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Channel: सफर - राजीव रंजन प्रसाद
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हमारा किताबी आपदा प्रबंधन और माउंट सेंट हेलेन्स ज्वालामुखी

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माउंट हेलेन्स का जिक्र करते हुए मैं जवालामुखी और उसकी विभीषिकाओं पर बात नहीं करना चाहता अपितु मेरी चिंता है कि प्रकृति और प्राकृतिक घटनाओं को देखने का हमारा नजरिया क्या होना चाहिये? क्या प्राकृतिक घटाओं और उनकी विभीषिकाओं को भी विद्यार्थियों और आने वाली पीढी के लिये सहेज कर रखना आवश्यक है? क्या पर्यावरण को समझने के लिये हमें प्राकृतिक घटनाओं के प्रति नितांत संवेदनशील होना चाहिये? क्या इस तरह हम प्राकृतिक आपदा का प्रबंधन करने में भी समर्थ हो सकते हैं? कुछ वर्षों पहले मैं अमेरिका के पोर्टलैण्ड (ऑरेगॉन) गया था और ज्वालामुखी पर्वत माउंट हेलेन्स को निकट से देखने का अवसर मिला। रह रह कर धुँवे और राख उगलने वाला यह ज्वालामुखी दशकों के अंतराल में अचानक सक्रिय हो जाता है और अपनी उपस्थिति का अहसास कराने के पश्चात पुन: ध्यान की अवस्था में चला जाता है। उपर बर्फ और भीतर आग का अभिनव समागम है माउंट हेलेन्स, जिसे निहारते हुए प्रकृति की सुंदरता और ताकत का इस तरह अहसास होता है कि मनुष्य के सर्वे-सर्वा होने का अहं धराशायी हो जाये। 

विषय पर आने से पहले थोडी बात बात मिथकों और किम्वदंतियों की। केवल भारत के पर्वत, नदी-नाले और समुन्दर ही कथा-कहानियों से नहीं जुडे बल्कि पूरी दुनियाँ ही जिन रहस्यों को समझ नही पाती उसका उत्तर दंतकथाओं में तलाशती है। अमेरिकी मानते हैं कि कोलम्बिया नदी की सैर पर महान आत्मा के दो पुत्र जब साथ निकले तो सुंदरता से प्रभावित उन्होंने यहीं बसने का निर्णय ले लिया। कुछ समय साथ रहने के पश्चात दोनों ही बेटों में अहं का टकराव हुआ और भूभाग पर अधिकार के लिये लड़ाई होने लगी। आखिर महान आत्मा पिता ने बीच बचाव करते हुए दोनो के बीच भूभाग का बटवारा कर दिया। उन्होने उत्तर और दक्षिण दिशा में दो तीर चला कर कोलम्बिया घाटी भूभाग का सीमांकन किया तथा दोनो ही बेटों के अधिकार क्षेत्रों के बीच उनसे मिलने जाने के उद्देश्य से पुल बना दिया। अब जमीन को ले कर लडाई बंद हुई तो स्त्री को ले कर आरम्भ हो गयी। एक ही सुंदर लड़की से दोनो भाई प्रेम करने लगे और उसे पाने के लिये लड़ने भिडने का जो सिलसिला आरम्भ हुआ उससे पूरी कोलम्बिया घाटी तबाह हो गयी यहाँ तक कि पुल भी नष्ट हो गया। इस विनाशलीला से नाराज महान आत्मा ने तीनों प्रेमियों को पर्वत में बदल दिया और उन्हें बर्फ से ढक दिया,  ये तीन पर्वत हैं माउंट सेंट हेलेन्स (प्रेमिका), माउंट हुड तथा माउंट एडम्स। प्रेमियों के हृदय की अग्नि को बर्फ क्या दबाये रख सकता है? इसी लिये गाहे - बगाहे वे अपने भीतर की सुलगन से पूरी दुनिया को आगाह करते रहते हैं। 
  
इन कहानियों में संवेदनाओं के अनेक निहितार्थ छिपे हुए हैं लेकिन उनसे उपर है प्रकृति की वे अभिक्रियायें जिनसे उसके सर्वशक्तिमान होने का बोध होता है। हजारों धुँआ उलगती फैक्ट्रियों, नदियों को मल-मूत्र से भर देने वाले शहरों और रासायिन खाद से खेतों को जला कर राख कर देने वाली वर्तमान मान सभ्यता को कभी कभी ही यह अहसास होता है कि उससे पहले डायनासोर भी इस धरती पर अपना मालिकाना हक समझते थे लेकिन वे नहीं बचे। ज्वालामुखी विस्फोट प्रकृति की मनुष्य सभयता को चेतावनी है। बात आगे बढाने से पहले एक अमेरिकी बच्चे की कविता का अनुवाद अवश्य पढाना चाहता हूँ – 

चलो बहता लावा देखें 
यह समय है कि आकाश हो जाये रौशन 
आओ महसूस करें उडती हुई राख की धूम
माउट सेंट हेलेन्स पर आज रात 
बूम! बूम!! बूम!! बूम!!!! 

अमेरिकी बच्चों के मन में ज्वालामुखी को ले कर जो कल्पनायें है वे साकार इसलिये हो उठी कि उन्होंने निकटता से इस भू-वैज्ञानिक घटना को देखा है। ज्वलामुखी और भूकम्प टाले नहीं जा सकते और मनुष्य केवल उनसे होने वाले विनाश तथा निर्माण को महसूस भर कर सकता है। १८ मई वर्ष १९८० को हुए माउंट हेलेन्स ज्वालामुखी विस्फोट में मानव हानि के अतिरिक्त लाखो  जीव जंतु तथा जल जंतु की हानि हुई हजारो हेक्टेयर भूमि पर लपलपाते लावा के डैने पसर गये और धूल धुँवे का अम्बार फैल गया। समय पर्यंत राहत और बचाव कार्य चलते रहे, तथा धीरे धीरे बदले हुए वातावरण को स्वीकार करता हुआ जीव-जगत यहाँ पुन: अपनी सक्रियता दर्शाता देखा जा सकता है। अब अमेरिकी प्रशासन ने ज्वालामुखी और आसापास के बहुत बड़े क्षेत्र को बसाहट विहीन तथा मानवीय दखल से दूर कर दिया है। राहत कार्य के पश्चात यह पूरा संरक्षित इलाका जैसे थे वाली अवस्था में रखा गया है अर्थात लावा प्रवाह के दौरान अगर कोई पेड झुलस गया, कोई वाहन दब गया, कोई मकान चपेट में आ गया, कोई तालाब लावा से भर गया तो उसकी क्या अवस्था हुई वह आज भी देखा और महसूस किया जा सकता है। हमारी प्राथमिक चट्टानों के निर्माता लावा ही हैं तथा कोई छात्र आसानी से स्त्रोत से लावा के बहने के तरीकों उनके विस्तार तथा जमने के दौरान एवं बाद में होने वाले प्रभावों को देख-महसूस कर सकता है।

मैं माउंट सेंट हेलेन्स को देख कर रोमांचित इसलिये हो सका चूंकि प्रकृति क्या, कितना और किस तरह कर सकती है सब कुछ आँखों के सामने ही देख रहा था। क्या हम भारतीय ऐसी प्राकृतिक घटनाओं को जिससे लड-पाना हमारी क्षमता के बाहर है, उसे समझने के लिये इसी तरह सहेजने वाला दृष्टिकोण भी रखते हैं? हम अवैध खनन और अन्धाधुंध प्रकृति का दोहन करने वाले लोग जब तक अपनी धरती और उसकी गतिविधियों को ठीक उसी तरह समझने की कोशिश नहीं करेंगे जैसे कि कोई डॉक्टर मरीज की दिल की धडकनों को…..तब प्राकृतिक आपदाओं से लडने-बचने की समझ हमारे भीतर विकसित नहीं होगी। भारत ज्वालामुखी वाला देश भले ही न हो लेकिन उससे जनित सुनामी जैसी आपदाओं को झेलता रहा है। लगभग पूरा देश खास कर हमारा हिमालयी हिस्सा भूकम्प की प्रबल सम्भावनाओं से डरा-सहमा रहता है। माउंट सेंट हेलेंस का प्राकृतिक घटना संग्रहालय हमें समझ प्रदान करता है कि समय रखते हमारे शोध तथा प्रयास भी इसी दिशा में जाने चाहिये। प्रकृति रौद्र रूप क्यों धारण करती है इसे समझने का अगर हमारे पास समय नहीं है तो विनाश से बचने का कोई उपाय भी नहीं होगा। विश्व के अन्य देशों की तुलना में तूफान, भूकम्प, बाढ, सुनामी जैसी आपदाओं में भारत में अपेक्षाकृत आधिक जान-माल की हानि होती है क्योंकि हमारा आपदा प्रबंधन किताबी है।  

-राजीव रंजन प्रसाद 
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अन्नदाता कब तक अनुत्तरित रहेंगे?

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व्यवस्था ने किसानों को हमेशा दोयम समझा है। हम विकास-गति के आंकडों पर प्रसन्न और गमगीन हो जाते हैं जबकि भारतीय अर्थशास्त्र की बुनियाद उसकी कृषि-प्रधानता है। विधारधाराओं ने भारत माता का स्वरूप गढा है लेकिन इस प्रश्न पर मौन है कि वह रहती कहाँ है? इसके उत्तर में  सुमित्रानंदन पंत लिखते हैं - खेतों में फैला है श्यामल/ धूल भरा मैला सा आँचल/ गंगा यमुना में आँसू जल/ मिट्टी कि प्रतिमा उदासिनी/ भारत माता ग्रामवासिनी। अपने किसान की अनदेखी कर हम प्रगति की किसी अवधारणा को साकार नहीं देख सकते क्योंकि प्रकृति ने मनुष्य को ईंट और गारा खाने योग्य नहीं बनाया है। वैश्विक आंकड़े हासिल करने की दौड़ ने मशीनों के ऐसे युग को पैदा किया है जहाँ “हर हाँथ को काम देंगे” जैसे वाक्यांश कपोल कल्पना बन गये हैं। किसान और उसका योगदान सेंसेक्स और निफ्टी की चकाचौंध में दिखाई-सुनाई ही नहीं देता है। वर्तमान व्यवस्था के पास ऐसी आँख ही नहीं जो अपने अन्नदाता की पीड़ा को देख सके और ऐसे कान नहीं जो घुट-घुट कर किसी तरह जीवन-यापन करते कृषक-परिजनों की वेदना सुन-महसूस कर सकें। हमारी समग्र चेतना ने भी किसानों की आत्महत्याओं को केवल एक समाचार की हेडलाईन मान लिया है। 

इस दौर में जब कंकरीट के जंगलों का विस्तार हमारी प्राथमिकता है तब हमें यह भी याद रखना चाहिये कि देश के बहुत बड़े भू-भाग में आज भी सिंचाई की समुचित व्यवस्था दे पाने में हम नाकामयाब रहे हैं। आज भी हमारी पैंसठ प्रतिशत कृषियोग्य भूमि सिंचाई सुविधा युक्त नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशक बाद भी अगर किसान को “काले मेघा पानी दे” ही करना है तो उसकी इस मांग में कुछ भी अनुचित नहीं कि फसल खराब होने पर उसे अपने खाद-बीज के लिये लिये गये कर्ज से माफी मिल सके। सरकारें जो कॉऑपरेटिव बनाती है उसमें गुणवत्ता इतनी खराब होती है कि मेहनतकश किसान निजी क्षेत्र से बीज-खाद आदि का क्रय करना इस अपेक्षा से पसंद करता है कि फसल अच्छी हुई तो वह कर्ज भी लौटा सकेगा (गुणवत्ता युक्त बीजों से उत्पादन में २०% तक की अभिवृद्धि संभव है) और अपने लिये अच्छे दिन भी ला सकेगा। मुनाफाखोरी की वृत्ति हमारे भीतर ऐसी घुसी हुई है कि बीजों की गुणवत्ता का सही समय पर समुचित आंकलन करने में हमारे विभाग नाकामयाब रहते ही हैं अब नकली बीजों की बहुतायतता की समस्या से भी दो-चार होना पड रहा है।

विषय को समझने के लिये बस्तर का उदाहरण लीजिये जब इस अंचल में खेती के आयाम बदलने लगे। जूम कल्टिवेशन के स्थान पर स्थाई खेती की दिशा आदिवासियों को मिली। बस्तर में आज भी राज्य के कुल सिंचित क्षेत्र का केवल एक प्रतिशत ही अवस्थित है जबकि यहाँ की मुख्य नदियों को देखें तो उत्तर की ओर महानदी, दक्षिण की ओर शबरी, पूर्व की ओर से आरंभ कर संभाग के पश्चिमी भाग तक अपनी सहायक नदियों का जाल बनाती जीवनरेखा सरित इंद्रावती प्रवाहित है और पश्चिम में बीजापुर जिले के एक बडे हिस्से को छू कर गोदावरी नदी प्रवाहित होती है। वास्तविकता देखी जाये तो इनही नदियों का समुचित उपयोग बस्तर संभाग से लगे निकटवर्ती राज्यों ने भरपूर किया है जबकि हम अब भी सिंचाई को ले कर किसी ठोस रणनीति की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह भी सत्य है कि छत्तीसगढ राज्य में भी सिंचाई क्षेत्र का औसत असामान्य है। सिंचित क्षेत्र को भी आनुपातिक दृष्टि से परखा जाये तो राज्य का पच्चीस प्रतिशत से अधिक सिंचित क्षेत्र रायपुर, दुर्ग, धमतरी, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा आदि जिलों में है जिन स्थानों को गंगरेल, दुधावा, खारंग, मिनीमाता, खुड़िया, तांदुला, खरखरा, सीकासेर आदि जलाशयों से पानी उपलब्ध हो रहा है। राज्य के राजनांदगाँव, कबीरधाम, महासमुन्द, और रायगढ जिलों में सिंचाई पंद्रह से बीस प्रतिशत भूमि में हो रही है जबकि शेष जिलों में यह अनुपात दस प्रतिशत के लगभग है। अर्थात बस्तर अभी समुचित और व्यावहारिक रूप से खेती के लिये किसी बडे कायाकल्प की प्रतीक्षा कर रहा है। इस अंचल के बाँध काजगी विरोध में ध्वस्त हों, विकासोन्मुखी परियोजनायें दिल्ली की एनजीओ आधारित राजनीति में पिस जायें और सारे ग्लोब को यह तस्वीर दिखती रहे कि कितना शोषित पीडित है बस्तर....यही वर्तमान की सत्यता है। कमोबेश देश के सभी पिछडे क्षेत्रों की स्थिति ऐसी ही है। 

हमने खेती तथा सिंचाई के मसलों में गैर सरकारी संगठनों और विदेशी रायचंदों की बहुत सुनी है इसलिये हमारे लिये कब और क्या आवश्यक है इसका स्वस्थ और निर्पेक्ष मूल्यांकन कभी नहीं हुआ। हमने बाँधों को मानवता का दुश्मन घोषित कर दिया और हमें वाटरशेड मैंनेजमेंट का झुनझुना पकडाया गया। रेखांकित कीजिये कि भू-जल स्तर का किसी क्षेत्र में बढना केवल पानी को स्थान स्थान पर रोकने से सम्भव नहीं, छोटे छोटे तालाब भी समग्र सिंचाई आवश्यकता की पूर्ति करने में सफल सिद्ध नहीं हो सकते। बस्तर के बोधघाट बाँध परियोजना तथा ओडिशा की अपर-इंद्रावती परियोजना को केसस्डडी की तरह समझते हैं। एक ही नदी-घाटी के अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम में बन रही दो परियोजनाओं के सुचारू रूप से संचालन के लिये वर्ष 1975 से 1979 के मध्य तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री प्रकाशचन्द्र सेठी एवं ओड़िशा के मुख्यमंत्री नंदिनी सत्पथी के मध्य जलबटवारे पर समझौता हुआ था जिसके तहत इन्द्रावती बाँध से बोधघाट परियोजना के लिये 45 टीएमसी पानी छोड़ना आवश्यक था। अब न बोधघाट बाँध रहा न ओड़िशा सरकार की बाध्यता रही इसलिये कभी आठ टीएमसी पानी तो कभी तीन टीएमसी पानी छोड़ने की बात इस नदी में होने लगी है। इतना ही नहीं इस बीच बिना किसी विरोध और पर्यावरण के लिये हो हल्ले के ओड़िशा ने इन्द्रावती के साथ साथ उसकी सहायक नदियों क्रमश: पोड़ागढ़, कपूर, मुरान के सम्पूर्ण जल को भी अपने रिजर्वायर में मिला लिया और बाँध के सभी गेट बंद कर लिये। दंतेवाड़ा के बोधघाट की तरह ही नवरंगपुर की इन्द्रावती बाँध परियोजना को क्यों बंद नहीं किया गया? क्या केवल बस्तर के ही बाँध का विरोध किसी बड़ी और सोची समझी राजनीति का हिस्सा था? कोई आन्दोलनकरी तब इन सवालों के साथ क्यों सामने नहीं आया कि इन्द्रावती नदी के अपस्ट्रीम पर पानी को पूरी तरह रोक लिये जाने से नीचे के क्षेत्र में जल-जंगल-जमीन पर जो गहरे प्रभाव पड़ेंगे उसकी भरपाई किस तरह की जायेगी? बोधघाट के निरस्तीकरण के बाद भी ओड़िशा में इन्द्रावती और उसकी सहायक नदियों पर प्रोजेक्ट बनते कैसे रह सके? विरोध की राजनीतियाँ जिन्हें कथित रूप से बस्तर से सहानुभूति थी वे यहाँ के जनजातियों के इन्द्रावती नदी जल पर वास्तविक हक के लिये आवाज बुलंद करती क्यों दिखाई नहीं दीं? ये जलते हुए सवाल हैं जो देश में प्रगति के पैमानों का सरकारी अनुमापन तथा व्याप्त असमानताओं को उजागर करते हैं साथ ही किसी क्षेत्र के पिछडेपन का एक कारण भी स्पष्ट करते हैं। 

बात मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन की। निर्णय लेने की प्रक्रियायें जितनी विलम्बित होंगी आंदोलन उतने ही उग्र होंगे। सरकारें अवगत रहें कि देश भर में नक्सलवाद जैसी अवधारणा को प्रसारित करने वालों के निशाने पर सर्वदा किसान ही होते हैं। नक्सलबाडी से ले कर तेलंगाना तक उग्र-वामपंथ अपने साथ किसानों के एक वर्ग को जोडने में इस लिये सफल हो सका चूंकि हमारी अनदेखियाँ अपने चरम पर थीं। प्रश्न यह नहीं है कि किसानों पर गोली किसने चलाई बल्कि उत्तर इस बात का चाहिये कि हमारे अन्नदाता कब तक अनुत्तरित रहेंगे? पूंजीपति जमीनों पर काबिज हो हो कर स्वयं को किसान घोषित कर रहे हैं और अपना इनकम टैक्स बचा रहे हैं जबकि हल और बैल लिये खड़ा होरी समझ ही नहीं पाता कि किसानी उसकी हड्डी तो तोड रही है लेकिन यह इनकम किस चिडिया का नाम है। 

-राजीव रंजन प्रसाद
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प्लम्बली के लकड़ी के पुल (बस्तर: अनकही अनजानी कहानियाँ, भाग 1)

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बस्तर के चालुक्य शासक राजा रुद्रप्रताप देव के शासनकाल  (1891 – 1921 ई.) में स्टेट इंजीनियर के पद पर ब्रिटिश अधिकारी प्लम्बली पदस्थ हो कर आये थे। प्लम्बली ने राज्य में लकड़ी की अधिकता व ग्रामीणों की काष्ठकृतियों के निर्माण में परम्परागत दक्षता को समझा और उसी को आधार बना कर लकड़ी के विशेष प्रकार के पुलों की डिजाईन तैयार की। उनका प्रयोग इतना कारगर सिद्ध हुआ कि बनाये गये पुलों के उपर से ट्रकों को गुजारना भी सम्भव हो सका था। प्लम्बली ने अपने इस कार्य और काष्ठपुलों की निर्माण शैली पर उन दिनों एक पुस्तक लिखी जो अभियांत्रिकी के दृष्टिगत महत्वपूर्ण मानी जाती है।

रियासतकालीन बस्तर में पहला काष्ठपुल वर्ष 1906 में बन कर तैयार हुआ था और वर्ष 1952 तक इस प्रकार के पुल बनाये जाते रहे। लकड़ी का सबसे बड़ा पुल दक्षिण बस्तर के गिलगिचा नाले पर बनाया गया था। बस्तर में विभिन्न सड़कों के मध्य एक समय पन्द्रह सौ से भी आधिक छोटे-बड़े काष्ठपुल निर्मित थे जिनका स्थान धीरे धीरे सीमेंट-कंकरीट के पुलों ने ग्रहण कर लिया। इसका कारण सीमेंट-सरिया के पुलों की मजबूती और अधिक भार-वहन क्षमता थी। इसके अतिरिक्त लकड़ी के पुलों को नियमित रख रखाव की आवश्यकता भी होती थी जो स्वयं भी एक खर्चीला कार्य था।    

-राजीव रंजन प्रसाद 
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जब बस्तर हाई स्कूल में जलाया गया यूनियन जैक (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग - 2)

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जगदलपुर बस्तर रियासत की एक जागृत राजधानी थी तथा यहाँ तत्कालीन क्रांतिकारी गतिविधियों एवं ब्रिटिश खिलाफत के आंदोलन का नेतृत्व श्री पी. सी नायडू कर रहे थे। स्वतंत्रता सेनानी श्री नायडू की एक सोडा फैक्ट्री थी जो क्रांतिकारियों का सम्मिलन स्थल तथा रणनीति बनाने का अड्डा बनी हुई थी। उनके नेतृत्व में अंग्रेजों भारत छोड़ो के स्वर को मुखर करने की योजना तैयार हुई। भारत की इस उपेक्षिततम रियासत की आवाज़ को सहजता से नहीं सुना जा सकता था तथा जिन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे सागवान की दरख्तों द्वारा ही सोख लिये जाते ऐसे में क्रांतिकारियों ने बहरों को सुनाने और अपनी उपस्थिति सही प्रकार से महसूस कराने की योजना पर कार्य आरंभ किया। स्वतंत्रता आन्दोलन की भीतर अलख जलाने मोहसिन नाम का एक उत्साही युवक इस कार्य के लिये चुना गया। बस्तर के तत्कालीन एक मात्र हाई-स्कूल के मैदान में यूनियन जैक फहराया जाता था। मोहसिन ने दुस्साहस पूर्ण कार्रवाई को अंजाम देते हुए यूनियन जैक को फ्लैग-पोस्ट सहित जला कर राख कर दिया था। बस्तर अंचल में पहली बार अंग्रेजों भारत छोड़ो के तीव्र और स्पष्ट स्वर ने आकार लिया था। निश्चित ही विरोध की अनेकों ऐसी घटनायें रही होंगी लेकिन उनका दस्तावेजीकरण अंग्रेजों ने हर्गिज नहीं होने दिया। बाद में श्री सी पी नायडू के भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस के साथ जुड़ कर स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने की जानकारी मिलती है।

-राजीव रंजन प्रसाद 



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प्रथम महिला शिक्षक और प्रथम महिला शासक (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 3)

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उन्हें बस्तर में पहली महिला शिक्षक होने का गर्व प्राप्त है। वे बस्तर की पहली महिला शासक महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की अध्यापिका थीं। अध्यापिका बी माधवम्मा नायडू के बस्तर आने तथा राजपुत्री को शिक्षित करने एवं कन्या पाठशाला खोलने तक का सफर किसी चलचित्र जैसा है। बाल-विधवा तथा निराश्रित होने के पश्चात भी अध्ययनशील माधवम्मा अपने भाई के साथ मद्रास रेजिमेंट की पोस्टिंग स्थलों पर रह रही थीं। इस रेजीमेंट के टूटने के पश्चात वर्ष - 1894 में यह परिवार बस्तर राज्य की परलकोट जमीदारी तक पहुँचा। माधवम्मा तब जमींदार के बच्चों को पढाने लगीं। परलकोट से वे भोपालपट्टनम पहुँची एवं वहाँ भी अध्यापन करती रहीं। ख्याति जगदलपुर खींच लायी जहाँ तत्कालीन राजा रुद्रप्रदाप देव ने अपनी पुत्री राजकुमारी प्रफुल्ल कुमारी देवी के शिक्षण के लिये वर्ष 1916 में उन्हे नियुक्त किया। प्रत्यक्षदर्शियों तथा माधवम्मा नायडू पर प्राप्त आलेख (द्वारा श्री बी एन आर नायडू, सेवानिवृत्त प्राचार्य, नायडू मैंशन, सदर, जगदलपुर) के अनुसार उस दौर में अध्यापिका माधवम्मा को लेने के लिये पर्दा लगी हुई बैलगाडी राजमहल से भेजी जाती थी। शिष्या जब राज्य की शासक (वर्ष 1921 - 1936) बन गयीं तब उन्होंने अपने गुरु से पूछा कि आप जीवन में आगे क्या करना चाहती हैं। शिक्षक पढाना ही चाहता है अत: महारानी के निर्देश पर भैरमगंज में एक कन्या पाठशाला आरम्भ की गयी। इस पाठशाला की शुरुआत में अध्ययन के लिये आने वाली बालिकाओं की संख्या बहुत सीमित थी किंतु धीरे धीरे उसमें अभिवृद्धि होने लगी। माधवम्मा वर्ष 1929 में रिटायर हुईं तथा इसके पश्चात उन्हे ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट के माध्यम से पेंशन मिलने लगी। वर्ष 1936 में महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी का देहावसान हुआ और उसके बाद से उनकी शिक्षक को पेंशन देना बंद कर दिया गया।

-राजीव रंजन प्रसाद 


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भोपालपट्टनम में उजाला था (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 4)

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भोपालपट्टनम की वर्तमान संकल्पना पिछडेपन और उपेक्षा का जो चित्र सामने लाती है इसके ठीक उलट रियासतकाल में यह एक प्रगतिशील जमीदारी थी। इस जमीदारी का मुख्यालय भोपालपट्टनम नगर था जहाँ वर्ष 1908 से पूर्व ही राजमहल, अस्पताल, स्कूल, पोस्ट ऑफिस, पुलिस कार्यालय, इन्जीनियर कार्यालय एवं तहसील कार्यालय बनाये गये थे। भोपालपट्टनम को सड़क मार्ग से जगदलपुर से जोड़ दिया गया था (केदारनाथ ठाकुर, 1908)। वर्ष 1910 के पूर्व एक स्थाई पुल इंद्रावती नदी पर निर्मित था जो इस अंचल को सिरोंचा, चाँदा तथा नागपुर से जोडता था (महान भूमकाल के दौरान यह पुल क्षतिग्रस्त हो गया था)। रिकॉर्ड बताते हैं कि श्रीकृष्ण पामभोई के कार्यकाल के दौरान कारण उनकी जमींदारी मेनेजमेंट के तहत थी। उस दौरान 147 एकड़ बंजर भूमि को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित किया गया और 4300 रुपये तकाबी ऋण के रूप में किसानों मे वितरित किया गया (एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट 1954, अप्रकाशित)। जमींदार की आय का मुख्य स्त्रोत सागवान जैसी कीमती इमारती लकड़ियाँ एवं वनोपज थे। गोदावरी तथा इन्द्रावती नदी मार्ग से निर्यात किया जाता था। राजधानी भोपालपट्टनम में उस दौर में समुचित विद्युत व्यवस्था उपलब्ध थी। नगर में बिजली का वितरण जमीदार की ओर से किया जाता था जिसके लिये एक जेनरेटर महल परिसर में स्थापित किया गया था। स्वतंत्रता प्राप्त हुई, जमीदार भी प्रजा हो गये। भोपालपट्टनम जमीदारी के पास रहा जेनरेटर बेच दिया गया और इसके  साथ ही पूरा नगर अंधेरे में डूब गया था। इस अंधकार के कई दशक बाद भोपालपट्टनम में बिलजी पहुँचाई जा सकी थी। 

-राजीव रंजन प्रसाद 
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डाकिये तलवार रखते थे और हरकारे भाला (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 5)

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कल्पना कीजिये उस दौर की जब ग्राम-डाकिये तलवार ले कर चला करते थे और हरकारे भाला। बस्तर में डाक व्यवस्था को आरम्भ करने के पीछे का मुख्य कारण वर्ष 1876 की जनजातीय क्रांति थी। इससे डरे हुए अंग्रेजों ने अपने सूचनातंत्र को मजबूत करने के लिये बस्तर और कांकेर में डाक व्यवस्था का आरम्भ किया। सेंट्रल प्रोविंस की नागपुर-सर्किल के अंतर्गत नागपुर में पोस्ट मास्टर जनरल, रायपुर डिविजन में डाकघर अधीक्षक तथा धमतरी सबडिविजन में डाकघर निरीक्षक का कार्यालय था। उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में इसी व्यवस्था के माध्यम से जगदलपुर, कोण्डागाँव, केशकाल तथा कांकेर मे आरम्भिक डाकघर स्थापित किये गये थे। इन डाकघरों में तार की प्राप्ति तथा प्रेषण के लिये समुचित व्यवस्थायें की गयी थीं। 

बस्तर रियासत की राजधानी जगदलपुर के डाकघर में एक पोस्टमास्टर, एक क्लर्क, एक पोस्टमैन, एक पैकर और एक टेलीग्राफ मैसेंजर था। जगदलपुर में तब गोलबाजार, कोतवाली, मिशन कम्पाऊंड, राजमहल एवं महारानी अस्पताल के पास लैटरबॉक्स लगाये गये थे। जगदलपुर से कोण्डागाँव, केशकाल, कांकेर, धमतरी और रायपुर के लिये डाक रोज सुबह 9 बजे की बस के माध्यम से भेजी जाती थी। ग्रामीण क्षेत्रों में डाक बांटने के लिये ग्राम-डाकिये होते थे जो सप्ताह में एक बार ही अपने निर्धारित क्षेत्र में प्राय: पैदल अथवा साईकिल से जाते थे। वे अपनी तथा डाक की सुरक्षा के लिये ये अपने पास तलवार अनिवार्य रूप से रखते थे। 

भोपालपट्टनम, मद्देड, बीजापुर, गीदम, दंतेवाड़ा और कोण्टा में शाखा-डाकघरों की स्थापना की गयी थी। इन स्थानों तक डाक पहुँचाने के लिये हरकारे नियुक्त किये जाते थे। प्रत्येक हरकारा अपने साथ भालानुमा एक अस्त्र ले कर जिसके सिर पर घुंघरू बंधे होते थे, साथ ही उसके सिरे पर डाकथैला लटका कर लगभग दौडता हुआ जंगलों के बीच पाँच मील की दूरी तय करता था। इस दूरी के पश्चात उसे नियत स्थान पर अगला हरकारा खडा मिलता था। भोपालपट्टनम, कुटरू, कोण्टा जैसे दूरस्थ स्थानों तक डाक पहुँचने में महीनों लग जाते थे एवं बारिश में डाक व्यवस्था बाधित भी होती थी। 

-राजीव रंजन प्रसाद 
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एक हथिनी के लिये खिंच गयीं तलवारें (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 6)

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कभी दक्षिण बस्तर में हाथी  बहुतायत में थे। राज्य की सीमा के भीतर अवैध रूप से हाथी पकड़ने को ले कर बस्तर तथा जैपोर राज्य (वर्तमान ओडिशा में स्थित) के बीच प्राय: तनाव अथवा युद्ध जैसी स्थिति बन जाया करती थी। जैपोर राज्य के कुशल शिकारी बस्तर में हाथी पकड़ने के लिये प्रशिक्षित हथिनियों का प्रयोग करते थे। उल्लेख मिलता है कि राजा भैरमदेव के शासन समय में एक बार बस्तर के अधिकारी जयपोर से भेजी गयी हथिनी को अपनी सीमा के भीतर पकड़ने में कामयाब हो गये। अब दोनो ही राज्य इस हथिनी पर अपना दावा करने लगे और बीचबचाव अंग्रेज अधिकारी मैक्जॉर्ज को करना पड़ा। अंग्रेज अधिकारी ने हथिनी को सिरोंचा (वर्तमान महाराष्ट्र में स्थित) बुलवा लिया तथा बस्तर के दावे को खारिज करते हुए उसे जैपोर राज्य को लौटा दिया।  

कभी जिस जीव को ले कर विवाद की स्थिति बनती थी आज पूरे बस्तर संभाग के किसी जंगल में हाथी नहीं पाया जाता। कभी वन भैंसे बस्तर की पहचान थी, अंग्रेज शिकारियों ने इस जीव का समूल नाश कर दिया। एक पुराना संदर्भ मुझे बस्तर के जंगलों में किसी समय गेंडा पाये जाने का प्राप्त हुआ है। इन्द्रावती नदी अपनी पूरी यात्रा में बहुत से ऐसे स्थान निर्मित करती है जो गेंडे के लिये स्वाभाविक आश्रय स्थल रहा करते होंगे। भैंसा दरहा जैसे क्षेत्र न केवल जंगली भैंसे बल्कि गेंडे के लिये भी अच्छा हेबीटाट प्रतीत होते हैं। अगर इन संदर्भों के दौर के बस्तर में लौटे तो कल्पना कीजिये कि तब से आज तक कितनी अनमोल जैव-विविधता यहाँ नष्ट हो गयी है?

-राजीव रंजन प्रसाद 
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सुकमा के रामराज और रंगाराज (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 7)

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बस्तर पर चालुक्य/काकतीय राजाओं के अधिकार के पश्चात सुकमा के जमींदारों ने वहाँ के राजाओं से हमेशा वैवाहिक सम्बन्ध बना कर रखे इस कारण इस जमींदारी का न केवल महत्व बढ़ा अपितु यह शक्तिशाली भी हुआ। विवरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि सुकमा की नौ राजकुमारियों का विवाह बस्तर के राजकुमारों के साथ सम्पन्न हुआ था, दहेज में कुवाकोण्डा, कटेकल्याण, प्रतापगिरि, छिंदावाड़ा, टहकवाड़ा, कोकापाड़ा, कनकपाड़, कुकानार, सलीमनगर और कोड़ता गाँव दिये गये थे। मुख्य रूप से राजकुमारी जानकीकुँवर का विवाह राजा भैरमदेव से, रुद्रकुँवर का विवाह राजा रक्षपालदेव से तथा कमलकुँवर का विवाह राजा दलपतदेव से होने के विवरण प्राचीन दस्तावेजों से प्राप्त होते हैं। सुकमा जमीदारी से जुडी अनेक रोचक कथायें हैं जिसमें प्रमुख है राजतंत्र की समाप्ति तक सुकमा के जमींदारों की लगभग 11 पीढ़ी में नाम क्रमिकता में रामराज और रंगाराज ही रखा जाना।

सुकमा के तहसीलदार ने 25 अगस्त 1908 को बस्तर रियासत के दीवान पंड़ा बैजनाथ को एक पत्र भेजा था। इस पत्र मे एक दंतकथा का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार पाँच सौ वर्ष पहले जब रंगाराज यहाँ शासक थे उनके चार पुत्र -  रामराज, मोतीराज, सुब्बाराज तथा रामराज, राज्य को ले कर विवाद कर बैठे। विवश हो कर सुकमा जमीन्दारी के चार हिस्से किये गये जो थे सुकमा, भीजी, राकापल्ली तथा चिन्तलनार। कहते हैं राजा ने इसके बाद अपने पुत्रों को शाप दिया कि अब सुकमा की गद्दी के लिये एक ही पुत्र बचेगा साथ ही आनेवाली पीढ़ियों के केवल दो ही नाम रखे जायेंगे रामराज और रंगाराज।
        
-राजीव रंजन प्रसाद 
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जब असफल रहा अंग्रेज जासूस (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 8)

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18 जनवरी 1795 को अंग्रेज जासूस कैप्टन जे डी बलण्ट, चुनारगढ़ होते हुए कांकेर रियासत में प्रविष्ठ हुआ। ईस्ट इंड़िया कम्पनी यहाँ के जंगलों की जानकारी चाहती थी। उसे बस्तर राज्य की सामाजिक-भौगोलिक जानकारियाँ जुटाने के उद्देश्य से भेजा गया था। कोरिया, मातिन, रतनपुर और रायपुर जैसी बड़ी जमीन्दारियों को पार करता हुआ वह कांकेर पहुँचा। कांकेर रियासत के राजा शामसिंह ने कैप्टन ब्लण्ट की आगवानी की। कैप्टन ब्लण्ट का बस्तर राज्य के भीतर स्वागत नहीं था। राजा दरियावदेव ने बस्तर राज्य को रहस्यमयी बना दिया था। आसानी से किसी भी अपरिचित आगंतुक को पार-पत्र प्रदान नहीं किया जाता था। अंग्रेज जासूस ने भोपालपट्टनम की ओर से बस्तर में चुपचाप प्रवेश करने का निश्चय किया। अभी वे सीमा के भीतर सौ गज की दूरी ही तय कर पाये थे कि झाडियों की ओट से दसियों आदिवासी सामने आ गये, सभी के कंधे पर धनुष और हाँथों में वाण। झाड़ियों में होती हुई सरसराहट ने सभी को सिहरा दिया। रह रह कर “टोम्स-टोम्स” की अस्फुट आवाजें उन तक पहुँच रही थी। ब्लण्ट के इशारे पर साथ आये सैनिकों ने पोजीशन ले कर बंदूख तान लिया। एक चेतावनी से भरा तीर कैप्टन ब्लण्ट के निकट से हो कर गुजर गया। भयभीत सैनिक भी गोलियाँ चलाने लगे। ब्लण्ट देख रहे थे कि गोली से घायल साथियों को घसीट कर ले जाते हुए आदिवासी जंगल की ओर लौट रहे हैं। अंग्रेज अफसर ने तुरंत ही पीछे हटना उचित समझा। रात्रि में ही वे गोदावरी के तट पहुँचे और अरपल्ली की जमीन्दारी में प्रवेश कर गये। इसके साथ ही ब्लण्ट का बस्तर राज्य के भ्रमण का हौसला टूट गया था। 

-राजीव रंजन प्रसाद 
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अंतानम अविजितानम (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 9)

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मौर्य कालीन प्राचीन बस्तर उस ‘आटविक जनपद’ का हिस्सा था जो स्वतंत्र शासित प्रदेश बन गया था। सम्राट अशोक ने कलिंग़ (261 ईसा पूर्व) को जीतने के लिये भयानक युद्ध किया। अशोक ने जब आक्रमण किया तो उसके प्रतिरोध में आटविक जनपद  के योद्धा भी कलिंग के समर्थन में आ गये। कलिंग ने तो अशोक की आधीनता स्वीकार कर ली किंतु आटविकों पर ‘मौर्य-ध्वज’ स्वप्न ही रहा। अपनी इस विफलता को सम्राट अशोक ने स्वीकार करते हुए शिला पर खुदवाया –‘अंतानं अविजितानं; आटविक जन अविजित पड़ोसी है’। इसके साथ ही अशोक ने आटविक जनता को उसकी ओर से चिंतिन न होने एवं स्वयं को स्वतंत्र समझने के निर्देश दिये थे –“एतका वा मे इच्छा अंतेषु पापुनेयु; लाजा हर्बं इच्छति अनिविगिन हेयू; ममियाये अखसेयु च में सुखमेव च; हेयू ममते तो दु:ख”। 

गंभारतापूर्वक अशोक के शिलालेखों का अध्ययन करने पर यह प्रतीत होता है कि आटविक क्षेत्र की स्वतंत्रता अशोक को प्रिय नहीं रही थी। जनजातियों की ओर से अशोक के साम्राज्य को यदा-कदा चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा होगा। इस सम्बन्ध में अशोक का तेरहवा शिलालेख उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने स्पष्ट चेतावनी जारी की है कि अविजित आटविक जन किसी प्रकार की अराजकता करते हैं तो वह उनका समुचित उत्तर देने के लिये भी तैयार है। यह कथन इसलिये भी महत्व का है क्योंकि इससे उस सम्राट की बौखलाहट झलकती है जो विशाल साम्राज्यों को रौंद कर उनपर मौर्य ध्वज लहरा चुका था लेकिन आटविक क्षेत्र के आदिवासी जन उसकी सत्ता और आदेश की परिधि से बाहर थे। इसी शिलालेख में अशोक ने आदिम समाज को दी हुई अपनी धमकी पर धार्मिक कम्बल भी ओढ़ाया है और वे आगे लिखवाते हैं कि - “देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी वनवासी लोगों पर दयादृष्टि रखते हैं तथा उन्हें धर्म में लाने का यत्न करते हैं।”

-राजीव रंजन प्रसाद 
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एक विरासत टुकड़े आठ (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 10)

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स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समय अपनी रफ्तार से चला। राजे रजवाड़े अपनी गरिमा, दौलत तथा प्रभाव लुटा चुके थे तो किसी वन्य क्षेत्र के आदिवासी जमींदार की क्या हैसियत हो सकती थी। मध्यप्रदेश शासन ने 06 जनवरी 1972 को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत भोपालपटनम जमींदारी को उसके चौदह वारिसों के सुपुर्द कर दिया। वे चौदह वारिस थे  नरसैया राज पामभोई/समैया राज पामभोई; किस्टैया राज पामभोई/बसवैया राज पामभोई;  रमैय्या राज पामभोई/ बुचैय्या राज पामभोई; नरसैंया राज पामभोई/ बुचैय्या राज पामभोई;  लक्षमैया राज पामभोई/ पापैया राज पामभोई; राजैया राज पामभोई/ कैस्टैया राज पामभोई; बतकैया राज पामभोई/ लालैया राज पामभोई; बकैया राज पामभोई/ वैन्कैया राज पामभोई; रामचन्द्रम राज पामभोई/ वैकैय्या राज पामभोई; आनंदैया राज पामभोई/ वेंकैय्या राज पामभोई; पापैया राज पामभोई/ लिंगैय्या राज पामभोई; जगैया राज पामभोई/ किस्टैया राज पामभोई; शुभ्रा भाई (पत्नी पापैया राज पामभोई); कु. सत्यवती (पुत्री लिंगैय्या राज पामभोई)। इन चौदह वारिसदारों में से कुल आठ वारिसों के हिस्से भोपालपट्टनम का राजमहल आया। इस समय इन परिवारों की आर्थिक अवस्थिति इतनी बदतर थी कि राजमहल के संरक्षण की बात उनके द्वारा सोची नहीं जा सकती थी। राजमहल के इन वारिसों ने तत्कालीन मध्यप्रदेश प्रशासन को राजमहल के संरक्षण के लिए लिखा किंतु इस विरासत पर ध्यान देने के स्थान पर इसे तब खंडहर घोषित कर दिया था, जबकि इस इमारत का एक प्लास्टर भी नहीं उखड़ा था (स्त्रोत – संदीप राज, भोपालपट्टनम)। इसके पश्चात इस विरासत को मयियामेट होने के लिये छोड दिया गया। अब भवन के भीतर के कमरों में कब्जा कर लिया गया है तथा पीछे अवस्थित मैदानों में भी लोग झोपड़ियाँ बना कर रहने लगे हैं। सामने की संरचना, भीतर का अहाता अभी ठीक-ठाक अवस्था में हैं जबकि पिछली दीवारों पर बरगद का कब्जा है। शायद इतिहास तो केवल लालकिलों के ही होते हैं....। 

-राजीव रंजन प्रसाद 
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बनती-टूटती पाठशाला (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 11)

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बस्तर में राजा भैरमदेव का शासन समय था। अंग्रेजों के प्रेक्षण-निरीक्षण के साथ वर्ष 1886 में एक साथ तीन विद्यालय खोले गये। ये तीनों विद्यालय तीन अलग अलग माध्यमों के थे अर्थात हिन्दी, ओडिया एवं उर्दू। तीनों ही स्कूलों का संयुक्त तब साठ विद्यार्थियों ने प्रवेश लिया था। इसके ठीक एक दशक बाद वर्ष 1896 में राज्य के विभिन्न स्थानों पर पंद्रह नये विद्यालय आरम्भ किये गये और इस समय तक छात्रों की संख्या 2252 हो गयी थी। वर्ष 1897 में बस्तर में विद्यालय की संख्या बढ कर 58 हो गयी साथ ही छात्रों की संख्या अब 2627 हो गयी थी। उत्साहित प्रशासन ने ग्यारह और भवन विद्यालय संचालन के लिये उपलब्ध करा दिये। वर्ष 1897 में एक विद्यालय संस्कृत अध्यापन के लिये आरम्भ किया गया था। शिक्षा प्रसारित करनी है किंतु उसे प्रदान करने का एक तरीका तथा स्थानीय समझ भी आवश्यक है। राजा रुद्रप्रताप देव के शासन समय में पंडा बैजनाथ राज्य के दीवान नियुक्त किये गये। उन्होंने प्रत्येक बच्चे को विद्यालय आना अनिवार्य कर दिया और इस नियम को कड़ाई से अनुपालित किया जाने लगा। बालक की अनुपस्थिति पर पालक के लिये सजा निर्धारित थी। दीवान बैजनाथ शिक्षा की अनिवार्यता का संदेश सही तरह से प्रसारित नहीं कर सके इसलिये जनाअक्रोश के शिकार हुए। वर्ष 1910 के महान भूमकाल के समय जब विद्यालयों की संख्या साठ हो गयी थी उनमें से पैंतालीस भवन जला दिये गये। इसके पश्चात प्रशासन ने स्वनिर्णय से विद्यालय आरम्भ करना बंद कर दिया एवं उसे जनता की मांग आधारित कर स्थापित किया जाने लगा। वर्ष 1921 के बस्तर में विद्यालयों की संख्या केवल 21 रह गयी थी। उपलब्धि आगे बढी जब वर्ष 1928 में बस्तर का पहला हाई-स्कूल खोला गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बस्तर में 59 तथा कांकेर में 36 विद्यालय थे।  

-राजीव रंजन प्रसाद 

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नक्सलवाद – पहली विफलता और पहली सफलता (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 12)

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बस्तर में नक्सलवाद की प्रथम असफल दस्तक वर्ष 1967 में सुनाई पड़ी थी। आंध्रप्रदेश की ओर से प्रवेश कर नक्सलवादियों द्वारा पहली बड़ी कार्रवाई दिनांक 19 जनवरी 1981 को ग्राम गंगलेर थाना, गोलापल्ली में की गयी। प्रधान आरक्षक जगदीश नारायण सिंह पर चार नक्सलवादियों ने घात लगा कर हमला किया। जगदीश नारायण सिंह ने बहादुरी से फायरिंग का मुकाबला लिया। नक्सली जंगल की आड ले कर भाग निकले तथा कोई भी हताहत नहीं हुआ। इस घटना के लगभग चार वर्ष पश्चात मुखबिर के माध्यम से थाना पखांजुर में नक्सलियों के गाँव में आने की सूचना मिली जिसका नेतृत्व गणपति कर रहा था। थाना पखांजुर में दर्ज अपराध क्रमांक 36/85 दिनांक 5 मार्च 1985 के अनुसार उस दिन सुबह 11 बजे प्राप्त सूचना के आधार पर पुलिस द्वारा सतर्कता के साथ घटना स्थल की घेराबंदी की गयी। गणपति दल ने नक्सलियों ने स्वयं को घिरा पा कर प्रतिवाद में फायरिंग आरम्भ कर दी। नक्सली लीडर घटनास्थल पर ही मारा गया जबकि उसके अन्य सभी भागने में सफल हो गये। 

नक्सलवादियों को अपने किसी हमले में पहली सफलता थाना बीजापुर में मिली। दिनांक 11 अगस्त 1988 को गाँव करकेली से किसी प्रकरण की विवेहना कर प्रधान आरक्षक कल्याण सिंह, आरक्षक रैनू राम, आरक्षक राजेंद्र सिंह परिहार लौट रहे थे। रास्ते में एम्बुश लगाये नक्सलियों ने उन्हें निशाने में ले कर और घेर कर फायरिंग आरम्भ कर दी। निशाना ले कर पुलिस पर फायर करना आरम्भ कर दिया। दोनो ओर से गोलियाँ चलने लगीं किंतु इस अचानक हमले के लिये तैयार न रहने के कारण प्रधान आरक्षक कल्याण सिह की जांघ में,  आरक्षक राजेंद्र सिंह परिहार के गले में तथा आरक्षक रैनू राम के हाथ में गोली लगी। इस घटना में राजेंद्र सिंह परिहार शहीद हो गये।  

-राजीव रंजन प्रसाद 

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कीर्तिमान है किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 13)

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दंतेवाड़ा क्षेत्र में औद्योगीकरण की प्रथम आहट के साथ ही किरन्दुल को विशाखापट्टनम से जोड़ने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। इस सम्बन्ध में रेल्वे नेटवर्क की संकल्पना दण्डकारण्य-बोलांगीर-किरिबूरू (डीबीके) परियोजना के रूप में हुई थी। यह तीन रेल्वे लाईनों का नेटवर्क था, चूंकि ओड़िशा के किरिबुरू से भी लगभग बीस लाख टन लौह अयस्क जापान को निर्यात किये जाने के करार को संभव बनाना था। किरन्दुल से विशाखापट्टनम को जोड़ने के लिये जो रेलमार्ग नियत किया गया उसकी लम्बाई चार सौ अड़तालीस किलोमीटर थी और आज इसे के-के (किरन्दुल – कोटावलसा) रेल्वे नेटवर्क  के रूप में पहचान मिली हुई है। 

पूर्वीघाट पर्वत श्रंखला की कठोर किंतु प्राचीन क्वार्जाईट चट्टानों में से सुरंगों का निर्माण करते हुए ब्रॉड गेज लाईने बिछाना जिसपर से भारी-भरकम लौह अयस्क का परिवहन हो सके, कोई साधारण कार्य नहीं था। निर्माण उपकरणों को दुरूह पर्वतीय स्थलों पर ले जाना, लोहे और सीमेंट आदि की ढुलाई किस तरह संभव हुई होगी इसे आज किसी परिकथा की तरह ही सोचा समझा का सकता है। स्वतंत्र भारत को विकास के पथ पर ले जाने वाली कठिनतम परियोजनाओं में से एक किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन निर्माण के पश्चात इसपर चलने वाली रेल अपनी यात्रा में एक स्थान पर सर्वाधिक 996.32 मीटर की ऊँचाई को भी स्पर्श करती है, साथ ही इस यात्रा का आकर्षण है अन्ठावन टनल (जिनकी सम्मिलित लम्बाई चौदह किलोमीटर से अधिक है) तथा चौरासी बड़े पुलो पर से गुजरने का रोमांच। कल्पना की जा सकती है कि सुरंगों से गुजरते, निकलते और अंधेरे उजाले का खेल खेलती रेलगाड़ी किसी यात्री को कितना अधिक रोमांचित कर सकती है विशेषकर जब उसे अहसास हो कि अपनी यात्रा में वह बारह सौ से भी अधिक पुलों पर से गुजर रहा है। इस कठिनतम निर्माण की उस समय आयी लागत महज पचपन करोड़ रुपये थी साथ ही यह रिकॉर्ड समय में पूरी की गयी परियोजना भी है। वर्ष 1962 में कार्यारम्भ हुआ जिसे वर्ष 1966 में पूरा भी कर लिया गया। वर्ष 1967 से किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन पर बैलाडिला लौह अयस्क परियोजना से अयस्क का परिवहन आरम्भ हो गया था।

-राजीव रंजन प्रसाद 

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रथपति बस्तर शासक (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 14)

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बस्तर पर शासन करने वाले चौथे राजा थे - पुरुषोत्तम देव (1468-1534 ई.)। राजा पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी की तीर्थयात्रा पेट के बल सरकते हुए की थी। जगन्नाथपुरी में ही उन्हें ‘रथपति’ की उपाधि से विभूषित किया गया था। उस युग की परिस्थितियों को देखते हुए कटक में गजपतियों, सतारा में नरपतियों, बस्तर में रथपतियों तथा रतनपुर में अश्वपतियों की एक महासंघ के रूप में स्थापना की गयी थी जिससे कि मुगलों के विरुद्ध लड़ा जा सके (पी. वंस एगन्यू, ए रिपोर्ट ऑन दि सूबा ऑर प्रोविंस ऑफ छत्तीसगढ़; 1820)। राजा ने बस्तर लौट कर दशहरे के अवसर पर रथयात्रा निकालने की परम्परा आरंभ की जो आज भी कायम है। दशहरे के अतिरिक्त भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के अवसर पर भी पुरी में की जाने वाली सभी प्रक्रियाओं को पूर्ण करते हुए बस्तर में रथयात्रा निकाली जाती है। इस घटना की स्मृति को जीवित रखने के लिये बस्तर में गोंचा पर्व भी मनाया जाता है। 

बस्तर में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा तथा गोंचा पर्व अब छ: सौ वर्षों से अधिक प्राचीन हो गया है। बस्तर की रथयात्रा का ऐतिहासिक महत्व तो है किंतु तुपकी इस पर्व की विशिष्ठ आंचलिक पहचान है। ताड़ के पत्तों और बांस से तोपनुमा यंत्र तैयार कर इसके पृष्ठ भाग में मलकांगिनी के फल को प्रयुक्त कर ताकत से इसे चलाया जाता है। ऐसा करने पर धमाके की आवाज होती है। यह गामीणों की अपनी तोप है तथा यात्रा को सम्मान देने का विशिष्ठ तरीका है। समय के साथ तुपकी की आकृति और प्रकृति में कई प्रयोग देखने को मिले। अब इसे चमकीली पन्नियों से सज्जित किया जाता है, बांस के प्रयोग के अलग अलग आकार दिये जाते हैं, कलात्मकता और अनेक अन्य तरह की नवीनता इसमें की गयी है। इस वर्ष गोंचा पर्व में मुझे विशेष आकर्षित किया छ: फिट की विशाल तुपकी ने जो सामान्य तुपकी की तरह व्यवहार करती है और देखने में कोई छोटा-मोटा तोप ही है।


-राजीव रंजन प्रसाद 
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तूम्बा, पालनार और धरती की उत्पत्ति कथा (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 15)

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बस्तर में प्रचलित मान्यता तूम्बे को संसार की उत्पत्ति के साथ जोड़ती है। कहा जाता है कि जब कुछ भी कहीं नहीं था तब भी तूम्बा था। बस्तर का पालनार गाँव वह स्थल है जहाँ से धरती के उत्पन्न होने की जनजातीय संकल्पना जुड़ती है। सर्वत्र पानी ही पानी था बस एक तूम्बा पानी के उपर तैर रहा था। इस तूम्बे में आदिपुरुष, डड्डे बुरका कवासी, अपनी पत्नी के साथ बैठे हुए थे। तभी कहीं से भीमादेव अर्थात कृषि के देवता प्रकट हुए और हल चलाने लगे। जहाँ जहाँ वह नागर (हल) चलाते वहाँ वहाँ से धरती प्रकट होने लगती। जब दुनिया की आवश्यकता जितनी धरती बन गयी तब भीमादेव ने हल चलाना बंद कर दिया। अब उन्होंने पहली बार धरती पर अनाज, पेड़-पौधे, लता-फूल, जड़ी -बूटियाँ, घास-फूस उगा दिये। जहाँ मिट्टी हल चलाने से खूब उपर उठ गयी थी, वहाँ पहाड़ बन गये। इसके बाद डड्डे बुरका कवासी ने धरती पर अपनी गृहस्थी चलाई। उनको दस पुत्र और दस पुत्रियाँ हुईं। इस तरह दस गोत्र – मड़कामी, मिड़ियामी, माड़वी, मुचाकी, कवासी, कुंजामी, कच्चिन, चिच्चोंड़, लेकामी और पुन्नेम बन गये। इन्ही गोत्रों ने सम्मुलित रूप से पूरी सृष्टि ने निर्माण व संचालन में सहयोग दिया। यही कारण है कि आदिवासी समाज बहुत आदर और सम्मान के साथ तूम्बे को अपने साथ रखता है। एक भतरी कहावत है कि ‘तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी’ अर्थात तूम्बा का फूटना सही नहीं माना जाता है।

-राजीव रंजन प्रसाद 

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समुद्रगुप्त और कविता (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 16)

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इतिहासकार अगर कवि भी हो तो घटनाओं के विवरण अत्यधिक रोचक रूप में प्रस्तुत होते हैं। बस्तर के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. के. के. झा ने समुद्रगुप्त पर पूरा खण्डकाव्य लिखा है। यह खण्डकाव्य समुद्रगुप्त के विजय ही नहीं उसके पश्चात उसे जीवन की निस्सारता पर हुए बोध को बेहद रुचिकर तरीके से प्रस्तुत करता है। डॉ. झा व्याग्रराज को नल शासक निरूपित करते हैं तथा यह मानते हैं कि समुद्रगुप्त ने युद्ध लड़ कर नहीं अपितु विवाह सम्बन्ध द्वारा प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर अधिकार किया था। महाकांतार (प्राचीन बस्तर) क्षेत्र पर नलवंश के राजा व्याघ्रराज (350-400 ई.) की सत्ता का उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशास्ति से मिलता है। प्रस्तुत है डॉ. के के झा रचित खण्डकाव्य से संबंधित पंक्तियाँ - 

विशाल वन प्रांतर आवेष्ठित, दण्डकारण्य में था यह राज्य
गुरु शुक्राचार्य श्राप से कभी हुआ था निश्चित त्याज्य। 
समय फिरा फिर इस अरण्य का, रघुपति का जब हुआ आगमन, 
उनके अद्भुत वीर कृत्य से, राक्षस रहित हुआ था यह वन। 

सुख समृद्धि पुन: लौटी थी, नल-कुल शासित अंचल था 
सद्य: व्याघ्र राज राजा थे, उनका राज्य अचंचल था। 
युद्ध नहीं उनको अभीष्ठ था, स्वतंत्रता उनको प्रिय थी, 
उनकी शक्ति संधि चर्चा को गति देने को ही सक्रिय थी। 

परम-पवित्र परिणय पश्चात संधि सफल सम्पन्न हुई, 
सम्बन्धी सह मित्र भावना सहज रूप प्रतिपन्न हुई। 
व्याघ्रराज ने निज कन्या का दान किया गुप्त नृपवर को, 
नल-कुल में प्रसन्नता छाई, पाकर सर्वश्रेष्ठ वर को। 
व्याघ्रराज से मैत्री कर के अतिप्रसन्न थे मागध भूप, 
गरुड़ स्तम्भ स्थापित करवाया, इस मैत्री के प्रतीक स्वरूप।

- राजीव रंजन प्रसाद
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शिक्षा, छात्रवृत्ति और संघर्ष (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 17)

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ब्रिटिश उपनिवेश काल में उपेक्षित और पिछडा हुआ बस्तर राज्य शिक्षा के जुगनुओं को दीपक बनाने के लिये जूझ रहा था। विद्यालयों की संख्या वर्ष दर वर्ष बढ रही थी। अंग्रेजों द्वरा राज्य को शिक्षा क्षेत्र के विकास के लिये बहुत सीमित बजट आबंटित किया जाता, इसके बाद भी विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिये कई योजनायें चलाई जा रही थी। बस्तर राज्य में प्राथमिक शिक्षा नि:शुल्क दी जाती थी। राज्य में मिशन स्कूलों को विशेष रिआयतें दी गयी थीं। दस्तावेजों के अनुसार जगदलपुर स्थित अंजुमन स्कूल को 300 रुपये तथा गर्ल्स क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल को 500 रुपये वार्षिक अनुदान राज्य शासन की ओर से दिया जाता था। उन दिनों एक मात्र हाईस्कूल (ग्रिग्सन हाई स्कूल जिसका वर्तमान नाम बस्तर हाई स्कूल है) जगदलपुर में अवस्थित था तथा परीक्षा नागपुर बोर्ड द्वारा संचालित की जाती थी। राज्य के कोने कोने से बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से जगदलपुर आते थे। हॉस्टल की तब कोई व्यवस्था नहीं थी जिसका विकल्प जमीदारो ने निकाला था। जगदलपुर में सभी जमीदारों के निजी बाडे तथा आवास थे जिन्हें उन्होंने अपने क्षेत्र के विद्यार्थियों के रहने और पठन-पाठन की सुविधा के लिये खोल दिया गया। जमीदारों की ओर से विद्यार्थियों को मासिक आर्थिक मदद भी की जाती थी। राज्य की ओर से जगदलपुर के एक छात्र राजेन्द्र दास को कलकत्ता के आयुर्वैदिक कॉलेज में अध्ययन के लिये तीस रुपये मासिक की छात्रवृत्ति पर भेजा गया था। छात्रवृत्ति प्रदान करने के लिये यह शर्त रखी गयी थी कि अध्ययन पूरा करने के पश्चात राजेंन्द्र दास को कम से कम एक वर्ष बस्तर में रह कर अपनी सेवायें प्रदान करनी होंगी। 
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किरन्दुल गोली काण्ड – एक काला अध्याय (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 18)

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बैलाडिला लौह अयस्क परियोजना में खुली खदान से लोहा खोदने काम में लगभग बीस हजार ऐसे श्रमिक लगाये गये थे, जिनकी संविदा पर नियुक्ति होती थी। वर्ष 1978, अंतर्राष्ट्रीय इस्पात बाजार में मंदी का दौर था। जापान ने बैलाड़िला से अपने वार्षिक आयात में बीस लाख टन अयस्क की कटौती कर दी। बैलाड़िला खदान के प्रबंधकों ने श्रमिक प्रदान करने वाली कम्पनियों के अनुबंधों को उनके करार समय की समाप्ति के बाद नवीनीकृत करने में असमर्थता जाहिर कर दी। हजारो मजदूरों के सामने रोजी-रोटी का सवाल आ खड़ा हुआ। यह बीस हजार अ-संगठित श्रमिकों का मामला था। ‘संयुक्त खदान मजदूर संघ’, बैलाड़िला  माईंस में कार्य कर रहे ‘संगठित-श्रमिकों की रजिस्टर्ड़ यूनियन’ है। इसकी अध्यक्षता इन्द्रजीत सिंह कर रहे थे। उन्होंने मामले में हस्तक्षेप किया। दस मार्च से क्रमिक भूख हड़ताल का सिलसिला आरम्भ हुआ। दुर्ग जिले के मजदूर नेता गंगा चौबे ने जेल-भरो आन्दोलन की शुरुआत की। 

इकत्तीस मार्च को धारा-144 तोड़ते हुए, लाल झंड़ा हाथों में उठाये चार हजार मजदूर इकट्ठा हुए। पुलिस को कई बार लाठियाँ भाँजनी पड़ी, हालात नियंत्रण में रहे। एक अप्रैल को भीड़ फिर जुटी। आँसू-गैस के गोले दागे गये, हलका लाठीचार्ज भी हुआ। तीन अप्रैल को श्रमिक महिलायें भी आन्दोलन में कूद पड़ीं। प्रदर्शन पूरे बैलाड़िला क्षेत्र में फैल गया। चार अप्रैल की रात यूनियन लीड़र इन्द्रजीत सिंह की पत्नी को गिरफ्तार कर लिया गया। 5 अप्रैल को इंद्रजीत सिंह की गिरफ्तारी के लिये उनकी तलाश कर रहे पुलिस दल पर भीड़ ने हमला कर दिया जिसमें एक हैड कॉन्स्टेबल की मौत हो गयी। आनन-फानन में अतिरिक्त पुलिस बल किरन्दुल बुला लिया गया। दोपहर के बारह बजे थे। श्रमिक बस्ती में आग की उँची उँची लपटे उठती देखी गयी। जान बचा कर भागते श्रमिकों पर गोलीयाँ चलती रही। कुछ ही पलों बाद जहाँ हजारो झुग्गियो की बस्ती हुआ करती थी वहाँ मैदान रह गया। 

- राजीव रंजन प्रसाद
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