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Channel: सफर - राजीव रंजन प्रसाद
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रिसेदेवी अब भी रूठी हुई हैं, मना लो माँ दंतेश्वरी

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आलेख दिनांक 2.04.2013 को सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में प्रकाशित

कांकेर से कुछ ही दूर छोटा सा ग्रामीण परिवेश है सिदेसर। नाम से स्पष्ट है कि सिद्धेश्वर का नाम कालांतर में बदल कर सिदेसर हो गया है। यहाँ ग्रामीणों की सहायता से मैं और भाई कमल शुक्ला प्राचीन शिव मंदिर के अवलोकनार्थ पहुँचे थे। इस स्थल से आगे बढते हुए हम एक अन्य गाँव रिसेवाडा पहुँचे। रिसेवाडा नाम के भी दो भाग है जो रिस अर्थात क्रोध तथा वाडा अर्थात ग्राम का अर्थ बोधक है। जैसे ही हम वाडा की बात करते हैं हमें नाग युगीन प्रशासनिक व्यवस्था का अवलोकन करना आवश्यक हो जाता है जहाँ उनकी सम्पूर्ण शासित भूमि राष्ट्र अथवा देश कोट (राज्य) कहलाती थी। कोट के प्रशासनिक विभाजन थे नाडु (संभाग) तथा नाडु के वाडि (जिला)। वाडि के अंतर्गत नागरिक बसाहट के आधार पर महानगर, पुर तथा ग्राम हुआ करते थे। यदि हम केवल ग्रामीण व्यवस्था को ही बारीकी से समझने की कोशिश करें तो उसके भी दो प्रमुख प्रकार थे वाड़ा तथा नाड़ुया (नार)। समझने की दृष्टि से वाडा तथा नार का प्रमुख अंतर बसाहट के तरीकों में अंतर्निहित था। एसे सुनियोजित गाँव जहाँ घर पंक्तिबद्ध रूप में अवस्थित हों उन्हें वाडाकहा जाता था जबकि अव्यवस्थित बसाहट वाले गाँव नाग युग में नारकहलाते थे। बस्तर के नगरों गाँवों में कई गमावाडा अथवा नकुलनार जैसे नाम आज भी नागयुगीन प्रशासनिक व्यवस्था की स्मृतियाँ हैं। इसी प्रकाश में पुन: बात रिसेवाडा की।

रिसेवाडा निश्चित ही एक समय में सुनियोजित रूप से बसा ग्रामीण क्षेत्र रहा होगा जिसके बहुत ही निकट सिद्धेश्वर मंदिर की अपनी ख्याति रही होगी। सिद्धेश्वर मंदिर के पास से हमें एक बडा सा थानप्राप्त हुआ है जिसका आकार ही बताता है कि इससे बडी मात्रा में औषधि का निर्माण होता रहा होगा। यह पूरा क्षेत्र कई प्रकार की औषधि पादपों से पटा पडा है। पूरे रास्ते हमारे मार्गदर्शक ग्रामीण नें कई तरह के औषधि पादपों से हमारा परिचय भी कराया। मैं इन कडियों को जोड़ता हूँ तो लगता है कि इस प्राचीन सिद्ध क्षेत्र का महत्व ही पीडितों की व्याधि हरने के कारण रहा होगा तथा यहाँ न केवल धार्मिक कर्मकाण्ड, तांत्रिक विधियाँ ही पूरी जी जाती रही हैं जैसा कि सिद्धेश्वर मंदिर के सम्मुख माँ काली की प्रतिमा, भरवी की युद्ध मुद्रा में प्रतिमा आदि से ज्ञात होता है साथ ही यहाँ एक प्राचीन औषधालय भी रहा निश्चित रूप से रहा होगा। रिसेवाडा अब एक उपेक्षित गाँव है। सारे रास्ते ग्रामीण भीतरी स्थलों के लिये सड़क की आवश्यकता पर चर्चा करते रहे। दूर दूर तक जंगल और मध्यवर्ती क्षेत्रों में खेतिहर भूमि की लम्बी कतारें इसके साथ ही चारो ओर खिले मुस्कुराते भांति भांति के जंगली फूल यहाँ तक उबड-खाबड रास्ते से पहुँचने की सारी थकान को रह रह कर हवा कर देते थे।

एक प्राकृतिक गुफा के निकट पहुँच कर ग्रामीण नें बताया कि यह रिसेदेवी का स्थान है। यह तो समझ में आ गया कि रिसेवाडा और रिसेदेवी का आपस में क्या संबंध है तथापि जिज्ञासा बढ गयी थी। एक पहाडी नुमा स्थान जिसमे एक विशाल पत्थर को प्रकृति नें इस तरह लिटा दिया है कि उसके नीचे गुफानुमा संरचना बन गयी है। ग्रामीण नें बताया कि भीतर रिसेदेवी का निवास है। वस्तुत: रिसे देवी दंतेवाड़ा में अवस्थित माँ दंतेश्वरी की छोटी बहन हैं। दोनो बहनों में किसी बात पर झगडा हो गया और छोती बहन रूठ कर यहाँ चली आयी हैं। इसी लिये देवी का नाम रिसेदेवी हो गया। मुझे जनजातीय समाज के एसे देवी देवता भावुक कर देते हैं जो बिलकुल हमारे जैसे हैं। हमारी तरह झगडते हैं, रूठते हैं, मनाते हैं। ये देवी देवता आसमान पर नहीं उडते बल्कि जमीन के हैं....जमीन से जुडे। रिसेदेवी की गुफा में प्रवेश करने के पश्चात मुझे वहाँ एक छोटी की पाषाण प्रतिमा....नहीं प्रतिमा नहीं कहूँगा क्योंकि किसी तरह का मानुषिक आकार मैं तलाश नहीं सका तथापि बहुत सारे तिलक भभूत से लिप्त इस प्रस्तराकृति को ही रिसेदेवी का प्रतीक माना गया होगा यही समझ सका। आसपास मिट्टी के घोडे, दीपक तथा अनेको कुम्हार निर्मित आकृतियाँ। किसी तरह का कोई ताम-झाम नहीं कोई पाखण्ड नहीं। एक अत्यंत मनोरम स्थल जहाँ पहुँच कर स्वत: आपके भीतर की प्रवित्रतम भावनायें उभर आयेंगी और स्वत: आपको अपूर्व शांति का अनुभव होगा। यहाँ चमक दमक नहीं है, यहाँ पुजारी पंडे नहीं हैं, यहाँ कोई भव्य इमारत या चमचमाती प्रतिमा नहीं है। यहाँ महसूस होता है इतिहास; यहाँ महसूस होता है अपना पिछडा जा रहा वर्तमान और यहाँ मुझमे एक कोमल अनुभूति भी प्रार्थना कर उठती है कि रिसेदेवी अब भी रूठी हुई हैं मना लो माँ दंतेश्वरी।

वीरांगना चमेली बावी: एक अविस्मरणीय समर गाथा

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सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में दिनांक 9.04.2013 को प्रकाशित

रात बहुत हो चुकी थी लेकिन अन्नमदेव अभी सोये नहीं थे। उनकी आँखों के आगे रह रह कर उस वीरांगना की छवि उभर रही थी जिसनें आज के युद्ध का स्वयं नेतृत्व किया। नीले रंग का उत्तरीयांचल पहने हुए वह वीरांगना शरीर पर सभी युद्ध-आभूषण कसे हुए थी जिसमें भारी भरकम कवच एवं वह लौह मुकुट भी सम्मिलित था जिसमें शत्रु के तलवारों के प्रहार से बचने के लिये लोहे की ही अनेकों कडिया कंधे तक झूल रही थीं। वीरांगना नें अपने केश खुले छोड दिये थे तथा उसकी प्रत्येक हुंकार दर्शा रही थी जैसे साक्षात महाकाली ही युद्ध के मैदान में आज उपस्थित हुई हैं। अन्नमदेव हतप्रभ थे; वे तो आज ही अपनी विजय तय मान कर चल रहे थे फिर यह कैसा सुन्दर व्यवधान? उन्हें बताया गया था कि यह राजकन्या चमेली बावी है जो नाग राजा हरीश्चंद देव की पुत्री है। अन्नमदेव पुन: उस दृश्य को आँखों के आगे सजीव करने लगे जब युद्धक्षेत्र में राजकुमारी चमेली बावी अपनी दो अन्य सहयोगिनियों झालरमती नायकीन तथा घोघिया नायिका के साथ काकतीय सेना पर टूट पडी थीं। इतना सुव्यवस्थित युद्ध संचालन कि अपनी विजय को तय मान चुकी सेना घंटे भर के संघर्ष में ही तितर-बितर हो गयी और स्वयं अन्नमदेव पराजित तथा सैनिक सहायता के लिये प्रतीक्षारत तम्बू में ठहरे हुए यह प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब बारसूर और किलेपाल से उनके सरदार अपनी अपनी सैन्य टुकडियों के साथ पहुँचे और पुन: एक जबरदस्त हमला चक्रकोटय के अंतिम नाग दुर्ग पर किया जा सके।

अगले दिन की सुबह का समय और विचित्र स्थिति थी। आक्रांता सेना अपने तम्बुओं में सिमटी हुई थी जबकि वीरांगना चमेली बावी अपने शस्त्र चमकाते हुए अपनी सेना के साथ आर या पार के संघर्ष के लिये आतुर दिख रही थी। वह अन्नमदेव जिसने अब तक गोदावरी से महानदी तक का अधिकांश भाग जीत लिया था एक वृक्ष की आड से मंत्रमुग्ध इस राजकन्या को देख रहा था। चक्रकोट्य में आश्चर्य की स्थिति निर्मित हो गयी चूंकि इस तरह काकतीय पलायन कर जायेगे सोचा नहीं जा सकता था। तभी एक घुडसवार सफेद ध्वज बुलंद किये तेजी से आता दिखाई दिया। उसे किले के मुख्यद्वार पर ही रोक लिया गया। यह दूत था जो कि अन्नमदेव के एक पत्र के साथ राजा हरिश्चन्द देव से मिलना चाहता था। राजा घायल थे अत: दूत को उनके विश्रामकक्ष में ही उपस्थित किया गया। चूंकि सेना का नेतृत्व स्वयं चमेली बावी कर रही थी अत: वे भी अपनी सहायिकाओं के साथ महल के भीतर आ गयी।

बाहर अन्नमदेव के दिन की धड़कने बढी हुई थीं। वे प्रेम-पाश में बँध गये थे। सारी रात हाँथ में तलवार चमकाती हुई चमेली बावी का वह आक्रामक-मोहक स्वरूप सामने आता रहा और वे बेचैन हो उठते। यह युवति ही उनकी नायिका होने के योग्य है....। केवल रूप ही क्यों वीरता एसी अप्रतिम कि जिस ओर तलवार लिये उनका अश्व बढ जाता मानो रक्त की होली खेली जा रही होती। राजकुमारी चमेली नें कई बार अन्नमदेव की ओर बढने का प्रयास भी किया था किंतु काकतीय सरदारों नें इसे विफल बना दिया। तथापि एक अवसर पर वे अन्नमदेव के अत्यधिक निकट पहुँच गयी थी। अन्नमदेव नें तलवार का वार रोकते हुए वीरांगना की आँखों में प्रसंशा भाव से क्या देखा कि बस उसी के हो कर रह गये। काजल लगी हुई जो बडी-बडी आखें आग्नेय हो गयी थीं वे अब बहुत देर तक अपलक ही रह गये अन्नमदेव की आखों का स्वप्न बन गयी थी।

महाराज! दूत आने की आज्ञा चाहता है।द्वारपाल नें तेलुगू में तेज स्वर से उद्घोषणा की। अन्नमदेव के शिविर से दूत को भीतर भेजने का ध्वनि संकेत दिया गया। अन्नमदेव आश्वस्त थे कि वे जो चाहते हैं वही होगा। हरिश्चंददेव के अधिकार मे केवल गढिया, धाराउर, करेकोट और गढचन्देला के इलाके ही रह गये थे; यह अवश्य था कि भ्रामरकोट मण्डल के जिनमें मरदापाल, मंधोता, राजपुर, मांदला, मुण्डागढ, बोदरापाल, केशरपाल, कोटगढ, राजगढ, भेजरीपदर आदि क्षेत्र सम्मिलित हैं; से कई पराजित नाग सरदार अपनी शेष सन्य क्षमताओं के साथ हरीश्चंद देव से मिल गये थे तथापि अब बराबरी की क्षमताओं का युद्ध नहीं रह गया था।

क्यों मौन हो पत्रवाहक?” अन्नमदेव नें बेचैनी से कहा। वे अपने मन का उत्तर सुनना चाहते थे आखिर प्रस्ताव ही मनमोहक बना कर भेजा गया था। हरिश्चंददेव से संधि की आकांक्षा के साथ अन्नमदेव नें कहलवाया था कि बस्तर राज्य की सीमा चक्रकोट से पहले ही समाप्त हो जायेगी तथा आपको काकतीय शासकों की ओर से हमेशा अभय प्राप्त होगा। चक्रकोट पर हुए किसी भी आक्रमण की स्थिति में भी आपको बस्तर राज्य से सहायता प्रदान की जायेगी.....राजा हरिश्चंददेव के साथ संधि की केवल एक शर्त है कि वे अपनी पुत्री राजकुमारी चमेली बावी का विवाह हमारे साथ करने के लिये सहमत हो जायें

क्या कहा राजा हरिश्चंद नें?” अन्नमदेव नें इस बार स्वर को उँचा कर बेचैन होते हुए पूछा।
जी राजा नें कहा कि अपनी बेटी के बदले उन्हें किसी राज्य की या जीवन की कामना नहीं है। पत्रवाहक नें दबे स्वर में कहा।

और कोई विशेष बात?” अन्नमदेव आवाक थे।

जी राजकुमारी नें अभद्रता का व्यवहार किया।

क्या कहा उन्होंने?”

“.....उन्होंने कहा कि स्त्री को संधि की वस्तु समझने वाले अन्नमदेव का विवाह प्रस्ताव मैं ठुकराती हूँ

ओहअन्नमदेव के केवल इतना ही कहा और मौन हो गये। यह तो एक कपोत का बाज को ललकारने भरा स्वर था; नागराजा का इतना दुस्साहस कि जली हुई रस्सी के बल पर अकड रहा है? “....और यह राजकुमारी स्वयं को आखिर क्या समझती हैं? अब आक्रमण होगा। विजय के चिन्ह स्वरूप बलात हरण किया जायेगा और मैं उस मृगनयनी-खड़्गधारिणी से विवाह करूंगा। अन्नमदेव की भँवे तनने लगीं थी।

सुबह होते ही युद्ध की दुंदुभि बजने लगी। दोनों ओर की सेनायें सुसजित खडी थीं। हरिश्चंददेव घायल होने के बाद भी अपने हाथी पर बैठ कर धनुष थामे अपने साथियों सैनिको का उत्साह बढा रहे थे। चमेली बावी नें सीधे उस सैन्यदल पर धावा बोलने का निश्चिय किया था किस ओर आक्रांता अन्नमदेव होंगे। यद्यपि आक्रांताओं नें भी भीषण तैयारी कर रखी थी। हरिश्चंद देव की कुल सैन्य क्षमता से कई गुना अधिक सैनिकों नें बारसूर, किलापाल और करंजकोट की ओर से चक्रकोट्य को चेर लिया था। भीषण संग्राम हुआ; नाग आहूतियाँ देते रहे और अन्नमदेव बेचैनी के साथ युद्ध के परिणाम तक पहुँचने की प्रतीक्षा करता रहा। आज कई बार आमने सामने के युद्ध में चमेली बावी नें उसे अपने तलवार चालन कौशल का परिचय दिया था। एसी प्रत्येक घटना अन्नमदेव के भीतर राजकुमारी चमेली के प्रति उसकी आसक्ति को बलवति करती जा रही थी। नहीं; अब युद्ध अधिक नहीं खीचा जाना चाहिये....अन्नमदेव अचूक धनुर्धर थे। धनुष मँगवाया गया तथा अब उन्होंने हरिश्चंददेव को निशाना बनाना आरंभ कर दिया। वाणों के आदान-प्रदान का दौर कुछ देर चला। तभी एक प्राणघातक वाण हरिश्चंद देव की छाती में आ धँसा। अन्नमदेव नें अब कि उस महावत को भी निशाना बनाया जो हरिश्चंद देव का हाथी युद्ध भूमि से लौटाने की कोशिश कर रहा था। नाग सेनाओं में हताशा और भगदड मच गयी। राजकुमारी नें स्थिति का अवलोकन किया और उन्हें पीछे हट कर नयी रणनीति बनाने के लिये बाध्य होना पड़ा। आनन फानन में राजकुमारी चमेली का तिलक कर उन्हें चक्रकोटय जी शासिका घोषित कर दिया गया यद्यपि इस समय केवल गिनती के सैनिक ही जयघोष करने के लिये शेष रह गये थे। बाहर युद्ध जारी था तथा अनेको वीर नाग सरदार अपनी नयी रानी तक अन्नमदेव की पहुँच को असंभव किये हुए थे। अपनी मनोकामना की पूर्ति में इस विलम्ब से कुपित अन्नमदेव नाग नें नाग सरदारो के पीछे अपने सैनिकों के कई कई जत्थे छोड़ दिये। भगदड मच गयी और अनेक सरदार व नाग सैनिक अबूझमाड़ की ओर खदेड दिये गये।

अब अन्नमदेव की विजयश्री का क्षण था। पत्थर निर्मित किले की पहले ही ढहा दी गयी दीवार से भीतर वे सज-धज कर तथा हाथी में बैठ कर प्रविष्ठ हुए। चारो ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। नगरवासी मौन आँखों से अपने नये शासक को देख रहे थे। सैनिक तेजी से आगे बढते हुए एक एक भवन और प्रतिष्ठान पर कब्जा करते जा रहे थे। राजकुमारी को गिरफ्तार कर प्रस्तुत करने के लिये एक दल को आगे भेजा गया था। अन्नमदेव चाहते थे कि राजकन्या का दर्पदमन किया जाये और तब वे उसके साथ सबके सम्मुख इसी समय विवाह करें।

क्या हुआ सामंत शाह, लौट आये?...कहाँ हैं राजकुमारी चमेली?”

“.....”

सबको साँप क्यों सूंघ गया है?क्या हुआ?” अन्नमदेव नें अपने सरदार सामंत शाह और उसके साथी सैनिकों के चेहरे के मनोभावों को पढने की कोशिश करते हुए कहा। 

“...जौहर राजा साहब। राजकुमारी अपनी दोनो मुख्य सहेलियों झालरमती और घोगिया के साथ मेरे सामने ही आग में कूद पडी और अपने प्राण दे दिये

तो तुमने बचाने की कोशिश नहीं की.....।बेचैनी में शब्दों नें अन्नमदेव का साथ छोड दिया था।

“...राजकुमारी आग में प्रवेश करने से पहले शांत थी, वे मुस्कुरा रही थीं। उन्होंने मुझे सम्बोधित किया और कहा कि मैं जा कर अपने राजा से कह दूं कि आक्रमणकारी बल से किसी की जमीन तो हथिया सकते हैं लेकिन मन और प्रेम हथियारों से हासिल नहीं होते....।

हाथी अब उस ओर मोड दिया गया जिस ओर से धुँआ उठ रहा था। राजा की नम आँखे कोई नहीं देख सका। एसी पराजय की कल्पना भी अन्नमदेव ने नहीं की थी।

अन्नमदेव एक किंवदंतियाँ अनेक

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दिनांक 23.04.2013 को सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में प्रकाशित 

यह समझने की कोशिश करनी चाहिये कि अन्नमदेव की उस व्यापक युद्ध विजय का क्या रहस्य था जिसमे वे प्रत्येक चरण पर सफलता का ध्वज बुलन्द करते जा रहे थे। भोपालपट्टनम में इन्द्रावती तथा गोदावरी नदी के पावन संगम पर अपना युद्धाभियान आरंभ करने से पूर्व अन्नमदेव के द्वारा शिव पूजा किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है जिसके पश्चात उसका विजय अभियान चक्रकोट मे अंतिम रूप से छिन्दक नाग राजा हरिश्चंददेव को पराजित किये जाने तक जारी रहता है। इतने शांतिपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन का उदाहरण भारतीय इतिहास में तलाश करने से भी नहीं मिलेगा जहाँ धीरे धीरे आक्रांता ही प्रजाप्रिय होता गया और छ: सौ सालों से शासक रहे नाग सत्ताच्युत हो कर स्थानीय जनजातियों के भीतर ही अपने अस्तित्व को घुला बैठे। अन्नमदेव के पास वारंगल जैसे बडे राज्य के अधिपति का भाई होने के कारण वृहद प्रशासकीय अनुभव होना स्वाभाविक था जिसका कि लम्बे समय से विकेन्द्रित होते जा रहे छिन्दक नागों में अभाव होने लगा था। अन्नमदेव पतन देख कर आ रहे थे अत: पतनोमुख नागों की मनोवृति तथा अनेकता के दुष्परिणामों से भी वे वाकिफ थे।

क्या आरंभ से ही उन्होंने बस्तर की आत्मा को समझने का प्रयास किया था? देखा जाये तो एक केन्द्रीय सत्ता की स्थापना 1324 ई के लगभग हो जाती है लेकिन नाग शासकों द्वारा चले आ रहे सामंतवादी ढाँचे से आरंभ में बहुत ही कम छेड छाड की गयी। बस्तर राज वंशावली (अप्रकाशित; रिकॉर्ड रूम जगदलपुर; लोकनाथ ठाकुर 1853) के अनुसार अन्नमदेव के वे अस्त्र-शस्त्र दिव्य थे जिससे उसने बस्तर राज्य पर विजय पायी तथा राजा को दिल्लीश्वरी, भुवनेश्वरी, मणिकेश्वरी तथा दंतेश्वरी देवियों का आशीष प्राप्त था – “दिल्लीश्वरी श्री भुवनेश्वरी च, मणुक्यदेवी शुभदंतिकेश्वरी। बाणं त्रिशूलं त्वथ शक्तिखड़्गे, क्रमेण देव्या: प्रददुनृरपाय। युद्ध में पराजित होने वाले राजाओं के साथ कठोर व्यवहार का उल्लेख किसी इतिहासकार ने नहीं किया है अपितु सत्ता परिवर्तन के दौर में अधिकतम या तो स्वत: पलायन कर गये अथवा संधि के मार्ग पर चल निकले या कि आत्मसमर्पण कर दिया। अन्नमदेव नें व्यवस्था बनाने रखने के लिये स्थान स्थान पर तेलगा और हलबा जाति के सैनिकों की चौकियाँ स्थापित की एवं मध्यवर्ती क्षेत्रों की जमीनदारी अपने विश्वासपात्रों को ही प्रदान की जैसे नाहर सिंह पामभोई को उन्होंने भोपालपट्टनम का जमीन्दार बनाया तो कुटरू की जमीन्दारी सामंत शाह को प्रदान की। एसे कुछ उदाहरणों के अतिरिक्त अन्नमदेव नें स्थानीयता का बेहद गहरे जा कर सम्मान किया तथा यहाँ की परम्पराओं के भीतर ही स्वयं को प्रतिस्थापित करने की कोशिश की। यही कारण है कि उनकी प्रसंशा में जो कुछ अतीत में लिखा जाता रहा वह उन्हें अद्भुत सिद्ध करता है।

स्वयं को सर्व-मान्य बनाने के लिये अन्नमदेव नें न केवल जनजातीय संतुलन को ध्यान में रखा अपितु अनेक धार्मिक मान्यताओं को राजकीय बना दिया। यह जानबूझ कर हुआ अथवा उनकी अविश्वसनीय विजय के फलस्वरूप हुआ किंतु वे स्वयं भी उन मिथकों का हिस्सा बन गये तो आज भी जनश्रुतियाँ है। वस्तुत: मणिकेश्वरी देवी तथा दंतेश्वरी देवी को ले कर इतिहासकारों में भ्रम की स्थिति आज भी है। डॉ. हीरालाल शुक्ल अपनी पुस्तक बस्तर के चालुक्य और गिरिजन में लिखते हैं कि कुछ लोगों का कहना है कि दंतेश्वरी की प्रतिमा दंतेवाड़ा में पहले से ही स्थापित थी तथा अन्नमदेव मणिकेश्वरी को वारंगल से ले कर आया था ( रसेल, 1908; दिब्रेट 1909)। स्मरणीय है कि नागवंशीय नरेशों की ईष्टदेवी भी मणिकेश्वरी थीं। एसा अनुमान किया जा सकता है कि कालांतर में मणिकेश्वरी देवी ही दंतेश्वरी नाम से परिणत हो गयीं।इसी बात को लाला जगदलुरी भाषा साम्यता से जोडते हुए आगे बढाते हैं। लाला जगदलपुरी लिखते हैं अन्नमदेव जब चक्रकोट की सीमा में प्रविष्ट हुए थे, तब उन दिनों छिन्दक नागवंशी राजाओं का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया था। अंतिम नागवंशी नदेश हरिश्चंद देव को अन्नमदेव ने पराजित किया और बीजापुर, भैरमगढ तथा बारसूर पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया। थोडे समय तक बारसूर मे रह कर दंतेवाडा की ओर चल पड़े। दंतेवाड़ा में अन्नमदेव ने कुछ समय तक अपनी राजधानी चलाई। दंतेवाड़ा को उन दिनो तारलागुडा कहते थे। बारसूर की प्राचीन दंतेश्वरी गुडी को नागो के समय पेदाअम्मागुडी कहा करते थे। तेलुगू में बडी माँ को पेदाअम्मा कहा जाता है। तेलुगु भाषा नागवंशी नरेशों की मातृभाषा थी। वे दक्षिण भारतीय थे। बारसूर की पेदाअम्मागुडी से अन्नमदेव ने पेदाअम्मा को दंतेवाड़ा ले जा कर मंदिर में स्थापित कर दिया। तारलागुड़ा में जब देवी दन्तावला अपने मंदिर में स्थापित हो गयी तब तारलागुडा का नाम बदल कर दंतावाड़ा हो गया। उसे लोग दंतेवाडा भी कहने लगे” (बस्तर- लोक कला संस्कृति प्रसंग; लाला जगदलपुरी; 2003)

यद्यपि दंतेश्वरी देवी के मिथकों का अन्नमदेव के विजय अभियान के साथ जुडा होना एतिहासिक तथ्यों को किसी अंतिम निष्कर्श पर नहीं पहुँचने देता कि वास्तव में दंतेश्वरी देवी वारंगल से बस्तर लायी गयीं अथवा वे मणिकेश्वरी देवी का ही बदला हुआ स्वरूप है अथवा मे बस्तर में पहले से ही स्थापित रही कोई देवी हैं जिसे अन्नमदेव नें अपने विजय अभियान के साथ जोड कर स्वयं को इसी धरती का प्रतिनिधि बनाने की सफल कोशिश की। इस सम्बन्ध में एक ज्ञात विवरण है कि उस समय दंतेश्वरी माई नें उन्हें एक उत्तम वस्त्र दिया और आशीर्वाद दिया कि इस वस्त्र को पहनने से तू विजयी होगा।....इसी वस्त्र से मालूम होता है राज्य का नाम बस्तर पड़ा हो” (बस्तर भूषण, केदार नाथ ठाकुर; 1908)। इसी बात को अपने शब्दों में अंतिम काकतीय नरेश प्रवीर चन्द्र भंजदेव नें भी शब्द दिये हैं – “अन्नमदेव अपने बचपन में प्रतिदिन कागज में कुछ लिख कर देवी दंतेश्वरी को चढाते थे। देवी नें प्रसन्न हो कर उन्हें कोई वर माँगने को कहा। अन्नमदेव ने अपने पिता से पूछ कर देवी से राज्य की याचना की। देवी ने कहा राजा आगे आगे चले और देवी पीछे पीछे। राजा जहाँ तक पीछे मुड़ कर नहीं देखेगा, उसका राज्य वहाँ तक विस्तृत होगा। राजा आगे बढता गया किंतु पैरी नदी की रेत मे देवी के पैर धँस जाने पर पायल की आवाज़ रुक गयी। कौतूहलवश राजा ने पीछे मुड़ कर देख लिया (राजिम के निकट)। अत: राजा के राज्य की सीमा वहीं समाप्त हो गयी” (लौहण्डीगुड़ा तरंगिणी; प्रवीर चन्द्र भंजदेव; 1963)

वस्तुत: जनजीवन को उसकी नब्ज के साथ ही थामा जा सकता है इस दृष्टि से अन्नमदेव आक्रांता हो कर भी नायक बन गये। वारंगल से आ कर सत्ता स्थापित करने के बाद भी अन्नमदेव को आक्रांता की दृष्टि से कम और एक देवी-उपासक के रूप में अधिक देखा गया। उनकी विजय को स्वाभाविक मान लिया गया क्योंकि यही प्रचारित था कि विजय तो देवी की कृपा से प्राप्त हुई है तथा जहाँ जहाँ तक देवी के वस्त्र को फैलना अथवा बिना पीछे मुडे राजा को चलना था वहाँ तक स्वत: अन्नमदेव का अधिकार हो ही जाना था। जन श्रुतियों, जन परम्पराओं तथा लोक कथाओं का हिस्सा बनते बनते अन्नमदेव आसानी से एक जननायक बन गये जिसने बस्तर के इतिहास को एक नया आकार प्रदान किया। उपसंहार में एक लोकगीत (डॉ. हीरालाल शुक्ल की कृति बस्तर के चालुक्य और गिरिजन में संकलित) जिसका संबंध बस्तर के प्रथम काकतीय नरेश अन्नमदेव से है तथा जिसे आज भी दशहरा पर्व के अवसर पर सुना जा सकता है -

वरंगा हस्तना ले उतरै महाराज
मंधोता में डेरा लिहिन आज
हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

आधा गढ, मंधोता, टीकागढ, डोंगर
छलेगढ, कोटपाड़, गुरुघर, माझीपाल
किलाघर बस्तर तुम्हार
हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

गुड़ी दरबारा एबे बैठे महाराज
रंगीन के माहला लागै
आज होरे दरबार लागै
आज हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

नेगी असा बैठे, जोगी असा बैठे
बैठे सैदार बैदार वहाँ
बैठे नेगी कपडदार
हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

यह गीत केवल अन्नमदेव के विजय की ही गाथा प्रस्तुत नहीं करता अपितु बाद में स्थापित राजकीय व्यवस्था और सामाजिक ताने बाने को अपने साथ जोडने की अन्नमदेव की वृत्ति को भी अपनी अंतिम पंक्तियों में प्रस्तुत करता है। किंवदंतिया केवल पढ कर भूल जाने के लिये नहीं होती अपितु अन्नमदेव के उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि इनका प्रयोग किसी राजनीति को भी सफल कर सकता है, कोई इतना गहरे जुडे तो।

पुरुषोत्तमदेव, रथयात्रा तथा बस्तर का समाजशास्त्र

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जनजातीय विकास के विभिन्न चरणों को वहाँ की राजनीति के क्रमबद्ध अध्ययन के बिना समझना कठिन प्रतीत होता है। जैसे बस्तर में अपने समय के साम्राज्यवादी शासकों की छाया पड़ी, धार्मिक आन्दोलनों का असर हुआ वैसे ही हर शासन व्यवस्था के उत्थान और पतन के साथ जनजातिगत समीकरणों में भी नई युतियाँ अथवा नव-समावेश देखे गये। यहाँ तक कि जब एक नया शासक वर्ग उदित हुआ तो दूसरे शासक वर्ग के वंशजो ने वनों के भीतर पलायन कर स्वयं को सुरक्षित करना उचित समझा। निश्चित ही यह प्रक्रिया नये तरीके के सांस्कृतिक समन्वयों को गढ़ती रही तथा नवीन परम्पराओं का भी समुद्भव होता रहा। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी किंतु राजा पुरुषोत्तम देव के शासन काल में बस्तर में नये सामाजिक समीकरण बने। इस संदर्भ को समझने के लिये काकतीय/चालुक्य नरेश पुरुषोत्तमदेव के शासन काल की कुछ प्रमुख विशेषताओं का अवलोकन किया जाना आवश्यक है। पुरुषोत्तमदेव के पूर्ववर्ती शासक भैरवदेव (1410-1468) के शासन काल के सम्बन्ध में ओड़िशा की प्राचीन साहित्यिक कृतियों में उल्लेख मिलता है कि उनके पिता हमीर देव (1369-1410) को पाटणा की सत्ता से युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई। भैरवदेव पर निश्चित ही पाटणा नरेश का दामाद होने के पश्चात भी गंग शासकों का दबाव बना रहा होगा। यद्यपि बस्तर में उपलब्ध राजवंशावलियाँ ओड़िशा के इस दावे को पुख्ता नहीं करती। यहाँ उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार भैरमदेव का शासनकाल यद्यपि उथल-पुथल भरा रहा किंतु यह गंग शासकों का उपनिवेश हर्गिज नहीं था। भैरवदेव की दो रानियाँ थीं मेघई अरिचकेलिन तथा जानकी कुँवर। रानी मेघई शिकार की शौकीन थीं। उनकी कालबान नाम की बंदूख देखने योग्य है। इसे दो व्यक्ति मिल कर भी उठाने की क्षमता नहीं रखते हैं। मेघई अरिचकेलिन एक वीरांगना थी जिन्होंने स्वयं नाग सरदारों के विद्रोह का दमन कर बस्तर शासन को स्थायित्व व शांति प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रो. वल्र्यानी तथा साहसी ने अपनी पुस्तक बस्तर का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहासमें लिखा है कि भैराजदेव नाम मात्र के शासक थे। उनके शासन का संचालन मेघावती द्वारा किया जाता था। रानी मेघावती (मेघई अरिचकेलिन) के शिकार की कथायें सदियों से चित्रकोट अंकल में प्रसिद्ध हैं। आगे चल कर रानी मेघावती की कालवान बंदूख को दशहरा अवसर पर अस्त्र-शस्त्र पूजा में सम्मिलित किया गया। कालवान बन्दूख की नली इस समय बची हुई है। यह भी माना जाता है कि एक समय प्रचलित चित्रकोट के मंधोता में गाड़ी में बैठ कर शिकार खेलने की परम्परा की जनक रानी मेघई अरिचकेलिन ही थीं। यही नहीं माना जाता है कि दंतेवाड़ा मंदिर की मेघी साड़ीभी मेघई रानी ने ही देवी को अर्पित की थी। इतनी विवेचना के पश्चात यह लिखना उचित ही होगा कि मेघई रानी वस्तुत: कोषकुण्ड (वर्तमान कुआकोण्डा) के महामेघवंशी जमीन्दार की पुत्री रही हैं। यदि बस्तर को चौहानो अथवा गंगो का उपनिवेश न भी स्वीकार किया जाये तब भी यह मानना ही होगा कि भैरवदेव का समय नाग-विद्रोहों के दमन का गंगो-चौहानों के दबावों से भरा तथा यदा-कदा रेड्डियों के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा है। आर सुब्रमण्यम ने दि सूर्यवंशी गजपतिज ऑफ ओड़िशामें जिक्र किया है कि ओड़िशा के गजपति राजा कपिलेन्द्र (1435-1468 ई) से भैरवदेव का इन्द्रावती तथा गोदावरी के मध्य की उर्वरा भूमि पर स्वामित्व को ले कर संघर्ष हुआ जिसमें राजा भैरवदेव मारे गये। यह सूत्र भी बस्तर वंशावली गाथाओं से पुष्ट नहीं होता।

भैरवदेव के बाद बस्तर पर शासन करने वाले चौथे राजा हुए - पुरुषोत्तम देव (14681534 ई.)। राजा ने रायपुर के कलचुरी शासकों पर चढ़ाई कर दी। दुर्भाग्यवश पराजित हो गये। इधर बस्तर सेना ने रायपुर पर आक्रमण किया, उधर कलचुरी राजा ब्रम्हदेव ने रतनपुर रियासत से सहायता माँगी। रतनपुर के राजा जगन्नाथ सिंह ने सेना भेज दी। संयुक्त सेनाओं ने चौतरफा आक्रमण किया। भगदड़ मच गयी। राजा पुरुषोत्तम देव अपने हाथी को युद्धभूमि से भगा ले गये। कलचुरियों की सेना पीछे लगी हुई थी। इससे पहले कि पुरुषोत्तम देव शत्रु सैनिकों द्वारा पकड़े जाते, एक सेनापति ने अपने वस्त्र राजा को पहना दिये। राजा उस सेनापति के घोड़े पर सवार बस्तरकी ओर भाग निकले। इतिहासकार डॉ. के के झा बताते हैं कि प्रतिवर्ष सम्पन्न बस्तर दशहरा में रथ के उपर खड़े हो कर एक व्यक्ति द्वारा वस्त्र खण्ड को लगातार हाँथ से दूर करने तथा समेटने की जो क्रिया सम्पन्न की जाती है वह इसी घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये है। यहाँ यह भी जोड़ना आवश्यक होगा कि पुरुषोत्तम देव के पलायन के पश्चात भी कलचुरियों ने पलट कर बस्तर भूमि पर आक्रमण नहीं किया। जिससे यह सिद्ध होता है कि भले ही विजय अभियान असफल हो गया हो तथापि पुरुषोत्तम देव शक्तिशाली शासक थे। उनके शासनकाल में ही राजधानी को मंधोता से हटा कर बस्तर लाया गया था। 

राजा पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी की तीर्थयात्रा पेट के बल सरकते हुए की थी। जगन्नाथपुरी के राजा ने उनका भरपूर स्वागत किया तथा वहाँ उन्हें रथपतिकी उपाधि से विभूषित किया गया। पुरी के राजा ने मंदिर के पुजारी के माध्यम से 16 पहियों का रथ प्रदान किया। रथ के साथ सथ भगवान जगन्नाथ तथा सुभद्रा की काष्ठ मूर्तियाँ भी बस्तर लायी गयीं। राजा ने बस्तर लौट कर दशहरे के अवसर पर रथयात्रा निकालने की परम्परा आरंभ की। राजा की जगन्नाथपुरी यात्रा की स्मृति को जीवित रखने के लिये बस्तर में गोंचापर्व भी मनाया जाता है। स्थानीय ग्रामीण बाँस की छोटी छोटी नलियाँ बनाती हैं। ये यह नलियाँ तुपकीकहलाती है। इसमें मालकांगनी का फल रख कर बाँस की लकड़ी के दबाव से गोली की तरह चलाया जाता हैं।

पुरुषोत्तमदेव के समय की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना है कालापहाड़ का आक्रमण। कालापहाड़ के सम्बन्ध में केदारनाथ ठाकुर ने विस्तार से जानकारी दी है कि काला पहाड़ का वास्तविक नाम संभवत: कालचन्द्र रहा होगा जो कि बंगाल के पठान सुल्तान बाबेकशाह की सेना में उच्च पद पर कार्यरत था। उसे सुल्तान की कन्या दुलीमा से प्रेम हो गया। अनेक अडचनों के बाद दुलीमा से उसका निकाह तो सम्पन्न हो गया किंतु तत्कालीम पंडितों ने उसे हिन्दू धर्म से बहिष्कृत कर दिया। एक सम्पन्न ब्राम्हण कुल में जन्मे तथा उच्च सैनिक पद पर आसीन इस व्यक्ति ने बहिष्कार को अपना घोर अपमान करार दिया। उसने इस्लाम ग्रहण किया तथा अपना नाम मोहम्मद कामूली रख लिया। दिल्ली के शासक बहलोल लोदी (1451-1488) से भी उसकी मित्रता थी अत: एक बड़ी सेना संग्रह कर वह अपने अपमान को क्रूरता से सहलाने लगा। उसने हजारो विधर्मियों का कत्लेआम किया; अनेक मंदिर व देव प्रतिमाओं को नष्ट किया।  उसके कुकृत्यो व दहशत ने उसे प्रचलित नाम दिया काला पहाड़। काला पहाड़ ने ओड़िशा, आन्ध्र, कामरूप, दीनाजपुर, रंगपुर, कूचबिहार, जौनपुर तथा देवबनारस के साथ साथ बस्तर पर भी आक्रमण किया था।       

डॉ. हीरालाल शुक्ल मानते हैं कि कलचुरियों से युद्ध में 1534 ई. में राजा पुरुषोत्तमदेव की मृत्यु हुई। यद्यपि कलचुरियों के बस्तर पर शासन करने अथवा किसी अन्य प्रकार के हस्तक्षेप की कोई और जानकारी उपलब्ध नहीं होती। 1534 ई. में राजा पुरुषोत्तम देव मृत्यु के बाद जयसिंहदेव ने चौबीस वर्ष और फिर नरसिंह देव ने 1558 ई. से शासन किया। इन दोनों ही राजाओं के शासन आम तौर पर शांतिपूर्ण थे। यदि हम राजा पुरुषोत्तम देव के समय की महत्वपूर्ण घटनाओं की विवेचना करते हैं तो उनके समय की कई गतिविधियों, निर्णयों व कार्यों का आज भी असर पाते हैं। क्या बस्तर ग्राम एवं राजधानी को ले कर आना ही काकतीयों/चालिक्यों के शासित क्षेत्र का नाम बस्तर कर देता है? यह भी एक प्रबल संभावना है। बस्तर दशहरा की प्रसिद्ध रथयात्रा व कृष्ण-बलराम-सुभद्रा पूजन जैसी अन्य परम्परायें भी उनकी ही देन हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पुरुषोत्तम देव अपने साथ पुरी से अनेक ब्राम्हण, पंड़ा, शिक्षाशास्त्री तथा सबरा जाति के लोगों को ले कर लौटे थे जो बस्तर में ही बस गये। इतना ही नहीं राजा पुरुषोत्तमदेव की जगन्नाथपुरी यात्रा में उनके साथ बस्तर से जो आदिवासी गये थे उन्हें लौट कर राजा ने भद्र कह कर संबोधित किया तब से ही वे आदिवासी और उनके वंशज भतरा कहलाने लगे। जनजातीय समाज में ये बड़ी घटनायें थी जिनपर किसी समाजशास्त्री ने विवेचना प्रस्तुत नहीं की है। यह आगमन किसी आक्रांता का नहीं था। ये लोग जो राजा के साथ आये थे अपने साथ बिलकुल ही भिन्न सामाजिक परिवेश की पहचान ले कर पहुँचे थे। वे अपने साथ पूजा-पाठ-कर्म-काण्ड-पोथी-पतरी थामे हुए बस्तर पहुचे थे तथा उन्हे सीधे राजाश्रय भी प्राप्त हो गया था। इस दृष्टि से जनसंख्या में भले ही यह एक बहुत ही छोटा समूह जुड़ा किंतु प्रभाव की दृष्टि से एक वृहत घटना माना जाना चाहिये। यदि केवल दशहरा के ही पूजा अनुष्ठानों को ध्यान दे देखा जाये तो इसमे आदिवासी परम्पराओं और ब्राम्हण परम्पराओं का जबरदस्त घालमेल है। यहाँ पुजारी भी हैं तो सिरहा भी है; यहाँ अनुष्ठान हैं तो बलि भी है; यहाँ दंतेश्वरी और मावली माता हैं तो काछनदेवी भी है। एक आदिवासी समाज को भद्र कहे जाने और फिर भतरा के रूप में उन्हें एक पहचान मिलने की घटना के भी अनेक समाजशास्त्रीय दृष्टि से विवेच्य दूरगामी परिणाम हुए। पुरुषोत्तमदेव का समय बस्तर के समाज में बदलाव का एक बड़ा पड़ाव है जिसकी विस्तृत विवेचना से बस्तरिया सामाजिक संगठन की अनेक परतें खोली जा सकती हैं। समाजशास्त्र को भी इतिहास मे झांकना होगा अगर बस्तर की अबूझियत को पढ़ने की कोई इच्छाशक्ति किसी में है।      
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नक्सलवाद से आदिवासियों का कोई सम्बन्ध नहीं है [महेन्द्र कर्मा से बातचीत]

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यह साक्षात्कार 25.05.2013 को दैनिक छत्तीसगढ में प्रकाशित हुआ था -

साक्षात्कार का शेष भाग -




यहाँ कहाँ आ गये पागल [आकाश नगर से लौट कर]

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जब मैं स्कूल में था उन दिनो बचेली नगर के लिये आकाशनगर एसा ही था जैसे कि देहरादून के लिये मसूरी। मैदानी नगर से लग कर अचानक उँचाई लेती हुई दो समानांतर पहाडियाँ जिनके बीचोबीच विभाजनकारी रेखा की तरह बहता है गली नाला। यह बैलाडिला पर्वत श्रंखला है जो स्वयं में समाहित विश्व के सर्वश्रेष्ठ स्तर के लौह अयस्क के लिये जानी जाती है। यही वह पर्वत श्रंखला है जिसके लिये एक समय में जमशेद जी टाटा ने रुचि दिखाई थी तथा सर्वप्रथम उनके भूवैज्ञानिक पी एन बोस ने प्राथमिक सर्वे पूरा किया था। जैसे ही इस लौह-अयस्क की जानकारी तत्कालीन अग्रेजी शासकों को मिली तुरंत ही भूवैज्ञानिक क्रूकशैंक के नेतृत्व में इस क्षेत्र का भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग ने विस्तृत सर्वे किया और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट के अनुसार लौह के चौदह भण्डारों को चिन्हित किया गया। बस्तर अचानक एक अत्यंत गरीब से बेहद अमीर रियासत हो गयी तथा यहाँ के शासकों पर दबाव बनाया जाने लगा कि बैलाडिला पर्वत श्रंखलाओं वाले क्षेत्र को हैदराबाद के निजाम को सौंप दिया जाये। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनथिनगो ने तब बस्तर की शासिका रही महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी से इस सम्बन्ध में मुलाकात भी की थी। कहते हैं महारानी अपने पति प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव से प्रभावित थी जो कि राष्ट्रीयता की भावना से भरे हुए थे, उनकी ही सलाह पर महारानी ने बैलाडिला पर अपनी असहमति जाहिर कर दी थी। एक प्रचलित मान्यता के अनुसार महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की मौत स्वाभाविक नहीं थी अपितु उनकी हत्या अंग्रेजों के द्वारा बैलाड़िला को हथियाने की दृष्टि से की गयी थी। बाद में यही दबाव प्रवीर पर भी बनाया जाने लगा और स्वतंत्रता प्राप्ति के एन पहले प्रवीर को सभी राज्याधिकार केवल इसी लिये प्रदान किये गये थे जिससे कि वे निजाम के हाथों इन खदानो वाले क्षेत्रों को सौंप सकें। यह प्रवीर की समझ थी कि उन्होंने एसा नहीं किया यद्यपि खदानों के कुछ हिस्सों को वे सशर्त लीज पर निजाम को देने के लिये तैयार हो गये थे। यह सारी रस्साकशी केवल इसलिये हो रही थी चूंकि हैदराबाद का निजाम स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय संघ में नहीं रहना चाहता था और एक स्वतंत्र देश की संकल्पना कर रहा था। बैलाडिला की इन खदानों पर भारत सरकार द्वारा वर्ष 1968 से कार्यारंभ किया गया। वैसे इतिहास मे रुचि रखने वालों के लिये यह जानकारी महत्व की हो सकती है कि यहाँ से लौह उत्खनन पहली बार नहीं किया गया अपितु 1065 ई में चोलवंश के राजा कुलुतुन्द ने यहाँ लोहे को गला कर अस्त्र शस्त्र बनाने का कारखाना लगाया था। यहाँ बने हथियारों को तंजाउर भेजा जाता था।

बस्तर क्षेत्र में आज यही एक मात्र ऑरगेनाईज्ड माईनिंग है इसके अलावा किसी भी खदान में कोई काम नहीं हो रहा। असंगठित खदानों के रूप में ग्रेनाईट और लाईमस्टोन क्रशिंग और माईनिंग कई स्थानों पर सक्रिय है। संभावित खदानों में रावघाट परियोजना हो सकती है जिसका भविष्य अधर में ही लटका हुआ है। केरल राज्य से भी बडे इस संभाग में इससे अधिक कोई माईनिग कहीं भी नहीं हो रही है यद्यपि यहाँ खनिजों के अपार भण्डार उपस्थित हैं। तोकापाल के पास ही एक बडे किम्बरलाईट पाईप को खोजा गया था जहाँ से हीरे उत्खनित करने की अभी कोई योजना नहीं है। हालाकि सारी बहसें जो दिल्ली में बैठ कर बस्तर के नाम पर हो रही हैं वे खदानों को ही केन्द्र में रख कर हो रही हैं। कभी कभी मैं दिल्ली के अखबार पढ कर हँसता हूँ कि क्या समाचार बिना जमीनी जानकारी के लिखे अथवा तैयार किये जाते हैं? बैलाडिला खदानो के अपने फायदे और नुकसान हैं साथ ही अन्य खदाने अगर अस्तित्व में आयीं निश्चित ही उनके अपने फायदे-नुकसान सन्निहित होंगे। तथापि दक्षिण बस्तर में एसा कोई परियोजना मेरी जानकारी में नहीं है जिसके हाल में अस्तित्व में आने की संभावना भी दूर दूर तक है। रावघाट पहाडियों से भी उत्खनन इतनी आसानी से संभव हो सकेगा मुझे नहीं लगता। 

आज इस लेख में मेरा उद्देश्य बस्तर के खनिजों को ले कर कोई बहस खडी करने का नहीं है। इस पर तथ्यों के साथ विस्तृत परिचर्चा फिर कभी। आज बात उजडे आकाश नगर की। यह पूरा नगर अब बचेली ला कर बसा दिया गया है। कभी घुमावदार सड़कों से हो कर आकाश नगर पहुँचने का आनंद और उसकी नैसर्गिकता ही अब समाप्त नहीं हो गयी अपितु लाल-आतंक के साये में यह पूरा इलाका गहरी गहरी सांस लेता प्रतीत होता है। आकाश नगर में मुट्ठी भर सिपाही सुरक्षा के नाम पर तैनात हैं लेकिन उन्हें सारा जोर स्वयं को ही सुरक्षित रखने पर लगाना होता है। वह आकाश नगर जो मानसून आते ही बादलों के स्पर्श से मुस्कुराता था आज खामोशी और दहशत यहाँ की पीड़ा है। जिन रास्तों से हो कर कभी हम एतिहासिक राजा बंगला जाते थे वहाँ कदम रखने की भी अघोषित मनाही है, किस कदम पर क्या हो जाये कहा नहीं जा सकता। ऊँचाई पर खडा हो कर मैं देख रहा था एक ओर घना जंगल जिसके भीतर भीतर आ घुसा नक्सलगढ। दूर दूर तक दिखने वाला एक व्यक्ति भी नहीं। कहीं कोई जिन्दादिली नहीं। हवा भी सहम कर कहती है कि यहाँ कहाँ आ गये पागल!! जल्दी निकलो यहाँ से।   
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दैनिक 'छत्तीसगढ' में राजेन्द्र यादव के हंस में प्रकाशित सम्पादकीय पर बहस

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दैनिक 'छत्तीसगढ' में राजेन्द्र यादव के हंस में प्रकाशित सम्पादकीय पर बहस
[प्रतिवाद में मेरा आलेख भी पढें – “नक्सली हिंसा हिंसा न भवति”
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मित्रों, आज सांध्य दैनिक छत्तीसगढ में दो आलेख आमने – सामने की तर्ज पर प्रकाशित हुए हैं। एक आलेख है सम्पादक तथा वरिष्ठ साहित्यकार राजेन्द्र यादव का जिन्होंने हंस पत्रिका के जुलाई अंक में “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” शीर्षक से साक्षात्कार शैली में सम्पादकीय प्रकाशित किया है। इस आलेख की मूल भावना मुझे छत्तीसगढ में हाल ही में हुए दुर्दांत और दु:खद नक्सली वारदात को सही ठहराती हुई प्रतीत हुई। राजेन्द्र यादव के आलेख के प्रतिवाद में मेरा आलेख प्रकाशित भी हुआ है - “नक्सली हिंसा हिंसा न भवति”। मेरे इस आलेख को प्रवक्ता तथा भडास4मीडिया ने भी प्रकाशित कर विरोध के स्वर को वेबमंच प्रदान किया था। आप छत्तीसगढ में प्रकाशित इस आलेख को छत्तीसगढ अखबार के ई-संस्करण से भी पढ सकते हैं।

यदि इस आलेख को प्रस्तुत पेपर कटिंग से न पढा जा सके तो निम्न लिखित लिंक में से किसी एक पर जा कर आप पढ सकते हैं -

दैनिक छत्तीसगढ (6 जुलाई का अंक पृष्ठ 8 पर मूल आलेख शेष भाग पृष्ठ 6 व 7 पर) -http://www.dailychhattisgarh.com/

प्रवक्ता वेब मंच - http://www.pravakta.com/rajendra-yadav-and-maoist-violence

भड़ास4मीडिया वेब मंच - http://www.bhadas4media.com/vividh/12772-2013-07-04-07-35-21.html

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राजीव रंजन प्रसाद का आलेख -

राजीव रंजन प्रसाद के आलेख का शेष भाग -


राजेन्द्र यादव का आलेख -

राजेन्द्र यादव के आलेख का शेष भाग -



“नक्सली हिंसा हिंसा न भवति” इति वदति “राजेन्द्र यादव” महोदय: – सही है सलमा नाचेगी। 
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हंस का जुलाई अंक पढा। संपादकीय पढने के बाद लगा कि रिटायरमेंट की एक उम्र तय होनी चाहिये। छोडिये, सचिन ही कब रिटायर होना चाहते हैं तो राजेन्द्र यादव की पारी भी जारी रहे। चर्चा पर उतरने से पहले राजेन्द्र यादव के बस्तर विषयक ज्ञान की गहरायी को उनके ही शब्दों में बयान करते हैं – “विडम्बना यह है कि हम यहाँ दिल्ली में एक एयरकंडीशनर कमरे में बैठ कर उनके बारे में बात कर रहे हैं जिनसे हमारा सीधा सम्बन्ध नहीं रहा। आज वहाँ के हालात की जमीनी जानकारी हमें नहीं है इसलिये हमारे लिये यह बैद्धिक और वैचारिक विमर्श है”। जी महोदय तो हाथी का कौन सा अंग दिखा सींग पकड़ में आयी या खुर देखे? यह ठीक है कि राजेन्द्र यादव माओवाद के समर्थक हैं और इस लिये वे बस्तर के दरभा में हुए हत्याकाण्ड को जस्टीफाई करना चाहते हैं लेकिन घडियाली ही सही दो आँसू अपने सम्पादकीय में उनके लिये भी बहा लेते जो निर्दोष मारे गये। राजेन्द्र यादव लिखते हैं तो सर्वज्ञ की तरह जबकि वे स्वीकारते हैं कि जमीनी हकीकत में टांय टांय फिश हैं लेकिन दावा देखिये निर्णायक स्टेटमेंट – “सलमा जुडुम को कभी आदिवासियों का समर्थन नहीं मिला, कर्मा और विश्वरंजन इसके मेन इंजीनियर थे”। कर्मा और विश्वरंजन की बात बाद में करते हैं पहले यह तो बतायें राजेंद्र जी आपके जुडुम में यह “सलमा” कौन है? हमने बस्तर में सलमा जुडुम जैसा कुछ सुना नहीं अलबत्ता सलवा जुडुम अवश्य सक्रिय रहा था। पहले “सलमा” पर ही बात हो जाये क्योंकि वास्तविक तथ्य सामने रखे नहीं कि आप कहेंगे अरे यह मामला था, हमने समझा कि वहाँ का कोई लोकल जलसा होगा और नचनिया सलमा को यूपी से बुलवाये रहे होंगे। 

राजेन्द्र यादव बस्तर में हुई दरभा घाटी की घटना पर इंटरव्यू शैली में आँखों देखा हाल धकेल मारते हैं और साफ करते हुए लिखते हैं कि “कर्मा इस हमले का टारगेट था क्योंकि उसने सलमा जुडुम चलाया था। एक और बात दिखाई देती है कि छत्तीसगढ सरकार नें इस दल का रूट बदलवाया था; बदले हुए रूट की जानकारी कहाँ से निकली है?......मारे गये लोगों में तीस लोग बताये जाते हैं जिसमे पाँच-छ: कांग्रेस के बडे नेता हैं। इनमे कुछ सुरक्षा गार्ड भी जरूर हताहत हुए होंगे”। पहली बात कि “मारे गये होंगे” का क्या मतलब है? देश भर में पढी जाने वाली पत्रिका के सम्पादक हैं आप, तो जिम्मेदारी से कोई तथ्य प्रस्तुत करते दिक्कत क्यों है? इस लिये कि सुरक्षा कर्मियों को गाली देते-देते तो प्रगतिशील राजनीति बीत गयी अब वो मारे भी गये तो क्या? किसी छोटे से छोटे अखबार को भी उठा कर एयरकंडीशनर ऑन करने के बाद पढने की जहमत उठाते तो विस्तार से जानकारी मिल जाती। मेरा प्रश्न इससे बड़ा है। क्या राजेन्द्र यादव जानते हैं कि परिवर्तन यात्रा अगर दूसरे मार्ग से निकली होती तब भी उस पर हमला हुआ होता और शायद और भी भयावह तरीके से? लगभग सौ सागवान के पेड़ राजेन्द्र यादव जी के पर्यावरण प्रिय क्रांतिकारियों ने काट कर इस दूसरे रास्ते में एन घटना के समय गिरा दिये गये थे। इस रास्ते में भी एम्बुश लगाया गया था और दंतेवाडा तथा जगदलपुर को जोडने वाले मार्ग पर एक महत्वपूर्ण पुल को दोनो ओर से आधा आधा काट कर रखा गया था जिससे यदि यात्रा इस मार्ग से भी गुजरे तो उसका वही हश्र हो जो दरभा घाटी में हुआ था। ये सभी जानकारियाँ तो सार्वजनिक हैं लेकिन राजेन्द्र जी के घर अखबार कौन सा आता है पता नहीं; हो सकता है कोई “जनचेतना का प्रगतिशील समाचार दैनिक” हो कि जो हमको हो पसंद वही न्यूज छपेगी। 

अब आते हैं उन तथ्यों पर जिसे राजेन्द्र यादव विमर्श कह रहे हैं। वे लिखते हैं कि “जहाँ अन्याय होगा और कहीं सुनवाई नहीं होगी तो लोग बंदूख उठायेंगे ही” इस ब्लाईंड स्टेटमेंट के जस्टीफिकेशन में वे लिखते हैं “इसे अराजक कहना ठीक नहीं। उनकी हिंसा में एक अनुशासन है। आज अगर अनुशासन नहीं होता तो वो इतना बढ नहीं सकते थे। अरुन्धति राय, गौतम नवलखा बहुत अंदर तक उनके साथ गये हैं और कई दिन तक उनके बीच रहे हैं; उन्होंने उनके बीच देखे जिस अनुशासन की प्रसंशा की है उसके बिना शायद इतने बडे कदम उठाये ही नहीं जा सकते थे”। सही है राजेन्द्र जी आपकी बात का मायना मैं निकालता हूँ कि हंस के सम्पादक के अनुसार अनुशासित नक्सलियों ने विद्याचरण शुक्ल, महेन्द्र कर्मा, (नंद कुमार पटेल और उनके बेटे) आदि आदि कांग्रेसी नेताओं की हत्या का प्रसंशनीय बडा कदम उठाया। आपके छोडे ‘फिल इन द ब्लैंक’ का तो यही मायना निकलता है। कई प्रगतिशील, मुख्यधारा में बहने वाले लेखकों ने भी सोशल मीडिया से ले कर अखबारों तक लगातार हत्या का कारण महेन्द्र कर्मा के लिये सलवाजुडुम को और विद्याचरण शुक्ल को इमरजेंसी का अपराधी बता कर जस्टीफाई करते रहे (पटेल और उनके बेटे की हत्या को गोल कर गये।)। राजेन्द्र जी बस्तर बढिया पिकनिक स्पॉट भी है, घूम आते एक-आध बार। क्या बार बार अरुन्धति राय और गौतम नवलखा के लिखे की धौंस जमाते रहते हैं। क्या आपने वेरीफाई किया है उनकी जानकारियों को? अच्छा लिखा हैं उन्होंने खास कर अरुन्धति का वाकिंग विद द कॉमरेड्स। बारीक जानकारी है कि नक्सली क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, कहाँ सोते हैं, कहाँ धोते हैं आदि आदि। सम्पादक महोदय जरा इन किताबों को फिर से पलटिये और तलाशिये तो कि बस्तर के आदिवासी कैसे जी रहे हैं, किस तरह घुट घुट कर मर रहे हैं अगर कहीं दिख ही जाये आपको। आप भी तो जानें कि नक्सली और आदिवासी दो अलग अलग बाते हैं और इन्हें आप जैसे लोगों की फंतासियाँ ही एक इकाई प्रचारित करने में लगी हुई हैं। 

आपको व्यवस्था से शिकायत है तो हमे भी है लेकिन हमें नक्सलियों से भी शिकायत है और आप उनके सिद्ध हिमायती हैं इसलिये मुझे आपके लिखे को इतिहास ज्ञान के साथ टटोलना ही होगा। राजेन्द्र जी लिखते हैं कि आदिवासी-इलाकों से निकाले जाने वाले खनिजों के लिये करोडो अरबों का को लेन देन होता है, उसमे आदिवसियों का किसी तरह से भी कोई लेना देना नहीं होता। एक सौ प्रतिशत सत्य (राजेन्द्र जी सही कहें तो सहमत होना फर्ज है मेरा)। आपका संपादकीय दरभा घाटी की घटना पर केन्द्रित है अत: मैं बस्तर से इतर बात नहीं करूंगा। वहाँ बैलाडिला आईरन ओर परियोजना है जिसकी नींव तो अंग्रेजों के समय ही रखी गयी थी लेकिन प्रारंभ हुई 1968 से। इस परियोजना का मुख्यालय हैदराबाद बनाया गया अर्थात तत्कालीन नक्सलगढ आन्ध्रप्रदेश के हृदय क्षेत्र में; हमने तो इसके खिलाफ उनकी कोई हूक तब नहीं सुनी? 1966 में बस्तर के मान्य जनप्रतिनिधि प्रवीर चन्द्र भंजदेव की हत्या हुई, हमे कोई जानकारी नहीं कि तब वारंगल को अपना गढ बना चुके नक्सलियों ने प्रतिरोध का स्वर भी बुलंद किया था। सत्तर के दशक में बस्तर मे किरंदुल गोलीकांड हुआ और बैलाडिला में कार्यरत सैंकडो मजदूरों पर गोली चालन किया गया; कोई जानकारी हो नक्सलियों की ओर से प्रतिरोध की तो साझा कीजिये? अस्सी का दशक आने से पहले अबूझमाड़ को ले कर बस्तर के तत्कालीन कलेक्टर ब्रम्हदेव शर्मा नें निर्णय लिया कि इसे जिन्दा मानव संग्रहालय में बदल दिया जाये। न कोई भीतर जायेगा न बाहर आयेगा। उन्हें जीने दो उनकी जिन्दगी। ठीक है बहुत से प्रगतिशीलों को उनका निर्णय सही लगता होगा लेकिन फिर आन्ध्र प्रदेश में जब नक्सलियों के खिलाफ दमनात्मक कार्यवाईयाँ आरंभ हुई और वहाँ से कैडर अबूझमाड मे छिपने-भरने लगे तब आपके विरोध के स्वर कहाँ थे? क्यों यह आवाज़ नहीं आई कि मानव संग्रहालय है क्रांतिकारी महोदयो इसे छोड कर भी बहुत सी जगह खाली है बस्तर में? बस्तरिया हूँ इस लिये मेरी मत पढिये अरुन्धति की ही पढिये, नन्दिनी सुन्दर की ही पढिये और तभी भी यही आप जानेंगे कि कोंडापल्ली सीतारमैया नें पीपुल्स वार ग्रुप के गुरिल्लों को बस्तर इस लिये नहीं भेजा था कि “वीर गुरिल्लाओं वहाँ बहुत शोषण और अत्याचार है चलो उनके लिये लडते हैं”। यहाँ नक्सली इसलिये घुसे क्योंकि वे सुरक्षित पनाह चाहते थे जिसकी आधारशिला अबूझमाड में उनके स्वागत के लिये ही रखी गयी थी। 

छोडिये इतिहास में क्या रखा है? राजेन्द्र यादव जी कह रहे हैं तो बस्तर में चार-पाँच सौ खदाने तो जरूर होंगी? नहीं!! तो सौ पचास तो पक्का? इतनी भी नहीं? तो फिर? बैलाडिला तो दुनिया जानती है, रावघाट रिजर्व ओर है लेकिन अभी उत्पादन नहीं हुआ इसलिये अगले संपादकीय तक इसे भी छोडिये। अब मुझे केरल राज्य से भी बडे क्षेत्र बस्तर संभाग की खदाने गिनवाईये। ग्रेनाईट और लाईमस्टोन की कुछ गिनती की क्वेरिया अवश्य हैं लेकिन हमने तो यहाँ से नहीं सुना कि डिन, बॉक्साईत, हीरा, जस्ता अथवा यूरेनियम निकाला जा रहा हो। यह सब कुछ है बस्तर की धरती में। बोधघाट परियोजना अर्थात इन्द्रावती पर बांध बनने वाला था वह भी कुछ गैर सरकारी संगठनो और पर्यावरणवादियों के विरोध के कारण बंद हुआ और इसमे भी नक्सलियों की कोई भूमिका नहीं थी (आज जरूर वे नहीं बनने देंगे जैसे नारे लगाते पाये जाते हैं)। एक महोदय ने लिखा कि टाटा के साथ एमओयू हुआ इस कारण नक्सलवाद प्रबल हुआ। महाज्ञानी आन्ध्रप्रदेश में उसी समय चन्द्रबाबू नायडू के चलाये जा रहे अभियान को भूल जाते हैं जिसके दबाव में बहुत बडी संख्या में वहाँ के कैडर लाल-आतंकवाद की बनाई सुरक्षित पनाहगाह अबूझमाड में प्रविष्ठ हुए। राजेन्द्र जी बस्तर के भीतर भी उसकी अपनी आवाज़ जिन्दा है और वहाँ से भी शोषण, दमन और कॉरपोरेट दखल के खिलाफ आवाज़े उठती रही हैं लेकिन शस्त्र उठाने की नौबत क्यों? अगर टाटा बस्तर में काम नहीं कर पा रहा तो इसके लिये स्थानीय दबाव को धत्ता बता कर पूरा श्रेय आप नक्सलियों को दे देंगे; हद है? 

क्या आप जानते हैं कि सलवा जुडुम को ले कर बस्तर के भीतर भी कई स्वर पनप रहे थे। यह भी सच है कि सलवा जुडुम शुरु पहले हुआ और उसका नेतृत्व महेन्द्र कर्मा ने लपक लिया और बाद में प्रदेश की सरकार का भी समर्थन इसे प्राप्त हुआ। इस समय एक धडा अगर महेन्द्र कर्मा के साथ था तो दूसरा खिलाफ भी। इनकार नहीं कि सलवा जुडुम की परिकल्पना आदिवासियों की नक्सलियों के खिलाफ लामबंदी थी लेकिन विभीषिका यह कि दोनो ओर से आदिवासी ही एक दूसरे को मार काट रहे थे जिसका तमाशा नक्सलियों ने और व्यवस्था ने खूब देखा (राजेन्द्र जी इन समयों में आपके संपादकीयों की कमी बडी खली कहाँ गायब रहे?)। सलवा जुडुम और नक्सलवाद दोनो ओर से हुई हत्याओं का विस्तार से वर्णन करने के लिये तो यह आलेख छोटा है लेकिन यह भी आप जाने कि सलवा जुडुम के खिलाफ जो लडाई मुखर हुई है वह उन स्थानीय पत्रकारों के द्वारा लाये निकाले गये समाचारों के कारण ही हुई जिसने इस आन्दोलन कहे जाने वाली आदिवासी लामबंदी के राजनीतिक और अराजक पक्षों से सभी को परिचित कराया। एसी घटनायें हाथो हाथ अखबारों की सुर्खियाँ बनी और कई प्रगतिशील मासिकों ने इन्हें खूब प्रसारित किया। राजेन्द्र जी उन्हीं पत्रकारों ने नक्सलियों की करतूतो को भी अनेको बार सामने लाने का कार्य किया। कैसे हर घर से बच्चों को शामिल किया गया, महिलाओं की क्या स्थिति है, आदिवासियों के कैसे उन्होंने घर जलाये, किस तरह जन अदालतों में सजा देने के नाम पर जन-भय व्याप्त करने के लिये नृशंसता से गले काटे गये। ये वो खबरे थी जो दिल्ली में एयरकंडीशनर में विमर्श करने वालों के लिये मायने नहीं रखती थीं और उसपर प्रगतिशील फतबाधारी कि जागते रहो सब ठीक चल रहा है। राजेन्द्र यादव किस आधार पर लिखते हैं यह तो पता नहीं लेकिन उनके अनुसार “नक्सली जिन क्षेत्रों पर कब्जा करते हैं वहाँ विकास, शिक्षा, संगठन उनकी प्राथमिकता होती है”। जी सर जी समझ गये हम; आपने सुदूर संवेदन तकनीक से यह जान लिया होगा या हमे जानकारी नहीं मिली होगी और कभी आप “टेरर टूरिज्म” पर हो ही आये होंगे बस्तर। आपकी मासूमियत का तो मैं कायल हो गया, कितनी सफेदपोशी से आप नक्सली हिंसा को जस्टीफाई करते हुए लिखते हैं – “नक्सलियों के लिये यह अधिकारों और सिद्धांतो की लडाई है। लडाई कैसी भी हो इसमे मारे तो मासूम और निरीह भी जाते हैं”। राजेन्द्र जी कमाल की आईडियोलॉजी है न मौतो को जस्तीफाई करने वाली? पुलिसिया कार्यवाई में भी निरीह और मासूम मारे जा रहे हैं और उसकी हम पुरजोर भर्तसना करते हैं और हम एसा कर पाते हैं क्योंकि हम नक्सली हत्याओं की भी भर्त्सना करते हैं। वैसे आप ही सही हैं, कहते हैं पुराना चावल स्वादिष्ट होता है, रसीला भी होता ही होगा। आप अपने संपादकीय में मानते हैं कि इसी देश का एक वर्ग दूसरे हिस्से में चल रही जमीनी लडाईयों के बारे में कुछ भी नहीं जानता” और फिर आप ही सार्टिफिकेट भी बाँटते हैं कि “नक्सलियों की लडाई जल, जंगल और जमीन की सामूहिक लडाई है”। राजेन्द्र जी यह वाक्यांश सुनने में बडा ही ओजस्वी लगता है (काश एसा ही होता)। आपने कुछ और लडाईयाँ नहीं सुनी जैसे माओवादियों का ओडिसा कैडर, आन्ध्र कैडर से असंतुष्ट है या एमसीसी और पीडब्ल्युजी जैसे खांचे अभी भी मजबूत हैं। छोडिये आप साहित्यकार हैं इसलिये किताब ही पढिये। इसी कोलकाता पुस्तक मेले में शोभा मांडी नाम की एक पूर्व नक्सली महिला की पुस्तक “एक नक्सली की डायरी” सामने आयी थी; पढिये इसे भी, बलात्कार और शोषण की परिभाषा फिर चाहे नयी गढ लीजियेगा। फस्ट हैंड इंफॉर्मेशन है।.....और अगला संपादकीय भी बस्तर पर ही लिखिये; चाहें तो तरुण भटनागर जैसे किसी युवा कहानीकार की रचनात्मकता का गला दबाईये अगर वह जंगल के भीतर का कोई सच लिख लाये (पिछले साल का सपादकीय आपका ही)। कोई “जुडुम” महफिल सजाईये राजेन्द्र जी और जरा जोर से बजवाईये - सज रही देखो “सलमा” चुनर गोटे में पर ध्यान से, ढोल फट न जाये, पोल खुल न पाये। सही ही मानते हैं आप कि “नक्सली हिंसा हिंसा न भवति”। 


लालबुझक्कड बूझगे और न बूझे कोय!!

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[बस्तर की दरभा घाटी की लाल-आतंकवादी घटना पर एक और दृष्टिकोण] 
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 28 मई 2013 की सुबह; सड़क एकदम सूनसान थी। बचेली से बारसूर की तरफ बढ़ते हुए बार बार ध्यान सड़क के दोनो ओर गिराये गये पेड़ों की तरफ जा रहा था। 25 मई को बस्तर की दरभा घाटी में हुई लाल-आतंकवादी घटना समय ही सुकमा से बचेली और गीदम पहुचने वाले दोनो ओर के मार्गों पर बड़े बड़े पेड़ काट कर गिराये गये थे। सरसरी निगाह से देखने पर ही यह समझा जा सकता है कि दरभा घाटी में हुआ मौत का भयानक ताण्डव अगर वहाँ नहीं होता तो भी टलता नहीं। कॉग्रेस की परिवर्तन यात्रा के जाने के प्रत्येक मार्ग अवरुद्ध किये गये थे और पेडों को महेन्द्र कर्मा के गृहनगर ‘फरसपाल पहुँच मार्ग’ से कहीं आगे तक काट काट कर गिराया गया था जिससे कि वारदात के समय गाडियों के चक्के जाम रहें। जैसे ही हम कुछ और आगे बढे एक पेड पर चिपाकाया गया पोस्टर नज़र आया। पोस्टर में महेन्द्र कर्मा की नृशंस हत्या के बाद अब सलवा जुडुम के नेताओं को जान से मारने की धमकी दी गयी थी साथ ही ऑपरेशन ग्रीन हंट के लिये मुर्दाबाद था। ऑपरेशन लाल हंट वालों को हर तरफ से अपने ही हंट की चिंता है यह बात इस पोस्टर की विवेचना से स्पष्ट है। सलवा जुडुम भले ही अब समाप्त हो गया हो लेकिन उसके नेताओं से बदला लिया जाना है जिससे कि आदिवासी कभी भी माओवादियों के खिलाफ सिर न उठा सकें और दूसरी बात कि उनके खिलाफ चलाया जा रहा तथाकथित अभियान बंद हो जिससे कि वे निष्कंटक अपना आधार इलाका बढा सकें और समूचे बस्तर को सुरसा मुख में निमग्न कर उसका लाल-सलाम कर दें। हमारे यहाँ दिल्ली से नौटंकीबाज समाजसेवियों की खूब सुनी जाती है तो चलिये उनकी ही जनपक्षधरता के नारों का ग्राउंड जीरो में खोखलापन देखें। दंतेवाड़ा को बचेली से जोड़ने वाला शंखिनी नदी पर अवस्थित एक पुल दोनो ओर से चार स्थानों से लगभग काट दिया गया था जिससे कि आवागमन पूरी तरह बाधित हो जाये। वाम डिक्शनरी से अर्थ निकाल कर इस बात को सामान्य करार देते हैं चूंकि सड़क तो केवल पूंजीपति और मध्यमवर्तीय लोगों की थाती है आम आदिवासी तो सड़क का उपयोग ही नहीं करता होगा? हो सकता है दिल्ली से एसा ही दिखता हो तो परे कीजिये इस बात को और यहाँ से कुछ सौ मीटर और आगे बढते हैं जहाँ माओवादियों के घटना के एन दिन एक वनोपज जांच नाका गिरा दिया था। दिल्ली सही चीखती है कि वन अधिकारी शोषक हैं इस लिये माओवादियों ने न्याय किया होगा। लेकिन सड़क के दूसरी ओर जहाँ बरसात-धूप से बचने के लिये यात्री शेड बना हुआ था उसे क्यों ध्वस्त किया गया? कोई नवीन जिन्दल उसके नीचे नहीं रुकता, कोई मध्यमवर्गीय व्यापारी, सेठ या किसी शरीर में आत्मा घुसा कर कोई जमींदार भी पुनर्जीवित हो यहाँ नहीं ठहरता। यह तो बस्तर की दो अलग अलग घाटियों को जोडने वाला स्थान था और यहाँ आगे जाने वाले यात्री वाहन की प्रतीक्षा करने के लिये आदिवासी ही विपरीत मौसमों में ठहरते थे। इस क्षेत्र में जो भी इमारते थी, संकेत चिन्ह थे, तथा होल्डिंग्स लगे थे सभी को जैसे चूर चूर कर दिया गया है। किसी बात की खीझ निकाली जा रही हो या गुस्सा प्रदर्शित किया जा रहा हो संभवत: एसा ही कुछ वहाँ देखा जा सकता था। 

 इस दृश्य पर ठहर कर दरभा घाटी की घटना की विवेचना करते हैं। कुछ दिनों पहले एक खबर नारायणपुर से आयी थी जिसमे बताया गया था कि माओवादियों ने ग्रामीणों पर पेड काटने के लिये जुर्माना लगाया है। यह बात कही गयी थी कि इस तरह जंगल बचेंगे। वस्तुत: हम एक घटना का दूसरी घटना से तार कभी जोडते ही नहीं। मेरी बात को सुकमा, बीजापुर और नारायणपुर तीनो ही मार्गों पर जाने वाले लोग आसानी से समझ सकते हैं। सड़क को अवरोधित करने के लिये माओवादियों द्वारा पेड़ काट कर गिराया जाना एक आम घटना है। उल्लेखित सड़कों के किनारे किनारे आपको सैंकडो काटे गये पेडों के ढूंठ नज़र आ सकते हैं। मुझे आशंका है कि मार्ग अवरुद्ध करने के लिये पेड़ काटा जाना कोई क्रांतिकारी गतिविधि नहीं अपितु आदिवासियों के संसाधनों की लूट का एक नये तरह का जरिया है। दरभा घाटी की घटना के दिन अकेले ही सौ से अधिक बडे बडे पेड काट कर मार्ग में बिछा दिये गये थे। मुझे अधिकतम पेड सागवान के लग रहे थे। अंचल के एक वरिष्ठ पत्रकार से जब मैने इसकी तस्दीक की तो ज्ञात हुआ कि चुन चुन कर सागवान के ही पेडों को काटा गया था। इतना ही नहीं दूसरे दिन किसी चमत्कार की तरह काटे गये पेडों के मुख्य हिस्से सड़क से गायब भी हो गये। मुझे किसी की आई क्यू पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना है आप चाहें तो इस सच्चाई के पीछे के खेल को नजरंदाज कर जनपक्षधरता की तकरीरे जारी रख सकते हैं। 

‘पर्यावरण और माओवादी’ बडा ही मजेदार विषय है जिसे बस्तर में होने वाली “मौतों पर जाम टकराने वाले एक विश्वविद्यालय” के विशेषज्ञों द्वारा बार बार दुहाई की तरह उठाया जाता है। मैने कई बार आदिवासियों से इस बात को जानने की कोशिश की है और अपुष्ट सूत्रों से यह बता सकता हूँ कि बस्तर के कई दुर्लभ पक्षी बाशिंदे निरंतर भूने खाये जा रहे हैं। आपको आदिवासियों के शिकार पर आपत्ति है और भीतर कई निरीह प्राणी इस महान सो-काल्ड साईंटिफिक सोच वाली लाल-सेना के कैम्प फायर की शोभा होते हैं। एक कश्मीरी पंडित लेखक ने फौरी बस्तर भ्रमण (माओवादियों से मिल कर उनसे सोने-जागने-धोने-नहाने पर किताबें लिखने वाला परिभ्रमण) के बाद लिखा कि किस तरह माओवादी कैम्प के बाहर एक सांप दिखा और उसे तुरंत मार दिया गया। मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया था कि बस्तर की कई महत्वपूर्ण खदाने जो कि कोरंडम, टिन जैसे बहुमूल्य संसाधनों की है उनपर अब लाल-आतंकवादियों का कब्जा है और मैं उन पर स्मग्लिंग का आरोप लगाउं- तौबा तौबा, आप तो यूं कहिये कि आदिवासियों के लाल-हंट के लिये बस्तर के ये संसाधन अब साधन जुटाने का काम कर रहे हैं। ये सभी वे कहानियाँ हैं जिन पर आपको कोई युनिवर्सिटी बात करती नजर नहीं आयेगी, कोई लेखक अपनी किताब में छाप कर चर्चा नहीं करेगा, कोई जनपक्षधर लाल-सलामी लेखक इन तथ्यों पर निगाह भी नहीं डालेगा। बस्तर मरता है तो मरे इससे किसको सरोकार? 

सच्चाई तो यही है कि जब 75 जवान मरे थे तब भी दिल्ली में खिलखिलाहट थी और जब 31 जनप्रतिनिधि मारे गये तब भी दिल्ली के कई बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग इसे तरह तरह से जस्टीफाई करने में लगे हैं। एक कविता कहती है कि जब नाजी कम्युनिष्टों के पीछे आये तब कोई नहीं बोला; तो बाद में सारे कम्युनिष्ट ही बंदूखें पकड कर बस्तर के जंगलों में नाजी बन गये; और खबरदार अब कोई मत बोलना? लाल-आतंकवादियों को साम्राज्यवादी कहने के पीछे मेरा तर्क वृथा भी नहीं है। यह बात तो सर्व-विदित है कि दरभा घाटी की घटना के पीछे आन्ध्र-ओडिशा-महाराष्ट्र-झारखण्ड के आतंकवादियों का हाथ था। एयरपोर्ट में मिलने वाला मंहगा पानी गटकने वाले आतंकवादी बस्तर को कैसा रखना चाहते हैं यदि इस बात को कोई प्रमाण के साथ समझना चाहता है तो आपको केवल इतना करना है कि सुकमा-कोण्टा मार्ग से हैदराबाद जाने वाली बस में बैठ जाईये। जबतक बस्तर है तब तक आपकी बस हिचकोले खाती हुई जायेगी। माओवादियों ने इस सड़क को इतनी जगह से काटा है कि अब गिनती करना मुमकिन नहीं है। लेकिन जैसे ही कोण्टा की सीमा समाप्त होती है और आन्ध्र लगता है तो चमत्कार नजर आता है। भाई यह भी तो माओवादी इलाका ही है लेकिन यहाँ की सड़क इतनी बढिया और फोर लेन? मैं जानता हूँ कि मेरी बात को कोई नहीं बूझ सकता - “लालबुझक्कड बूझगे और न बूझे कोय!!”

गलत पहचान - यह विष्णु प्रतिमा नहीं है

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सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में प्रकाशित

नैनो दर्शन पत्रिका में प्रकाशित
[बारसूर (दंतेवाड़ा) के सिंगराज तालाब में अवस्थित प्रतिमा पर एक विश्लेषण] 
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आप बारसूर पहुँचते हैं तो अनेक दर्शनीय स्थलों की भीड़ में आपको जानकारी प्राप्त होती है सिंगराज तालाब में कंठ अवस्था तक जलमग्न एक विष्णु प्रतिमा की। लगभग पाँच फीट आकार वाली यह प्रतिमा भव्य है, दर्शनीय है तथा दुर्लभ है। सौभाग्य से इस बार जब मैं इस प्रतिमा के निकट पहुँचा तो भगवान विष्णु की प्रतिमा वाली ही अवधारणा मेरे मन में भी थी। तालाब के दूसरी ओर खड़े हो कर अपने कैमरे में जूम करते हुए इस प्रतिमा की तस्वीर कैद करने के पश्चात वहाँ अधिक रुकने का कोई कारण नहीं बनता था। लगभग सभी किताबों में, सरकारी बुकलेट तथा बारसूर महोत्सव की प्रचार सामग्रियाँ सभी इस प्रतिमा को विष्णु की घोषित कर चुकी हैं अत: मेरा यह अनुमान था कि निश्चित ही यह शेष शायी विष्णु की ही प्रतिमा होगी। मेरे साथ मित्र चन्द्रा मण्डा तथा संतोश बढई भी थे। मैं किनारे पर ही खडा रहा और चन्द्रा भाई से निवेदन किया कि वे निकट जा कर इस प्रतिमा की एक तस्वीर खीच लें। एकाएक न्यूटन वाला सेव जैसे मेरे सामने ही आ गिरा और मुझे खडी अवस्था में देख कर इसके विष्णु प्रतिमा होने में संदेह हुआ। गर्मी भयानक पड़ी थी इस वर्ष अत: एक गड्ढे में सिमट कर रह गया था। मैं प्रतिमा के सम्मुख आ पहुँचा और कोशिश करने लगा कि समझ सकूं कि यदि यह विष्णु प्रतिमा है तो क्यों है? और यदि मेरी छठी इन्द्री इस तथ्य को नकार रही है तो किस लिये?

कई मोटे मोटे संदेह मेरे सामने थे प्रतिमा के सिर पर पंचमुखी नाग अथवा शेष नाग होने तक तो ठीक है लेकिन उसके बगल में छठा नाग शीष आखिर क्यों है? विष्णु तो नाग धारण नहीं करते? इस छठे नाग की पूँछ पीछे से हो कर प्रतिमा के दूसरे हाथ तक पहुँच रही है। प्रतिमा के दो ही हाथ नज़र आ रहे हैं तथा शंख, हक्र, गदा, पद्म जैसे अन्य पहचान चिन्ह भी नदारद हैं जो किसी विष्णु प्रतिमा की पहचान होते हैं। मैं चूंकि पुरातत्व का जानकार नहीं हूँ अत: इन बहुत सारे सवालों के साथ मैने प्रतिमा की विभिन्न कोणों से फोटोग्राफी की और उन्हें प्रभात सिंह जी के पास भेज दिया। प्रभात सिंह जी पुरातत्वविद हैं तथा सिरपुर के उत्खनन में उनका महति योगदान है। उनसे मेरी मुलाकात भी सिरपुर में हुई थी जहाँ उनकी मेधा तथा उनके द्वारा प्रतिमाओं के बारीक विश्लेषण सुन कर मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ था। प्रभात जी से मुझे दो अलग अलग ई-मेल प्राप्त हुए। पहले ई-मेल में उन्होंने मेरी शंकाओं का बहुत हद तक समाधान किया था और यह समझने में सहायता की कि प्रतिमा विष्णु की क्यों नही है। 

प्रभात जी ने बताया कि “सर्पफणों के पीछे प्रभावली की विद्यमानता प्रथम दृष्टया इसे देव प्रतिमा के रूप में रेखांकित करती है। यदि इसकी सिरोभूशा का अवलोकन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह विष्णु प्रतिमा नहीं हो सकती है क्योंकि वे किरीट मुकुट धारण करते हैं जबकि इस उदाहरण में जटामुकुट का प्रदर्शन है जो कि शिव प्रतिमा का एक अनिवार्य अभिलक्षण है। प्रतिमा द्विभुजी है और संभवतः (क्योंकि प्रतिमा का अधोभाग चित्र में उपलब्ध नहीं है) दोनो हाथ खण्डित हैं। दाहिने हाथ के अवशिष्ट भाग को देखकर अनुमान होता है कि इसकी हथेली अभय मुद्रा में रही होगी। वहीं बांया हाथ देह के समानान्तर लटकता हुआ दिखाई दे रहा है। नीचे का हिस्सा उपलब्ध न होने के कारण हस्तमुद्रा अथवा उसमें धारित आयुध के विषय में निष्चित रूप से कह पाना अभी संभव नहीं है। सिरोभाग के ऊपर पाँच फणयुक्त सर्प का छत्र है। शिव प्रतिमा के साथ सर्प का संयोजन सर्वविदित है किन्तु आम तौर पर शिव प्रतिमा में इस प्रकार सर्पफण के छत्र का अंकन नही मिलता है। वहीं इस प्रतिमा में पृथक से एक सर्प एकदम दाहिनी ओर अंकित किया गया है जिसका पष्चभाग अर्थात पूंछ एकदम बांयी ओर देवता के कंधे से हाथ तक समानान्तर लटकती हुई देखी जा सकती है। इस प्रकार यहाँ दो सर्प उपस्थित हैं। देवता के कर्णाभूषण, वक्षाभूषण और वस्त्र का भी शिव प्रतिमा से सामंजस्य स्थापित नहीं होता। यह भी उल्लेखनीय है कि सर्प का प्रदर्शन जल के देवता वरूण के साथ भी होता है किन्तु जटामुकुट नहीं होना चाहिए। वहीं इस प्रतिमा की योगस्थानक मुद्रा नागपुरूष की प्रतिमा का अभिलक्षण स्वीकार नहीं किया जा सकता है”। 

मैने प्रभात जी को प्रतिमा के पृष्ठ भाग सहित आस पास की कई अन्य तस्वीरें भी भेजीं। अब यह स्पष्ट होने के पश्चात कि यह विष्णु प्रतिमा नहीं है जिस नाम से बहुत लम्बे समय से इसे जाना जा रहा है तब इसको नयी पहचान भी प्रदान किया जाना आवश्यक है। प्रभात जी ने विस्तृत अध्ययन के पश्चात मिझे बता कि “आपके द्वारा प्रेषित छायाचित्रों से उक्त प्रतिमा के अभिज्ञान के सम्बन्ध में कुछ लाभ अवष्य प्राप्त हुआ है तथापि अतिम निष्कर्श देना जल्दबाजी हो सकती है। आपके द्वारा भेजे गये छायाचित्र में प्रतिमा के बांये हाथ में धारित वस्तु स्पष्ट दिखलाई पड़ रही है। यह वस्तु वृत्ताकार है और मध्य में गहरा है जो प्याले जैसा पात्र प्रतीत हो रहा है। दाहिना हाथ जैसा की मैने पूर्व में उल्लेख किया है अभय मुद्रा में होना चाहिए। जे. वोगेल ने अपनी कृति (Indian Serpent Lore or the Nagas in Hindu legend and art) में कुकरगम से प्राप्त ऐसी ही एक प्रतिमा का जिक्र किया है जिसका दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है और बांये हथेली में प्याला पकडे़ हुए है तथा पृश्ठभाग में सर्पफणों का छत्र है। उसे उन्होनें नागदेवता का मानुषी रूपाभिव्यक्ति माना है। इस प्रतिमा के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए जे. एन. बनर्जी (The Development of Hindu Iconography, 2002, p. 349) आगे लिखते हैं कि “The type in a modified form was similar to Baldeva, one of whose aspect is based on a trait of this primitive folk cult” ज्ञात रहे कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण में निर्दिश्ट अनंतनाग का प्रतिमालक्षण, बलराम के प्रतिमालक्षण से भी मेल खाता है। अंततः यही कहा जा सकता है कि यह बलराम अथवा नागदेवता की प्रतिमा हो सकती है। किंतु छठे सर्प की तार्किक व्याख्या का आधार अभी भी उपलब्ध नहीं हो सका है। एक छायाचित्र में प्रस्तर स्तंभ भी दिखलाई दे रहा है। प्रतिमा के इर्द-गिर्द बिखरे प्रस्तर खण्डों में जो छिद्र बने हैं वो गिट्टक (Iron Dowel) के प्रयोग की सूचना दे रहे हैं। इन स्थापत्य खण्डों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहाँ पर लगभग 10वीं-11वीं सदी ईस्वी में छिंदक नागवंशीयों के समय का मंदिर रहा होगा और उक्त प्रतिमा संभवतः गर्भगृह में स्थापित रही होगी।“ 

बस्तर की प्रतिमाओं के बहुत बारीक विष्लेशण की आवश्यकता है अन्यथा हम उनके निहितार्थ नहीं पकड़ सकेंगे। छठे नाग की तार्किक व्याख्या उपलब्ध न होने के बाद भी यह स्पष्ट है कि यह किसी नागदेवता की प्रतिमा हो सकती है, यह प्रतिमा बलराम की भी हो सकती है जिन्हें स्वयं शेषावतार कहा गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात जो सामने आती है कि यह प्रतिमा मंदिर के गर्भगृह में रही होगी। इस दृष्टिकोण से इसका महत्व अधिक बढ जाता है। इस प्रतिमा के आस-पास प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं जो इतिहास की विरासत हैं। बारसूर केवल बत्तीसा, चन्द्रादित्य मंदिर या कि गणेश प्रतिमा ही नहीं है यहाँ छिपा हुआ है कई हजार सालका इतिहास। हमारी हर गलत व्याख्या हमे सच्चाई से परे करती है और बस्तर उतना ही अबूझ होता जाता है। वर्तमान में यदि इंस क्षेत्रों में उत्खनन संभव न भी हों तो भी विषय-विशेषज्ञों को यहाँ आ कर एसी अनेक प्रतिमाओं की समुचित तथा तार्किक व्याख्या कर देनी चाहिये। सबसे महत्वपूर्ण बात कि यह असाधारण प्रतिमा है तथा इसका प्राथमिकता के साथ संरक्षण किये जाने की आवश्यकता है। स्थानीय प्रशासन से मेरी विनम्र अपील है कि इस प्रतिमा को तालाब के किनारे ही संरक्षित करने की व्यवस्था की जाये जिससे कि पर्यटकों के लिये इस प्रतिमा का आकर्षण बना रहे। यदि एसा करना संभव न हो तो इस प्रतिमा को यथाशीघ्र संग्रहालय में स्थानांतरित किया जाना चाहिये। पानी से इस प्रतिमा का तेजी से क्षरण हो रहा है और हमारी यह अमूल्य विरासत मिटती जा रही है। 

आंत्रशोध, अबूझमाड़ और दो व्यवस्थायें

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दैनिक छत्तीसगढ में 14.08.2013 को प्रकाशित 

आंत्रशोध, अबूझमाड़ और दो व्यवस्थायें
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अबूझमाड़ में आंत्रशोध से हो रही मौतों पर किससे प्रश्न किया जाये? क्या इस व्यवस्था से जिसने तीन दशक पहले ही अबूझ जमीन का लाल सलाम कर दिया अथवा उस व्यवस्था से जो क्रांति का झुन्झुना बजाते अपना सिर छुपाने के लिये तम्बू मे घुसी थी और अंतत: तम्बू का मालिक ही बेदखल कर दिया गया? लगातार बस्तर के इस दुर्गम क्षेत्र में आंत्रशोध से होने वाली मौतों की खबरें आ रही हैं। यह आंकडा जितना सामने आया है उससे कई गुना अधिक हो सकता है लेकिन दुर्भाग्य यह कि हर ओर केवल मूक दर्शक ही प्रतीत हो रहे हैं। जिन क्षेत्रों में यह बीमारी घर कर गयी है वे विशुद्ध माओवादी आधार इलाके अथवा लाल-आतंकवाद प्रभावित क्षेत्र हैं। समस्या यह है कि आदिवासियों को बन्दूखों के रहमोकरम पर नहीं छोडा जा सकता और किसी भी कीमत पर प्रशासन का भीतर पहुँचना एक दायित्व है जो आसान नहीं है। कौन जाये भीतर और कैसे जाया जाये? सत्तर के दशक में तत्कालीन कलेक्टर ब्रम्हदेव शर्मा का अबूझमाड़ को मानव संग्रहालय बना कर शेष बस्तर से अलग-थलग कर देने का फैसला तथा उनके ही द्वारा इन क्षेत्रों में सड्क निर्माण की योजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल देना, आज अपने दुष्परिणाम दिखा रहा है। यह प्राथमिक कारण है कि कैसे बस्तर में माओवाद के अपनी जडें गहरी कीं। बस्तर के संदर्भ में बहुत समय तक इन विषयों पर बहस हुई है कि सड़क क्यों नहीं बनने दी जा रही, स्कूल किस लिये तोड़ दिये गये, पंचायत भवन क्यों उडा दिये गये, अस्पतालों में डॉक्टर क्यों नहीं पहुँचते आदि आदि। बहुत से तर्क-वितर्क भी सामने आये हैं जिनमे सुरक्षाबलों और नक्सलियों के द्वन्द्व को बहाना बना कर इन कारकों को सही ठहराने की कोशिश की जाती रही है। इधर इन्द्रावती तथा गोदावरी में बाढ के हालात हैं, शबरी खतरे के निशान पर है साथ ही साथ इन सरिताओं के सहायक नदियाँ-नाले भी उफान पर हैं। जो क्षेत्र मुख्य अथवा सहायक सड़कों के किनारे हैं उनतक तो प्रशासन अथवा चिकित्सा दल किसी तरह पहुँच सकता है किंतु उन स्थलों का क्या जहाँ सडकों को बनने ही नहीं दिया गया, जहाँ अस्पतालों को साँस लेने ही नहीं दिया गया और जहाँ के जनजीवन को घेर कर अलग थलग कर दिया गया है चूंकि एसा तथाकथित क्रांति को जीवित रखने के लिये आवश्यक था?

आज हालात यह हैं कि भैरमगढ ब्लॉक के माड़ इलाके में उनत्तीस मौते उलटी और दस्त के कारण हो चुकी हैं जबकि अनेक आदिवासी जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे हैं। ये तो बहुत छन कर सामने आयी जानकारियाँ हैं चूंकि इन्द्रावती नदी में आयी बाढ के कारण स्वास्थ्य अमला उन क्षेत्रों में नहीं पहुँच पाया है जहाँ आंत्रशोध की विभीषिका सर्वाधिक है यद्यपि यहाँ से निकटतम क्षेत्र कालेर के प्राथमिक स्कूल में स्वास्थ्य कैम्प अवश्य लगाया जा सका है। अबूझमाड़ के दूसरे प्रवेशद्वार नारायणपुर के निकट ओरछा के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में ही बेहतर इलाज संभव हो पा रहा है अन्यथा तो आवागमन की बुनियादी सुविधा भी उपलब्ध न होने के कारण मौतों का आंकडा बढता जा रहा है। स्वास्थ्य टीमों को भीतर जाने के निर्देश दे दिये गये हैं लेकिन प्रश्न यह है कि किस पहुँच मार्ग से?

अब बात दो व्यवस्थाओं के बीच पिसते आदिवासियों की कर लेते हैं। नक्सलियों के पास बन्दूखें चाहे कितनी भी आधुनिक हों लेकिन चिकित्सक न के बराबर हैं। जो चिकित्सा व्यवस्था उनके पास उपलब्ध भी है वह किसी महामारी से लडने में कदाचित सहायक नहीं हो सकती। समस्या दूसरी ओर भी है कि चिकित्सा अधिकारी खुद को संगीनों के सामने खडा कर के तो अपनी सेवायें प्रदान नहीं कर सकते। सामान्य परिस्थितियों में तो इन बाढ प्रभावित इलाकों में किसी न किसी तरह सेवायें पहुँचाई भी जा सकती थी लेकिन आप आपने चिकित्सकों को उस युद्ध भूमि में कैसे भेज सकते हैं जहाँ कोई कदम लैंडमाईन पर पड सकता है या कार्य करने पर वे बंधक भी बनाये जा सकते हैं, मुखबिर बता कर मार डाले जा सकते हैं? एसा कह कर मैं प्रशासन के लिये सेफ पैसेज नहीं बनाना चाहता, प्रशासन को किसी भी तरह इन अबूझ आदिवासी क्षेत्रों में पहुँचना ही होगा। यद्यपि मेरा प्रश्न बस्तर में कार्य करने का तमगा लगा कर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले स्वनामधन्य डॉक्टरों से भी है कि एसे समय में आप किन सेमीनारों, जुलूस-जलसों में व्यस्त हैं भाई? वे माओवादियों के मध्यस्त लोग कहाँ हैं जिनकी आवश्यकता है अभी, वे ही बीमार और दवा के बीच की मध्यस्तता भी कर लें? महामारी से लडने के पश्चात फिर से लाल-पीला सलाम होता रहेगा?  

हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि अबूझमाड़ भारत का विशिष्ठ क्षेत्र है जहाँ आज भी वे आदिवासी जनजातियाँ विद्यमान हैं जिनकी जीवन शैली तक में प्रागैतिहासिक अतीत के चिन्ह देखे जा सकते हैं। ये वास्तविक मूल निवासी हमेशा ही संघर्ष करने वाली जीवित कौम रही है तथा अपनी नैसर्गिकता और विरासत को समेटे हुए भी इन्होंने लगभग सत्तर के दशक तक मुख्यधारा से स्वयं को जोडे रखा था। यह तो हमारे नीति-निर्धारकों की अदूरदर्शिता का नतीजा है जो आदिवासी संस्कृति संरक्षण के नाम पर यहाँ जीवित मानव-संग्रहालयों का निर्माण कर गये। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि अबूझमाडिया नारायणपुर, दंतेवाडा या कि जगदलपुर से भी कट गया। माओवादियों के लिये अबूझमाडिया एक ढाल थे और पिछले तीन दशकों से वे ढाल ही बने हुए हैं। सामूहिक जीवन जीने वाले, सामूहिक खेती करने वाले, सामूहिक शिकार करने वाले तथा एक समान जीवन स्तर वालों के बीच किस साम्यवाद की स्थापना हो रही है, क्या कोई बता सकता है? यहाँ केवल बंदूख बोई जा रही है और उसी की फसल काटी जा रही है। इस गलतफहमी में भी रहने की आवश्यकता नहीं कि माओवादी दखल के बाद तीन दशकों ने आदिवासी जीवन मे ही कोई क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है अपितु वे लगभग सौ साल और पीछे खदेड़ दिये गये हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण आंत्रशोध फैलने के बाद उत्पन्न हुई परिस्थितियाँ हैं।

पीपली लाईव एक कालजयी फिल्म है जिसने मीडिया की कार्यशैली को उसकी नग्नता के साथ दिखाया है। नक्सली हत्याओं पर रात दिन डेरा जमा कर लाईव-कैमरा लिये घूमने वाले पत्रकारों की इन विकट परिस्थितियों के क्या बिजली सप्लाई रुक जाती है अथवा फोकस बिगड़ जाता है? अगर माओवादी परचे और गुडसा उसेंडी की प्रेसवार्ताओं को ही सम्पादकीय पन्नों पर छापने के लिये अखबार हैं तो स्वाभाविक ही है कि अबूझमाड़ की इस पीडा पर खामोशी बनी रहेगी। कुछ सौ-पचास जाने और चली जायेंगी और इससे भला किसको फर्क पड़ जाने वाला है? अबूझमाड़ तक यथासंभव चिकित्सा सहायता तथा प्रभावित परिवारों तक मदद पहुँचाये जाने की आवश्यकता है। माओवादियों को भी इस समय मानवता दिखानी चाहिये तथा कोशिश होनी चाहिये कि प्रभावित ग्रामीणों को निकटतम चिकित्सा केन्द्रों में लाया जा सके। सडकों के अभाव में 108 एम्बुक्लेंस आदि यहाँ किसी काम की सिद्ध नहीं हो सकती, उसपर प्राकृतिक अवरोध तथा जल-प्लावन की स्थितियाँ भी बाधक बनी हुई हैं। यदि संचार माध्यम अबूझमाड़ की इन परिस्थितियों को बडी खबर मानेंगे तभी एक दबाव दोनो ही व्यवस्थाओं पर निर्मित हो सकता है तथा इस महामारी से अबूझमाडिया साथियों की जान बचाई जा सकती है।
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अश्रुपूरित है बस्तर – विदा लाला जगदलपुरी

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अभी दो माह पहले ही मैं लाला जगदलपुरी से उनके निवास पर मिला था। उनका जीवन पूरी तरह एक बिस्तर पर सिमट गया था। बहुत कोशिश के बाद उन्होंने मुझे पहचाना और मैने उनका कपकपाता हुआ हाथ पकड़ लिया। यह उनसे मेरी आखिरी मुलाकात थी। लाला जी का आखिरी साक्षात्कार भी मैने ही लगभग एक वर्ष पूर्व लिया था और तब सु:ख़द आश्चर्य यह था कि उन्होंने लिख कर सभी प्रश्नों के उत्तर दिये। विश्वास ही नहीं होता कि लाला जगदलपुरी अब हमारे बीच नहीं रहे। उनका देहावसान 14.08.2013 की सायं 5:00 बजे तिरानबे वर्ष की आयु में हुआ। दण्डकवन के इस ऋषि को बस्तर क्षेत्र के पर्यायवाची के रूप में जाना जाता था। रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव के समय में दुर्ग क्षेत्र से चार परिवार विस्थापित हो कर बस्तर आये थे। इन परिवारों के मुखिया थे - लोकनाथ, बाला प्रसाद, मूरत सिंह और दुर्गा प्रसाद। इन्ही में से एक परिवार जिसके मुखिया श्री लोकनाथ बैदार थे, वे शासन की कृषि आय-व्यय का हिसाब रखने का कार्य करने लगे। उनके ही पोते के रूप में श्री लाला जगदलपुरी का जन्म 17दिसम्‍बर 1920को जगदलपुर में हुआ था। लाला जी के पिता का नाम श्री रामलाल श्रीवास्तव तथा माता का नाम श्रीमती जीराबाई था। लाला जी तब बहुत छोटे थे जब पिता का साया उनके सिर से उठ गया तथा माँ के उपर ही दो छोटे भाईयों व एक बहन के पालन-पोषण का दायित्व आ गया। लाला जी के बचपन की तलाश करने पर जानकारी मिली कि जगदलपुर में बालाजी के मंदिर के निकट बालातरई जलाशय में एक बार लाला जी डूबने लगे थे; यह हमारा सौभाग्य कि बहुत पानी पी चुकने के बाद भी वे बचा लिये गये।

लाला जी का लेखन कर्म 1936में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि थे। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं मिमियाती ज़िन्दगी दहाडते परिवेश (1983); पड़ाव (1992); हमसफर (1986) आँचलिक कवितायें (2005); ज़िन्दगी के लिये जूझती ग़ज़लें तथा गीत धन्वा (2011)। लाला जगदलपुरी के लोक कथा संग्रह हैं हल्बी लोक कथाएँ (1972); बस्तर की लोक कथाएँ (1989); वन कुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990); बस्तर की मौखिक कथाएँ (1991)। उन्होंने अनुवाद पर भी कार्य किया है तथा प्रमुख प्रकाशित अनुवाद हैं हल्बी पंचतंत्र (1971); प्रेमचन्द चो बारा कहानी (1984); बुआ चो चीठीमन (1988); रामकथा (1991) आदि। लाला जी नें बस्तर के इतिहास तथा संस्कृति को भी पुस्तकबद्ध किया है जिनमें प्रमुख हैं बस्तर: इतिहास एवं संस्कृति (1994); बस्तर: लोक कला साहित्य प्रसंग (2003) तथा बस्तर की लोकोक्तियाँ (2008)। यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का बहुत सा कार्य अभी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्य वश कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर लिये गये। यह 1971की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से बाहर गये थे कि एक गाय नें यह सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये; आज भी लाला जगदलपुरी की अनेक पाण्डुलिपियाँ अ-प्रकाशित हैं किंतु हिन्दी जगत इतना ही सहिष्णु व अच्छे साहित्य का प्रकाशनिच्छुक होता तो वास्तविक प्रतिभायें और उनके कार्य ही मुख्यधारा कहलाते।

लाला जगदलपुरी जी के कार्यों व प्रकाशनों की फेरहिस्त यहीं समाप्त नहीं होती अपितु उनकी रचनायें कई सामूहिक संकलनों में भी उपस्थित हैं जिसमें समवांय, पूरी रंगत के साथ, लहरें, इन्द्रावती, हिन्दी का बालगीत साहित्य, सुराज, छत्तीसगढी काव्य संकलन, गुलदस्ता, स्वरसंगम, मध्यप्रदेश की लोककथायें आदि प्रमुख हैं। लाला जी की रचनायें देश की अनेकों प्रमुख पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में भी स्थान बनाती रही हैं जिनमें नवनीत, कादम्बरी, श्री वेंकटेश्वर समाचार, देशबन्धु, दण्डकारण्य, युगधर्म, स्वदेश, नई-दुनिया, राजस्थान पत्रिका, अमृत संदेश, बाल सखा, बालभारती, पान्चजन्य, रंग, ठिठोली, आदि सम्मिलित हैं। लाला जगदलपुरी नें क्षेत्रीय जनजातियों की बोलियों एवं उसके व्याकरण पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। लाला जगदलपुरी को कई सम्मान भी मिले जिनमें मध्यप्रदेश लेखक संघ प्रदत्त अक्षर आदित्य सम्मानतथा छत्तीसगढ शासन प्रदत्त पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मानप्रमुख है। लाला जी को अनेको अन्य संस्थाओं नें भी सम्मानित किया है जिसमें बख्शी सृजन पीठ, भिलाई; बाल कल्याण संस्थान, कानपुर; पड़ाव प्रकाशन, भोपाल आदि सम्मिलित है। यहाँ 1987की जगदलपुर सीरासार में घटित उस अविस्मरणीय घटना को उल्लेखित करना महत्वपूर्ण होगा जब गुलशेर अहमद खाँ शानी को को सम्मानित किया जा रहा था। शानी जी स्वयं हार ले कर लाला जी के पास आ पहुँचे और उनके गले में डाल दिया; यह एक शिष्य का गुरु को दिया गया वह सम्मान था जिसका कोई मूल्य नहीं; जिसकी कोई उपमा भी नहीं हो सकती।

केवल इतनी ही व्याख्या से लाला जी का व्यक्तित्व विश्लेषित नहीं हो जाता। वे नाटककार एवं रंगकर्मी भी थे। 1939में जगदलपुरे में गठित बाल समाज नाम की नाट्य संस्था का नाम बदल कर 1940में सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख दिया गया। इस ससंथा द्वारा मंचित लाला जी के प्रमुख नाटक थे पागल तथा अपनी लाज। लाला जी नें इस संस्था द्वारा मंचित विभिन्न नाटकों में अभिनय भी किया था। 1949में सीरासार चौक में सार्वजनिक गणेशोत्सव के तहत लाला जगदलपुरी द्वारा रचित तथा अभिनित नाटक अपनी लाजविशेष चर्चित रहा था। लाला जी बस्तर अंचल के प्रारंभिक पत्रकारों में भी रहे हैं। वर्ष 1948 – 1950तल लाला जी नें दुर्ग से पं. केदारनाथ झा चन्द्र के हिन्दी साप्ताहित ज़िन्दगीके लिये बस्तर संवाददाता के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने हिन्दी पाक्षिक अंगारा का प्रकाशन 1950में आरंभ किया जिसका अंतिम अंक 1972में आया था। अंगारा में कभी ख्यातिनाम साहित्यकार गुलशेर अहमद खां शानी की कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं; उल्लेखनीय है कि शानी भी लालाजी का एक गुरु की तरह सम्मान करते थे। लाला जगदलपुरी 1951में अर्धसाप्ताहिक पत्र राष्ट्रबंधुके बस्तर संवाददाता भी रहे। समय समय पर वे इलाहाद से प्रकाशित लीडर”; कलकत्ता से प्रकाशित दैनिक विश्वमित्ररायपुर से प्रकाशित युगधर्मके बस्तर संवादवाता रहे हैं। लालाजी 1984में देवनागरी लिपि में निकलने वाली सम्पूर्ण हलबी पत्रिका बस्तरियाका सम्पादन प्रारंभ किया जो इस अंचल में अपनी तरह का अनूठा और पहली बार किया गया प्रयोग था। लाला जी न केवल स्थानीय रचनाकारों व आदिम समाज की लोक चेतना को इस पत्रिका में स्थान देते थे अपितु केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल, गोरख पाण्डेय और निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकारों की रचनाओं का हलबी में अनुवाद भी प्रकाशित किय जाता था। एसा अभिनव प्रयोग एक मिसाल है; तथा यह जनजातीय समाज और मुख्यधारा के बीच संवाद की एक कडी था जिसमें संवेदनाओं के आदान प्रदान की गुंजाईश भी थी और संघर्षरत रहने की प्रेरणा भी अंतर्निहित थी।

लाला जगदलपुरी से जुडे हर व्यक्ति के अपने अपने संस्मरण है तथा सभी अविस्मरणीय व प्रेरणास्पद। लाला जगदलपुरी के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह नें शासकीय सहायता का प्रावधान किया था जिसे बाद में आजीवन दिये जाने की घोषणा भी की गयी थी। आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शासन नें 1998 में यह सहायता बिना किसी पूर्व सूचना के तब बंद करवा दी; जिस दौरान उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। लाला जी नें न तो इस सहायता की याचना की थी न ही इसे बंद किये जाने के बाद किसी तरह का पत्र व्यवहार किया। यह घटना केवल इतना बताती है कि राजनीति अपने साहित्यकारों के प्रति किस तरह असहिष्णु हो सकती है। लाला जी की सादगी को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेष सुलभ एक घटना का बहुधा जिक्र करते हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जगदलपुर आये थे तथा अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए उन्होंने लाला जगदलपुरी से मिलना निश्चित किया। मुख्यमंत्री की गाडियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड गया। लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। लाला जी इसी तरह की सादगी की प्रतिमूर्ति थे।

कार्य करने की धुन में वे अविवाहित ही रहे थे। जगदलपुर की पहचान डोकरीनिवास पारा का कवि निवास अब लाला जगदलपुरी के भाई व उनके बच्चों की तरक्की के साथ ही एक बडे पक्के मकान में बदल गया है तथापि लाला जी घर के साथ ही लगे एक कक्ष में अत्यधिक सादगी से रह रहे थे। इसी कक्ष में उन्होंने अंतिम स्वांस ली। लाला जगदलपुरी का न होना एक अपूर्णीय क्षति है; उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।


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“डॉक्टर खान देवा - स्वीकार करो अंड़े”

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सांध्य दैनिक "छत्तीसगढ"में दिनांक 12.09.2013 को प्रकाशित


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बहुत सी राजनीतियाँ हैं जो समाज पर छुरियाँ चलाती हैं और इसके हिस्से-हिस्से एक दूसरे के मुँह पर मल कर जश्न करती प्रतीत होती हैं। हम कैसे बुने गये यह आज महत्व का नहीं रहा जबकि हमें कैसे उधेडा जा सकता है यही सभी के चिंतन का विषय बना हुआ है। आस्तिकताओं के पंथ हैं तो नास्तिकता का अपना ही घमंड कि वही समाज में बदलाव के नये पन्ने लिखने के काबिल है। मुजफ्फरनगर में बह रहा खून और बस्तर में बह रहा लहू यह साम्यता तो दिखाता ही है कि रक्त केवल धार्मिक प्रतिद्वन्दिवता के कारण ही नहीं बहाया जाता अपितु नाहक और अकारण नास्तिकताओं ने भी झंडा थाम कर निर्दोषों पर ट्रिगर दबा दबा कर बहाया है। एसे में कभी कभी बुद्ध याद आते हैं। बुद्धत्व प्राप्ति के लिये सिद्धार्थ मगध जनपद के सैनिक सन्निवेश उरूबेला पहुँचे और निरंजना नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे कटोर तपस्या में लीन हो गये। छ: साल तक कठोर तपस्या लेकिन हाथ रीते? शरीर सूख कर काँटा हो चुका था और प्राण साथ छोडना चाहते थे। तभी जंगल में स्त्रियों का एक समूह गीत गाता हुआ गुजरा जिसके निहितार्थ थे कि वीणा के तार को इतना भी नहीं कसना चाहिये कि वह टूट जाये और इतना ढीला भी नहीं छोडना चाहिये कि उससे कोई आवाज़ ही न निकल सके। बस इसी क्षण बुद्ध को मध्यममार्ग का बोध हुआ। बुद्ध ने एक महिला सुजाता के हाथ खीर ग्रहण कर अपना उपवास तोड दिया और शरीर को तपाने की जगह सत्यबोध में जुट गये। यही मर्म हर नाविक जानता है कि समंदर तक नौका को खेना है तो धार के साथ चलना होगा यदि उद्गम तक पहुँचना है तो धार के विपरीत चलना होगा किंतु किसी भी स्थिति में किनारों की छीना झपटी का कोई निहितार्थ नहीं। 

यह भूमिका लम्बी प्रतीत हो सकती है लेकिन असहिष्णु हो चुके वर्तमान परिवेश को आईना अवश्य दिखाती है। मैं बस्तर से संबंधित एक घटना पर चर्चा को ले जाना चाहता हूँ जो घुलने मिलने वाले समाज, सहिष्णु परिवेश और अनुकरणीय परिस्थिति का अनूठा उदाहरण है। बात बस्तर के प्रवेशद्वार कांकेर से कुछ दूर घाटियों में अवस्थित केशकाल कस्बे की है। मैं पत्रकार मित्र कमल शुक्ला के साथ केशकाल पहुँचा और यहाँ कृष्ण दत्त उपाध्याय जी से मेरी मुलाकात हुई। केशकाल में मेरी रुचि आंगाओ (आदिवासी देव स्वरूपों) को ले कर थी। केशकाल निवासी श्री कृष्ण दत्त उपाध्याय ने स्थानीय देवी-देवताओं एवं आदिवासी परम्पराओं पर महत्वपूर्ण कार्य किया है वे मेरे गाईड बने और हम नगर परिसर से दूर वन परिधि के प्रारंभ होने की अवस्थिति में उस स्थान पर पहुँचे जहाँ भंगाराम देवी का मंदिर बना हुआ है। असाधारण शक्तिशाली देवी हैं भंगाराम और यदि उनकी प्रतिमा को ध्यान से देखा जाये तो इसकी निर्मिति में दक्षिण का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। खपरैल की कुटिया सदृश्य मंदिर जिसके सामने एक प्राचीन काष्ठ स्तम्भ गडा हुआ था जिसके आगे साल-दर-साल होने वाली भादो जात्रा में गाडे जाने वाले सैंकडो लौह त्रिशूल गडे हुए थे। हम पोला त्यौहार के दिन यहाँ पहुँचे थे। मंदिर प्रांगण में केवल दो आदिवासी पुजारी ही मौजूद थे और पूरी तन्यमता से भंगाराम देवी के लिये भोग बना रहे थे। भोग के लिये चावल को पीस लिया गया था जिसमें मीठा और तैलीय पदार्थ मिला कर अब उसे गूंथा जा रहा था। इसे छोटे छोटे गोलाकार में बदला जाना था जिसे तलने के पश्चात भोग स्वरूप देवी के आगे प्रस्तुत किया जाना था। इन पुजारियों की आस्था भी कितनी गैर दिखावटी है, वे जानते हैं कि आज किसी को मंदिर नहीं आना है लेकिन परम्परा कहती है कि आज देवी को विशिष्ठ भोग लगाया जाना है तो दोनो बियाबान में निर्मिप्त भाव से लगे हुए हैं। 

इस मंदिर और यहाँ से जुडी मान्यताओं पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन तभी मुझे एक पुजारी ने आवाज़ दे कर एक ओर बुलाया। वह मंदिर परिसर के दाहिनी ओर बने उन खुले कक्षों में अवस्थित देवी देवताओं के विषय में बताना चाहता था। कृष्ण दत्त उपाध्याय जी ने केशकाल का वासी होने के गर्व के साथ कहा कि यह स्थान साम्प्रदायिक सौहार्द का उदाहरण है तो मैं चौंक गया। बस्तर में आस्तिकों और नास्तिकों की खूनी साम्प्रदायिकता तो जाहिर है और उसपर पूरी दुनिया की निगाह गडी हुई है लेकिन इससे इतर क्या? अब पुजारी ने मेरा ध्यान खींचा और एक पाषाण प्रतिमा की ओर इशारा कर बताया कि “ये डॉक्टर खान देव हैं। मुसलमान देवता है।” 

पुजारी के दिये विवरण के हर शब्द ध्यान खींच रहे थे। मैने अपने मोबाईल का ऑडियो रिकॉर्डर ऑन किया और पुजारी के पास चला आया। मैने पूछा कि क्या यह प्रतिमा किसी डॉक्टर की है? क्या वे मुसलमान थे? वे देवता कैसे बन गये? उत्तर भी आश्चर्यचकित कर देने वाला था। जो मैं समझ सका उसके अनुसार अतीत में कभी बस्तर क्षेत्र में हैजा महामारी की तरह फैल गया था। तब इन क्षेत्रों में बचाव के लिये राजा और ब्रिटिश सरकार द्वारा चिकित्सकों की नियुक्ति की गयी थी। इन्ही में से एक चिकित्सक रहे होंगे जिनका पूरा नाम तो ग्रामीणों को याद नहीं किंतु घटना को कई पीढिया गुजर जाने के बाद आज भी इतनी जानकारी शेष है कि वे डॉक्टर कोई खान थे और मुसलमान थे। कहते हैं कि डॉक्टर खान ने अपनी मेधा और ज्ञान को इन आदिवासियों का जीवन बचाने के लिये समर्पित कर दिया। पुजारी के विवरण के अनुसार डॉ. खान के छडी घुमाने से महामारी गाँव छोड कर भाग रही थी। बारीकी से समझने की कोशिश करता हूँ तो लगता है कि डॉ. खान ने तब स्वयं को महाज्ञानी मान कर अपकी चिकित्सकीय पेटी खोलने के स्थान पर प्रचलित धार्मिक मान्यताओं, सिरहाओं और ओझाओं के माध्यम से लोगों को अपनी दवाईयों के साथ जोडा होगा। देवी का आदेश ग्रामीणों को चिकित्सक तक खीच लाया होगा और डॉ. खान ने ज्ञान और परम्परा को साथ जोड कर उपचार का सर्वमान्य रास्ता निकाल लिया होगा और इससे उन्हे महामारी से लडने में सहायता मिली होगी। उपलब्ध जनश्रुति कहती है कि महामारी से लडते हुए स्वयं इस बीमारी का डॉ. खान शिकार हो गये और अपना दम तोड दिया। 

यहाँ तक तो एक संघर्षशील इंसान की कहानी है लेकिन इसके पश्चात एक प्रेरक और अनुकरणीय उदाहरण देखने को मिलता है। जन-मान्यता है कि देवी भंगाराम इस मुसलमान चिकित्सक से बेहद प्रसन्न थी जो उसकी आज्ञा से उसके ही भक्तों को महामारी से बचा रहा था। इस मुसलमान चिकित्सक की मौत होते ही देवी ने आज्ञा दी कि डॉ. खान हमेशा ही उनके सहयोगी रहेंगे और ‘डाक्टर खान देवा’ बन कर उनसे साथ काम करते रहेंगे। आज इस घटना को सैंकडो साल बीत गये लेकिन डॉ. खान आज भी जन मान्यताओं में जीवित हैं। देवी भंगाराम की आज्ञा से उनका एक पाषाण बुत स्थापित किया गया है। आज भी केशकाल और इसके आसपास अवस्थित क्षेत्रों में किसी भी तरह की बीमारी फैलने पर उसकी चिकित्सा का दायित्व डॉक्टर खान देवा पर ही है। डॉ. खान देवा को विधिवत अंडे तथा नीबू चढाया जाता है और देवी के सहयोगी के रूप में आज भी भरपूर सम्मान प्रदान किया जाता है। पुजारी सगर्व बताता है कि ये मुसलमान देवा हैं जो हमें व्याधि-बीमारियों से बचा कर रखते हैं। 

साम्प्रदायिकता क्यों है इसपर बहस बेमानी है, आस्था क्या है इस पर भी कई बैद्धिजीविक थ्योरी बाजार से खरीदी जा सकती है; लेकिन डॉक्टर खान देवा हर सवाल का खामोश उत्तर हैं। बुतपरस्ती के खिलाफ खडे धर्म के मानने वाले डॉ. खान आज आदिवासी समाज द्वारा स्वयं एक बुत बना दिये गये हैं। यही नहीं पूरी आस्था और सम्मान के साथ वे सिन्दूर से भी पोते जाते हैं, अगरबत्तियाँ उनके गिर्द खोंची जाती हैं, वे अंडा भोग के रूप में स्वीकार करते हैं। वे आज भी अपनी इस बेमिसाल उपस्थिति से आदिवासी समाज को एक मनोवैज्ञानिक ढाढस दिये रखते हैं कि कोई महामारी उनके रहते इस क्षेत्र को छू भी नहीं सकती। तो मुझसे मार्क्स लाख कहे कि धर्म अफीम है लेकिन मैं हजार बार डॉ. खान के इस बुत के आगे नत-मस्तक होने के लिये तैयार हूँ जिनकी मौन उपस्थिति आज भी सार्थक है। आदिवासी समाज अपनी धार्मिक मान्यताओं को तर्क के साथ स्वीकार करता है। इसी भंगाराम मंदिर के पीछे वह स्थल भी है जहाँ देवी देवताओं के खिलाफ उसके भक्त शिकायत प्रस्तुत करते हैं। यहाँ देवी देवताओं को दंडित करने, उन्हें कैद करने, यहाँ तक कि उन्हें नष्ट करने तक का विधान है और यह सब कुछ इसलिये कि एसे देवताओं का क्या लाभ जो उसे मानने वालों के अनुरूप नहीं, जिसमे उसे मानने वालों को व्याधियों से मुक्त कराने का सम्बल नहीं और जिसके पास उसपर भरोसा रखने वालों के प्रश्नो के उत्तर नहीं। यह एक लम्बा विषय है अत: पुन: डॉ. खान देवा पर लौटते हैं। साम्प्रदायिकता के खिलाफ सोच तभी पैदा हो सकती है जब डॉ. खान देवा जैसे सच मुख्यधारा कहे जाने वाले विचारकेन्द्रों तक पहुँचें और चर्चा का कारण बनें। ये कहानियाँ केवल अचरज से सुने जाने के लिये न हों अपितु पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा बनें जिससे कि हर छात्र यह जान सके कि किसी भंगाराम देवी के मुसलमान सहायक देवता भी हो सकते हैं अर्थात देवता होना किसी चमत्कार पर नहीं, किसी धर्म विशेष की मिल्कियत नहीं अपितु परोपकार पर निर्भर करता है। हर वह व्यक्ति जो अपने समाज के लिये समर्पण के साथ जुटता है और जूझता है वह देवता बना दिया जाता है और कृतज्ञतायें उसे हर काल में जीवित रखती हैं। 

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वो सुबह हमीं से आयेगी

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साहिर लुधियानवी ने गीत लिखा था “वह सुबह हमीं से आयेगी” और इस गीत की कुछ पंक्तियाँ बहुत खूबसूरत सपने को सार्थक करने का रास्ता दिखाती हैं – 

संसार के सारे मेहनतकश, खेतो से, मिलों से निकलेंगे
बेघर, बेदर, बेबस इन्सां, तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और खुशहाली के, फूलों से सजाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी।

संभवत: फिल्म की मांग के अनुरूप साहिर ने गीत के मुखडे को बदल दिया – “वो सुबह कभी तो आयेगी”। यह गीत आज भी एक नया समाज बनाने और व्यवस्था में सुधार अथवा बदलाव देखने वालों की जुबां जुबां पर है। साहिर साहब ने अपने बदले हुए गीत में सपना तो दिया लेकिन समाधान हटा दिया कि “वो सुबह हमीं से आयेगी”। यही कारण है कि अपने अपने झंडों और नारों के साथ लोग आसमान ताकते दिखाई देते हैं कि काले मेघा आयेंगे, पानी बरसा जायेंगे कितु कोई भी अब खेत जोतने को तैयार नहीं। बस्तर एक एसी जगह है जहाँ साहिर का गीत “वो सुबह कभी तो आयेगी” नुक्कडों-नुक्कडों गाया गया है लेकिन इसे मुमकिन बनाने वाले लोग कौन हैं? 

नारायणपुर अबूझमाड के प्रवेशद्वार पर बसा नगर है। वस्तुत: अबूझमाड की जीवनधारा के साथ यह शहर कई मायनो में गुथा हुआ है। यही पर रामकृष्ण आश्रम भी मौजूद है जिसके प्रयासो से हर वर्ष अबूझमाड से अनेक शिक्षित और रोजगार में प्रशिक्षित युवक/युवतियाँ बाहर आ रहे हैं। वस्तुत: हर संस्था अपने बुनियादी रूप में एक इकाई होती है और आज मैं एक इकाई की ही चर्चा करना चाहता हूँ। बात पचास के दशक की है। रियासतकालीन बस्तर में राजकीय कर्मचारी श्री पूरनसिंह ठाकुर के पुत्र श्री राम सिंह ठाकुर आज बस्तर के सम्मानित साहित्यकारों, पत्रकारों, फोटोग्राफर आदि आदि में गिने जाते हैं। रामसिंह जी पचास के दशक में जब नारायणपुर में बसे तब इस नगर में बुनियादी सुविधा नगण्य थी। बस्तर, विशेषकर अबूझमाड उन दिनो भी विदेशियों की अभिरुचि का महत्वपूर्ण केन्द्र था। यहाँ कोई फोटोग्राफर नहीं था। संभव भी नहीं था चूंकि तब फोटोग्राफी कोई सस्ती अथवा साधारण तकनीक की विधा नहीं थी। कैमरा भी ले लिया और तस्वीर भी खींच ली लेकिन अब आप रोल को डेवलप कहाँ करेंगे? तब नारायणपुर से रायपुर पहुँच पाना ही एक बडा काम हुआ करता था। रामसिंह जी ने जगदलपुर के सिनेमाघरों मे फिल्म दिखाने का कार्य करते हुए प्रोजेक्टर के साथ कुछ समय बिताया था। केवल अनुभव ही से प्रकाश, फिल्म तथा उसके दृश्य बनने के सिद्धांत को उन्होंने समझ लिया था। कहते हैं कि किसी निश्चयी व्यक्ति को रास्ते के कांटे तो क्या खाई और पर्वत भी नहीं रोक पाते। श्री रामसिंह ठाकुर ने प्रयोग के तौर पर अपने खपरैल और मिट्टी के घर में ही एक डार्क रूम का निर्माण किया। छत की सूर्य से निर्धारित कोण और अवस्थिति माप कर खपरैल हटायी गयी और निश्चित मात्रा में ही रोशनी को कमरे के भीतर आने देने का मार्ग बनाया गया। इसके बाद फिल्म डेवलप करने के लिये लगने वाले फिक्शर्स और कलर्स के लिये भी कई एसे प्रयोग किये गये जिसे हम कभी कभी जुगाड टेक्नोलॉजी कह कर आज उपहास कर लेते हैं। फाईनल आउटपुट या कि फोटो जिस प्रिंटिंग पेपर में निकलनी है इसके बडे बडे रोल रामसिंह जी ने नारायणपुर में ला कर बाकायदा फोटोग्राफी के लिये स्टूडियो खोल लिया था। कहते हैं कि एक अमरेकी महिला फोटोग्राफर जिसे उसकी खीची हुई तस्वीरें कुछ बडे आकार में चाहिये थी उसे नारायणपुर में ही उस दौर में उपलब्ध हो गयीं तो बडे ही अविश्वास के साथ वह रामसिंह जी का डार्करूम देखने पहुँची। उस अमेरिकी महिला और उसके विदेशी साथियों की आँखें आश्चर्य और अविश्वास से खुली रह गयी थी कि बस्तर के नारायणपुर जैसे कस्बे में एसा स्टूडियो भी हो सकता था जहाँ जिस आकार की चाहो उस आकार की तस्वीर डेवलप कर प्रदान की जा सकती थी वह भी बिना बिजली और आधुनिक तकनीक की उपलब्धता के।

पिछले तीन दशकों से लाल-आतंकवाद और वर्तमान व्यवस्था के बीच आहिस्ता आहिस्ता पिसता हुआ अबूझमाड अपनी पहचान, जिजीविषा, संघर्ष करने की ताकत और मुस्कुराहट से महरूम होता जा रहा है। रामसिंह ठाकुर जैसे जुझारू व्यक्तित्व ने अपने परिवेश को जो देना था वह दे दिया है लेकिन क्या इससे बात आगे बढ सकी? इतना तो तय है कि नारायणपुर का समय बदला है और यहाँ अब बिजली भी है, मोबाईल भी आ पहुँचे हैं, इंटरनेट भी है और कदाचित डिशटीवी के कारण जगमगाती सपनीली दुनिया की झांकी भी है। नारायनपुर अवश्य बदल गया किंतु अबूझमाड वहीं का वहीं ठहरा हुआ है। रामसिंह ठाकुर जी से मुलाकात करने मैं नारायणपुर (4.09.2013) पहुँचा था और मेरे साथ हरिहर वैष्णव तथा कमल शुक्ला भी थे। वापस लौटने के क्षणों में उनके छोटे पुत्र राकेश सिंह ने आग्रह किया कि हम उनके स्टूडियो भी देखते चलें। राकेश ने अपने पिता की विरासत संभाल ली है और नारायणपुर में वे फोटोग्राफी-वीडियोग्राफी को न केवल व्यवसाय अपितु कला के रूप मे भी आत्मसात किये हुए हैं। हाल ही में उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त स्टूडियो बनवाया है जिसका उद्घाटन अभी होना है। इसे देखने के पश्चात हम राकेश के कार्यस्थल पहुँचे। भीतर प्रवेश करते ही मैं ठिठक गया। एक लडकी एसएलआर कैमरा ले कर फोटो खीच रही थी और दो अन्य सर्वश्रंगार युक्त आदिवासी लडकियाँ सामने खडी हो कर अपनी तस्वीर खिंचवा रही थी। प्रथमदृष्टया यह सामान्य दृश्य ही प्रतीत हो रहा था जब तक कि राकेश ने नहीं बताया कि न केवल तस्वीर खिचवाने वाली अपितु खींचने वाली लडकी भी अबूझमाड की आदिवासी बाला है। एक क्षण के लिये मेरा रोम रोम रोमांचित हो उठा चूंकि मेरी कल्पना में रामसिंह ठाकुर जी का वही डार्करूम कौंध उठा जिसके भीतर सूरज की रोशनी एक निश्चित कोण से प्रवेश कर रही थी। यह उसी रोशनी से जगमगाता हुआ दृश्य है जिसमे बिना किसी नारे-झंडे के बदलाव लाने की ताकत है। यह अबूझमाड को मिली एक और दिशा है और इसका वर्तमान आपको चाहे जितना साधारण प्रतीत हो रहा हो, भविष्य की कल्पना कर तो देखिये। सोचिये एक दिन बदलेगा अबूझमाड, कल्पना कीजिये कि कैमरा थामे इस लडकी के पास क्रांति का वह बीज है जो उनके पास भी नहीं जिन्हें थमा दी गयी है बंदूख। यह एसा उत्तर है जिसे प्रश्न स्वयं हमारी अपनी व्यवस्था ने ही बनाया है। चलिये साहिर के ही सपनीले गीत पर लौटते हैं इस अभिप्राय के साथ कि अपने बस्तर में वो सुबह हमीं से आयेगी - 

फ़ाको की चिताओं पर जिस दिन, इन्सां न जलाये जायेंगे
सीनों के दहकते दोज़ख में, अरमां न जलाये जायेंगे
ये नरक से भी गन्दी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

-राजीव रंजन प्रसाद
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एक था चेन्द्रू

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चेन्द्रू नहीं रहा। चेन्द्रू जब था तब भी उसके होने से किसी को बहुत फर्क नहीं था। बहुत से गुमनाम नायकों की कतार में एक वह भी था जिसने कभी जीवन में हॉलीवुड की चमक दमक देखी; लाईट. कैमरा और साउंड जैसे सम्मोहित करने वाले शब्दों के आगे वह कभी शेर से खेला तो कभी जंगल के उस स्वाभाविक जीवन को रुपहले पर्दे पर उतारने में सहायक बना जिसमे वह स्वयं जीता रहा था। वर्ष 1988-89 की बात है जब मैने पहली बार चेन्द्रू का नाम सुना था। पत्रकार मित्र केवलकृष्ण को कहीं से यह जानकारी प्राप्त हुई थी कि बस्तर में किसी आदिवासी बालक ने हॉलीवुड की फिल्म में काम किया था। इस सूत्र को पकड कर उसने बस्तर के प्रख्यात रिसर्चर इकबाल से मुलाकात की और वहाँ से पहली बार उसे चेन्द्रू का पता मिला।   

चेन्द्रू होने के क्या मायने हैं? क्या केवलकृष्ण को जब इकबाल भाई ने पहली बार चेन्द्रू का पता बताया और वो उनसे अबूझमाड़ के प्रवेशद्वार पर अवस्थित गाँव ‘गढ-बंगाल’ में मिले तब क्या यह जानते थे कि जिस व्यक्ति पर अखबार के लिये न्यूज फीचर करने जा रहे हैं वह पूरे बस्तर के लिये विरासत है? चेन्द्रू निश्चित ही अमिताभ बच्चन नहीं है और इसलिये उसकी गुमनामी तय है लेकिन यह बताना आवश्यक है कि मोगली और टारजन जैसे काल्पनिक किरदारों की भीड में वह एक जीता जागता नायक था। यह ठीक है कि बात छप्पन साल पुरानी है और वर्ष 1957 में स्वीडिश फिल्मकार अर्न सक्सिडॉर्फ की फिल्म 'एन डीजंगलसागा' ('ए जंगल सागा'या 'ए जंगल टेल'अथवा अंगरेजी शीर्षक 'दि फ्लूट एंड दि एरो') का नायक था चेन्द्रू। फिल्म में वास्तविक शेर से किसी खिलौने सा खेलता हुआ चेन्द्रू अपने नायकत्व से अनेक जंगल आधारित सिनेकारों पर मुस्कुरा कर यह कहता अवश्य प्रतीत होता है कि “नक्कालों से सावधान!!”। 

सिनेकार के लिये चेन्द्रू महज एक किरदार ही तो था जिसकी इतिश्री फिल्म के बनते ही हो गयी। इसके बाद फिल्म की एक डिस्क-प्रति, सिनेकार की हस्ताक्षरित एक किताब जो चेन्द्रू के कार्यों और उसकी अद्भुत तस्वीरों का प्रस्तुतिकरण भर थी, को थमा कर उसने कभी जानने की कोशिश भी नहीं की कि उसका ‘बस्तरिया माडिया नायक’ आगे किस हाल में रहा और कैसा जीवन जीता रहा। यद्यपि यह जानकारी मिलती है कि दस वर्ष के चेन्द्रू को तब फिल्मकार अर्न सक्स डॉर्फ गोद भी लेना चाहते थे किंतु उनका अपनी पत्नी से तलाक होने के पश्चात यह संभव न हो सका। हर नायक ताउम्र चमक-दमक मे नहीं रहता; बहुत से सुपरस्टार राजेशखन्ना बन जाते हैं और उम्र के आखिरी पडाव में दोयम दर्जे की छत्तीसगढी फिल्म में अभिनय करते दिखाई पडते हैं...कितने हैं जो फिर हल उठा लेते हैं; फिर अपनी लंगोट में आ जाते हैं; फिर अपनी झोपडी को घर मानने लगते हैं और फिर अपने गाँव में अपने साथियों के साथ ताड़ी-लांदा से अलमस्त यह भूल पाते हैं कि जीवन में उन्होंने लाईट-कैमरा-एक्शन की चमत्कारी दुनिया भी देखी हुई है? 

केवल कृष्ण ने बताया था कि जब पहली बार चेन्द्रू से मिलने गढबंगाल पहुँचा तो वह किसी बीमार की झाड़-फूंक करने गया था। उसे चेन्द्रू को देख कर यकीन ही नहीं हुआ कि यही व्यक्ति एक हॉलीवुड फिल्म का नायक भी रह चुका है और इसी ने बस्तर के प्रतिनिधित्व को वैश्विक बनाया है। नायक भी कैसा, जो यह जानता ही नहीं कि उसके काम की अहमियत क्या थी? एक फटी-चिटी किताब जिसमे सिनेकार ने अपना हस्ताक्षर कर चेन्द्रू को हस्तगत किया था वस्तुत: वही प्रमाण के रूप में चेन्द्रू के पास उपलब्ध था। इस फटी-मुडी किताब में प्रकाशित चेन्द्रू की तस्वीरें देख कर किसी की भी आँखें फटी रह सकती थी। प्रश्न केवल अभिनय की स्वाभाविकता का नहीं है चूंकि चेन्द्रू पर तो वही फिल्माया जा रहा था जो उसका जीवन है, यहाँ से कई मुद्दे उभर कर आते हैं। स्वीडिश फिल्मकार ने चेन्द्रू का जीवन तो प्रस्तुत किया किंतु उसे पहचान नहीं दी। भारत में उन दिनो भी फिल्म का जुनून था और तब भी यह आवश्यकता नहीं समझी गयी कि स्वीडिश फिल्म ‘जंगल सागा’ या कि अंग्रेजी रूपांतरण 'दि फ्लूट एंड दि एरो'हिन्दी में ‘जंगल गाथा’ बन कर सामने आ पाती। हिन्दी में जंगल पर बनने वाले बदन-दिखाऊ और अश्लील टार्जनों के सामने एक आईना तो होता? जाने दीजिये हम न तब जागरूक थे और न अब हैं। न हमने चेन्द्रू की अहमियत तथा उसके कार्य की महत्ता तब समझी थी न आज ही उसे जानना चाहते हैं। 

बात उस केवल कृष्ण के न्यूज फीचर से ही करना चाहता हूँ जिसने चेन्द्रू से मेरा पहला परिचय करवाया था। उसने बताया था कि चेन्द्रू से बहुत स्वाभाविक रूप से अपनी विरासत अर्थात उसकी फिल्म पर प्रकाशित पुस्तक सौंप दी थी। जब वह पुस्तक लौटाने पुन: गढ-बंगाल पहुँचा तब चेन्द्रू घर पर नहीं था। घर के बाहर ही चन्द्रू की माँ मिल गयी जो अहाते को गोबर से लीपने में लगी हुई थी। बहुत देर तक चेन्द्रू की प्रतीक्षा करने के पश्चात भी जब वह नहीं लौटा तो केवल ने चेन्द्रू की माँ को ही अपने आने का प्रायोजन बताया। बहुत ही स्वाभाविक लेकिन कडुवा प्रश्न उस ग्रामीण महिला ने केवल के सामने रख दिया कि “तुम लोग तो ये खबर छाप के पैसा कमा लोगे? कुछ हमको भी दोगे?” आज भी यह सवाल कायम है। चेन्द्रू ने बस्तर को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी है, केवल कृष्ण तथा आलोक पुतुल को एक दुर्लभ कहानी दी है, पत्रकार हेमंत पाणिग्राही को राज्यस्तरीय पुरस्कार दिलाया है...और मैने भी अपनी पुस्तक “बस्तर के जननायक” में उसकी कहानी को प्रस्तुत किया है। हम सभी बगले झांक सकते हैं क्योंकि यह सवाल कायम है कि चेन्द्रू को क्या मिला? 

पिछले एक माह से चेन्द्रू जिन्दगी और मौत की लडाई लड रहा था। उसका आधा शरीर पक्षाघात का शिकार हो गया था तथा वह कुछ भी बोल पाने अथवा किसी को भी पहचान पाने में असमर्थ था। मैं इस बार जगदलपुर केवल चेन्द्रू से मिलने के लिये गया था चूंकि मैं हर बार इस अपराधबोध के सामने खुद को खडा पाता हूँ कि आखिर चेन्द्रू को क्या मिला? मुझे अस्पताल में यह देख कर हार्दिक प्रसन्नता हुई थी कि बस्तर के ख्यातिनाम साहित्यकारों में गिने जाने वाले मित्र रुद्रनारायण पाणिग्राही चेन्द्रू की स्वयं आगे बढ कर खोज खबर रख रहे थे और चिकित्सकों और चेन्द्रू के परिजनो के बीच होने वाली भाषा-संवाद की समस्या को भी रह रह कर दूर कर रहे थे। मेरे लिये एक अद्भुत नायक की छवि को मरणासन्न देखना हृदयविदारक सा था। मैं जान गया था कि व्यवहारिक रूप से हमने अब चेन्द्रू को खो दिया है लेकिन जब तक सांसे हैं उसका हक बनता है कि वह सम्मान के साथ चिर निद्रा मे लीन हो। उसका हक बनता था कि उसके स्वास्थ्य की चिंता प्रशासन करे। उसका हक बनता था कि उस पर लिखा जाये और न केवल बस्तर अपितु पूरे छत्तीसगढ का ध्यान चेन्द्रू की ओर जाये; उसका हक बनता था कि जिस बस्तर को उसने सात समन्दर पार भी पहचान दी उसे उसकी अपनी मिट्टी भी सगर्व पहचाने। अपने आग्रह पर नारायणपुर में मुझे मित्र संजय महापात्रा के माध्यम से यह सूचना प्राप्त हुई कि आदिमजाति कल्याण मंत्री केदार कश्यप ने चेन्द्रू से मुलाकात की तथा उसका मुफ्त इलाज करने के निर्देश अस्पताल को दिये। 

आज चेन्द्रू हमारे बीच नहीं है। चेन्द्रू की उपलब्धियों पर गर्व करने का हक हम बस्तरियों को तभी होगा जब हम उसकी अहमियत को भी पहचान और सम्मान देंगे। चेन्द्रू को मिलने वाला सम्मान अनेक अबूझमाडियों के लिये वह प्रेरणा बन सकता है कि बारूद की गंध के बीच भी कोई फिर जंगल सागा की गुनगुनाहट बनना चाहे। अलविदा चेन्द्रू....।  
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बदल रहा है बस्तर के मिट्टी शिल्प का दृष्टिकोण

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गीली मिट्टी से खेलने वाला हर बच्चा अपनी कल्पनाओं को कोई न कोई आकार देने की कोशिश अवश्य करता है। बुनियादी रूप से यह कल्पनाशीलता ही मिट्टी शिल्प की कलात्मकता का आधार है। बस्तर में मिट्टी शिल्प देश के किसी भी अन्य भाग के टेर्राकोटा कार्यों से भिन्न है चूंकि इसमे कलाकार की मौलिकता मौजूद है न कि सांचों से इसकी निर्मिति हो रही है। साथ ही साथ जो कुछ बस्तर के कलाकार आज भी गुथी हुई मिट्टी को स्वरूप दे कर बना रहे हैं उसमे क्षेत्र के प्रागैतिहास से ले कर इतिहास के हर बदलते हुए दौर की किसी न किसी रूप में झांकी मिलती है। 

मिट्टी शिल्प की बुनियादी जानकारी मुझे धरमपुरा जगदलपुर स्थित मानव संग्रहालय में चल रही एक कार्यशाला के दौरान प्रदान की गयी जहाँ नगरनार से आये मिट्टी शिल्प के कलाकार अपनी कृतियों का न केवल प्रदर्शन अपितु वहीं निर्माण भी कर रहे थे। कलाकारों ने बताया कि यह कला परम्परागत रूप से चाक, उनके हाथों की कारीगरी तथा कल्पनाशीलता का संगम है। मिट्टी मूलरूप से किसी खेत से, नदी-नाले के किनारे नर्म हुई सतह से, तालाब आदि के किनारे से प्राप्त की जाती है जिसे श्रमपूर्वक तथा पैरों से गूंथ कर निर्माण के लिये तैयार कर लिया जाता है। आवश्यकतानुसार थोडी सी रेत मिला कर और पुन: गूंथ कर इस मिट्टी को किसी भी कलात्मक निर्माण के लिये तैयार कर लिया जाता है। 

भव्य हाथी बस्तर के मिट्टी शिल्प की सबसे महत्वपूर्ण पहचान है। मिट्टी शिल्प का कलाकार मुझे वह प्रक्रिया समझाने लगा जिस तरह वह हाथी का निर्माण कर रहा था। हाथी के पैरो और सूंड को छोड कर पूरा कार्य हाँथों से ही किया जाता है; इसे सजाने के लिये कल्पना और परम्परागत ज्ञान ही उनके सहयोगी होते हैं। यह भी प्रतीत होता है कि हाथी अथवा बैल पर किये गये अलंकरण संभवत: बस्तर को दक्षिण की देन हैं। बस्तर के कलाकारों द्वारा हाथी के अलावा घोडे, बैल नंदी, बेन्दरी आदि प्रमुखता से बनाये जाते हैं। अपने देवी देवताओं को भी मिट्टी के यही कलाकार अपनी कल्पनाशीलता से आकार देते हैं, मुख्य रूप से दंतेश्वरी, जलनी, भण्डारिनी, माडिन माता, बूढी माई, हिंगलाजिन, बंजारिन, मावली, गोंडिन, डोकरा, राहुर, भीमादेव, लिंगोपेन आदि की मृत्तिका-प्रतिमायें बनायी जाती हैं। केवल यही नहीं मृदभांड आज भी आदिवासी परम्परा का हिस्सा है और मटका, घगरी, कुंडरा, कनजी, रूखी, परई, भांजना सुराही आदि भी बनाये जाते हैं। खिलौने बनाना भी कुम्हारों द्वारा किया जाता है और मुख्य रूप से चकिया, चूल्हा, कोंडी, ढक्कन, चाटू, सिल, गुडिया, घोडा, हाथी आदि बनाये जाते हैं। 

कई मिथक कथायें भी उपलब्ध हैं। बस्तर मे यह जनमान्यता है कि तब चारो ओर केवल जल ही जल था और ईश्वर को निर्माण के लिये मिट्टी की आवश्यकता थी। ईश्वर ने केंकडे से कहा कि जाओ पाताललोक में केंचुवे के पास मिट्टी है, उसे ले कर आओ; मुझे उस मिट्टी से दुनिया का निर्माण करना है। केंकडा पाताल लोक पहुँचा और उसके केंचुवे से सृजन के लिये मिट्टी मांगी। इनकार करने पर केंकडे नें अपनी दाढ में केंचुवे को दबा लिया। घबरा कर केंचुवे ने मिट्टी छोड दी, जिसे ले कर केंकडा ईश्वर के पास पहुँचा। ईश्वर नें यह मिट्टी अपने एक गण को दे कर कहा कि जाओ रोशनी के लिये मिट्टी के दीप बनाओ, मिट्टी के पात्र और घट बनाओ। यह गण तथा इसके वंशज कुम्हार बने। इस कहानी से एक और मिथक कथा पूरक की तरह आ जुटती है। कुम्हार ने भगवान से कहा कि मिट्टी के बर्तनों और प्रतिमाओं के निर्माण के लिये मुझे साधन चाहिये। विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र जिससे चाक बना, शिव ने पिण्डी दी जिससे चाक की धुरी बनी तथा ब्रम्ह ने अपनी जनेऊ प्रदान की जिससे मिट्टी काटने की रस्सी बनी। प्रगतिशील समाज इस कहानी को नकार दे इससे पहले मेरा अनुरोध होगा कि इस मिथक कथा को किसी कविता की तरह पढा जाये। सृजन करने वाला हर व्यक्ति वस्तुत: इश्वर का गण ही तो है? इतिहास को भी देखे तो दुनिया के सारे आविष्कार अकस्मात हुए हैं चाहे वह चक्के की खोज हो अथवा आग की; कालांतर में उन्हें किसी न किसी तरह ईश्वरीय सत्ता के साथ उस काल के मानव ने जोड कर अपनी जिज्ञासाओं के सामाधान प्राप्त किये हैं। बस्तर में मिट्टी की किसी कृति के निर्माण के पश्चात उसे आग/भट्टी में पका कर पक्का कर लिया जाता है। बसंत निर्गुणे की पुस्तक “मिट्टी शिल्प” के अनुसार उन्हें कोण्डागाँव के एक कुम्हार बनऊ राम नाग ने यह मिथक कथा बताई थी कि एक बार किसी हाथी के सिर पर मिट्टी चिपक गयी। यह मिट्टी सूख कर किसी पपडी की तरह जमीन पर गिर गयी। बस्तर का पुरा-मानव इस मिट्टी की पपडी को अपनी झोपडी में ले आया। किसी कारण वश झोपडी में आग लग गयी। मिट्टी की यह अर्धचन्द्राकार पपडी जो आकार में किसी पात्र की तरह थी इस आग में पक गयी और ठोस हो गयी। बरसात में पुरा-मानव ने पाया कि इस मात्र में तो वह जल को संचित कर रख सकता है। यही नहीं इस प्रक्रिया से वह अपने उपयोग के योग्य पात्र भी बना सकता है। कहते हैं इसी घटना के फलस्वरूप मिट्टी शिल्प का जन्म हुआ। यह कारण भी है कि हाथी बस्तर में कुम्हारों की निर्मिति में प्राथमिकता से आते हैं और उनकी पूजा भी होती है। यह कथा मनुष्य सभ्यता के विकास की भी परते खोलती हुई भी प्रतीत होती है।

आज भी बस्तर में नगरनार, कोण्डागाँव, कुम्हारपारा (जगदलपुर) तथा एडका (नारायणपुर) में बस्तर की मिट्टी शिल्प कला स्वांस ले रही है। अद्भुत कलात्मकता और कल्पनाशीलता के साथ अब इसमे आधुनिकता का भी समावेश होने लगा है। समय के साथ साथ कलाकार गमले, पेनस्टेंड, दीवार पर लगाये जाने वाली सजावटी कलाकृतियाँ आदि भी बना रहे है। इन सबके बाद जिस बात ने मुझे सर्वाधिक आकर्षित किया वह था “पुरातन और आधुनिकता का फ्यूजन”। कलाकारों से बुनियादी जानकारी ले कर मैं आगे बढा ही था कि मेरी दृष्टि बडे कॉफी कप तथा पेन स्टेंड जैसी कुछ मिट्टी की आकृतियों पर पड़ी। इससे भी बडा और सु:खद आश्चर्य मुझे तब हुआ जब एक नौजवान मेरे सामने आ खडा हुआ और उसने सगर्व बताया कि यह उसका बनाया हुआ है। यह आदिवासी लडका बारहवी पास कर चुका है और अपने पेशे के प्रति भी समर्पित है। उसकी शिक्षा ने ही उसे परम्परा और आधुनिकता को जोड कर नयी कलात्मकताओं को प्रदर्शित करने की प्रेरणा दी है। यह बदलते बस्तर की एक बानगी भर है। हममे से बहुत से लोग जो यह मानते हैं कि रोजगार निर्माण के परम्परागत स्त्रोतों की ओर भी लौटना चाहिये, उन्हें यह प्रयास करने की आवश्यकता है कि एसी कलाकृतियों को बाजार भी उपलब्ध हो। यदि इन कलाकारों को उनके श्रम का वास्वविक मूल्य तथा जीवन यापन योग्य समुचित आय प्राप्त होने लगेगी तो यकीन मानिये बस्तर की यह पारम्परिक कला विश्वमानचित्र पर अपना महत्वपूर्ण दखल रख सकती है। बस्तर में बदलाव के बीज यहीं मौजूद हैं केवल उन्हें सही खाद-पानी और रोशनी प्रदान करना है हमें। 

-राजीव रंजन प्रसाद
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एनबीटी की बस्तर में हलबी अनुवाद कार्यशाला के बहाने एक विमर्श

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“एनबीटी की बस्तर में हलबी अनुवाद कार्यशाला के बहाने एक विमर्श” 
[कार्यशाला दिनांक 24-26 सितम्बर को जगदलपुर में] 
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बस्तर में दो वृहद रूप से पहचानी जाने वाली संस्कृतियाँ हैं – गोंड़ी तथा हलबी-भतरी परिवेशों में। भूतपूर्व बस्तर रियासत ने इन दोनों संस्कृतियों को भाषाई एकता के सूत्र में बाँधा था। एक लम्बे समय तक ‘हलबी’ बस्तर रियासत की राज भाषा रही किंतु इसका कारण किसी संस्कृति विशेष को महत्व दिया जाना अथवा जिसी जनजाति विशेष का वर्चस्व दिखाना नहीं था अपितु यह इस लिये किया गया था चूंकि रियासत में अवस्थित सभी जनजातियों की संपर्क भाषा तब हलबी ही थी। लाला जगदलपुरी की पुस्तक “बस्तर- लोक कला, संस्कृति प्रसंग” के पृष्ठ-17 मे उल्लेख है कि – “बस्तर संभाग की कोंडागाँव, नारायनपुर, बीजापुर, जगदलपुर और कोंटा तहसीलों में तथा दंतेवाडा में दण्डामिमाडिया, अबूझमाडिया, घोटुल मुरिया, परजा-धुरवा और दोरला जनजातियाँ आबाद मिलती हैं और इन गोंड जनजातियों के बीच द्रविड मूल की गोंडी बोलियाँ प्रचलित है। गोंडी बोलियों में परस्पर भाषिक विभिन्नतायें विद्यमान हैं। इसी लिये गोंड जनजाति के लोग अपनी गोंडी बोली के माध्यम से परस्पर संपर्क साध नहीं पाते यदि उनके बीच हलबी बोली न होती। भाषिक विभिन्नता के रहते हुए भी उनके बीच परस्पर आंतरिक सद्भावनाएं स्थापित मिलती है और इसका मूल कारण है – हलबी। अपनी इसी उदात्त प्रवृत्ति के कारण ही हलबी, भूतपूर्व बस्तर रियासत काल में बस्तर राज्य की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही थी।….और इसी कारण आज भी बस्तर संभाग में हल्बी एक संपर्क बोली के रूप में लोकप्रिय बनी हुई है।” 

डॉ. हीरा लाल शुक्ल की पुस्तक “बस्तर का मुक्तिसंग्राम” के पृष्ठ -6 में उल्लेख मिलता है कि – ‘वर्तमान में निम्नांकित मुख्य जातियाँ बस्तर के भूभागों में रहती हैं – 1. सुआर ब्रामन, 2. धाकड, 3. हलबा, 4. पनारा, 5. कलार, 6. राउत, 7. केवँटा, 8. ढींवर, 9. कुड़्क, 10. कुंभार, 11. धोबी, 12. मुण्डा, 13. जोगी, 14. सौंरा, 15. खाती, 16. लोहोरा, 17. मुरिया, 18. पाड़, 19. गदबा, 20. घसेया, 21. माहरा, 22. मिरगान, 23. परजा, 24. धुरवा, 25. भतरा, 26. सुण्डी, 27. माडिया, 28. झेडिया, 29. दोरला तथा 30. गोंड। उपर्युक्त मुख्य जातियों में 1 से 22 तक की जातियों की “हलबी” मातृबोली है और शेष जातियों की हलबी मध्यवर्ती बोली है। कुछ जातियों की अपनी निजी बोलियाँ भी हैं जैसे क्रम 23 और 24 में दी गयी जातियों की बोली है परजी जबकि 25 और 26 की बोली है भतरी। क्रम 27 से 30 तक की बोलियाँ हैं माडी तथा गोंडी।” 

उपरोक्त उद्धरणों से यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि आज भी हलबी बोली बस्तर की एक मान्य और कोंटा से ले कर कांकेर तक बोली-समझी जानेवाली भाषा है। हलबी बस्तर के साहित्य की भी भाषा है और सौभाग्य से इसका अपना व्याकरण और शब्दकोश भी है। यह प्रसन्नता का विषय है कि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एनबीटी) द्वारा बस्तर की आदिवासी भाषा-बोलियों में मुख्यधारा की पुस्तकों के अनुवाद किये जाने की दूसरी कार्यशाला जिसका आयोजन दिनांक 24-26 सितम्बर को जगदलपुर में किया जा रहा है; इसमे हलबी भाषा में अनेक पुस्तकों का अनुवाद, तत्पश्चात प्रकाशन किया जायेगा। हलबी में हो रहे इस कार्य की महत्ता इस बात से भी है कि एक बडा पाठक वर्ग होने के बाद भी पुस्तकों की उपलब्धता का अभाव होने के कारण भाषा का ह्रास हो रहा था तथा साहित्यकारों की भी हलबी में रचनाकर्म करने की अभिरुचि टूट रही थी। मैं एनबीटी तथा श्री पंकज चतुर्वेदी जी का हृदय से आभार करता हूँ जिनकी संकल्पना से यह आयोजन संभव हो पा रहा है। 

इस आयोजन के साथ मुझे महाराजा प्रवीर याद आ रहे हैं। वर्ष-1950 में 21 से 23 अक्टूबर तक चलने वाले मध्य-प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन जगदलपुर के राजमहल परिसर में हुआ था। तत्कालीन गृह मंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र इस सम्मेलन के अध्यक्ष थे। अधिवेशन में पं सुन्दर लाल त्रिपाठी, सुनीत कुमार चटर्जी, आचार्य क्षिति मोहन सेन, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, भदंत आनंद कौशल्यान, बाबूराम सक्सेना, दादा धर्माधिकारी, डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, भवानी प्रसाद मिश्र, भवानी प्रसाद तिवारी, प्रो. अंचल आदि मनीषी उपस्थित थे। प्रवीर ने तब शिक्षा और भाषा-बोली के समन्यवय को ले कर एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि - “हिन्दी में पढ़ाने के लिये हमारी प्रारंभिक पाठ्य पुस्तकें बेकार हैं, इनमें हमें चित्रों की भी आवश्यकता है। प्रत्येक अक्षर को एक जानवर की तस्वीर लगा कर समझाया जाये और उस जानवर का नाम हिन्दी, हल्बी और गोंडी में लिखा जाये।” अर्थात यह कि हिन्दी और स्थानीय भाषाओं के बीच एक सेतु बनाने की आवश्यकता है चाहे हम आदिवासी भाईयों को मुख्यधारा से जोडने का स्वप्न देखें अथवा उनकी नयी पीढी के लिये शिक्षा का। 

एनबीटी जैसे प्रकाशन संस्थान यदि इसी तरह अपना दायित्व निर्वहन करेंगे तो निश्चित ही बडे बदलाव बस्तर के सामाजिक परिदृश्य में देखने को मिलेंगे। मेरा यह अनुरोध भी होगा कि इस तरह की कार्यशालायें लगातार आयोजित की जानी चाहिये। अगली कार्यशाला गोंडी में होनी चाहिये जिससे कि दक्षिण बस्तर और अबूझमाड क्षेत्र के लिये भी एसी ही पुस्तके द्विभाषा में प्रकाशित की जा सकें शिक्षक सीधे ही इन पुस्तकों को पढ कर बच्चों तथा ग्रामीणों को सुना सकेंगे तथा उनमें सोच और दृष्टिकोण के बीच बोने में सहायक हो सकेंगे। 

इस आयोजन के लिये पुन: शुभकामनायें। 

बस्तर की घड़वा कला में सांस लेता है मोहनजोदाडो

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कलाकारों के साथ समय गुजारना एक अनोखा अनुभव होता है। बस्तर की घडवा कला अथवा ढोकरा कला विश्व प्रसिद्ध है और हमेशा ही मुझे इन धातु-निर्मित कलाकृतियों ने अत्यधिक प्रभावित किया है। जगदलपुर स्थित मानवसंग्रहालय में मेरी मुकालात घडवा कला के साधक फगनुराम से हुई। वे बहुत देर तक इस बात से अनजान थे कि मैं उनके पीछे खड़ा मंत्रमुग्ध सा उनकी साधना को निहार रहा हूँ। मिट्टी, मोम और धातु की सम्मिलित है यह यह कला साधना जिसमे आकृति तो धातु की बनती है लेकिन कलाकार उसे मोम में साधता है और मिट्टी जीवन फूंकें जाने तक उसे अपने सांचे में धारण करती है। मैं कलाकार के बगल में ही बैठ गया और जानने की कोशिश करने लगा कि आखिर यह कला है क्या तथा इसकी निर्माण प्रक्रिया कैसी है। यह बात तो तय है कि घडवा अथवा ढोकरा कला केवल सांचे में धातु डाल कर उसे जमाने भर को नहीं कहते। मेरे सामने अनेक मोम से आकार दी गयी देव प्रतिमायें, स्त्री-पुरुष आकृतियाँ, हाथी हिरण आदि आदि के स्वरूप बना कर रखे हुए थे। मोम से ही इन्हें इतना बारीक तराशा और सजाया जा चुका था कि इतने भर को ही मैं श्रेष्ठतम कला कहने को बाध्य था किंतु यह तो शुरुआत मात्र है। 

अगर प्रारंभ की बात की जाये तो बस्तर में मुख्य रूप से से घसिया जनजाति ने घडवा कला को साधा और शिखर तक पहुँचाया। घसिया के रूप में इस जनजाति को पहचान रियासतकाल में उनके कार्य को ले कर हुई चूंकि ये लोग उन दिनो घोडों के लिये घास काटने का कार्य किया करते थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि घडवा कला को किसी काल विशेष से जोड कर नहीं देखा जा सकता चूंकि मोहनजोदाडो में ईसा से तीन हजार साल पहले प्राप्त एक नृत्य करती लडकी की प्रतिमा लगभग उसी तकनीक पर आधारित है जिसपर बस्तर का घडवा शिल्प आज कार्य कर रहा है। अपने एक आलेख में प्रसिद्ध घडवा शिल्प के कलाकार श्री जयदेव बघेल ने लिखा है कि बस्तर में इस कला के प्रारंभ के लिये जो मिथक कथा है उसका सम्बन्ध आदिमानव और उसकी जिज्ञासाओं से है। यदि उनके विवरणों को अपने शब्दों में प्रस्तुत करूं तो यह बात तब की है जब आदिमानव जंगल में विचरण करता था और शिकार पर आश्रित अपना जीवन निर्वहन किया करता था। इन्ही में से एक आदिमानव की यह कहानी है जो अपने माता-पिता से बिछड कर किसी गुफा में रह रहा था। एक दिन उसने पहाड पर आग लगी देखी। आग से निकलने वाले रंग तथा चिंगारिया उसे भिन्न प्रतीत हुईं और वह जिज्ञासा वश उस दावानल के निकट चला गया। अब तक आग स्थिर होने लगी थी। वहीं निकट ही उसे एक ठोस आकृति दिखाई पडी जो किसी धातु के पिघल कर प्रकृति प्रदत्त किसी गह्वर अथवा सांचे में प्रवेश कर जम जाने के पश्चात निर्मित हुई होगी। यह आकृति उसे अलग सी और आकर्षित करने वाली लगी और उसे उठा कर आदिमानव अपने घर ले आया। उसने इस प्रतिमा के लिये घर का एक हिस्सा साफ किया और इसे सजा कर रखा। इस प्रतिमा के लिये उसका आकर्षण इतना अधिक था कि नित्य ही वह इसे साफ करता और धीरे धीरे इससे प्रतिमा में चमक आने लगी। कहते हैं इसी चमक से प्रभावित हो कर वह स्वयं को भी चमकाने लगा अर्थात नित्य स्नानादि कर श्रंगार पूर्वक रहने लगा। यह धातु और वह मानव जैसे एक दूसरे के पूरक हो गये थे और समय के साथ दोनो में ही वैशिष्ठता की दमक उभरने लगी थी जिसे ग्रामीणों ने महसूस किया। जब कारण पूछा गया तो इस आदिमानव ने ग्रामीणों को वह जगह दिखाई जहाँ से उसे धातु का यह प्रकृति द्वारा गढा गया टुकडा प्राप्त हुआ था। इस स्थान पर सभी ने पाया कि एक दीमक का टीला है जिसमे कि धातु-द्रव्य प्रवेश कर गया था और उसने वही आकार ले लिया था। उसी स्थल पर मधुमक्खी का छत्ता भी पाया गया जिससे मोम, सांचा और धातु को कलात्मकता देने का आरंभिक ज्ञान उन ग्रामीणों को हुआ होगा। उस आदि-कलाकार ने तब ग्रामीणों से कहा कि मैने इस धातु के टुकडे को अपनी माँ माना है और इसी तरह इससे प्रेम किया है। तुम भी इस कला और अपने निर्माण को माँ की तरह ही मानो। कहते हैं कि उस आदिकलाकार ने सबसे पहले अपनी माँ की आकृति बनाने का यत्न किया और धीरे धीरे वह अपने निकटस्थ परिवेश की वस्तुओं और पशु-पक्षियों को भी इस कला के माध्यम से मूर्त रूप देने लगा। जयदेव बघेल के अनुसार उस आदिनामव ने इस तरह पहले बाघ, भालू, हिरण, कुत्ता, खरगोश, नाग कछुवा, मछली, पक्षी, गाय, बकरा, बंदर आदि बनाये। धीरे धीरे उसने अपनी माँ के रूप में डोकरी माँ की कलाक़ृति बनाई और कालांतर में डोकरा बाबा के रूप में वह पिता के स्वरूप को गढने लगा। इसी तरह विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ घडवा कला के रूप में परिवर्तित होती रहीं। कर्मकोलातादो, मूलकोलातादो, भैरमदेव, भीमादेव, राजारावदेव, दंतेश्वरीदेवी, माता देवी, परदेसीन माता, हिंग्लाजिन देवी, कंकालिन माता आदि की मूर्तियाँ इस कला के विकास के विभिन्न चरणों में निर्मित की जाने लगी। लाला जगदलपुरी भी अपनी पुस्तक बस्तर इतिहास एवं संस्कृति में उल्लेखित करते हैं कि “बस्तर के घड़वा कला कर्मी पहले कुँडरी, कसाँडी, समई, चिमनी और पैंदिया तैयार करते थे। अब ये लोग देवी देवता, स्त्री पुरुष, हरिण, हाथी, अकुम आदि बनाते आ रहे हैं”। 

यह कला असाधारण इसलिये है चूंकि इसे सम्पूर्णता से समझने पर किसी न किसी रूप में इतिहास सामने आने लगता है। सिन्धु घाटी की सभ्यता अगर धातु की एसी प्रतिमाओं की निर्माती थी तो निश्चित ही इस सभ्यता के नष्ट होने के साथ जो पलायन हुए उनके साथ ही यह कला भी स्थानांतरित हुई होगी। बस्तर में नाग शासकों ने लगभग सात सौ वर्ष तक शासन किया है और इतिहास उनके आगमन का स्थल मध्य एशिया के पश्चात सिंधुघाटी का क्षेत्र ही मानता रहा है तो क्या यह कला उनके साथ ही बस्तर की जनजातियों के पास पहुँची? इन प्रतिमाओं का महापाषाणकालीन सभ्यता से भी सम्बन्ध जोड कर देखा गया है तो क्या यह माना जा सकता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में ही समानांतर बसे मानव समूहो को भी धातु को गला कर आकृतियाँ देने की यह कला ज्ञात थी जिसमे गोदावरी के तट पस बसे आदिम समूह भी सम्मिलित थे? यह अभी शोध का विषय है तथा इसपर गहराई से कार्य किये जाने की आवश्यकता है। 

घडवा कलाकार फगनुराम ने मुझे इसकी निर्मिति की जो विधि बताई उसके अनुसार इस प्रकृया में कई प्रकार की मिट्टी लगती है जिसमे दीमक की बाबी की मिट्टी की प्रमुख भूमिका होती है। इस बात की कडी उपरिउल्लेखित आदिवासी की मिथक कथा से जुडती हुई प्रतीत होती है जिसका उल्लेख कलाकार जयदेव बघेल अपने आलेखों में करते रहे हैं। मिट्टी के कई प्रकार इस आकृति निर्माण प्रकृया में लगते हैं जिसमे दीमक (डेंगुर) की बाबी की मिट्टी के अलावा काली मिट्टी, नदीतट की मिट्टी, रुई-मिट्टी आदि का उपयोग विभिन्न प्रक्रियाओं में किया जाता है। साथ ही साथ सहायक तत्व के रूप में धान का भूसा तथा रेतीली मिट्टी का भी प्रयोग होता है। मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया के पहले चरण में धान के भूसे को काली मिट्टी के साथ मिला कर अच्छी तरह गूथ लिया जाता है और फिर इससे ही सांचा तैयार किया जाता है। अब सांचे की आकृति को धूप में अथवा आग में तपा कर ठोस कर लिया जाता है। इस सांचे पर गीली मिट्टी की दूसरी परत चढाई जाती है। इस बार मिट्टी के सूखते ही इस सांचे के स्वरूप की घिसाई खपरे अथवा हंडी (मटके) के टुकडे से की जाती है और इसे चिकना बनाया जाता है। अगली प्रक्रिया है उन पौधों की पत्तियों से इस आकृति को घिसना जिनको पीसने पर हरा रंग अधिक मात्रा में निकलता हो। सेम वृक्ष की पत्तियों का विशेषरूप से इस हेतु प्रयोग किया जाता है। इस प्रकृया के पश्चात तैयार ढांचे को पहले सुखा लिया जाता है जिसके पश्चात इस आकृति के उपर कलाकार की कल्पना अपना कार्य आरंभ करती है। मोम की सहायता से इस आकृति के उपर विभिन्न प्रकार की कलात्मक बारीकियों को उभारा जाता है। वस्तुत: इस पूरी प्रकृया के प्राण इसी समय भरे जाते हैं जब मोम के माध्यम से बहुत बारीक बारीक आकृतियाँ और स्वरूप उकेरे जाते हैं, विभिन्न प्रकार की पच्चीकारी की जाती है। इस मिट्टी के स्वरूप का मोम से श्रंगार पूर्ण होते ही छानी हुई खडिया मिट्टी में कोयले के महीन छाने हुए पावडर या गोबर को मिला कर आकृति के उपर हलके हाथो से एक लेप चढाया जाता है। इस लेपन की परत के सूख जाने पर पुन: दीमक की बावी की मिट्टी तथा धान के भूसे को मिला कर एक और लेप कर दिया जाता है। इसी लेपन के दौरान आकृति के सिरे पर धातु (पीतल अथवा कासा) से ढलाई करने के लिये एक छेद छोडा जाता है। अब इस पूरी आकृति को आग में पुन: पकाया जाता है। गर्मी पाते ही सांचे पर लगाया गया मोम उतने ही क्षेत्र में एक रिक्ति अथवा खोखलापन बनाता हुआ वाष्पित हो जाता है। अब पहले से ही छोडे गये छिद्र के माध्यम से पिघली हुई धातु का प्रवेश कराया जाता है। यह धातु उन सभी रिक्त स्थानो में जा कर बैठ जाती है जो कि मोम के पिघल जाने से निर्मित हुई हैं। अर्थात जिस कलात्मकता का निर्माण मोम के माध्यम से कलाकार ने किया वही अब धातु की बन कर तैयार हो जाती है। अब इसे ठोस होने के लिये छोड दिया जाता है। बाद में धीरे धीरे मिट्टी को तोड कर अलग कर लिया जाता है और धातु की कलात्मक प्रतिमा अपना आकार ले लेती है। अद्भुत है यह कला...और अद्भुत अनुभव था अपनी आँखों के आगे उस कास्य युग को निहारना, इतिहास को पक कर आकार लेते देखना। 

इसमे दो राय नहीं कि बस्तर की घडवा कला विश्व की प्राचीनतम कलाओं में से एक है जो आज भी सराही जा रही है तथा इसका अपना वैश्विक बाजार भी है। मुझे यह जान कर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि इस कला के कलाकार देश-विदेश की यात्रायें कर रहे हैं और न केवल अपनी कला का वहाँ प्रदर्शन कर रहे हैं अपितु विदेशों में हुई कार्यशालाओं से सीख कर कई तरह की आधुनिकताओं को भी अपनी आकृतियों में स्थान दे रहे हैं। वर्ष 1961-62 में सरोजिनी नायडु द्वारा घडवा कला के लिये श्री सिमरन बघेल को सम्मानित किया गया था इसके पश्चात कलाकारों का एक कारवा निरंतर बनता चला गया है। वर्ष 1970 में सोनाबाल गाँव के श्री सुखचंद को तथा वर्ष 1977 में कोण्डागाँव के श्री जयदेव बघेल को इस कला की साधना के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। बदलते दौर में यह कला केवल सजावट नहीं अपितु दैनिक उपयोग की वस्तुओं की भी निर्मिति कर रही है जिससे कि उसके खरीददार बढें और कलाकारों की आजीविका चलती रहे। रायपुर एयरपोर्ट से ले कर दिल्ली के हर कला-शिल्प मेले में बस्तर की शान घडवा कला दिखाई पड ही जाती है। आज न केवल मोम अपितु धातु भी कीमती हो गयी है एसे में यह कहना उचित नहीं कि कलाकारों को उनकी निर्मिति के वास्तविक दाम मिल पा रहे हैं। हर हाल में इस कला को प्रोत्साहन, संरक्षण, विस्तार तथा बाजार की आवश्यकता है। 

अनूठी है बस्तर की लौह शिल्प कला

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उन्होंने अपनी घुटने तक लपेटी हुई लुंगी के भीतर खोंस कर रखा पासपोर्ट निकाला जिसे पॉलीथीन और उसके उपर कपडे से लपेट कर सुरक्षा प्रदान की गयी थी। दो पासपोर्ट आपस में जुडे हुए थे और पन्ने पलटने पर ज्ञात हुआ कि अनेक देशों का उसमे वीज़ा लगा हुआ है। यह विद्याधर कश्यप थे जो नगरनार में अवस्थित हैं और बस्तर के लौह शिल्प का जाना पहचाना नाम हैं। कलाकार की प्रेरणा उसे मिलने वाला सम्मान और प्रोत्साहन ही होते हैं; यह बात मैं कश्यप जी की आँखों से झांकते गर्व को देख कर महसूस कर रहा था। यह गर्व उस दक्षता और कल्पनाशीलता से उत्पन्न होता है जो बस्तर के कलाकारों में आप देख-महसूस सकते हैं। लौह शिल्प से तात्पर्य आप विशुद्ध लोहार कर्म से नहीं लगा सकते। यह सही है कि परम्परागत रूप से बस्तर में लोहार निवास करते आये हैं तथा रियासत काल से ले कर आज तक वे भांति भांति के लौह औजार बना कर बाजार तक पहुँचाते रहे हैं। इन औजारों में दैनिक उपयोग की वस्तुएं जैसे कुल्हाडी, छुरा, दीपक, सांकल, बड़गी, सिकरा, काटा, आदि रही हैं तो खेती के उपकरण जैसे हल के फाल आदि भी हैं। तीर के आगे का हिस्सा निर्मित किया गया है तो बर्तन और दरवाजे भी बनाये जाते रहे हैं। किसी समय तलवारे, त्रिशूल, भाला, बरछी भी इनकी धौंकनियों से तप कर निकली हैं और बंदूखों की नाल भी इनकी निर्मिति हुआ करती थी।

बस्तर का लौह कर्म जितना पुराना है उतनी ही पुरानी लौह शिल्प कला भी है। धातुयुगीन मानव सभ्यता का काल 1800 ई.पू से 1000 ई.पू माना गया है। इस कालखण्ड तक मध्यभारत, गोदावरी के तटीय क्षेत्रों जिसमे कि वर्तमान बस्तर भी सम्मिलित है निश्चित ही लोहे को गलाने और इस्पात बनाने की विधि सीख ली गयी थी। बैलाडिला क्षेत्र में जहाँ आज विश्व की सर्वाधिक लौह प्रचुरता वाले अयस्क का भंडार है और आधुनिकतम खदाने हैं वहाँ 1065 ई में चोलवंश के राजा कुलुतुन्द ने लोहे को गला कर अस्त्र शस्त्र बनाने का कारखाना लगाया था। यहाँ बने हथियारों को तंजाउर भेजा जाता था। कथनाशय यह है कि आदिवासी परम्परागत रूप से लोहा गलाने और उससे विभिन्न उत्पाद बनाने की विधि को पीढी दर पीढी आगे बढाते रहे और इस तरह लौह कर्म वर्तमान की दहलीज तक पहुँच सका। एक निर्माता वस्तुत अपने भीतर की कल्पनाशीलता को छोड ही नहीं सकता और गाहे-बगाहे उसके भीतर से निकलने वाली सृजन की हूक किसी एसी आकृति के साथ बाहर आती है जिसे देख कर सभी चमत्कृत रह जायें। किसी भी कला की यही आरंभिक अवस्था है और संभवत: लौह शिल्प की भी।

लौह शिल्प का जो कला पक्ष है वह अत्यधिक श्रम से निकल कर बाहर आता है जहाँ धौकनी का ताप, लोहे को गलाने-तपाने का समय और हथौडे की उसपर सही समय और सही मात्रा में की गयी चोट ही आकार देने में सहायक होती है। आज भी लौह शिल्प के कलाकार किसी तरह की ढलाई विधि का प्रयोग नहीं करते अपितु परम्परागत रूप से पीट पीट कर आकार देने की प्रक्रिया का ही निर्वहन किया जाता रहा है। लौह कर्म एक कुटीर उद्योग तो बना ही कला के रूप में आरंभ में लोहारों ने अनेको स्थानीय देवी देवताओं की आकृति को स्वरूप प्रदान किया। गुजरी देवी को देवगुडी में रखा जाता है; इसी तरह देवताओं के वाहन निर्मित किये गये जिनमे रावदेव का घोडा इस तरह बनाया जाता था जिसमे कि कान नहीं होते थे। विभिन्न अनुष्ठानो में देवी-देवता अथवा पशु मूर्तिया चढाना एक विधान की तरह है। मानव आकृतियाँ भी बनाई जाती हैं जिसमे गौर सिंह लगाये हुए दंडामि माडियाओं की अनुकृति प्रमुख है। इसी तरह लौह कर्म से निर्मित सिकरा तीन प्रकार के होते हैं – कपाट सिकरा, बिलाई सिकरा और काटा सिकरा। काटा सिकरा आजब भी देवस्थल पर रखे जाते हैं। चिटकुली को बजाने के लिये प्रयोग में लाया जाता है। लौह कलाकृतियों में अनेक प्रकार के पशु पक्षी जिनमे कि बैल, हिरण, घोडा, भांति भांति के आकार की चिडिया आदि बनाये जाते हैं। लौह कलाकृतियों में घुडसवार गणेश विशेष रूप से दर्शनीय होते हैं। दीपंकर हो अथवा दीवार में सजाने वाली विभिन्न मूर्तियाँ; इन सभी में बस्तर के लौह-शिल्पियों की अद्भुत कलात्मक क्षमता के दर्शन होते हैं।

बस्तर के आदिवासी समाज में प्रचलित एक प्रथा की जानकारी मिलती है जिसमे विवाह में कन्या को लौह दीपक प्रदान किया जाता है। इस प्रथा को दाईज दिया जाना कहते हैं। वस्तुत: यह कला ही है जो लोकजीवन में अपना आलोक विस्तारित करती है, देवताओं के सम्मुख प्रस्तुत की जाती है और समान पूजनीय होती है साथ ही साथ हर आम और खास घरों की सहर्ष शोभा भी बनती है। बस्तर के भीतर लोककला के रूप से एसी एसी विरासतें मौजूद हैं कि यदि इनका सही प्रकार से संरक्षण, संवर्धन तथा प्रसार किया जाये तो रोजगार के उन अवसरों को पुन: हासिल किया जा सकेगा जो धीरे धीरे लुप्त होते जा रहे हैं।
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हजारो चेहरे ऐसे [पुस्तक चर्चा]

कैद में देवता और सकते में प्रगतिशीलता?

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पिछले पृष्ठ का शेष -

कैद में देवता और सकते में प्रगतिशीलता?
[केशकाल (उ. बस्तर) से एक वृतांत]
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दो तरह के देवताओं का फैशन है - आस्तिकों के देवता और नास्तिकों के देवता। दो तरह के कट्टरपंथी भी पाये जाते हैं – आस्तिक और नास्तिक। बडा विचित्र दौर है यह जहाँ भांति भांति के आस्तिक तलवार खींचे खड़े हैं और नस्तिकों ने भी अपने खंजर हथेलियाँ मोड़ कर पीठ की ओर छिपा रखे हैं। अब यह आप की ख्वाहिश है कि किस ओर खड़े हो कर मरना पसंद करेंगे? कोई आपके मुंह पर श्लोक या आयते दे मारेगा तो कोई मार्क्स की थ्योरी को परम सत्य बता कर आपकी छाती पर चढ जायेगा। विचारधाराओं के थोथेपन के इस दौर में मुझे बस्तर सुकून का ठंडा पानी उपलब्ध कराता रहा है। कथनाशय यह है कि धर्म, मान्यताओं और नास्तिकता के बीच भी सेतु बनाया जा सकता है; इस बात की प्रतीति पहली बार मुझे तब हुई थी जब मैं कांकेर (उत्तर बस्तर) में रिसेवाड़ा के पास कुछ प्रतिमाओं के अध्ययन के लिये गया था। एक स्थल पर ठिठक गया चूंकि वहाँ निकट ही गोबर की थप्पी पडी थी; पास ही इसे पूजे जाने के चिन्ह भी थे। मैने जब ग्रामीणों से इस सम्बन्ध में पूछा तो ज्ञात हुआ कि यह भीमादेव का स्थान है (भीमादेव पानी के देवता कहे जाते हैं)। देवता गोबर के भीतर पड़ा हुआ था। मुझे बताया गया कि बारिश नहीं हो रही थी बुआई नजदीक थी अत: ग्रामीण ने भीमादेव से प्रार्थना की। अब देवता है तो उसे सुख-दुख का साथी बनना ही पडेगा। अगर ग्रामीण की क्षमता के भीतर देवता की कोई माँग है तो पूरी भी की जाती है लेकिन जब देवता से कहा गया है कि बारिश कराओ तो बारिश होनी चाहिये। किस बात का देवता अगर माँग पूरी न करे? किस बात का देवता अगर इस तरह से नाराज हो जाये कि भक्त तकलीफ में आ जाये? नहीं इतना अधिकार बस्तर में देवता को नहीं दिया गया है कि वह अपनी अकड दिखा सके या हेकडी में रहे। यहाँ देवता से झगडा भी किया जाता है उसे गालियाँ भी दी जाती हैं इतना ही नहीं, बात न मानने पर हश्र और भी बुरा हो सकता है जो उदाहरण मेरे सामने था। भीमादेव ने बार बार याचना करने पर भी बात नहीं मानी तो अब देवता महोदय भुगतो। ग्रामीण ने अपना गुस्सा इजहार करते हुए देवता के उपर गोबर पटक दिया कि पडे रहो भीतर। बात मानोगे तो निकालूंगा बाहर नहीं तो होगे देवता मुझे क्या? क्या इस उदाहरण के सामने हमारे मंदिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों और कार्ल-मार्क्स की थ्योरियों के तोते नहीं उड जाते? आस्था क्या है, तर्क क्या है और मान्यताओं की क्या सीमा हो इसे प्रस्तुत उदाहरण से बेहतर कहाँ समझा जा सकता है?

इसी बात को बारीकी से समझने के लिये केशकाल (बस्तर) की रमणीक वादियों से होते हुए माता भंगाराम के मंदिर पहुँचा जा सकता है। उस दिन पोला त्यौहार मनाया जा रहा था; मैं सुबह सुबह ही पत्रकार मित्र कमल शुक्ला और कृष्ण दत्त उपाध्याय जी के साथ भंगाराम मंदिर आ पहुँचा। केशकाल नगर से लगभग चार किलोमीटर भीतर एक पर्वतीय टीले पर इस मंदिर की अवस्थिति है जिसके पीछे की ओर से घना वन और ढलान प्रारंभ होती है। इस स्थल के सम्बन्ध में बुनियादी जानकारी स्थानीय पत्रकार तथा शोधार्थी कृष्णदत्त उपाध्याय मुझे उपलब्ध कराते चल रहे थे। मंदिर परिसर में सन्नाटा पसरा हुआ था। केवल दो पुजारी वहाँ उपस्थित थे जो कि पोला उत्सव होने के कारण माता भंगाराम को चढाने के लिये भोग बना रहे थे। खपरैल का यह मंदिर पुराने समय की संरचनाओं का स्मरण कराता है। बस्तर के देवी देवताओं का प्रकृति प्रेम भी जाहिर है और आम तौर पर जहाँ पेडों के झुरमुट हों, एकांत पर्वतीय टीले के निकट सघन वनों से घिरा कोई स्थल हो तो वहाँ आप किसी देवगुडी अथवा माता गुडी होने की संभावना से इनकार नहीं कर सकते। माता भंगाराम का मंदिर बस्तर भर की आस्था का केन्द्र है। रियासतकालीन बस्तर के अंतिम महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने यहाँ एक चाँदी का छत्र भी चढाया था जिसे विशिष्ठ अवसरों पर तथा भादो जात्रा के दौरान निकाला जाता है। एक समय था जब यहाँ पशुबलि भी प्रथा थी जिसे सत्तर के दशक में आदिवासी समाज ने आपसी सलाह से बंद कर दिया। भादो जात्रा न केवल प्रसिद्ध है अपितु बस्तर के दूर दराज गाँवों से इसमें सम्मिलित होने अनेक गायता, सिरहा, माझी और पटेल पहुँचते है। भादो के छ: शनिवार सेवा पूजा होती है जबकि सातवे शनिवार जात्रा निकाली जाती है। 

मंदिर परिसर के पीछे एक पर्वतीय ढलान आरंभ होती है; ठीक वहीं पर कई आंगा देव जमीन पर पडे हुए थे। उनका सामान यहाँ तक कि उनके चाँदी से किये गये श्रंगार, उनके चढावे आदि आदि इस ढलाने में यत्र तत्र बिखरे पडे थे। आंगादेव को मूलत: वंश का देवता कहा जाता हैं। तीन साजा, बेल या इरा लकड़ी की डंडियाँ जमीन में समानांतर गाड़ी जाती हैं। बीच की लकड़ी देवता का प्रतीक होती है जिसमें किसी साँप या चिडिया जैसी आकृति बनी होती है। दो सिर वाली आकृति यदि बनी हो तो आंगा पति और पत्नी दोनों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मोरपंख, चाँदी के गहनों आदि से इसे सजाया जाता है।“ देवता तो देवता है और उसका मान करने की परम्परा भी है। देवता को प्रसन्न रखने के हर जतन किये जाते हैं तथा सिरहाओं के माध्यम से देवताओं द्वारा रखी गयी हर मांग को पूरा करने की कोशिश की जाती है। देवता है तो कुछ भी मांग ले एसा भी नहीं। बहुत सख्त मोल-भाव देवताओं और भक्त के बीच में होता है। बकरे की मांग से शुरु हुई बहस भक्त के इनकार और चीख चिल्लाहट भरी तकरार से घटते घटते मुर्गे तक भी पहुँच सकती है। यहाँ चूंकि देवता और उसपर आस्था रखने वालों के बीच सांकेतिक ही सही एक संवाद स्थापित है अत: बात चढावे लेने देने तक ही नहीं ठहरती अपितु भक्त की मांग भी पूरा करना देवता का ही दायित्व है। भक्त को परेशानी है, वह कर्जे में डूब गया है, घर में बीमारियों ने घर बना लिया है, पति-पत्नी के बीच झगडे होते रहते हैं और एसे में देवता मूकदर्शक नहीं रह सकता। उसे हर व्यक्तिगत समस्या बताई जाती है तथा उससे समाधान भी मांगे जाते हैं। यह सब कुछ भक्त की बर्दाश्त की पराकाष्ठा तक ही होता है। जिस दिन भक्त को लगा कि वह देवता किसी काम का नहीं, जिसके रहते हुए भी उसका जीवन उलझनों भरा है, उसके तनावों का निदान नहीं मिल रहा है, खेतों को बरसात नहीं मिल पा रही है तो समझ लीजिये कि अब इस आंगा की शामत आ गयी। देवता को अस्वीकार करना बस्तर के आदिवासी समाज की आस्था का सबसे सबल और अनुकरणीय पक्ष है।

कुछ अविश्वसनीय किंतु सत्य जान लें। भंगाराम ही वह स्थल है जहाँ किसी देवता को मान्यता मिलती है तो किसी देवता की मान्यता समाप्त भी की जाती है। एक ही नाम के दो देवता होने पर वास्तविक कौन के विवाद का निबटारा भी यहीं होता है। सबसे बडी बात कि पीडित भक्त अपने देवता के बरताव के प्रति यहाँ अपनी नाखुशी व्यक्त करता है तथा उसके लिये सजा की मांग भी कर सकता है। वह अपने देवता का तिरस्कार भी कर सकता है अथवा उसे सजा दिलाने की पात्रता भी रखता है। एसा भी नहीं कि देवता को अपनी सफाई देने का मौका नहीं मिलता। देवता भी यहाँ अपने तर्क रखता है; वह भक्त की उन भूलों को उजागर कर सकता है जिसके कारण उसने समस्याओं का समाधान नहीं किया। भंगाराम की यह अदालत नीर-क्षीर विवेक करती है; वह कभी समझाईश से भक्त और देवता के बीच विवाद को समाप्त करती है तो कभी किसी देवता को कैद करने अथवा नष्ट करने का भी निर्देश दे सकती है। यही कारण भी है कि भादो जात्रा में महिलाओं का प्रवेश यहाँ तक कि प्रसाद ग्रहण करना वर्जित रखा गया है। इसका कारण उनके कोमल मन को माना गया है चूंकि देवताओं को कैद किया जाना अथवा नष्ट किया जाना एक भावुक क्षण होता है। पुजारी ने इस जानकारी में आगे जोडा कि कभी कभी कुछ साल बीत जाने के पश्चात भक्त को अपने कैद देवता की याद आती है अथवा उसे लगता है कि सजा पर्याप्त हो चुकी। अब देवता को छुडा कर लाने और सम्मान देने से उसकी बात सुनी जायेगी और समाधान भी उसे मिलने लगेंगे तो वह इसकी अपील भी भंगाराम में आ कर कर सकता है। यह प्रक्रिया वर्तमान न्याय प्रणाली में मिलने वाली जमानत की तरह होती है। वह निर्धारित शुल्क अदा कर अपने देवता को पुन: घर ले जा सकता है। 

क्या यह प्रक्रिया एक विमर्श नहीं मांगती? क्या देवताओं को मिलने वाली सजायें मुख्यधारा के उस समाज को आईना नहीं दिखाती जिन्होंने अपनी कट्टर आस्थाओं के लिये पाखण्ड की चादर ओढ रखी है? क्या यह समाजशास्त्र के लिये एक अनूठा विषय नहीं है जो तमाम नास्तिकता की दलीलों को जीभ चिढा कर उन्हें आस्थावान होने की अपनी ही परिभाषा सौंप देता है? यहाँ देवता असल में व्यक्ति के मनोविज्ञान से ही जन्म लेते हैं और उसके अपने तर्क द्वारा कभी भी नष्ट किये जा सकते हैं। भंगाराम मंदिर के पीछे की ओर जहाँ अनेको देवता कैद हैं अथवा उनके सामान, श्रंगार, चढावे आदि बिखरे हुए हैं; उन्हें देख कर मैं भी स्तब्ध रह गया हूँ और अपने तर्क को कुरेद रहा हूँ कि आदिवासी समाज की इस प्रगतिशीलता को हमारी मुख्यधारा की दकियानूसियत कभी हासिल भी कर पायेगी? 

- राजीव रंजन प्रसाद
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