्लालवड, तेलिवाड, परियटवाड, चमारवाड तथा छिपवाड। यह जान कर सु:खद संतोष होता है कि नागयुग में शूद्र असम्मानित नहीं थे अपितु नाग नरेशों व महारानियों के दान अभिलेखों में मोची से ले कर ब्राम्हण तक के नाम उल्लेखित हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि समाज में वर्ग स्थापित होने के बाद भी विभेद व्यापक नहीं तथा तथा यह अंतर्सम्बंधो वाला समाज था। कार्य के आधार पर वाडियों के नाम रखे जाने को भी श्रम को प्राप्त सम्मान के रूप में विवेचना करना ही उचित जान पडता है। वाडि के अगले विभाजन नगर, पुर तथा ग्राम (नाडु) थे। ‘ग्राम’, ‘वाडा’ तथा ‘नार’ तीनों ही के तद्युगीन प्रयोग को आज भी देखा जा सकता है उदाहरण के लिये- जिणग्राम, दंतेवाडा, नकुलनार आदि। गामनायक गाँव के प्रशासक के लिये प्रयुक्त होता था, जो निर्वाचित नहीं अपितु राजाज्ञा से नियोक्त प्रतिनिधि होता था। आजीविका के लिये ग्रामनायक को गाँव का कोई भूखण्ड प्रदान कर दिया जाता था। छिंदक नागयुगीन अभिलेखों के अनुसार उस युग में द्वादश पात्रों द्वारा शासन व्यवस्था संचालित होती थी। ये हैं – सामंत, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी, सेनापति, श्रीकरण, धर्माध्यक्षमहापात्र, अंत:पुरीय, राष्ट्रकूट, प्रमुखन तथा दौरावारिक। राज्य की प्रमुख समस्याओं को सुनने तथा फैसले करने के लिये जो पंच प्रधान नियुक्त किये गये थे वे हैं – महाप्रधान (अमात्य), पाडिवाल (दौरावारिक), चामरकुमार (युवराज), सर्ववादी (पुरोहित) तथा सेनापति।

चोल अभिलेख से ज्ञात होता है कि बस्तर के जनजातीय योद्धा वीर और लड़ाकू थे। आदिवासी धनुर्धारी अपने अचूक लक्ष्यभेदन व कठोर धनुष धारण करने के लिये प्रसिद्ध थे। तद्युगीन नाग-दुर्गों पर उँची पताकायें लहराया करती थीं। आज भी बस्तर के वनवासी अपनी धनुर्विद्या के लिये विख्यात हैं। धनुर्धर तथा पदाति के अलाव नागों के पास अपनी अश्वों व गजों से सज्जित सेना थी। थोडी थोडी दूरी पर दुर्गम किले थे जो खाईयों से घिरे होते थे। किले की की प्राचीर का निर्माण मिट्टी, ईंट तथा प्रस्तर खण्डों से होता था। बारसूर, भैरमगढ, चक्रकोट, गढबोदरा, छिन्दगढ, तीरथगढ, बडे-डोंगर, राजपुर आदि अनेक दुर्ग नाग राजाओं की सुरक्षा के लिये निर्मित किये गये। धनुषवाण के अतिरिक्त तलवार, कृपाण, कटार, भाला, त्रिशूल, गदा, फरसा, आदि शस्त्रों का प्रयोग युद्ध में किया जाता था। पट्ट, सूर्य खोत्तर, शंख, घंटा, आदि युद्ध के वाद्य यंत्र थे। युद्ध व समारोहों के अवसर पर पताकायें ले कर चलने का प्रचलन था।

कृषकों को भूमि का स्वमित्व प्राप्त था। यदि राजा अथवा माण्डलिक को किसी कृषक से भूमि चाहिये होती थी तो वह भी सम्बद्ध भूमि को खरीदता था। दंतेवाडा अभिलेख इसकी तस्दीक करता है जहाँ उल्लेख है कि राजा नें एक कृषक से बोरिगाम खरीद कर भैरम के मंदिर हेतु दान कर दिया था। राजा द्वारा प्रदत्त भूमि अनुदान एवं पदवियाँ पुश्तैनी नहीं थे अत: सामंतों का बहुत हस्तक्षेप किसानों पर नहीं हो सका था। शोषण के यद्यपि दूसरे स्त्रोत खुले हुए थे और बहुतायत किसान कामगार कृषि ऋण के बोझ से दबे हुए थे। कर उगाहने की प्रथा जटिल थी एवं यह कार्य ठेके पर दिया जाता था। ठेकेदार की संविदा द्वारा सशर्त नियुक्ति होती थी। यह समझा जा सकता था कि इस प्रकार के ठेकेदार किस तरह ग्रामीण जनता को चूसते रहे होंगे। एक ओर खास वर्ग तो करो से छूट के अधिकारी बनते जा रहे थे जबकि नये नये कर व राजनीय अवसरों के आयोजनों हेतु बेसमय करों की उगाही से आदिवासी जनता पिस गयी थी। नाग युगीन मंदिर किसानो से जो कर वसूलते थे उसमें धन, खाद्यपदार्थ के अलावा दूध, तेल, घी, फूल, हार, वस्त्र तथा अन्य वओपज भी सम्मिलित थे। कर-वसूली सम्बन्धित अनीयमितताओं की विवेचना पंच-प्रधान करते थे तथा किसानों की भी राय ली जाती थी; एसा प्रतीत होता है कि उस युग में सभी क्षेत्रों के किसानों नें संयुक्त रूप से एक किसान महासभा का गठन किया था। उपरोक्त व्यवस्थाओं के बाद भी शिकायतों के अम्बार थे और किसानों में बार बार तथा अनेक प्रकार के करों की उगाही के कारण असंतोष व्याप्त था।
चक्रकोटयराष्ट्र के समस्त खनिज क्षेत्र पर राजा का ही अधिकार था। खनिकर्म के अलावा इस युग में वाणिज्य-व्यापार में अभूतपूर्व प्रगति हुई। सूती कपडा बुनने की कला व व्यापार नें खूब प्रगति की। सर्वाधिक मूर्तियाँ व मंदिर बस्तर को नाग युग की ही देन हैं अत: कहा जा सकता है कि स्थापत्य तथा मूर्तिकला का विकास हुआ। राजाओं द्वारा तडाग, कूप वापि तथा उद्यान आदि के निर्माण द्वारा जनकल्याण कारी कार्यों के प्रमाण भी मिलते हैं। समाज में अलगाव भले ही न आया हो तथापि कार्यों का जातिवार स्पष्ट विभाजन नागयुग तक आते आते हो गया था। ब्राम्हण वर्ग नें अन्य व्यवसायों से हाँथ खींच कर कर्मकाण्ड-पूजनपाठ व राजपरामर्शकर्ता तक अपनी भूमिका सीमित कर ली थी। हस्तशिल्प का विकास हो गया था अत: कारीगर वर्ग था, लेखन कार्य के लिये कायस्थ वर्ग था व्यापार के लिये बनिक वर्ग तथा स्पष्ट रूप में दास प्रथा विद्यमान न होते हुए भी दमित-श्रमिक-बेगारी वर्ग उपस्थित था। कुछ तद्युगीन कार्मिक – माली, मोची, कोसटा (कोसे से वस्त्र बनाने वाला), छिप (दर्जी), परियट (लोहार), तेलि (तेल का व्यवसाय करने वाले), साव (बिचौलिये), महाजन (उधार का व्यवसाय करने वाले), कोरी (बुनकर), राउत (गोपालक), भोई (धातुकर्मी), श्रेष्ठि (व्यापारी), छुरिकार (आयुध निर्माता) आदि थे।

संचार के साधनों का व अनेक यात्रा-मार्गों का इस युग में विकास हो गया था जिसका श्रेय प्राचीन मंदिरो विशेषकर नारायणपाल के विष्णु मंदिर को दिया जा सकता है। यह मंदिर एक तीर्थ बन चुका था जहाँ प्रार्थना-दर्शन हेतु दूर दूर से यात्री आया करते थे। नागपुर, चाँदा, कवर्धा, खैरागढ, दमोह, जबलपुर, अमरकण्टक, चित्तोड से यात्रियों के पोटागढ व नारायणपाल आने सम्बन्धी अभिलेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कई यात्रामार्ग चक्रकोट्यराष्ट्र को शेष भारत से जोडते रहे होंगे। यह कार्य व्यापार के लिये भी आवश्यक था जिसके यहाँ सुदूर दक्षिण तक किये जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। एक ज्ञात व्याख्या के अनुसार कभी कांकेर से विशाखापट्टनम के लिये  यात्री मार्ग आमपानी या सलूरघाट हो कर गुजरता था।

ग्रामीण जन वस्तु विनिमय आधारित अर्थव्यवस्था से संचालित थे तथापि श्रेष्ठि, महाजन जैसे तदयुगीन धनाड्य गद्याणक (स्वर्ण मुद्रा) का परस्परव्यवहार करते थे। 1921 में बिलासपुर के सोनसारी ग्राम से सोमेश्वरदेव प्रथम (1069 – 1111 ई.) के द्वारा जारी लगभग 600 स्वर्ण मुद्रायें प्राप्त हुई थीं। 59 ग्रेन भार वाली इन वर्तुलाकार स्वर्न मुद्राओं में व्याघ्रलांछन अंकित था। अब तक प्राप्त नागयुगीन स्वर्णमुद्राओं का इतिहास दो सौ वर्ष से अधिक का हो जाता है जहाँ राजा जगदेकभूषण धारावर्ष (1050-1060 ई.) से प्रारंभ कर लगभग 1250 ई. तक जारी मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। कार्य के बदले अनुदान की परम्परा नागयुग में रही उदाहरणार्थ नृत्यांगना को अनुदान अथवा मेडिपिट (बलि के लिये वध्य पकडने वाला) को अनुदान आदि। 

उपरोक्त विवरणों से यह कहा जा सकता है कि नागराजाओं नें प्रशासनिक व्यवस्था को बहुत जटिल बना दिया था जिस कारण जनता और राजा के बीत प्रशासकों के बहुत से वर्ग पनप गये थे। प्रशासन एक वृत्त बना रहे तभी यह चक्र चलता रहता है किंतु इस युग में जैसे जैसे व्यूरोक्रेसी हावी होने लगी पहली और आखिरी कडी नें अपने सहसम्बन्ध खो दिये। नागयुग का गौरव उसकी प्रगति थी तो पतन का कारण इस विकास की धारा को बनाये न रख पाना भी है। असंतोष अगर उत्पादक में होगा तो उपभोक्ता भी बहुत दिनों तक अपना उदर बढाये घूमता नहीं रह सकता और यही स्थिति जब प्रबल हुई तो नाग शासन के अनेक महामण्डल अलग अलग होने लगे। अपने  शासनके अंतिम वर्षों में तो चक्रकोटय अनेक राष्ट्रों का समूह बन गया था जिसमें कई नाग शासक विद्यमान थे। उनके मध्य अनेकता व जनता में व्याप्त असंतोष नें ही अगके आक्रांता को यहा अपने पैर पसारने की सहूलियत दी थी।
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सलवा जुडुम को दुष्प्रचार ने मारा है – महेन्द्र कर्मा [साक्षात्कार]

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बस्तर में माओवादी हिंसा और सलवाजुडुम दोनो के ही अपने पक्ष-विपक्ष हैं। माओवादी हिंसा तो अभी जारी है लेकिन सलवाजुडुम अभियान की अब कमर टूट चुकी है। बस्तर की राजनीति में महेन्द्र कर्मा एक जाना पहचाना नाम हैं तथा भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के कार्यकर्ता से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने के बाद इन दिनो वे कांग्रेस के बडे आदिवासी नेताओं में गिने जाते हैं। उनका एक परिचय यह भी है कि सलवा जुडुम अभियान का उन्होंने अग्रिम पंक्ति में खड़े हो कर नेतृत्व किया था। महेन्द्र कर्मा प्रखर वक्ता भी हैं तथा बस्तर पर अपने विचार वे दृढता और आत्मविश्वास के साथ रखते हैं। बस्तर पर किये जा रहे अपने अध्ययन के दौरान महेन्द्र कर्मा से मेरी मुलाकात दंतेवाड़ा में हुई थी। मैने उनका साक्षात्कार रिकॉर्ड किया था जिसमें बिना अपना मत-मंतव्य जोडे शब्दश: प्रस्तुत कर रहा हूँ -  


राजीवरंजन:कर्मा जी, महाराजा प्रवीर का समय और आज का बस्तर; दोनों समयों मे आप कैसा परिवर्तन महसूस करते है?

महेन्द्र कर्मा:देखिए प्रवीर का पूरा समय राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच फसा हुआ समय था। प्रवीर राजतंत्र की अन्तिम कड़ी होने के साथ-साथ बहुत अच्छे विधायक थे। उन्होंन राजतंत्र के मानकों को उभारा जिसके परिणाम में 1966का गोलीकाण्ड हुआ। प्रवीर बस्तरवासियों के बीच में बहुत ही लोकप्रिय थे तथा अपने समय के डेमोक्रेटिक सेटअप में एक अच्छे लीडर हो सकते थे। उन्होंने लीडर बनने की बजाय एक राजा होने की भूमिका ज्यादा निभाई।.....मैं समझता हूँ कि बस्तर ही नहीं पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में खासकर, परिवर्तन और विकास की आहट बहुत कम सुनाई दी है। जो भी डेवलेप्टमेन्ट;जो भी चेंजेज़ आए हैंवेबहुत ही स्लो हैं, धीमी प्रोसेज में आये हैं। बस्तर की जहाँ तक बात है, अचानक 1967 - 68के उपरान्त जैसे ही यहाँ बैलाडिला प्रोजेक्ट आया तो वह यहाँ के शान्त माहौल मेंहलचल की तरह आया या कहिये एक शान्त झील मेंकोई बड़ा सा पत्थर फेंकने के बाद उठी लहरों का अहसास यहां के लोगों ने किया है। बैलाडिला के लिए भी यहाँ के लोग तैयार नहीं थें। अगर सरकार थोड़ा भी यहाँ के लोगों को इस बड़े और प्रभावित करने वाले अध्याय से जोड़ती, यहाँ के लोगों को इससे सीधे जोड पाती, यहाँ के शिक्षित लोगों के लिये यह एक अवसर की तरह आता तो मैं समझता हूँ कि इसका स्वागत भी होता और इसके दूरगामी परिणाम कुछ और बेहतर हो सकते थे, जो नही हुआ।

राजीवरंजन: बैलाडिला तो आ गयालेकिन उस बीच में बस्तर में बोधघाट परियोजना बन्द हो गई या नगरनार प्रोजेक्ट बन्द हो गया। जिन्हें हम विकास परियोजनाएं कहते हैं वे बस्तर अंचल से एक-एक करके खत्म होती चली गई....?

महेन्द्र कर्मा:बस्तर में इस सम्बन्ध में दो प्रकार की विचारधारा हैं। एक विचारधारा वो, जो ऑर्थोडॉक्स है; वो लोग यहां के समाज,संस्कृति, धर्म जैसे बातों का भय दिखा कर बस्तर के विकास को रोक रहे हैं। दूसरी विचारधारा है जो यहाँ के संसाधनों पर आधारित हैं, यहाँ के लोगों के लिये विकास की पहल कर रही हैं। इसमें हम लोग भी हैं।....बस्तर में काम पैदा होना चाहिये, जितना सही तरह से संभव हो उद्योग धंधे भी लगने चाहिए, इस बात के हम लोग शुरू से सर्मथक रहे हैं। हमारा कहना है कि यहाँ के संसाधन सिर्फ ग्लोबल नहीं होने चाहिए, उन पर कहीं न कही इस जमीन का पहले हक है। पर वेल्यूऐटेड डेवलपमेंट होना चाहिए। वेल्युएडिशन की स्थिति में यहा एम्प्लॉयमेंट बढ जायेगा। आज जो बस्तर का आदमी है वह भी बदल गया है। उसके लिये अब बिलकुल एक नया युग हैं। उसकी सोच ही अलग हैं। वह बदलती दुनिया के साथ अपने आप को एडजेस्ट करना चाहता हैं। अभी इस तरह की तमाम चीजों पर बाते एक ब्लास्टिंग मोड में हैं....नए अवसर खुल सकते हैं। हम जो उनको नही दे पा रहे, इसका कोई तुक नहीं है। मेरा मानना है कि डिसाईजिव स्थिति में रहने के बाद भी, साधन सम्पन्नता के बाद भी हम यहाँ के लोगों के लिये विकास से सही अवसर खोल पाने में अब तक असफल ही रहे हैं।

राजीव रंजन:कर्मा जी, अपने बहुत खुलकर एक बात की है। इसी से जुड़ा हुआ एक प्रश्न करना चाहता हूँ कि जिन दिनों ब्रह्मदेव शर्मा बस्तर में रहें, दो महत्वपूर्ण काम हुए। पहला तो प्रशासक के तौर पर उनके प्रयासों द्वारा अबूझमाड़ क्षेत्र को आम दुनिया से काट दिया गया और उसे एक आईसोलेटेड क्षेत्र बना दिया गया। दूसरा एक एक्टिविस्ट के तौर पर उन्होंने मावलीभाटा के पास बनने वाले स्टील प्लांट का विरोध किया; हालाकि बाद में उसका विरोध भी ब्रम्हदेव शर्मा को झेलना पड़ा था, दूसरे तरीके से। इन उदाहरणों से जुडा मेरा प्रश्न है कि क्या आप भी आदिवासी आईसोलेशन की प्रक्रिया को सही मानते हैं?

महेन्द्र कर्मा:दुनिया में जो भी विकास हुआ हैं,कुछ एक उदाहरणों को छोड दें तो आजादी के पहले से अब तक का जो पूरा हिन्दुस्तानी इतिहास हैं, वो सब संपर्कों पर आधारित इतिहास रहा  हैं।...कितने सारे आक्रमणों का दौर आया, मुगलो का युग आया और फिर अंग्रेज....अंग्रेज हमे कोई एज्युकेट करने नहीं आए थे। वो लोग तो भारत में अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए आये थे। वह तो जो भी लोग उनके सम्पर्को में आये, उन लोगों ने सम्पर्को का फायदा उठाया। संपर्क तो एक कैरियर है, एक वाहक है। दूसरी बात जिसका उदाहरण आपने स्वयं दिया- ब्रम्हदेव शर्मा; जो कि एक ऑर्थोडॉक्स आईडियोलॉजी का प्रतीक है। ये तमाम बस्तर की परियोजनाओं के विरोध करने वाले लोग कहीं न कही इसी आईडियोलॉजी के फॉलोअर लोग हैं। आदिवासी आईसोलेशन सही नहीं है।

राजीव रंजन:कर्मा जी, क्या आदिवासी आईसोलेशन की प्रक्रिया भी बस्तर में नक्सलिज्म का एक कारण हो सकता है? 

महेन्द्र कर्मा: जी हाँ बिलकुल।आजादी के बाद, जैसे मैंने कहा कि यहाँ संपर्कों का अभाव बना दिया गया जिससे इस आदिवासी क्षेत्र में समस्यायें पैदा हुई। हमारा डेवलपमेंट कॉंसेप्ट बहुत ज्यादा त्रुटिपूर्ण है। हम शहरों से गाँवो की ओर धीरे-धीरे चले; हमको गांवों से शहरों की और चलना चाहिए। यह जो नक्सलवाद जिसे आप कह रहे हैं इसी का खामियाजा है। नक्सलवादियों नें भी तो उन्हीं क्षेत्रों को को आईसोलेटेड थे, जहाँ प्रशासन की पहुँच नहीं थी, जहाँ विकास की रोशनी नहीं पहुँचाई गयी; उसी क्षेत्र को अपना आधार इलाका बनाया है। और अब ये सभी क्षेत्र और अधिक आईसोलेट और विचलित हो गये हैं। आईसोलेशन तो सीधे सीधे कूपमण्डूकता हैं, समझ गए आइसोलेशन मतलब?.....अगर आज के दौर में हम किसी भी समाज को या एक समूह विशेष कोपृथक रखने का, या आईसोलेट करने का कोई भी काम करते है तो हम एक बार फिर उन्हे अभिशप्त  जिन्दगी जीने को प्रेरित और बाध्य दोनो ही कर रहे हैं।

राजीव रंजन:कर्मा जी इतिहास पलट कर देखा जाये तो हम पाते हैं कि बस्तर के आदिवासी हमेशा से जुझारू रहे है तथा अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम रहे हैंक्या कारण रहा की उनकी लड़ाई लड़ने के लिएबाहर से लोगों को आना पड़ा जिनका दावा हैं कि वे बस्तर के आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे हैं; मेरा इशारा नक्सलियों की तरफ हैं?

महेन्द्र कर्मा:असल में तो नक्सली अपनी आईडियोलॉजी यहाँ के लोगों पर थोप रहे हैं इसके बाद भी वे यही सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि ये मूवमेंट उनका नहीं, आदिवासियों का हैं जबकि नक्सलवाद से आदिवासियों का कोई सम्बन्ध नही है, वो इसीलिए नही भी नहीं हैं, क्योंकि  आदिवासियों नें आजतक अपनी समस्याओं का निदानसंविधान के दायरे से बाहर जा कर नहीं खोजा। वो संविधान के दायरे मे ही रहकर लोकतांत्रिक तरीके से, शांतिपूर्ण तरीके से, अपनी बात कहता रहा है। इसके साथ ही यह भी कहना चाहिये कि वो गूंगा भी नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति के तथा अपनी बात को कहने के तरीके अलग हैं; इस तरह की हिंसा का उसका चहरा या तरीका नहीं है।

राजीव रंजन:इसी बात को आगे बढाते हुए मैं आपसे सलवा जुडुम की भी बात करना चाहूंगा। कर्मा जी मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि सलवा जुडुम का इतिहास क्या है तथा इसके आरंभ होने की क्या परिस्थिति थी?

महेन्द्र कर्मा:आपको याद होगा कि सलवा जुडुम से पहले एक जन जागरण अभियान भी चला था 89से 91लगभग दो सालों तक; बिल्कुल वैसे ही, ये भी चला था। घटना यह हुई कि एक गांव में...गाँव का नाम नहीं ले रहा हूँ नहीं तो उस गांव के लोगों को नक्सली मार देंगे। तो एक गाँव में नक्सलियों की बैठक चल रही थी; बिल्कुल रोड़ किनारे यह सब चल रहा था। फोर्स का राशन जा रहा था, ड्राइवर नक्सलियों से मिला हुआ था; अचानक वो रोड छोड़ करगाँव की ओर मुड़ गया। बिल्कुल बगल मे ही नक्सली लोग मीटिंग कर रहे थे तो फोर्स वाले जो दो जो ऊपर बैठे थे वो भाग के आ गए और राशन को उनके हैण्डओवर कर दिया। नक्सली वो राशन को लूट लाट कर ले गए। दूसरे दिन फोर्स जाकर गांव के कुछ लोगों को उठा कर थाना ले आई। थाने में बैठे लोगों नें विचार किया कि एक गलत आदमी की वजह से गांव के सियाने लोगों को पुलिस क्यों बिठाएगी? तो उन लोगों नें पुलिस से कहा कि एक आदमी की वजह से गाँव के सभी बडे सियाने क्यों परेशान हों। वो लोग गाँव गये और दोषी को पकडकर ले आये और पुलिस के हवाले कर दिया। पकड के तो ले आये लेकिन फिर गाँव वालों में डर भी जगा कि अब अगर हमने लोगों को हमारे साथ नही जोड़ा तो नक्सली आकार हमारे गांव को तो भून देंगेइस प्रकार से वहाँ के नक्सलियों के खिलाफ डर से शुरु हो कर सलवाजुडुम एक प्रतिष्ठा की लड़ाई, स्वाभिमान की लड़ाई,आन-बान की लड़ाई बनता गया। यह घटना तो बस शुरूआत थी। वहाँ के लोगों ने तब दस गाँव के लोंगों कों बुलाया। कहते है, बड़े आन्दोलन की शुरूआत या एक बड़े विद्रोह की शुरूआत छोटे कारणों से होती रही हैं। इतिहास इस बात का गवाह है।....अपने समय के समकालीन लोग किसी ईवेंट को कैसे देखते हैं; किसी घटना को किस तरह लेते हैं; हम लोगों नें इसे वैसे ही देखा हैं। ये मई की घटना थी, 18-19जून को मैं दिल्ली में था। वहाँ मै पेपर पढ कर इस घटना को देख-समझ रहा था, फिर मुझे लगा, वहाँ तुरंत जाना चाहिए, ऐसी जगह पर जहाँ लोग तो अपने आप आन्दोलन करने के लिये इकट्ठा हो रहे हैं लेकिन उनके लिये लीडरशीप का पता नही हैं। मेरे वहाँ पहुँचते-पहुँचते 26तारीख लग गई। वहाँ पहुँचने के बाद मैने इसे सिस्टमेटिक ढंग से चलाने की कोशिश की है। सलवा जुडुम के उपर जो हत्या बलात्कार के आरोप जगाये गये हैं वो दुष्प्रचार है; जो भी नक्सलियों के खिलाफ कोई आन्दोलन खडा करने की कोशिश करेगा उसको इसी प्रकार से दबाने का षडयंत्र किया जाता है। सच यह है कि हम लोग न तो अपने ही लोगों को मार सकते हैं न उनका बलात्कार कर सकते हैं।       

राजीव रंजन:सलवा जुडुम को क्या आप एक सशस्त्र आंदोलन के खिलाफ एक दूसरा सशस्त्र  आंदोलन मानते हैं?

महेन्द्र कर्मा:बिल्कुल नहीं, बिल्कुल नही। ऐसा था ही नहीं। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी समस्या का समाधान मास-मूमेंट होता है और यह हमारा मास-मूमेंट था। वह सशस्त्र था ही नहीं। हम हजारो लोग जब विलेज टू विलेज मूव कर रहे तो हमारी सुरक्षा में एक फोर्स था। फोर्स को अपनी भूमिका निभानी होती है; आज कोई भी जंगल जाएगा कोई जाँच कमीटी भी जाएगी तो उसके लिए भी फार्स लगायी जायेगी; हम तो फिर भी नक्सलियों के खिलाफ में लड़ रहे थे। यह बिल्कुल सशस्त्र मूवमेन्ट नहीं था....बहुत ज्यादा हुआ तो हमने अपने परम्परागत हथियार को जिनमे टंगिया, कुल्हाडी, तीर-धनुष को अपने साथ रखा। सभी जानते हैं कि यह हमारे परम्परागत हथियार हैं; कुछ लोंगों ने इसे ही फोर्स अटैक बताया; जैसे हम सशस्त्र लड़ाई लड़ रहे हैं।

राजीव रंजन:सलवाजुडुम के समाप्त होने में आप किसकी भूमिका मानते हैं?

महेन्द्र कर्मा: नक्सलियों के खिलाफ जब भी कोई बात या मूमेंट या बहस फ्लोर पर होती है तो उसे बहुत योजनाबद्ध तरीके से डिफ्यूज किया जाता है; और एसा करने वाले बहुत अच्छी तरह इसे करने में अब तक सफल रहे है... समझ गए। इन दिनो एक रूझान सा देखने को मिल रहा हैं...एंटी सिस्टम बाते करना आम हो गया हैं। मुझे लगता है इस मामले को हम लोग सही तरह से उठा नहीं पाये; हम अपना सही प्रेजेंटेशन नहीं दे पाये; सही पूछिये तो हमने उसकी जरूरत भी नहीं समझी। जमीन पर तो हम अपना पक्ष रोज रख रहे थे, लेकिन दिल्ली, भोपाल तक हम लोग अपना प्रजेन्टेशन नहीं दे पाये...... हम इस बात की जरूरत नहीं समझ रहे थे। जब हम जंगल में जमीनी लड़ाई लड़ रहे हैं तो हमे क्या जरूरत है कि दिल्ली और भोपाल में जाकर अपना पक्ष रखें। जो हमारी खिलाफत करने वाले लोग है वो प्रेजेंटेशन दिल्ली भोपाल में लगातार देते रहे।....इसी से हम हार गये। बहुत जबरदस्त धक्का लगा हमारे मूमेंट को। इतने बडे पब्लिक मूमेंट में ठहराव आ गया है, आन्दोलन खत्म हो गया है....यही चाह रहे थे नक्सली और वे सफल रहे; हम लोग हार गए।

राजीव रंजन: तो आपको अफसोस है?

महेन्द्र कर्मा: बहुत ज्यादा, और वो अफसोस तब तक रहेगा जब तक नक्सलवादी रहेगें। ये अफसोस बना रहेगा जब तक हमें फिर नई शुरूआत कोई नयी लड़ाई नहीं मिल जाती।

राजीव रंजन:कर्मा जी तो अब प्रश्न उठता है कि इस समस्या से कैसे निपटा जा सकता है?

महेन्द्र कर्मा: अब तो ऐसा है कि यह बात सिर्फ बस्तर की ही नहीं रह गयी है; अब तो यह पूरे देश की बात है। इसका समाधान पब्लिक के पास हैं; सरकार के पास है; फोर्सेज के पास है और कहीं न कहीं इन सभी को कलेक्टिवली सामने आना ही पडे़गा। एक बड़े सपोर्ट के साथ में; एक बड़े वॉल्यूम के साथ में। आज हम लोग कहां हैं?...और वो लोग कितना जबरदस्त दबाव बनाते हैं,गाँव के मुखिया से ले कर, एक सरपंच से लेकर परम्परिक जो हमारे रूरल ट्रैडिशनल सिस्टम हैं इन सभी को क्रश कर के रख दिया  है।  न गायता हैं, न पुजारी, न कोतवाल है, न पटेल है,  न सरपंच है। गांव में अब कोई भी नहीं है। जो भी है वो उनका आदमी है; वो हमारे ट्रेडिशन सेटअप को रिलीजियस सिस्टम को टारगेट करता हैं....देखिये कि जो ट्राइबल है वह नेचर के साथ रहने वाला आदमी है; प्रकृति का एक अभिन्न हिस्सा है और उसका अपना एक डैली रूटीन भी है। वो अपने कस्टम-सिस्टम के साथ जीने वाला आदमी हैं। लेकिन नक्सलवादी ये चाहता है कि ट्राइबल उसका अपना जो कुछ है उसको छोड दे; अपने जीने का तरीका बदल दे; कस्टम-सिस्टम छोड दे। उसी बात को वह अब कहीं बोल नही सकता, कहीं सही तरह से अभिव्यक्त नही कर पाता। इसी लिये उसके अन्दर एक गुस्सा है; इसी बात से वह लड़नें के लिए ललायित है; यही एक फैक्टर है जो उसको टैम्पर कर रहा हैं.......... वो अपनी बेसिक पहचान खो रहा हैं। समाधान इस लिये नहीं हो रहा है कि बडी पॉलिटिकल विल चाहिये। जब तक किसी सरकार में  कुर्बानी देने के माद्दा नहीं आयेगा तब तक....। हमने पंजाब में देखा है, हमने नार्थईस्ट में देखा है कि सरकारों को आतंकवाद नें निगला है। अगर एसा ही रहा तो मुझे लगता है बहुत जल्दी इस देश मे वभी नेपाल की स्थिति बन सकती हैं क्योंकि इस आतंकवाद को कोई रोक ही नही रहा हैं।

राजीव रंजन:आदिवासी नेता छत्तीसगढ़ की राजनीती में कहाँ है?

महेन्द्र कर्मा: अब करवट ले रहा हैंआदिवासी नेतृत्व आगे आ रहा है। उसे अब आप रोक भी नहीं सकते। इतने बर्निंग प्वाईंट पर आदमी यहाँ पर स्ट्रगल कर रहा है, ऐसे आदमी की आवाज को ज्यादा रोका नहीं जा सकता है।

राजीव रंजन: आपसे बहुत सी बाते हुईं; बहुत-बहुत धन्यवाद आपका!!!

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नागयुगीन बस्तर की स्त्री प्रशासक – मासकदेवी।

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लाला जगदलपुरी जी अपनी किताब बस्तर इतिहास एवं संस्कृतिमें मासकदेवी का उल्लेख करते हुए लिखते हैं दंतेवाड़ा में एक शिलालेख मिलता है जिसके अनुसार बस्तर के छिन्दक नाग कुल में एक बड़ा प्रतापी नरेश हो गया है, जिसकी एक विदुषी बहिन थी। उसका नाम मासकदेवी था। उसने तत्कालीन वातावरण में नारीचेतना, प्रजा-प्रेम, सेवा-भाव, कृषि उत्थान आदि प्रवृत्तियों के विकास के लिये प्रसंशनीय कदम उठाया था। शिलालेख का समय अज्ञात है किंतु उसमें सर्व-साधारण को यह सूचित किया गया था कि राज्य अधिकारी कर उगाहने में कृषक जनता को कष्ट पहुँचाते हैं। अनीयमित रूप से कर वसूलते हैं। अतएव प्रजा के हितचिंतन की दृष्टि से पाँच महासभाओं और किसानों के प्रतिनिधियों नें मिल कर यह नीयम बना दिया है कि राज्याभिषेक के अवसर पर जिन गाँवों से कर वसूल किया जाता है, उनमें ही एसे नागरिकों से वसूली की जाये, जो गाँव में अधिक समय से रहते आये हों। जो इस नीयम का पालन नहीं करेंगे वे चक्रकोट के शासक और मासकदेवी के विद्रोही समझे जायेंगे। शिलालेख में दर्शायी गयी राजाज्ञा में राजा की बहिन का हाथ है जो प्रजाकल्याण की भावना से तत्कालीन हुकूमत पर हस्तक्षेप करती है और शासक तथा शासित के बीच प्रेम और सौहार्द स्थापित करने की पहल करती है

मासकदेवी पर विमर्श को उनकी ही कुछ पंक्तियों से आगे बढाते हैं

एसे पथराव चल गये लोगो
भाव कोमल कुचल गये लोगो।
भीड में अर्थ खा रहे धक्के,
शब्द आगे निकल गये लोगो। 

वस्तुत: बस्तर को समझने के विमर्श में आम तौर पर लोग मासकदेवी को लांघ कर निकल जाते हैं; संभवत: इसी लिये इस महत्वपूर्ण स्त्रीविमर्श के अर्थ से अबूझ रहते हैं। इस अभिलेख के कुछ शब्दों पर ठहरना होगा वे हैं महासभा, किसानों के प्रतिनिधि तथा कर। जब तक महासभा के कार्य, किसानों के प्रतिनिधियों को हासिल अधिकार तथा कर प्रणाली की विवेचना न हो इस शिलालेख के आधे अधूरे मायने ही समझे जा सकते हैं। संभवत: यह महासभा पंचायतों का समूह रही होंगी जिनके बीच बैठ कर मासकदेवी नें समस्याओं को सुना, किसानों नें गाँव गाँव से वहाँ पहुँच कर अपना दुखदर्द बाँटा होगा। इस तर्क के पीछे गंग युग तक वैदिक सभ्यता की कुछ लोकतांत्रिक परम्पराओं का पाया जाना है। 

विरथ, सभा-समीति आदि पूर्ववैदिक काल से ही चली आ रही वे लोकतांत्रिक संस्थायें थीं जो विचार-विमर्श, सैनिक तथा धार्मिक कार्यों का सम्पादन आदि करती थी। ऋग्वेद में इस प्रकार की संस्थायें यथा- सभा, समीति, विरथ तथा गण का उल्लेख मिलता है। आज भी किसी न किसी बदले हुए रूप में ये सभी संस्थायें देखी जा सकती हैं। अथर्ववेद में उल्लेख है कि सभा च मा समिति-श्चावतां प्रजापतेदुहितरौ संविदानेअर्थात सभा तथा समिति प्रजापति की दो पुत्रियाँ हैं। डॉ. कीथ नें समीति को जनसभा बताया है जबकि सभा को श्रेष्ठ जनों की बैठक से जोड दिया है। इस दृष्टि से मासक देवी के शिलालेख में उल्लेखित पाँच- महासभा के मायने व्यापक हो जाते हैं। नाग युगीन शासन प्रबंध पाँच-प्रधान की बात करता है। सोनारपाल अभिलेख (1224 ई.) में इनमें से चार प्रधानों के नाम हैं महाप्रधान (मंत्री), पडिवाल (दौरावारिक), चामरकुमार (युवराज) तथा सर्ववादी (पुरोहित)। डॉ. हीरालाल शुक्ल समकालीन आन्ध्रप्रदेश के चालुक्य राज नरेन्द्र के नन्दमपुडी दानपत्र से उद्धरण लेते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि पंचप्रधान में उपरोक्त चार के अलावा पाँचवा पद सेनापति का रहा होगा। समग्रता से उपरोक्त उदाहरणों को देखा जाये तो प्रतीत होता है कि ग्रामीण सभायें आपस में जुडी होती थी जो पंच-प्रधानकी उपस्थिति के बाद महासभा कही जाती थी। इस सभा को शासन द्वारा नितिगत निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी गयी होगी जिस आधार पर मासकदेवी नें अपनी अध्यक्षता में ग्रामीणों और किसानों की बातों को सुन कर न केवल समुचित निर्णय लिया अपितु शिलालेख बद्ध भी कर दिया। शिलालेख का अंतिम वाक्य मासकदेवीको मिले अधिकारों की व्याख्या करता है जिसमे लिखा है - जो इस नीयम का पालन नहीं करेंगे वे चक्रकोट के शासक और मासकदेवी के विद्रोही समझे जायेंगे

मासकदेवी एक उदाहरण है जिनको केन्द्र में रख कर प्राचीन बस्तर के स्त्री-विमर्श और शासकों व शासितों के अंतर्सम्बन्धों पर विवेचना संभव है। यह जानकारी तो मिलती ही है कि लगान वसूल करने में बहुत सी अनीयमिततायें थी। साथ ही सुखद अहसास होता है कि तत्कालीन प्रजा के पास एसी ग्रामीण संस्थायें थी जो शासन द्वारा निर्मित समीतियों से भी सीधे जुडी थी। प्रतिपादन की निरंकुशता पर लगाम लगाने का कार्य महासभाओं में होता था तथा नाग युग यह उदाहरण भी प्रस्तुत करता है कि अवसर दिये जाने पर स्त्री हर युग में एक बेहतर प्रशासक सिद्ध हुई है।
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नागयुगीन बस्तर (760 - 1324 ई.) का समाज और वर्तमान का वैचारिक प्रदूषण

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अभी हिन्दी दिवस के अवसर पर एक चर्चा से सामना हुआ। मूल रूप से यह कहे जाने की कोशिश थी कि हिन्दी एक सामंतवादी भाषा है तथा हमें अपनी स्थानीयताओं के स्तर पर उतरना चाहिये अथवा निज मातृभाषा को ही प्रबलता से अपना चाहिये। बस्तर क्षेत्र के अतीत में तो एसी आवाज़ कभी नहीं उठी किंतु पिछले कुछ वर्षों से वाम विचारधारा नें गोंडी का प्रश्न आगे किया है तथा माओवादी स्त्रोतों से एवं कुछ बस्तर के भ्रमणार्थी लेखकों/समाजशास्त्रियों/पत्रकारों नें यही बात बारम्बार राष्ट्रीय मंचों से आगे की है। किसी नें कहा शिक्षा का माध्यम गोंडी होना चाहिये तो कोई बताता है कि जंगल के भीतर माओवादी एसी पाठ्यपुस्तकें तैयार कर रहे हैं जो मूल गोण्डी में ही हैं। केवल गोण्डी ही क्यों बस्तर की अन्य अकेकानेक बोलियाँ भी समान आदरणीय हैं तथा मुझे लगता है कि भाषा-बोली का प्रश्न एक पंक्ति में विश्लेषित होने वाला नहीं है। नाग कालीन बस्तर के समाजशास्त्र पर चर्चा को इसी विन्दु के प्रारंभ करने के पीछे मेरा मंतव्य उस साजिश को उजागर करना है जिसके परोक्ष में जनजातियों को अलग थलग करने की कोशिश पुन: होने लगी है। बस्तर रियासत के अंतिम काकतीय राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव नें मध्य प्रादेशिक हिन्दी साहिय्त सम्मेलन (1950 ई.) के अवसर पर भाषा-बोली के सवालों को उठाते हुए अपने वक्तव्य में नागयुगीन इतिहास को कुरेदते हुए भाषा के सवाल को उठाया था - शिलालेखों से यह भली भाँति सिद्ध होता है कि गोंडों की अवनति लड़ाई में हार जाने के कारण नहीं हुई है परंतु प्रस्तुत प्रश्न के प्रति उदासीनता दिखाने के कारण हुई है। एक ही समय में जब उन्हें मुसलमान और आन्ध्र राजाओं से खतरा मालूम हुआ तो वे अपने अपने जंगलों में जा कर रहने लगे और शेष संसार से स्वयं को अलग कर लिया। संसार की कोई भी जाति अपने को अलग कर के उन्नति नहीं कर सकती।.....अमेरिका के रेड़ इंडियनों का समूल नाश गोलियों से नहीं हुआ। पर उनको रिजर्व यानि बाकी संसार से पृथक रखने से हुआ। हमारे देश के आदिवासी यदि पृथक रखे गये तो उनकी जाति ही नष्ट नहीं हो जायेगी पर उनका नैतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी विकास भी नहीं हो पायेगा। महाराजा प्रवीर नें एक बहु-भाषी अध्यापन का सिद्धांत दिया था व कहा था कि हिन्दी में पढाने के लिये हमारी प्रारंभिक पाठ्य पुस्तकें बेकार हैं, उनके स्थान पर हमें चित्रों की आवश्यकता है। जिसमें प्रत्येक अक्षर को एक जानवर की तस्वीर दिखा कर समझाया जाये और उस जानवर का नाम हिन्दी, हलबी और गोंडी में लिख दिया जाये। यह प्रवीर ही थे जिन्होंने सबसे पहले आदिवासी आईसोलेशन के खतरे को भांपा और इसे रोकने के लिये एक एक्टिविस्ट की तरह प्रयास भी किये उन्होंने अजेर (हल्बी बोली में अजेर का अर्थ है उजाला) नाम का पत्र निकाला जो हिन्दी भाषा तथा आदिवासी बोलियों में संयुक्त रूप से प्रकाशित होता था। लाला जगदलपुरी नें भी बाद में इस बात की अहमियत को समझते हुए हिन्दी भाषा व जनजाति बोलियों में संयुक्त रूप से प्रकाशित होने वाला पत्र बस्तरियाप्रारंभ किया था जिनमें वे देश के ख्यातिनाम साहित्यकारों की रचनाओं का जनजातीय बोलियों में अनुवाद प्रस्तुत कर एक पुल बनाने का कार्य कर रहे थे। शायद यही सर्वश्रेष्ठ तरीका है समन्वय का क्योंकि जब आप बस्तर के जनजातीय क्षेत्रों की बात करते हैं तो केवल गोंडी कह कर स्पष्ट विभाजन नहीं किया जा सकता लेकिन इस सवाल पर उनका आईसोलेशन अवश्य किया जा सकता है चूंकि भाषा-बोली के सौहार्द वाले इस जनजाति क्षेत्र में तीस से अधिक बोलियाँ अवस्थित हैं। हलबी बोली नें सभी जनजातियों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य नागयुगीन बस्तर से ही आरंभ कर दिया था यही कारण है कि यहाँ दो गोंड जनजातियाँ आपस में बात करते हुए अपनी अपनी बोली में जब गूंगी हो जाती हैं तो हल्बी उनकी ज़ुबान बनती रही है।

आलेख के उपसंहार में इस विषय पर पुन: लौटेंगे पहले नागयुगीन जनजातिगत जटिलताओं पर दृष्टिपात करते हैं। इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल बहुत बारीकी से जनजातियों की संरचना का वर्गीकरण करते हैं। उन्होंने दो स्पष्ट विभेद किये हैं। हलबा प्रजाति (यूरोपाईट) जिनका उद्भव आर्य जातियों से हुआ वे नाग युग में पुरोहित, व्यवसायी एवं कृषक तीनों वर्गों का प्रतिनिधित्व करते थे। जब कि नाग प्रजाति (वेद्दोआउड) का स्पष्ट विभाजन उनकी कनिष्ठ शाखा (प्रतिनिधि शासक मधुरांतक देव) के आधार पर धुरवा जनजाति (धुरवा, परजा) तथा वरिष्ठ शाखा (प्रतिनिधि शासक सोमेश्वर देव) के आधार पर गोंड जनजाति (दोर्ला, माड़िया) आदि में हुआ है। नाग प्रजाति प्रशासन से जुड़ कर योद्धा बन गयी जबकि हलबा - हलवाहक।

नागयुग में पितृसत्तात्मक परिवारों का उदय होने लगा। संयुक्त परिवार चलन में थे एवं ग्राम संरचना इस तरह थी कि दूर के सम्बन्धी भी एक पक्ति में बने मकानों में रहा करते थे। स्त्री को अब तक प्राप्त अधिकार सीमित होने लगे थे; तथापि धनाड्य परिवारों में स्त्रियाँ बराबरी का हक रखती थी तथा पर्दा प्रथा विद्यमान नहीं थी। नवसाहसांकचरित ग्रंथ में उल्लेख मिलता है कि स्त्रियाँ पुरुषों से हाँथ मिलाती थीं – “रुक्मागतं करग्राहसौहाद्रे पात्रतां नयततथा पुरुषों के साथ मदिरापान भी करती थीं – “मधु कापि पाटलकपोतलरलकलधौतकुण्डला। लोलनिजमुखतुषारकरबिम्बगर्भमधिकार्पिते। जगदलपुर के निकट चपका ग्राम से प्राप्त टेमरा सती अभिलेख तद्युगीन व्याप्त सतिप्रथा की ओर भी इशारा करता है। इस अभिलेख के अनुसार माणिक्यदेवी अपने पति नागराजा हरिश्चंददेव की चिता पर सति हो गयी थी। अब तक प्राप्त किसी भी अभिलेख व साहित्य से जनजातियों की वेषभूषा पर जानकारी नहीं मिलती किंतु उस युग में एलीट क्लास के पुरुष उत्तरीय व अंकुश पहनते थे, गले में हार, मणिकुण्डल तथा यज्ञोपवीत भी धारण करते थे। स्त्रियो के श्रंगारप्रिय होने की जानकारी मिलती है तथा वे अनेक प्रकार की केश-सज्जायें के साथ कण्ठ मे हार, कानो में रक्तकुण्डल व कर्णपुर, हाँथों में मणिकंकण,केयुर, नूपुर, मेखला और रत्नजटित पादुकाओं को धारण करती थीं। श्रंगार प्रसाधन के रूप में आखों में अंजन, होठों में लाली, शरीर में चन्दनलेप तथा पैरों में आलता लगाने के अनेक विवरण नवसाहसांकचरित ग्रंथ से प्राप्त होते हैं। विवाह को ले कर जनजातियों के बीच नीयम जटिल नहीं थे और तब पाँच प्रकार के विवाह प्रचलित थे आर्ष विवाह (वर से शुल्क लिया जाता था), आसुर विवाह (वर कन्या के माता पिता को धन दे कर कन्या को खरीदता है), राक्षस विवाह (वधू का अपहरण किया जाता है), पैशाच विवाह (बलात पतित्व का अधिकार पाया जाता है) तथा गान्धर्व विवाह (माता पिता की अनुमति से प्रेम विवाह)। एक ही गोत्र में विवाह करना निषिद्ध था। उपरोक्त में से बहुतायत विवाह प्रकार बदले हुए स्वरूपों में आज भी चलन में हैं।

नागयुग तक जैन धर्म-बौद्ध धर्म की पैठ चक्रकोट्य (बस्तर) में बनी हुई थी। यही वह समय है जब हिन्दू मान्यताओं और पूजा-परम्पराओं नें जनजातिगत मान्यतों के भीतर भी जगह बनाना आरंभ किया। शिव एक प्रमुख आराध्य देवता के रूप में उभरने लगे तथा तंत्रमंत्र के माहौल में शाक्त देवियों व सप्तमातृकाओं की भी आराधना व्यापक रूप से की जाने लगी। नागराजाओं की कुलदेवी माणिकेश्वरी थीं। नागयुगीन मंदिरों नें नृत्य-संगीत को समुचित प्राश्रय दिया तथा राजा सोमेश्वर देव के गढिया अभिलेख के अनुसार नृत्यांगनाओं को समुचित दान की वयवस्था शासन की ओर से थी।

नागयुग के शिल्पकार स्तुत्य हैं जिन्होंने एसी अनुपम धरोहरें बस्तर को सौंप दी हैं जो अलगी कई शताब्दियों तक इतिहास को जीवित रखेंगी। नारायणपाल का विष्णु मंदिर, बस्तर का शिव मंदिर, कुरुषपाल, भैरमगढ, चित्रकोट, गढधनोरा, केसरपाल, चपका, मटनार, छोटे-डोंगर, दंतेवाड़ा, कोईलीबेड़ा, कटगाव आदि में अवस्थित मंदिर तथा भग्नावशेष नागयुगीन वास्तुकला की आज भी गवाही देते हैं। बारसूर का बत्तीस स्तम्भों वाला मंदिर तो अनुपम है। अंग्रेज प्रशासक दि ब्रेत (1909) नें उल्लेख किया है कि एक ज़माने में बारसूर के मंदिर अपनी मिथुन मूर्तियों के कारण खजुराहो के मंदिरों से भी भव्य थे। किंतु अज्ञानता के कारण राजा महिपाल देव नें उन्नीसवीं सदी में इन्हें नष्ट करवा दिया था। आज भी मूर्तियों का बारीक अन्वेषण उनमें छिपे आदिम अभिव्यक्ति के छिपे कई दृश्य सामने लाता है जिसमें कहीं आदिवासी जीवन की पीडा है तो कहीं प्रेम भी है।

अब पुन: भाषा से प्रारंभ हुई चर्चा पर लौटते हैं। डॉ. हीरालाल शुक्ल नें अपनी पुस्तक चक्रकोट के छिन्दक नाग में उल्लेख किया है कि उन्होंने नागयुगीन बस्तर के कुल तैतीस अभिलेखों की खोज की है जिसमें से 16 अभिलेख तेलिगु में एवं 17 अभिलेख संस्कृत में हैं। डॉ. शुक्ल का मंतव्य है कि इन्द्रावती नदी एक स्पष्ट विभाज्य देखा है जिसके उत्तर का क्षेत्र संकर संस्कृत का तथा दक्षिण का अंचल संकर तेलुगु का रहा है। नागयुगीन राजा भाषा को ले कर स्पष्ट सोच रखते थे तथा समय समय पर उन्होंने एक भाषा नीति बनायी थी। नागयुगीन बस्तर की प्रथम राजभाषा (925-1062 ई.) तेलुगु थी चूंकि तब नाग दक्षिण से बस्तर आ कर स्थापित हुए थे एवं स्वयं का विस्तार करने के लिये अपनी भाषा को माध्यम बनाना उन्हें उचित लगा होगा। मधुरांतक देव (1062-1069 ई.) नें भाषानीति को बदल कर संस्कृत को राजभाषा घोषित किया। संभवत: इसका कारण सोमवंशी, कलचुरी, ओडिशा तथा चोल शासकों से सहसम्बन्ध बढाना रहा होगा। इसके बाद तीसरी राजभाषा नीति का काल 1069-1218 के मध्य का है जहाँ तेलुगू एवं संस्कृत दोनो को ही राजभाषा का दर्जा प्राप्त था। सोमेश्वर देव (1069-1111ई.) नें कुल नौ आज्ञा पत्र जारी किये जिनमें से पाँच संस्कृत में तथा चार तेलुगु में थे। इस अवधि के विषय में डॉ. शुक्ल लिखते हैं कि भाषा-बोलियों का सम्मिश्रण जनजातियों में इसी प्रकार नागयुग में होता रहा। आन्ध्र के प्रभाव वाले क्षेत्रों में तेलुगु नें माड़िया तथा धुर्वी के साथ मिल कर द्विभाषिकता की स्थिति को निर्मित किया तथा हलबाओं के संपर्क में ओडिया भाषा आई। अबूझमाडिया कबीले तब शक्तिशाली थे तथा एकभाषीय बने रहे। कालांतर में द्विभाषी स्थिति तो यथावत बनी रही लेकिन एकलिपि (1218 -1224 ई.) का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। इस काल में संस्कृत तथा तेलुगु दोनो ही भाषाओं के अभिलेख नागरी लिपि में लिखे जाने लगे। शनै: शनै: तेलुगु भाषा की परम्परा समाप्त हो गयी तथा संकर संस्कृत (1224-1324 ई.) का विकास हुआ जिसमें स्थानीयता का तेजी से सम्मिश्रण भी होने लगा। एक एसी भाषा में संस्कृत बदलने लगी जिसके बहुत निकट आज की हलबी प्रतीत होती है। इस कारण को प्रमुखता से पहडना होगा कि क्यों हलबी सभी जनजातियों के बीच बोली जाती है जाहे वे गोंड हो या हलबा।

नागयुग में विभिन्न जनजातियों का सहसंयोजन भी हुआ तथा जिन जनजातियों की शासन में सहभागिता नहीं रही वे उपेक्षित व पिछडते भी चले गये। नाग शासन में जनजातियों के बीच आपसी संघर्ष के कोई दस्तावेज़ अथवा प्रमाण नहीं मिलते साथ ही यह सु:खद प्रतीति होती है कि बस्तर में अनेक धर्म, अनेक जातियाँ, अनेक बोली-भाषा बोध के बाद भी आधुनिक तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा विद्वेष फैलाये जाने की साजिश से पहले तक कभी भी इन सवालों पर अनेकता या अलगाववाद की स्थितियाँ निर्मित नहीं हुई हैं। अत: वही दोषी हैं जो बस्तरिया समाज को इस दृष्टि से देख रहे हैं, प्रदूषक-विचारों का विरोध अवश्य होना चाहिये।
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गोबर के भीतर पडा देवता [प्रसंग: बस्तर में धार्मिक मान्यतायें]

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यह पंक्ति गहरी है – “सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा। जनजातीय समाज में देवता इतनी विनम्रता की अपेक्षा नहीं रखते। देवता वह जो बात सुने; देवता वह जो माँग पूरी करे; देवता वह भी जिसकी डिमांड पूरी की जाये लेकिन सशर्त। यह बात कांकेर के निकट रिसेवाड़ा गाँव के पास की है। कांकेर से मेरे मार्गदर्शक थे पत्रकार-मित्र कमल शुक्ला हमने दो ग्रामीणों से रिसेवाड़ा के निकट सहायता माँगी थी और वे भी हमारे साथ चल पड़े थे। यहाँ की रिसेदेवी से भी आपका परिचय जल्दी ही कराउंगा तथा इस स्थल के कई चौकांने वाले तथ्यों से भी। आज बात भीमा देवता की। वस्तुत: रिसेदेवी की गुफा देख कर आगे बढते हुए एक जगह ग्रामीणों ने हमे छोडा और एक पेड के नीचे नत मस्तक हो गये। मैं जिज्ञासा वश वहाँ चला गया। छोटा सा पेड पौधों का झुरमुट जहाँ दो गोबर के थप्पे रखे हुए थे। 

यह क्या है?” मैने जिज्ञासा वश पूछा।

भीमादेव हैएक ग्रामीण ने बताया।

भीमादेव क्या गोबर की थप्पियाँ हैं? यह बात और जिज्ञासा से भर रही थी। भीमादेव तो पानी का देवता है न?” मैने अपना ज्ञान बघारा। हम तथाकथित सभ्य लोग हैं ज्ञान बघारना हमारा अधिकार है।

हौ पानी का देवता है।ग्रामीण ने अपनी सादगी से कहा।

.....लेकिन गोबर की थप्पिया? भीमादेवता की मेरी कल्पना बडी भव्य थी। भीमा साधारण देवता हर्गिज नहीं है; प्रचलित कहावत है कि नांगर धरला भीम पानी देला इन्दर। मैं बात आगे बढाने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि बस्तर का जनजातीय समाज उस चश्मे से देखा पढा ही नहीं जा सकता जिसका कि हम देश के अन्य भाग से तुलनात्मक सूत्र जोड सकें। बहुत से लोग आईसोलेशन थ्योरीकी वकालत करते हैं जिसके दुष्परिणाम समझने के लिये बस्तर सबसे बेहतरीन जगह है। 1324 में अन्नमदेव ने बस्तर राज्य के विधिवत गठन के बाद उसने अपनी सीमाओं को लगभग सील कर दिया था; भीतर और बाहर में कोई संवाद नहीं। यदि अंग्रेज जासूस ब्लंट की डायरी कोई पढे तो यह समझ सकता है कि तत्कालीन बस्तर की निकटवर्ती रियासत कांकेर और बस्तर के बीच भी अबोले-अबूझे की स्थिति थी। इसका परिणाम हुआ कि यहाँ शासक-शासित; मूल संस्कृति/परंपरायें तथा आयातित; विद्यमान देवी देवता तथा आयातित सभी आपस में घुल मिल गये। कभी जनजातीय समाज का चलन शाशक वर्ग नें ओढ लिया तो कभी शासकों की मान्यतायें शासित वर्ग नें अपना लीं। इसे बिना किसी विद्वेश के हुआ सामाजिक-धार्मिक बदलाव भी कहा जा सकता है और फिर शेष दुनिया से कटे रहने के कारण नये तर्क बस्तर की सीमाओं के भीतर आसानी से प्रविष्ठ नहीं हो सकते थे अत: उपलब्ध विकल्प ही गुत्थम-गुत्था हो गये। आईसोलेशन थ्योरी के कारण बाहर से आने वाले बंजारों को शोषण करने व वनोपज की लूट का अवसर प्राप्त हुआ। (स्वतंत्रता पश्चात भी एक ब्यूरोक्रेट नें अबूझमाड को आईसोलेशन के अभिशाप से ग्रसित कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप नक्सलवाद नें इन क्षेत्रो में सहजता से पैर जमाये।)। यह लम्बी चर्चा का विषय है अत: न भटकते हुए गोबर की थप्पियों पर लौटते हैं।

यहाँ भीमा और इन्दर हमें भ्रमित करते हैं। इन्द्र पूजा को हिन्दू समाज में वर्षा से जोडा जाता है अत: यह भ्रम स्वाभाविक भी है। डॉ. के के झा नें चर्चा के दौरान इसी विषय पर अपनी थीसिस मुझे दिखाई थी जहाँ वे जनजातीय समाज की धार्मिक मान्यताओं में इतिहास की समय समय पर हुई दखलंदाजी की पूरी व्याख्या करते हुए इस अवगुण्ठन की क्रमबद्धता तथा कारणों पर बात करते हैं। डॉ. झा एसा साधिकार इस लिये कह पाते हैं चूंकि बस्तरिया जीवन को इस इतिहासकार नें इसी मिट्टी में जी कर समझा है। वरना तो दिल्ली में बैठे कई विचारक इन बदलावों को कॉफी पीते पीते ही खारिज कर देते हैं; एक आध तो गुडसा उसेंडी के अवतार वाले गुण्डाधुरकी तलाश करने वाले आगंतुक शोधार्थी बस्तरिया देवी दंतेश्वरी को शोषकबता कर अपनी थीसिस पूरी भी कर लेते हैं। भीमादेव को गोबर में लिपटा देख कर मेरा ठिठकना स्वाभाविक था चूंकि प्रचलित मान्यता के अनुसार - भीमादेव बस्तर के खेतीहर देवता हैं। भीमादेव को मनाने के लिये देवगुड़ी में पूजापाठ होता है, मन्नत माँगी जाती है। भीमादेव का पूरा श्रंगार साँप ही हैं। उनके सिर पर महामण्डलसाँप की पगड़ी बँधी है। टोकी-बोंडकीसाँप का जनेऊ पहना हुआ है। दूध-नागसाँप का कौपीन और बंदूक-मानासाँप का कमरपट्टा पहनते हैं। सुपलीसाँप भीमादेव के पैरों के कडे हैं।

बस्तर की जनजातीय मान्यताओं का यह भीमादेव हिन्दू मान्यता के किसी भी प्रचलन से साम्यता नहीं रखता तथापि जनजीवन में नल-नाग-काकतीय शासनकाल की मान्यताओं का प्रभाव ही न पडा हो क्या यह संभव था? आज कुछ देवगुडियों की जगह पक्के मंदिरो की भी झलक मिलती है यह भी समय का लाया परिवर्तन ही तो है। पूरे बस्तर में शिव-गणेश की असंख्य प्रतिमायें बिखरी मिलती हैं वह चाहे कोंटा हो, बीजापुर हो, भोपालपट्टनम हो, नारायणपुर हो या कि कांकेर। शिव के मान्य स्वरूप की हल्की सी झलख भीमादेव के स्वरूप में भी दिखाई पडती है। इन्ही नाम साम्यो के कारण जान बूझ कर विचारधारा-विशेष के द्वारा वैमनस्य प्रसारित करने की कोशिश है, या कहें सामाजिक खाई जो कि इन अवगुण्ठनों को अलग अलग करना चाहती है वह भी बिना इसके अतीत का पक्ष समझे हुए।

देवता वह नहीं जिसके आगे सिर झुका कर रहो और प्रतीक्षा करो कि वह तुम्हारी बात कभी सुनेगा। ग्रामीणों से चर्चा के दौरान ही मैं देवता और भक्त के बीच पुजारी या ओझा के माध्यम से होने वाली बातचीत या मोलभाव के मायने समझने का यत्न कर रहा था। यहाँ देवता बात करता है चाहे माध्यम कोई भी बने। देवता बात माने जाने से पहले अपने चढावे को ले कर भक्त और पुजारी से मोलभाव भी करता है कि पिछली बार तूने मुर्गा दिया था इस बार बकरा लूंगा। लेकिन भक्त के पास भी छूट है वह भी अपने देवता से उसी तरह झगड सकता है कि नहीं मैं तो मुर्गा ही दूंगा लेना हो तो लो वरना जाओ। इतना ही नहीं नाराज होने का अधिकार केवल देवता को ही नहीं है याचक या भक्त हो भी है। देवता के साथ झूमा झटकी भी हो सकती है और देवता को बैरंग लौटाया भी जा सकता है। इतना ही नहीं देवता बदल भी दिये जाते है, उपेक्षित भी कर दिये जाते हैं तथा मृत भी घोषित किये जाते हैं। बस्तर के देवी-देवता अकड नहीं सकते और सर्वे सर्वा नहीं बन पाते क्योंकि वे जन आवश्यकता से पनपते हैं उनकी सोच के अनुसार आकार लेते हैं उनकी जीवन शैली के अनुसार खाते पीते हैं और उसी प्रकार पूजे भी जाते हैं। इस विषय को अभी विस्तार न दे कर बात पुन: भीमादेव की।

ये गोबर जो रखा है उसीको आप भीमादेव मानते हो?” मुझे सही शब्द नहीं मिल रहे थे। काम करते हुए मैं कोशिश करता हूँ कि मेरे मुख से निकले किसी भी शब्द से किसी की भी मान्यता आहत न हो। मुझे जो उत्तर मिला संभवत: धर्म और आस्था को ले कर बडी बडी बहसों के लिये सीख हो सकता है।

मुझे बताया गया कि बारिश नहीं हो रही थी बुआई नजदीक थी अत: ग्रामीण नें भीमादेव से प्रार्थना की। अब देवता है तो उसे सुख-दुख का साथी बनना ही पडेगा। अगर ग्रामीण की क्षमता के भीतर देवता की कोई माँग है तो पूरी भी की जाती है लेकिन जब देवता से कहा गया है कि बारिश कराओ तो बारिश होनी चाहिये। किस बात का देवता अगर माँग पूरी न करे? किस बात का देवता अगर इस तरह से नाराज हो जाये कि भक्त तकलीफ में आ जाये? नहीं इतना अधिकार देवता को नहीं दिया गया है कि वह अपनी अकड दिखा सके या हेकडी में रहे। यहाँ देवता से झगडा भी किया जाता है उसे गालियाँ भी दी जाती हैं इतना ही नहीं बात न मानने पर हश्र और भी बुरा हो सकता है जो उदाहरण मेरे सामने था। भीमादेव नें बार बार कहने पर भी बात नहीं मानी तो अब देवता महोदय भुगतो। ग्रामीण नें अपना गुस्सा इजहार करते हुए देवता के उपर गोबर पटक दिया कि पडे रहो भीतर। बात मानोगे तो निकालूंगा बाहर नहीं तो होगे देवता मुझे क्या

कमल भैया नें पूछा कि क्या गोबर के नीचे रखी भीमादेव की मूर्ति को हम देख सकते हैं? यह स्वाभाविक प्रश्न था और हम यह उत्तर मान कर चल रहे थे कि हमे ना में उत्तर मिलेगा। हो सकता है हमे कहा जाये कि एसा करने पर देवता नुकसान पहुँचा सकता है....। अपेक्षा से विपरीत ग्रामीण ने कहा कि देवता है तो नुकसान क्यों पहुँचायेगा। यद्यपि हमने जानबूझ कर मूर्ति देखने की तत्परता नहीं दिखाई। मैं भाविक व्यक्ति हूँ और गोबर के भीतर पडे देवता ने मुझे अभिभूत कर दिया है।
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प्रवीरचन्द्र भंजदेव – बस्तर के आदिवासियो का शापित नायक

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आज 23 मार्च को प्रवीर की सैंतालीसवी पुण्यतिथि है। इसी अवसर पर एक आलेख उनके जीवन संघर्ष पर केन्द्रित - 

रियासत काल के अंतिम शासक प्रवीर चन्द्र भंजदेव आधुनिक बस्तर को दिशा प्रदान करने वाले पहले युगपुरुषों में से एक हैं। महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी तथा प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव की द्वितीय संतान प्रवीरचन्द्र भंजदेव का जन्म शिलांग में 12.6.1929 को हुआ था। उनकी माता तथा बस्तर की महिला शासिका महारानी प्रफुलकुमारी देवी के असमय और रहस्यमय निधन के पश्चात लंदन में ही ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधियों ने अंत्येष्टि से पहले उनके छ: वर्षीय ज्येष्ठ पुत्र प्रवीरचन्द्र भंजदेव (19361947 ई.) का औपचारिक राजतिलक कर दिया। प्रवीर अट्ठारह वर्ष के हुए और जुलाई 1947 में उन्हें पूर्ण राज्याधिकार दे दिये गये। 15.12.1947 को सरदार वल्लभ भाई पटेल ने मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर में छत्तीसगढ़ की सभी चौदह रियासतों के शासकों को भारतीय संघ में सम्मिलित होने के आग्रह के साथ आमंत्रित किया। महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने अपनी रियासत के विलयन की स्वीकृति देते हुए स्टेटमेंट ऑफ सबसेशन पर हस्ताक्षर कर दिये। बस्तर रियासत को इसके साथ ही भारतीय संघ का हिस्सा बनाये जाने की स्वीकृति हो गयी। 15.08.1947 को भारत स्वतंत्र हुआ तथा 1.01.1948 को बस्तर रियासत का भारतीय संघ में औपचारिक विलय हो गया। 9.01.1948 को यह क्षेत्र मध्यप्रांत में मिला लिया गया।

यह स्वाभाविक था कि सत्ता छिन जाने तथा महाराजा से प्रजा हो जाने की पीडा उनकी वृत्तियों से झांकती रही तथा इसकी खीझ वे एश्वर्य प्रदर्शनों, लोगों में पैसे बाटने जैसे कार्यों से निकालते भी रहे। तथापि उम्र के साथ आती परिपक्वता तथा राजनीति के थपेडों नें उन्हें एक संघर्षशील इंसान भी बनाया तथा धीरे धीरे वे अंचल में आदिम समाज के वास्तविक स्वर और प्रतिनिधि बन कर भी उभरे। उनके जनसंघर्षों की यदि बानगी देखी जाये तो यह समय शुरु होता है जब 13 जून 1953 को उनकी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत ले ली गयी थी। प्रवीर नें 1955 में “बस्तर जिला आदिवासी किसान मजदूर सेवा संघ” की स्थापना की थी। 1957 में प्रवीर बस्तर जिला काँग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए; आमचुनाव के बाद भारी मतो से विजयी हो कर विधानसभा भी पहुँचे। 1959 को प्रवीर ने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। मालिक मकबूजा की लूट आधुनिक बस्तर में हुए सबसे बडे भ्रष्टाचारों में से एक है जिसकी बारीकियों को सबसे पहले उजागर तथा उसका विरोध भी प्रवीर ने ही किया था। 11 फरवरी 1961 को राज्य विरोधी गतिविधियों के आरोप में प्रवीर धनपूँजी गाँव में गिरफ्तार कर लिये गये। इसके तुरंत बाद फरवरी-1961 में “प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट” के तहत प्रवीर को गिरफ्तार कर नरसिंहपुर जेल ले जाया गया। राष्ट्रपति के आज्ञापत्र के माध्यम से 12.02.1961 को प्रवीर के बस्तर के भूतपूर्व शासक होने की मान्यता समाप्त कर दी गयी इसके साथ ही प्रवीर के छोटे भाई विजयचन्द्र भंजदेव को भूतपूर्व शासक होने के अधिकर दिये गये। इसके विरोध में लौहण्डीगुडा तथा सिरिसगुड़ा में आदिवासियों द्वारा व्यापक प्रदर्शन किया गया था। जिला प्रशासन की जिद और प्रवीर पर हो रही ज्यादतियों का परिणाम 31.03.1961 का लौहंडीगुड़ा गोली काण्ड़ था, जहाँ बीस हजार की संख्या में उपस्थित विरोध कर रहे आदिवासियों पर निर्ममता से गोली चलाई गयी थी। सोनधर, टांगरू, हडमा, अंतू, ठुरलू, रयतु, सुकदेव; ये कुछ नाम हैं जो लौहण्डीगुड़ा गोलीकाण्ड के शिकार बने।

फरवरी 1962 को कांकेर तथा बीजापुर को छोड पर सम्पूर्ण बस्तर में महाराजा पार्टी के प्रत्याशी विजयी रहे तथा यह तत्कालीन सरकार को प्रवीर का लोकतांत्रिक उत्तर था। 30 जुलाई 1963 को प्रवीर की सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी गयी। प्रवीर पर बहुधा बस्तर को नागालैंड बनाने तथा हिंसक प्रवृत्तियों को भडकाने के आरोप लगते रहे हैं तथापि गंभीर विवेचना करने पर ज्ञात होता है कि उनके अधिकतम आन्दोलन शांतिप्रिय तथा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की परिधि में ही थे। 1964 ई. में प्रवीर ने पीपुल्स वेल्फेयर एसोशियेशन की स्थापना की। 12 जनवरी 1965 को प्रवीर ने बस्तर की समस्याओं को ले कर दिल्ली के शांतिवन में अनशन किया था। गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा द्वारा समस्याओं का निराकरण करने के आश्वासन के बाद ही प्रवीर ने अपना अनशन तोडा था। 6 नवम्बर 1965 को आदिवासी महिलाओं द्वारा कलेक्ट्रेट के सामने प्रदर्शन किया गया जहाँ उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया। इसके विरोध में प्रवीर, विजय भवन में धरने पर बैठ गये। 16 दिसम्बर 1965 को आयुक्त वीरभद्र ने जब उनकी माँगों को माने जाने का आश्वासन दिया तब जा कर यह अनशन टूट सका। 8 फरवरी 1966 को पुन: जबरन लेव्ही वसूलने की समस्या को ले कर प्रवीर द्वारा विजय भवन में अनशन किया गया। 12 मार्च 1966 को नारायणपुर इलाके में भुखमरी और इलाज की कमी को ले कर प्रवीर द्वारा पुन: अनशन किया गया। प्रवीर के आन्दोलन व्यवस्था के लिये प्रश्नचिन्ह बने हुए थे जिनका दमन करने के लिये आदिवासी और भूतपूर्व राजा के बीच के बंध को तोडना आवश्यक था।

इस बीच एक बडी घटना घट गयी। तारीख 18.03.66, शाम के साढे तीन बजे थे। चैत पूजा के लिये लकड़ी का बड़ा सा सिन्दूर-तिलक लगा हुआ लठ्ठा महल के भीतर ले जाया जा रहा था। कंकालिन गुड़ी के सामने परम्परानुसार इस स्तम्भ को लगाया जाना था। इस समय कहीं किसी तरह की अशांति नहीं और न ही कोई उत्तेजना। महिलाओं की संख्या चार सौ से अधिक होंगी; इस समूह में पुरुष भी थे, पूरी तरह नि:शस्त्र, जो संख्या में डेढ़ सौ से अधिक नहीं थे। महिलाओं में अधिकांश के वदन पर नीली साड़ी थी और पुरुषों के सिर नीली पगडियाँ; यह भूषा प्रवीर नें अपने समर्थकों को दी थी जिन्हें वे मेम्बर तथा मेम्ब्रीन कहते थे; इस समय इस समूह का प्रवीर से केवल इतना ही सम्बन्ध भर था। यह जुलूस महल के प्रमुख प्रवेश सिंह द्वार के निकट पहुँचा ही था कि एकाएक उस पर लाठीचार्ज हो गया। इसके बाद स्थिति विस्फोटक हो गयी तथा उत्तेजित ग्रामीणों नें तीर-कमान निकाल लिये थे। इस अप्रिय स्थिति को प्रवीर के हस्तक्षेप के बाद ही टाला जा सका था। स्थिति यही नहीं थमी। 25 मार्च 1966 के दिन राजमहल में सामने का मैदान आदिम परिवारों से अटा पड़ा था। कोंटा, उसूर, सुकमा, छिंदगढ, कटे कल्याण, बीजापुर, भोपालपटनम, कुँआकोंडा, भैरमगढ, गीदम, दंतेवाडा, बास्तानार, दरभा, बकावण्ड, तोकापाल लौहण्डीगुडा, बस्तर, जगदलपुर, कोण्डागाँव, माकडी, फरसगाँव, नारायनपुर.....जिले के कोने कोने से या कहें कि विलुप्त हो गयी बस्तर रियासत के हर हिस्से से लोग अपनी समस्या, पीड़ा और उपज के साथ महल के भीतर आ कर बैठे हुए थे। भीड़ की इतनी बड़ी संख्या का एक कारण यह भी था कि अनेकों गाँवों के माझीआखेट की स्वीकृतिअपने राजा से लेने आये थे। चैत की नवदुर्गा में आदिवासी कुछ बीज राजा को देते और फिर वही बीज उनसे ले कर अपने खेतों में बो देते थे। चैत और बैसाख महीनों में आदिवासी शिकार के लिये निकलते हैं जिसके लिये राजाज्ञा लेने की परम्परा रही है। यह भी एक कारण था कि भीड़ में धनुष-वाण बहुत बड़ी संख्या में दिखाई पड़ रहे थे, यद्यपि वाणों को युद्ध करने के लिये नहीं बनाया गया था। ज्यादातर वाण वो थे जिनसे चिडिया मारने का काम लिया जाना था। इसी बीच आदिवासियों और पुलिस में एक विचाराधीन कैदी को जेल ले जाते समय झड़प हुई जिसमे एक सूबेदार सरदार अवतार सिंह की मौत हो गयी। इसके बाद पुलिस नें आनन-फानन में राजमहल परिसर को घेर लिया; आँसूगैस छोडी गयी तथा फिर बिना चेतावनी के ही फायरिंग होने लगी। दोपहर बारह बजे तक अधिकतम आदिवासी मैदानों से हट कर महल के भीतर शरण ले चुके थे। धनुषों पर वाण चढ़ गये और जहाँ-तहाँ से गोलियों का जवाब भी दिया जाने लगा। दोपहर के दो बजे गोलियों की आवाज़े कुछ थमीं। सिपाहियों के लिये खाने का पैकेट पहुँचाया गया था। छुटपुट धमाके फिर भी जारी रहे। कोई सिर या छाती नजर आयी नहीं कि बंदूखें गरजने लगती थीं। दोपहर के ढ़ाई बजे; लाउडस्पीकर से घोषणा की गयी – “ सभी आदिवासी महल से बाहर आ कर आत्मसमर्पण कर दें। जो लोग निहत्थे होंगे उनपर गोलियाँ नहीं चलायी जायेंगी।प्रवीर ने औरतों और बच्चों को आत्मसमर्पण करने के लिये प्रेरित किया। लगभग डेढ़ सौ औरतें अपने बच्चों के साथ बाहर आयीं। जैसे ही वे सिंहद्वार की ओर आत्मसमर्पण के लिये बढीं, मैदान में सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया। यह जुनून था अथवा आदेश...बेदर्दी से लाठियाँ बरसाई जाने लगीं। क्या इसके बाद किसी की हिम्मत हो सकती थी कि वो आत्मसमर्पण करे? शाम साढे चार बजे एक काले रंग की कार प्रवीर के निवास महल के निकट पहुँची। प्रवीर और उसके आश्रितों को आत्मसमर्पण के लिये आवाज़ दी गयी। आवाज सुन कर प्रवीर पोर्चे से लगे बरामदे तक आये किंतु अचानक ही उनपर गोली चला दी गयी, गोली जांघ में जा धँसी थी। इसके बाद महल के भीतरी हिस्सों में जहाँ तहाँ से गोली चलने की आवाज़े आने लगी थीं। आदिम वाणों ने बहुत वीरता से देर तक गोलियों को अपने देवता के शयनकक्ष तक पहुँचने से रोके रखा। एक प्रत्यक्षदर्शी अर्दली के अनुसार बहुत से सिपाही राजा के कमरे के भीतर घुस आये थे। जब वह सीढियों से नीचे उतर कर भाग रहा था उसे गोलियाँ चलने की कई आवाजें सुनाई दीं...वह जान गया था कि उनके महाराज प्रवीर चंद्र भंजदेव मार डाले गये हैं। शाम के साढे चार बजे इस आदिवासी ईश्वर का अवसान हो गया था। प्रवीर की मृत्यु के साथ ही राजमहल की चारदीवारी के भीतर चल रहे संघर्ष ने उग्र रूप ले लिया। अब यह प्रतिक्रिया का युद्ध था जिसमें मरने या मारने का जुनून सन्निहित था। रात्रि के लगभग 11.30 तक निरंतर संघर्ष जारी रहा और गोली चलाने की आवाजें भी लगातार महल की ओर से आती रहीं थीं। इसके बाद रुक रुक कर गोली चलाये जाने का सिलसिला अलगे दिन की सुबह चार बजे तक जारी रहा। 26.03.1966; सुबह के ग्यारह बजे; जिलाधीश तथा अनेकों पुलिस अधिकारी महल के भीतर प्रविष्ठ हो सके। इसी शाम प्रवीर का अंतिम संस्कार कर दिया गया। प्रवीर बस्तर की आत्मा थे वे नष्ट नहीं किये जा सके। आज भी वे बस्तर के लगभग हर घर में और हर दिल मे उपस्थित हैं।
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प्रवीर चन्द्र भंजदेव - बस्तर का शापित नायक

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दैनिक छत्तीसगढ में 26.03.2013 को प्रकाशित 



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सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में 26.03.2013 को प्रकाशित 


अन्नमदेव की बस्तर विजय।

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व्यवस्था परिवर्तन कभी भी अ-कारण नहीं होता। शासक और शासित के बीच दूरियाँ जितनी बढती जाती हैं असंतोष का लावा मार्ग बनाने लगता है। एसे में कभी जनता ही आक्रामक हो उठती है तो कभी आक्रांता बेधड़क चला आता है और उसका कोई प्रतिवाद नहीं होता। छिंदक नाग शासकों नें प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर लगभग 564 वर्ष (760 – 1324 ई. तक) तक शासन किया और उनकी अनेक उपलब्धियाँ रहीं जिससे इनकार नहीं किया जा सकता; तथापि धीरे धीरे केन्द्रीय शक्ति के अभाव में यह पूरा क्षेत्र अनेक नाग-शासकों/सरदारो व शक्तिशाली सामंतो नें हथिया लिया। प्रभाव क्षेत्र पाँच या दस कोस लेकिन उपाधि राजा। कुछ मजबूत गढ अवश्य थे किंतु आपसी लडाईयों के कारण उन्हें अब सुरक्षित नहीं कहा जा सकता था। अन्नमदेव का बस्तर प्रवेश परिस्थितिजन्य था न कि योजनाबद्ध। मुट्ठी भर सामंतो और गिनती के सैनिकों के साथ वारंगल से पलायन करने वाला एक सरदार एक वृहत जानजातीय आबादी वाले एसे भूभाग को बडी ही सहजता से अधिकृत कर लेता है जहाँ की प्रजा ही विद्रोही प्रवृत्ति की मानी जाती हो तो विषद विवेचना आवश्यक है। चक्रकोटय (प्राचीन बस्तर) में अनुकूल परिस्थितियाँ थीं; यह क्षेत्र नाग राजाओं और उनके सामंतो की आपसी लड़ाईयों से टूट चुका था। इतिहासकार नर्मदाप्रसाद श्रीवास्तव अपने एक आलेख में विवेचना करते हुए लिखते हैं कि नाग - एक एक गाँव, बगीचा या तालाब के लिये लड़ मरने वाले पंच कोसीराजा रह गये थे। प्रजा इनके आपसी विवादों से त्रस्त थी। वस्तुत: एसे में आम जन की साँप छुछुन्दर वाली गति हो जाती थी....किस सामंत का साथ दें और किसका न दें। यही हालात अन्नदेव के लिये लाभकारी हुए। स्थानीय ही उनके सहायक और मुखबिर बनते गये।

बस्तर पर कार्य करने वाले आरंभिक सभी इतिहासकारों नें अन्नमदेव तथा उसके वंशजों को काकतीयवर्गीकृत किया है जिनमे जेकिंसन (1827), इलियट (1856), टेम्पल (1862), ग्लसफर्ड (1862), रसेल (1908), दि ब्रेट (1909), ग्रिग्सन (1938) तथा एल्विन (1947) आदि प्रमुख हैं। यहाँ तक कि राजवंश के अंतिम शासक प्रवीर चन्द्र भंजदेव (1936-1947 ई.) भी राजवंशावली को काकतीयही निरूपित करते हैं जबकि डॉ. हीरालाल शुक्ल सहित अनेक इतिहासकारों नें नयी व्याख्या प्रस्तुत की है जिसके आधार पर बस्तर पर 1324 ई. से शासन करने वाले राजपरिवार को चालुक्यमाना गया है। चालुक्य मानने के पीछे के तथ्य वारंगल से प्राप्त होते हैं। वारंगल के काकतीय राजा गणपति (1199-1261 ई.) की दो पुत्रियाँ थीं रुद्राम्बा और गणपाम्बा। उनके देहावसान के बाद उनकी बड़ी पुत्री रुद्राम्बा ने सत्ता संभाली। चालुक्य राजा वीरभद्रेश्वर से महारानी रुद्राम्बा का विवाह हुआ था। इस दम्पत्ति को कोई पुत्र नहीं था। उनकी एक मात्र संतति थी - पुत्री मम्मड़म्बा। राजकुमारी मम्मड़म्बा को विवाह के पश्चात दो पुत्र हुए - प्रतापरुद्र तथा अन्नमदेव। [यही विवाह सम्बन्ध इतिहासकारों को चालुक्य वंश के साथ अंतर्सम्बन्ध स्थापित करने की दिशा देता है। इस विवाद में न पडते हुए प्रचलित मान्यता काकतीयको ही प्रस्तुत आलेख में लिया गया है।] तकनीकी रूप से तथा पितृसत्तात्मक समाज की व्याख्याओं के अनुरूत यह सत्य स्थापित होता है कि चालुक्य राजा से विवाह के पश्चात महारानी रुद्राम्बा का पिता की वंशावलि पर अधिकार समाप्त हो गया। तथापि भावनात्मक रूप से अथवा स्त्री अधिकारों पर विमर्श के तौर पर मुझे यह तथ्य रुचिकर प्रतीत होता है कि काकतीय वंशावली के रूप में यह राजवंश अधिक प्रमुखता से जाना गया है। यहाँ तक कि महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921 - 1936 ई.) जिनका विवाह भंज वंश से जुडे राजकुमार से किया गया था; तत्पश्चात के सभी वंशजों नें अपने नाम के साथ भंज अवश्य जोडा किंतु अंतिम महाराजा प्रवीर स्वयं को प्रवीर चंद्र भंजदेवकाकतीयकहलाना ही पसंद करते थे। यह परम्परा मुझे स्तुत्य, महत्वपूर्ण तथा एक अनुकरणीय उदाहरण प्रतीत होती है। वंशावलियाँ और रक्तशुद्धतायें महज प्रतीक है तथा यह एक आवरण है जो पृथक्करण करता है। यहाँ वह कहावत उचित प्रतीत होती है कि नाम में क्या रखा है?’ साथ ही यह भी कि पिता और माता यदि सत्तायें न हो कर समान अधिकारी होते तो वंशावलियों पर पाथापच्चियों की आवश्यकता नहीं रही होती। अगर दत्तकपुत्र वंश परम्पराओं को जीवित रखते थे तो पुत्रियों के शासन से विभाजक रेखायें क्यों खींची जाये? अत: यह इतिहासकारों की बहस का विषय होगा कि प्रतापरुद्र एवं अन्नमदेव काकतीय थे अथवा चालुक्य; एक लेखक के तौर पर मुझे काकतीय ही इस राजवंश की अधिक सटीक पहचान लगती है। प्रतापरुद्र (1290 – 1324 ई.) ने दक्षिण के बड़े क्षेत्र को अपने आक्रामक सैन्य अभियान से वारंगल का हिस्सा बना लिया था। इन दिनों मुसलमान आक्रांताओं की गिद्धदृष्टि समृद्ध दक्षिण भारत पर थी। वारंगल पर लगातार हो रहे हमलों के बीच प्रतापरुद्र के छोटे भाई अन्नमदेव नें चक्रकोट्य का रुख किया जहाँ बिखरा हुआ नाग राजवंश आखिरी साँसे ले रहा था।

अन्नमदेव जब बस्तर की ओर बढ रहे होंगे तो बहुत सा मंथन उनका विमर्श बना होगा। अब तक वे दक्षिण भारत के उस राजवंश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जो समृद्ध था, शक्तिशाली था और इसी कारण से तुगलकों नें उन्हें रौंद दिया। हाथियों, घोड़ों व ऊंटों पर लाद कर वारंगल का खजाना दिल्ली ले जाया गया। कहते हैं कोहिनूर हीरा इसी लूट का हिस्सा था जिसे नुमाईश के बाद सुलतान को भेट किया गया। एक धनी राज्य क्या सुरक्षित नहीं हैं? इस दौर में प्रत्येक धनाड्य व शक्तिशाली साम्राज्यों पर मुसलमान आक्रांताओं की दृष्टि थी तथा अन्नम देव के बड़े भाई प्रतापरुद्र की सत्ता का वारंगल में पतन इन्ही कारणों से हुआ था। इतिहासकार नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव नें नाग-काकतीय संघर्ष की जो बानगी अपने आलेखों के द्वारा प्रस्तुत की है उससे बेहतर विवरण इस सम्बन्ध में किसी इतिहासकार नें प्रस्तुत नहीं किया है। उनके आलेखों (बस्तर एक अध्ययन; 1992) के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि अपनी बिखरी हुई शक्ति का संचय कर अन्नमदेव नें लगभग 1330 ई. के आसपास गोदावरी एवं इन्द्रावती नदियों के संगम पर भद्रकाली के निकट अपना पड़ाव डाला।

अन्नमदेव का विजय अभियान भोपालपट्टनम से आरंभ हुआ। अन-अपेक्षित आक्रमण से घबरा कर भोपालपट्टनम का राजा बिना लडे ही पलायन कर गया। नाहरसिंह पामभोई को अन्नमदेव नें यहाँ का सामंत नियुक्त किया तथा यहाँ से वे बीजापुर की ओर बढ गये; थोडे से ही संघर्ष के बाद यह क्षेत्र भी हथिया लिया गया। ठीक इसी समय अन्नमदेव के एक अन्य वफादार सामंत सन्यासी शाह नें महाराष्ट्र के अहेरी-सूरजगढ की ओर से चक्रकोटय के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया तथा कांडला पर्ती के नाग राजा को पराजित कर उसने पासेबाड़ा, फरसेगढ, गुदमा, तोयनार आदि गढ हथिया लिये। इसी सम्बन्ध में अतीत से एक रोचक कथा का उल्लेख प्राप्त होता है। संयासी शाह नें कांडला पर्ती के स्थान पर कुटरू को अपनी राजधानी के तौर पर चुना। कहते हैं कि विजयोपरांत वह एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहा था और वहाँ निरंतर किसी पक्षी का मोहक स्वर कुट-कुट-कुटरसुनाई पड़ रहा था। इस ध्वनि से संयासी शाह इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने विजित राज्य का नाम ही कुटरू रख दिया। संयासी शाह नें इन विजित क्षेत्रों को अन्नमदेव को समर्पित कर दिया। कहते हैं कि वारंगल में तुलगकों से मिली पराजय से हताश सामंत एक एक कर अन्नम देव से अपने सैनिकों-संसाधनो सहित इसी प्रकार मिलते रहे जिससे उनका विजय अभियान सफलताओं के साथ संचालित होता रहे। एसे ही कुछ सामंतो नें चेरला की ओर से बीजापुर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों कोतापल्ली, पामेड़, फोतकेल तथा गंगालूरपर अधिकार कर ये इलाके नाग राजाओं से हथिया लिये और इन्हें अपने नेता अन्नमदेव को समर्पित कर दिया। कोतापल्ली और पामेड़ में गोंड जाति के सामंत तथा फोतकेल में राउत जाति का सामंत नियुक्त कर प्रशासन को जनजातिगत प्रतिनिधित्व देने और किसी भी स्थिति मे जन-असंतोष न पनपने देने की वृत्ति सम्मिलित थी। दंतेवाडा के भी नाग राजाओं नें अल्पकालिक प्रतिरोध के पश्चात अन्नमदेव को अपना राजा मान लिया। इसके साथ ही गढमिरी कटेकल्याण तथा किलेपाल पर अधिकार हो गया। वहाँ के नाग शासकों को ही सामंत घोषित कर दिया गया। अन्नमदेव नें इन क्षेत्रों से पुन: किसी युद्ध की संभावना को टालने के लिये तेलंगा और हलबा जाति के सैनिक नियुक्त किये थे। यहाँ से विजय अभियान हमीरगढ पहुँचा; इस समय तक अन्नमदेव एक बडे क्षेत्र के शासित तथा समुचित रूप से शक्तिशाली हो गये थे। मौके की नज़ाकत को समझते हुए हमीरगढ के राजा रामचन्द्र देव नें तीरथगढ, चन्द्ररगिरि, मुण्डागढ, छिंदगढ तथा सुकमा के अपने मित्र राजाओं के साथ मिल कर अन्नमदेव का स्वागत किया व उनकी आधीनता स्वीकार कर ली। एसी स्थिति में किसी तरह की नयी व्यवस्था को थोपने की आवश्यकता नहीं रह गयी थी; तथापि अपने एक सम्बन्धी को सुकमा का सामंत नियुक्त कर सभी गढ यथावत रहने दिये गये। स्थान स्थान पर प्रबंधन को कसने की दृष्टि से इन क्षेत्रों में धुरवा जाति के सैनिकों की चौकियाँ स्थापित की गयीं। केशलूर के अंतर्गत एर्राकोट, पाराकोट, मठकोट, रैकोट और मुरुमगढ आते थे जिनपर अधिकार करने के लिये किसी युद्ध की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। माडपाडगढ तथा बागराउडगढ विजय अभियान के अगले हिस्से थे जिनपर अधिकार कर उन्हें कोरामी जाति के सरदारों को सौंप दिया गया। कोटपाड़ (वर्तमान ओडिशा में सम्मिलित) इलाके के लिये सैन्य अभियान चलाया गया तथा वहाँ के राजा विक्रमदेव को ही पराजय स्वीकार करने के पश्चात कुछ शर्तों के साथ सामंत का दर्जा दे दिया गया। छुटपुट संघर्ष तो पोड़ागढ, शालमीगढ, उमरकोट रायगढा में भी हुए किंतु अन्नमदेव के विजय अभियान को रोका जाना संभव नहीं हो सका था। अन्नमदेव के राज्य की उत्तरी सीमा पैरी नदी नें निर्धारित की इधर कांकेर के राजाओं से भी संधि हो गयी थी एवं उनसे अन्नमदेव को देव-डोंगरी परगना भेंट स्वरूप प्राप्त हुआ था। कांकेर से लगा दादरगढ इलाका भी बिना युद्ध के ही अन्नमदेव के राज्य विस्तार का हिस्सा बन गया। अब अन्नमदेव के लिये अपने अभियान को एक राज्य का स्वरूप देने का समय आ गया था। बडे-डोंगर को उन्होंने अपनी पहली राजधानी बनाया। यहाँ अन्नमदेव नें अपनी आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी का मंदिर बनवाया तथा राजधानी में 147 तालाब भी खुदवाये थे। इसी मंदिर के सम्मुख एक पत्थर पर बैठ कर अपना उन्होंने अपना विधिवत राजतिलक सम्पन्न करवाया। स्वाभाविक है कि इस समय उनके पास न राजमहल रहा होगा न ही सिंहासन। डोंगर के इसी पत्थर पर राजतिलक एक परम्परा बन गयी जिसका निर्वाह अंतिम शासक प्रवीर तक निरंतर होता रहा एवं इस प्रथा को पखनागादी कहा जाता था। अन्नमदेव के राज्य का नाम बस्तर प्रचलित हुआ।

राजतिलक के पश्चात भी अन्नमदेव का युद्धाभियान समाप्त नहीं हुआ था। उनकी शासन परिधि के भीतर अब भी अनेक नाग शासित क्षेत्र थे जिनमें से भ्रमरकोट तथा चक्रकोट शक्तिशाली सत्तायें थीं। भ्रमरकोट को हासिल करने में बड़ा युद्ध नहीं करना पडा अपितु शीघ्र ही इसके आधीन मरदापाल, मधोता, राजपुर, मांदला, मुण्डागढ, बोदरापाल, केशरपाल, कोटगढ, राजनगर, भेजरीपदर, भ्रामरकोट आदि पर अन्नमदेव का अधिकार हो गया। गढिया, धाराउर, करेकोट, गढ-चंदेला आदि चक्रकोट के आधीन क्षेत्र थे जिन पर नाग राजा हरिश्चंद देव का शासन था। भीषण युद्ध हुआ और प्रथम चरण में अन्नमदेव को पीछे हटना पड गया। बारसूर तथा किलेपाल से सैनिक सहायता मँगा कर पुन: धावा बोला गया जिसमें हरिश्चंददेव वीरगति को प्राप्त हुए एवं इसके साथ ही अन्नमदेव का सैनिक अभियान पूरा हो सका। इस तरह काकतीय/चालुक्य शासित बस्तर राज्य 1324 में अस्तित्व में आया। इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल के अनुसार (बस्तर के चालुक्य एवं गिरिजन, 2007) अन्नमदेव के राज्य में बारह जमींदारियाँ, अढ़तालीस गढ़, बारह मुकासा, बत्तीस चालकी और चौरासी परगने थे। जिन प्रमुख गढ़ों या किलों पर अधिकार कर बस्तर राज्य की स्थापना की गयी वो हैं - मांधोता, राजपुर, गढ़-बोदरा, करेकोट, गढ़-चन्देला, चितरकोट, धाराउर, गढ़िया, मुण्डागढ़, माड़पालगढ़, केसरपाल, राजनगर, चीतापुर, किलेपाल, केशलूर, पाराकोट, रेकोट, हमीरगढ़, तीरथगढ़, छिन्दगढ़, कटेकल्याण, गढ़मीरी, कुँआकोण्ड़ा, दंतेवाड़ा, बाल-सूर्य गढ़, भैरमगढ़, कुटरू, गंगालूर, कोटापल्ली, पामेंड, फोतकेल, भोपालपट्टनम, तारलागुड़ा, सुकमा, माकड़ी, उदयगढ़, चेरला, बंगरू, राकापल्ली, आलबाका, तारलागुड़ा, जगरगुण्ड़ा, उमरकोट, रायगड़ा, पोटगुड़ा, शालिनीगढ़, चुरचुंगागढ़, कोटपाड़.......।

सभी विवरणों को गंभीरता पूर्वक देखने पर यह महसूस होता है कि नाग युगीन बस्तर एक विभाजित सत्ताओं का केन्द्र था तथा आपसी मतभेद इतने अधिक व्यापक थे कि एक जुट हो कर आक्रांता से लडने का प्रयास ही नहीं किया गया। अन्नमदेव जिस दिशा में गये वहाँ की सत्ता जैसे झोली में आ गिरी। स्थानीय जनजातियों का भी कोई विरोध न होना यह स्पष्ट करता है कि शासक और जनता के बीच के संबंध मधुर नहीं थे। इसके साथ ही अन्नमदेव समझदारी के साथ अधिकृत क्षेत्रों पर वैसे सामंतो की ही नियुक्ति कर रहे थे जिनसे स्थानीय समर्थन बना रहे एवं युद्धकाल में नये मोर्चे न खुलें। यह वारंगल के शासकों का शासनानुभव था जिसके फलस्वरूप युद्ध और विजित क्षेत्रों में प्रशासन प्रबंधन साथ साथ किया जाता रहा। अन्नमदेव की दूरदर्शिता इस मायने में प्रसंशनीय कही जायेगी कि उन्होंने जहाँ तक संभव हुआ प्राचीन स्थापनाओं को मजबूत ही किया तथा स्थानीयता को उसी स्वरूप में मान्यता देने की कोशिश की। किसी क्रूर आक्रांता होने के स्थान पर वे सहिष्णु विजेता की छवि प्रस्तुत कर रहे थे तहाअधिकतम पुराने सामंतो अथवा जनजाति के सरदारों को ही प्रशासन में ओहदे प्रदान करते चल रहे थे। बस्तर का जो वर्तमान स्वरूप है उसे बहुत हद तक प्रशासन के नीचे आकार देने का श्रेय अन्नमदेव को ही जाता है।
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