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Channel: सफर - राजीव रंजन प्रसाद
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गंग राजवंश - सच भी और मिथक भी (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 19)

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अनेक घटनायें अतीत के पन्नों में दर्ज है जहाँ राजा प्रेम अथवा वासना में इस तरह डूबा रहा करता कि अंतत: गणिकाओं, दासियों तथा नगरवधुओं ने उनसे अपनी मनमानियाँ करवायी हैं तथा सत्ता पर अपने परिजनों अथवा पुत्र को अधिकार दिलाने में सफल हो गयी हैं। किसी समय ओड़िशा के जगन्नाथपुरी क्षेत्र के राजा गंगवंशीय थे। राजा की छ: संताने उनकी व्याहता रानियों से थी तथा एक पुत्र दासी से उत्पन्न था। गंगवंशीय राजा ने दासी पुत्र को सत्ता का अधिकारी बना दिया गया। अन्य छ: राजकुमार राज्य के बाहर खदेड़ दिये गये। कहा जाता है कि इनहीं में  से एक राजकुमार ने अपने साथियों के साथ शक्तिहीन हो रहे तत्कालीन नल-राजाओं के गढ़ महाकांतार के एक कोने में सेन्ध लगा दी तथा वहाँ बाल-सूर्य नगर (वर्तमान बारसूर) की स्थापना की। यह कथा तिथियों के अभाव में इतिहास का हिस्सा कहे जाने की अपेक्षा जनश्रुतियों की श्रेणी में ही वर्गीकृत रहेगी। 

पं. केदारनाथ ठाकुर (1908) ने अपनी किताब “बस्तर भूषण (1908)” में इस घटना का वर्णन किया है। अपनी इसी कृति में वे लिखते हैं “बारसूर के गंगवंशीय राजाओं के बनवाये हुए मंदिरों की बहुत सी मूर्तियाँ, पत्थरों व गरुडस्तम्भ से कालांतर में दंतेवाड़ा का दंतेश्वरी मंदिर बनवाया गया था। प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर पूर्वी गंग वंश का शासन 498 – 702 ई. के मध्य रहा होगा। त्रिकलिंग क्षेत्र (जिसका हिस्सा कोरापुट-कालाहाण्डी एवं बस्तर के पर्वतीय परिक्षेत्र रहे हैं) से हो कर गंग शासकों ने बस्तर मे प्रवेश किया होगा एवं इस क्षेत्र में नल शासकों (600 – 760 ई.) के पतन के वे गवाह रहे थे। गंगवंश के सबसे प्राचीन ज्ञात शासक का नाम इंद्रवर्मन था जिसे गंग संवत्सर के प्रवर्तन का श्रेय भी दिया जाता है। 

- राजीव रंजन प्रसाद 

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कृष्ण, स्यामन्तक, जाम्बवती और कालिया नाग (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 20)

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कांकेर (व धमतरी) के निकट सिहावा के सुदूर दक्षिण में मेचका (गंधमर्दन) पर्वत को मुचकुन्द ऋषि की तपस्या भूमि माना गया है। मुचकुन्द एक प्रतापी राजा माने गये हैं व उल्लेख मिलता है कि देव-असुर संग्राम में उन्होंने देवताओं की सहायता की। उन्हें समाधि निद्रा का वरदान प्राप्त हो गया अर्थात जो भी समाधि में बाधा पहुँचायेगा वह उनके नेत्रों की अग्नि से भस्म हो जायेगा। मुचकुन्द मेचका पर्वत पर एक गुफा में समाधि निन्द्रा में थे इसी दौरान का काल यवन और कृष्ण का युद्ध चर्चित है। कृष्ण कालयवन को पीठ दिखा कर भाग खड़े होते हैं जो कि उनकी योजना थी। कालयवन से बचने का स्वांग करते हुए वे उसी गुफा में प्रविष्ठ होते हैं तथा मुचकुन्द के उपर अपना पीताम्बर डाल कर छुप जाते हैं। कालयवन पीताम्बर से भ्रमित हो कर तथा कृष्ण समझ कर मुचकुन्द ऋषि के साथ धृष्टता कर बैठता है जिससे उनकी निद्राभंग हो जाती है। कालयवन भस्म हो जाता है। यही नहीं, कृष्ण के साथ बस्तर अंचल से जुड़ी एक अन्य प्रमुख कथा है जिसमें वे स्यमंतक मणि की तलाश में यहाँ आते हैं। ऋक्षराज से युद्ध कर वे न केवल मणि प्राप्त करते हैं अपितु उनकी पुत्री जाम्बवती से विवाह भी करते हैं।

कृष्ण से जुड़ी हुई कहानियों के दृष्टिगत सकलनारायण की गुफायें बहुत महत्व की हो जाती है। प्रकृति की निर्मित यह संरचना अब भगवान कृष्ण का मंदिर सदृश्य है। भोपालपट्टनम से लगभग 12 किलोमीटर दूर पोषणपल्ली की पहाड़ियों में सकलनारायण की गुफा स्थित है। गुफा के अंदर कुछ प्रतिमायें रखी हैं जिनमे विष्णु प्रतिमा के खण्डित अंग तथा उपासक प्रतिमा फलक मौजूद है। मुख्यद्वार से बीस फुट ऊँचाई में लगभग 82 सीढ़ियाँ चढ़ कर उस स्थल तक पहुँचा जा सकता है जहाँ वह प्रतिमा है जिसमें अपनी तर्जनी पर गोवर्धन गिरि उठाये हुए कृष्ण उकेरे गये हैं। इसके सामने ही स्थित चार फुट आयताकार खोह में झुक कर खड़े होना पड़ता है। खोह में गोप गोपियों की अनेक सुन्दर प्रतिमायें हैं। थोड़ा आगे बढ़ने पर सुरंगनुमा खोह का द्वार मिलता है जिसके भीतर कृष्ण रासलीला की अनेक प्रतिमायें हैं। गुफा के अन्दर पानी के प्राकृतिक स्त्रोत हैं। स्थान स्थान पर पानी रिस कर इकठ्ठा होता रहता है। अनेक किंवदंतियाँ हैं जिनमे से एक के अनुसार भगवान कृष्ण के द्वारा यमुना के जिस कालिया नाग को पराजित किया गया था वह पलायन करने के बाद इस गुफा में अवस्थित एक कुण्ड में आ कर रहने लगा। 

 -  राजीव रंजन प्रसाद

कुट कुट से कुटरू (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 21)

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वर्ष 1324 में वारंगल राज्य का पतन होने के पश्चात राजकुमार अन्नमदेव बस्तर के नाग शासकों को पराजित कर यहाँ अपनी सत्ता स्थापित करने के लिये जूझ रहे थे। अन्नमदेव ने गोदावरी-इंद्रावती संगम की ओर से बस्तर राज्य में प्रवेश किया तथा अपने अभियान को भोपालपट्टनम-बीजापुर की दिशा में आगे बढाया। निर्णायक पराजय के पश्चात वारंगल से अपनी अपनी टुकडियों के साथ पलायन कर गये। अनेक सेनानायक निकटवर्ती कमजोर क्षेत्रों की ओर कूच कर गये थे। इन सरदारों के पास कोई केंद्रीय नेतृत्व नहीं था केवल अपने अस्तित्व के लिये वे सुरक्षित स्थानों की तलाश में थे। अफरातफरी के इसी समय में काकतीय सत्ता के एक वफादार सामंत सन्यासी शाह ने महाराष्ट्र के अहेरी-सूरजगढ़ की ओर से चक्रकोटय (वर्तमान बस्तर) के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया तथा कांडलापर्ती के नाग राजा को पराजित कर उसने पासेबाड़ा, फरसेगढ़, गुदमा, तोयनार आदि गढ़ हथिया लिये। संयासी शाह ने कांडलापर्ती के स्थान पर कुटरू को अपनी राजधानी के तौर पर चुना। अपने विजय अभियान को वे आगे बढाते  इससे पूर्व ही उन्हें सूचना मिली कि अन्नमदेव भी बस्तर क्षेत्र में ही प्रविष्ट हुए हैं एवं उन्होंने अनेक नाग शासकों को पराजित कर बड़े भूभाग कर अधिकार कर लिया है। सन्यासी शाह ने तुरंत ही अपने साथियों-सैनिकों सहित अन्नमदेव के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त की। सन्यासी शाह व उनकी पीढियाँ के आधिपत्य में ही स्वतंत्रता प्राप्ति तक कुटरू जमीदारी रही है। कुटरू नामकरण की रोचक कथा है। कहते हैं कि विजयोपरांत सन्यासी शाह एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहा थे और वहाँ निरंतर किसी पक्षी का मोहक स्वर “कुट-कुट-कुटर” सुनाई पड़ रहा था। इस ध्वनि से संयासी शाह इतने प्रभावित हुए कि उसने अपने विजित राज्य का नाम ही कुटरू रख दिया।

- राजीव रंजन प्रसाद
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राजधानी पर मुगल (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 22)

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मुगल शासकों ने बस्तर क्षेत्र पर अपनी मजबूत पकड़ क्यों हासिल नहीं की इसका कोई स्पष्ट कारण समझ नहीं आता। यद्यपि बस्तर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में मुसलमान आक्रांता काला पहाड के आक्रमण एवं लूटपाट के साक्ष्य प्राप्त होते हैं तथापि मुगल इस सघन वनांचल के प्रति उदासीन ही बने रहे। मुगलों के कमजोर पडने तथा मराठा शासकों के उत्थान के साथ बस्तर राज्य पर नागपुर की ओर से कई हमले किये गये किंतु अंग्रेजों के आगमन तथा कूटनीति प्रतिपादन के पूर्व तक यहाँ वे भी अपनी राजनैतिक हैसियत स्थापित नहीं कर सके थे। राजा दलपतदेव (1731-1774 ई.) के शासन समय में राज्य पर हो रहे लगातार हमलों से बचने के लिये राजधानी को ‘बस्तर’ से हटा कर ‘जगदलपुर’ ले जाया गया। आनन-फानन में मिट्टी के महल का निर्माण हुआ। तीन द्वार वाले नये नगर की दीवारे पत्थर और ईंट की थी। राजधानी के एक ओर विशाल सरोवर का निर्माण कराया गया जो नगर को सुन्दरता और सुरक्षा दोनों ही प्रदान करता था। 

संभवत: यह राजा दलपतदेव की दूरदर्शिता थी जिन्होंने कठिन पर्वतीय क्षेत्रों, इंद्रावती नदी के विस्तार से तीन ओर से सुरक्षित राजधानी को विशाल झील बना कर सीधे आक्रमणों से सुरक्षित बना लिया था। वर्ष 1770 ई. में जगदलपुर दुर्ग बन कर तैयार हुआ। उल्लेख मिलता है कि लगभग इसी समय मुगल सेनाओं ने राजधानी जगदलपुर को चारों ओर से घेर लिया। एक उँचे से टीले पर दुर्ग को ध्वस्त करने के लिये तोप-खाना लगाया गया। मुगल सेनाओं से युद्ध करने जितनी क्षमता बस्तर के राजा में नहीं थी। देवी दंतेश्वरी की आरधना की जाने लगी तथा मुगलों के अगले कदम की प्रतीक्षा थी। कहा जाता है कि इसी बीच मुगल सैनिकों में कोई भयावह बीमारी फैल गयी; कठिन मार्ग तय कर बस्तर तक आने व लम्बी घेराबंदी किये रखने के कारण उनका रसद भी समाप्त हो गया था। मुगल सेनाओं ने बिना लड़े ही अपना घेरा हटा दिया (ग्लस्फर्ड - 1862; ग्रिग्सन- 1938)।

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महाभारत और बस्तर (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 23)

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वर्तमान बस्तर के कई गाँवों के नाम महाभारत में वर्णित पात्रों पर आधारित हैं उदाहरण के लिये गीदम के समीप नकुलनार, नलनार; भोपालपट्टनम के समीप अर्जुन नली, पुजारी; कांकेर के पास धर्मराज गुड़ी; दंतेवाड़ा में पाण्डव गुड़ी नामक स्थलों प्रमुख हैं। बस्तर की परजा (घुरवा) जनजाति अपनी उत्पत्ति का सम्बन्ध पाण्डवों से जोड़ती है। बस्तर भूषण (1908) में पं केदारनाथ ठाकुर ने उसूर के पास किसी पहाड़ का उल्लेख किया है जिसमें एक सुरंग पायी गयी है। माना जाता है कि वनवास काल में पाण्डवों का यहाँ कुछ समय तक निवास रहा है। इस पहाड़ के उपर पाण्डवों के मंदिर हैं तथा धनुष-वाण आदि हथियार रखे हुई हैं जिनका पूजन किया जाता है। महाभारत के आदिपर्व में उल्लेख है कि बकासुर नाम का नरभक्षी राक्षस एकचक्रा नगरी से दो कोस की दूरी पर मंदाकिनी के किनारे वेत्रवन नामक घने जंगल की सँकरी गुफा में रहता था। वेत्रवन अर्थात बकावण्ड नाम बकासुर से साम्यता दर्शाता भी प्रतीत होता है; अत: यही प्राचीन एकचक्रा नगरी अनुमानित की जा सकती है। बकासुर भीम युद्ध की कथा अत्यधिक चर्चित है जिसके अनुसार एकचक्रा नगर के लोगों ने बकासुर के प्रकोप से बचेने के लिये नगर से प्रतिदिन एक व्यक्ति तथा भोजन देना निश्चित किया। जिस दिन उस गृहस्वामी की बारी आई जिनके घर पाण्डव वेश बदल कर माता कुंती के साथ छिपे हुए थे तब भीम ने स्वयं बकासुर का भोजन बनना स्वीकार किया। भीम-बकासुर का संग्राम हुआ अंतत: भीम ने उसे मार डाला। महाभारत में वर्णित सहदेव की दक्षिण यात्रा भी प्राचीन बस्तर से जुड़ती है। विष्णु पुराण में यह उल्लेख मिलता है कि कांतार राज्यों की सेनायें कौरवों की ओर से महाभारत महा-समर में सम्मिलित हुई थी।

- राजीव रंजन प्रसाद

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मामा भांजा और उनका मंदिर (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 24)

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गंग राजवंश (498 – 702 ई. के मध्य) का शासन क्षेत्र “बाल सूर्य” (वर्तमान बारसूर) नगर और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में सीमित था। इस राजवंश की शासन-प्रणाली तथा राजा-जन संबंधों पर बात करने के लिये समुचित प्रमाण, ताम्रपत्र अथवा शिलालेख उपलब्ध नहीं हैं तथापि गंग राजाओं का स्थान बस्तर की स्थापत्य कला की दृष्टि से अमर हो गया है। बालसूर्य नगर की स्थापना के पश्चात गंग राजाओं ने अनेकों विद्वानों तथा कारीगरों को आमंत्रित किया जिन्होंने राजधानी में एक सौ सैंतालीस मंदिर तथा अनेकों मंदिर, तालाबों का निर्माण किया। गंगमालूर गाँव से जुड़ा “गंग” शब्द तथा यहाँ बिखरी तद्युगीन पुरातत्व के महत्व की संपदाये गंग-राजवंश के समय की भवन निर्माण कला एवं मूर्तिकला की बानगी प्रस्तुत करती हैं। बारसूर में अवस्थित प्रसिद्ध मामा भांजा मंदिर गंग राजाओं द्वारा ही निर्मित है। कहते हैं कि राजा का भांजा उत्कल देश से कारीगरों को बुलवा कर इस मंदिर को बनवा रहा था। मंदिर की सुन्दरता ने राजा के मन में जलन की भावना भर दी। इस मंदिर के स्वामित्व को ले कर मामा-भांजा में युद्ध हुआ। मामा को जान से हाँथ धोना पड़ा। भाँजे ने पत्थर से मामा का सिर बनवा कर मंदिर में रखवा दिया फिर भीतर अपनी मूर्ति भी लगवा दी थी। आज भी यह मंदिर अपेक्षाकृत अच्छी हालत में संरक्षित है। आज का बारसूर ग्राम अपने खंड़हरों को सजोए अतीत की ओर झांकता प्रतीत होता है। 

- राजीव रंजन प्रसाद
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चालुक्य अथवा काकतीय? (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 25)

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बस्तर के मध्यकाल का इतिहास यहाँ नागों को पराजित कर अपनी सत्ता स्थापित करने वाले राजवंश के प्रति काकतीय अथवा चालुक्य की चर्चा में उलझा हुआ प्रतीत होता है। इसे समझने के लिये मध्ययुग के समृद्ध और शक्तिशाली रहे वारंगल राज्य की कहानी जाननी आवश्यक है। वारंगल के काकतीय राजा गणपति (1199-1260 ई.) की दो पुत्रियाँ थीं रुद्राम्बा अथवा रुद्रम देवी तथा गणपाम्बा अथवा गणपम देवी। उनके देहावसान के बाद उनकी बड़ी पुत्री रुद्राम्बा ने सत्ता संभाली। चालुक्य राजा वीरभद्रेश्वर से महारानी रुद्राम्बा का विवाह हुआ था। वर्ष 1260 ई. अथवा इससे कुछ पूर्व राजा गणपति ने अपनी पुत्री रुद्राम्बा को सह-शासिका बनाया तत्पश्चात अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। चालुक्य राजा वीरभद्र तथा रानी रुद्राम्बा को कोई पुत्र नहीं था। उनकी दो कन्या संततियाँ रुयम्मा एवं मम्मड़म्बा थी। पुत्री मम्मड़म्बा के दो पुत्र हुए प्रतापरुद्र देव एवं अन्नमदेव। रानी रुद्राम्बा ने अपने दौहित्र प्रतापरुद्र देव को गोद ले कर अपने राज्य का वारिस नियुक्त कर दिया। इस तरह प्रतापरुद्र देव ने काकतीय वंश की ध्वजा को मुसलिम आक्रांताओं द्वारा किये गये पतन तक थामे रखा। राजा प्रतापरुद्र चालुक्य पिता की संतति होने के बाद काकतीय कहलाये। अन्नमदेव चूंकि गोद नहीं लिये गये थे और वारंगल का पतन होने के पश्चात वे उत्तर की और पलायन कर गये एवं नागों को परास्त कर अपनी सत्ता कायम की अंत: उन्हें चालुक्य निरूपित किया जाना उचित व्याख्या है।  

तकनीकी रूप से तथा पितृसत्तात्मक समाज की व्याख्याओं के अनुरूत यह सत्य स्थापित होता है कि चालुक्य राजा से विवाह के पश्चात महारानी रुद्राम्बा का पिता की वंशावलि पर अधिकार समाप्त हो गया। तथापि भावनात्मक रूप से अथवा स्त्री अधिकारों पर विमर्श के तौर पर मुझे यह तथ्य रुचिकर प्रतीत होता है कि काकतीय वंशावली के रूप में यह राजवंश अधिक प्रमुखता से जाना गया है। यहाँ तक कि महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921 - 1936 ई.) जिनका विवाह भंज वंश से जुड़े राजकुमार से किया गया था; तत्पश्चात के सभी वंशजों ने अपने नाम के साथ भंज अवश्य जोड़ा किंतु अंतिम महाराजा प्रवीर स्वयं को प्रवीर चंद्र भंजदेव ‘काकतीय’ कहलाना ही पसंद करते थे। 

- राजीव रंजन प्रसाद 

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सामाजिक दरारें और जान्तुरदास (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 26)

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नलकालीन बस्तर (760 ई. से 1324 ई.) में कई ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जहाँ कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था से सामना होता है। नल शासक भवदत्त वर्मा का ऋद्धिपुर ताम्रपत्र जिसके खनक थे पद्दोपाध्याय ब्राह्मण के बेटे बोपदेव  (पद्दोपाध्यायपुत्रस्य पुत्रेण बोप्पदेवेन क्षतिमिदं, ई.आई - XIX)। यह स्पष्ट है कि कर्म आधारित समाज की जो चर्चा होती है यह उसका अप्रतिम उदाहरण है। उस दौर की विवेचना करने पर यह असामन्य लगता है कि बोप्पदेव जो कि ब्राह्मण वर्ण के थे, उन्होंने खनक का कार्य किया होगा। इसी कड़ी में पोड़ागढ़ अभिलेख जुड़ता है जहाँ एक दास वर्ण के व्यक्ति कवितायें करते, राजा के लिये शिलालेखों की पद्य रचना करते नजर आते हैं। नल शासन समय के सर्वाधिक गौरवशाली शासक रहे स्कन्दवर्मा के पोड़ागढ़ प्रस्तराभिलेख के रचयिता हैं – जान्तुर दास। स्पष्ट है कि जान्तुर माँ काली के लिये प्रयुक्त होने वाला शब्द है जबकि दास वर्ण का परिचायक है। यह दास दमित-शोषित नहीं अपितु राज्याश्रय प्राप्त एक कवि है। जान्तुर दास की रची पंक्तियों पर दृष्टि डालें तो वह रस, छंद-अलंकार युक्त अद्भुत काव्य रचना प्रतीत होती है। रचना की भाषा संस्कृत है। पोड़ागढ़ अभिलेख के रचयिता जांतुर दास ने प्रशस्ति की रचना तेरह पद्यों में की है। रचनाकार की विद्वत्ता का उदाहरण उसके शब्द प्रयोगों से ही मिल जाता है। जान्तुर दास लिखते हैं - आजेन विश्वरूपेण निगुणिन गुणौषिणा (निर्गुण होते हुए भी गुण की आकांक्षा करने वाला), यह पद्य विरोधाभास अलंकार का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह छंद देखें तथा इसमें अनुप्रास अलंकार की छटा को महसूस करें – कृत्वा धर्म्मार्थ निम्याशमिदमात्म हितैषिणा। पादमूलं कृतं विष्णो: राज्ञा श्रीस्कन्दवर्म्मणा।। इसी तरह उनके काव्य में प्रयुक्त शांत रस का यह उद्धरण देखें – हरिणा जितं जयति जेध्यत्येषा गुणस्तुतिन्नर्हगुणस्तुतिन्नर्हि सा। ननु भगवानेव जयो जेतव्यं चाधिजेता च।। पोड़ागढ़ अभिलेख के बारहवें पद्य में इस शिलालेख के लेखक जान्तुरदास का नाम भी अंकित किया गया है। यह दर्शाता है कि मानुषिक विभेद जैसी स्थिति नाग कालीन बस्तर में समुपस्थित नहीं थी। पाँचवी सदी का यह प्रस्तराभिलेख सामाजिक दरारों में मिट्टी डालता हुआ प्रतीत होता है। यह अभिलेख मांग करता है कि लगातार जातिगत विद्वेषों में बाटे जाने के लिये दिये जा रहे उदाहरणों पर ठिठक कर पुनर्विवेचनायें की जायें। जान्तुर दास एक अल्पज्ञात कवि ही सही लेकिन यदि उन्हें समझा जाये तो वे आज व्याप्त अनेकों मिथकों को तोड़ने में सक्षम हैं। 

-राजीव रंजन प्रसाद

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पत्थर की गद्दी और जंगल की सत्ता (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 27)

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छिन्दक नाग वंशीय शासकों को निर्णायक रूप से पराजित करने के पश्चात अन्नमदेव (1324 – 1369 ई.) के लिये अपने विजय अभियान को समाप्त कर स्थिरता प्राप्त करने का समय आ गया था। उन्होंने विजित भूभाग को को मिला कर उसे बस्तर राज्य का स्वरूप दिया। अन्नमदेव की मन:स्थिति की विवेचना करना आवश्यक है चूंकि वे वरंगल जैसे धनाड्य राज्य के राजकुमार थे जो तुगलकों के हाथो पतन के पश्चात इस क्षेत्र में पहुँचे थे। जिस वारंगल राज्य का खजाना हजारों ऊँटों मे लदवा कर दिल्ली भेजा गया हो वहाँ से घनघोर वनप्रांतर में पहुँचने के पश्चात अन्नमदेव की धन और भूमि एकत्रित करने की लालसा समाप्त हो गयी थी। उन्होने नागों को पराजित किया किंतु वे पैरी नदी के आगे नहीं बढे चूंकि शक्तिशाली शासकों को अपनी ओर  आकर्षित नहीं करना चाहते थे। उनका विजित राज्य चारो ओर से भौगोलिक रूप से सुरक्षित सीमा के भीतर अवस्थित था जिसमें बारह जमींदारियाँ, अढ़तालीस गढ़, बारह मुकासा, बत्तीस चालकी और चौरासी परगने थे। जिन प्रमुख गढ़ों या किलों पर अधिकार कर बस्तर राज्य की स्थापना की गयी वो हैं - मांधोता, राजपुर, गढ़-बोदरा, करेकोट, गढ़-चन्देला, चितरकोट, धाराउर, गढ़िया, मुण्डागढ़, माड़पालगढ़, केसरपाल, राजनगर, चीतापुर, किलेपाल, केशलूर, पाराकोट, रेकोट, हमीरगढ़, तीरथगढ़, छिन्दगढ़, कटेकल्याण, गढ़मीरी, कुँआकोण्ड़ा, दंतेवाड़ा, बाल-सूर्य गढ़, भैरमगढ़, कुटरू, गंगालूर, कोटापल्ली, पामेंड़, फोतकेल, भोपालपट्टनम, तारलागुड़ा, सुकमा, माकड़ी, उदयगढ़, चेरला, बंगरू, राकापल्ली, आलबाका, तारलागुड़ा, जगरगुण्ड़ा, उमरकोट, रायगड़ा, पोटगुड़ा, शालिनीगढ़, चुरचुंगागढ़, कोटपाड़.......। 

कांकेर से, साथ ही पराजित नाग राजाओं के पुन: संगठित होने के पश्चात उत्तरी क्षेत्रों की ओर से मिल रही चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए अन्नमदेव ने बड़े-डोंगर को नवगठित बस्तर राज्य की पहली राजधानी बनाया। यहाँ अन्नमदेव ने अपनी आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी का मंदिर बनवाया तथा राजधानी में 147 तालाब भी खुदवाये थे। इसी मंदिर के सम्मुख एक पत्थर पर बैठ कर अपना उन्होंने अपना विधिवत राजतिलक सम्पन्न करवाया। स्वाभाविक है कि इस समय उनके पास न राजमहल रहा होगा न ही सिंहासन। डोंगर के इसी पत्थर पर राजतिलक एक परम्परा बन गयी जिसका निर्वाह अंतिम शासक प्रवीर तक निरंतर होता रहा। इस प्रथा को पखनागादी कहा जाता था। 

- राजीव रंजन प्रसाद

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शरणागत राजा और राजगुरु (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 28)

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जीवन के अंतिम दिनों में राजा दिक्पालदेव, अपने पुत्र राजपालदेव (1709 – 1721 ई.) को राजसिंहासन पर बिठा कर सार्वजनिक जीवन से अलग हो गये थे। राजा राजपाल देव के समय के बस्तर को शक्तिशाली कहा जा सकता है। महंत घासी दास स्मारक, रायपुर रखे गये एक ताम्रपत्र में उल्लेख है कि “स्वस्ति श्री वसतरमहानगरे शुभस्थाने महाराजप्रौढ प्रताप चक्रवर्ती श्री राजपाल देव महाराज गोसाईं श्री मानकेश्वरी”। इस ताम्रपत्र से तीन मुख्य अर्थ निकाले जा सकते हैं पहला कि बस्तर की राजधानी में नगरीय व्यवस्था ने स्वरूप लेना आरम्भ कर दिया था, दूसरा कि राजपाल देव स्वयं चक्रवर्ती की उपाधि धारण करते थे तथा तीसरा यह कि राजा मणीकेश्वरी देवी के अनन्य उपासक एवं पुजारी थे। ये स्थितियाँ राज्य की सम्पन्नता का परिचायक हैं सम्भवत: इसी लिये उस दौर में दक्षिण राज्यों में से एक महाशक्ति गोलकुण्डा की दृष्टि बस्तर पर पड़ गयी। 

यह राजा राजपाल देव का ही शासन समय था गोलकुण्डा राज्य के कुतुबशाही वंश के सुलतान ने बस्तर पर हमला बोल दिया था। पुस्तक - लौहण्डीगुडा तरंगिणी (1963) जिसके लेखक महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव हैं, में बस्तर के इतिहास की व्यापक झलकियाँ मिलती हैं। इसी कृति में उल्लेख है कि जब कुतुबशाही सेनाओं ने हमले किया उस समय राजा राजपाल देव, राजधानी में नहीं थे। खतरे को भाँप कर रानी रुद्रकुँवरि ने महल से भाग कर एक ब्राह्मण के घर शरण ली। इस समय वे गर्भवती थीं। शरण प्रदान करने वाले ब्राह्मण की कुटिया में ही उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जिसे दलपत देव के नाम से जाना गया। लूट-खसोट के बाद आक्रमण करने वाले लौट गये। राजा राजपाल देव जब लौटे तो राजधानी की दशा देख कर स्तब्ध रह गये। यद्यपि उन्हें यह जान कर प्रसन्नता हुई कि रानी और राजकुमार सकुशल हैं। वह ब्राह्मण जिसने दोनों की रक्षा की थी, उसे राज्य का राजगुरु नियुक्त किया गया था। इस संदर्भ से एक और बात स्पष्ट है कि गोलकुण्डा से आयी सेनाओं ने आगे बढते हुए बस्तर अंचक की भौगोलिक परिस्थितियों को समझ लिया था तथा वे जान गये थे यदि देर तक इस क्षेत्र में वे रुके तो घेर लिये जायेंगे। उन्होंने केवल लूट-पाट कर वापस लौट जाना श्रेयस्कर समझा।  

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राखी का वह नेग (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 29)

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रक्षाबन्धन पर बहुत सी कहानियाँ हमारे सम्मुख हैं। अधिकतम कहानियाँ पौराणिक आख्यान हैं तो कुछ भारत के गौरवशाली इतिहास में सद्भावना वाले पन्नों से भी जुड़ी हुई हैं। रक्षाबन्धन के पर्व की महत्ता जितनी अधिक है यदि इतिहास टटोला जाये तो उससे जुडे अनेक ऐसे प्रसंग और भी हैं, जिन्हें यदि दस्तावेजबद्ध किया जाये तो आने वाली पीढी को अपनी संस्कृति व अतीत को सही तरह से समझने में सहायता मिल सकती है। इसी तरह की एक कहानी सत्रहवीं सदी के बस्तर राज्य से जुडी हुई है। 

बस्तर के राजा राजपालदेव (1709 – 1721 ई.) की दो रानियाँ थी – रुद्रकुँवरि बघेलिन तथा रामकुँवरि चंदेलिन। रानी रुद्रकुँवरि से दलपत देव तथा प्रताप सिंह राजकुमारों का जन्म हुआ तथा रानी रामकुँवरि के पुत्र दखिन सिंह थे। रानी रामकुँवरि अपने पुत्र दखिन सिंह को अगला राजा बनाना चाहती थी किंतु बीमारी के कारण वे स्वर्ग सिधार गये। इसके एक वर्ष पश्चात ही (वर्ष 1721 ई.) राजा राजपालदेव का भी निधन हो गया। राजा के दोनों बेटे उनकी मौत के समय राजधानी से बाहर थे। रानी रामकुँवरि अभी भी षडयंत्र कर रही थीं। मौका पा कर बस्तर का सिंहासन रानी रामकुँवरि के भाई चंदेल कुमार (1721-1731 ई.) ने हथिया लिया। असली वारिस खदेड़ दिये गये। राजकुमार प्रतापसिंह रीवा चले गये और दलपतदेव ने जैपोर राज्य में शरण ली। जैपोर के राजा की सहायता से दलपतदेव ने कोटपाड़ परगना पर अधिकार कर लिया। अब वे बस्तर राज्य के दरबारियों से गुपचुप संबंध स्थापित करने लगे। एक वृहद योजना को आकार दिया जाने लगा और इसके प्रतिपादन का दिन निश्चित किया गया – रक्षाबन्धन। दलपतदेव ने मामा को संदेश भिजवाया कि उन्हें आधीनता स्वीकार्य है तथा वे राखी के दिन मिल कर गिले-शिकवे दूर करना चाहते हैं। संधि का प्रस्ताव पा कर मामा की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। इस संधि से उसका शासन निष्कंटक हो जाने वाला था। वर्ष 1731 को रक्षाबन्धन के दिन दलपतदेव नेग ले कर दरबार में उपस्थित हुए। मामा-भाँजे का मिलन नाटकीय था। भाँजे ने सोचने का अवसर भी नहीं दिया। निकट आते ही अपनी तलवार खींच ली और सिंहासन पर बैठे मामा का वध कर दिया (दि ब्रेत, 1909)। इस तरह दस साल भटकने के बाद दलपत देव (1731-1774 ई.) ने अपना वास्तविक अधिकार रक्षाबन्धन के दिन ही प्राप्त किया था।

- राजीव रंजन प्रसाद

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सेंट जॉर्ज ऑफ जेरुसलम (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 30)

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राजा रुद्रप्रताप देव (1891 – 1921 ई.) का शासन समय अंग्रेजों के सीधे प्रभाव में था। केवल छ: वर्ष की आयु में रुद्रप्रताप देव राजा बने तथा वर्ष 1908 तक पूरी तरह उनके नाम पर चलने वाला शासन अंग्रेजों द्वारा संचालित था। उनके शासन समय में ही दो अंग्रेज अधिकारी कैप्टन एल जे फैगन (1896 – 1899 ई.) तथा कैप्टन जी डब्लू गेयर (1899 – 1903 ई.) ने बस्तर प्रशासक के रूप में कार्य किया था जिसका गहरा प्रभाव राजा पर था। शासनाधिकार प्राप्त होने के पश्चात एक प्रशासक के रूप में जगदलपुर शहर के लिये की गयी ‘स्वच्छ जल की सप्लाई व्यवस्था’ तथा ‘दलपत सागर को गहरा किये जाना’ राजा रुद्रप्रताप देव द्वारा किये गये प्रमुख कार्यों में गिना जायेगा। राज्य का पहला पुस्तकालय भी रुद्रप्रताप देव की पहल से ही अस्तित्व में आया। राजा ने बस्तर प्रिंटिंग प्रेस तो सन 1905 में ही आरंभ करवाया था। कोरबा में बिजली उत्पादन आरंभ होने के बाद सन 1916 में राज्य की राजधानी प्रकाशित हो उठी। रुद्रप्रताप रंगमंच के शौकीन थे तथा 1914 में उन्होंने एक रामलीला मंडली की भी स्थापना की थी।

1914 में विश्वयुद्ध छिड़ गया। राजा रुद्रप्रताप (1891 – 1921 ई.) ने इस समय ब्रिटिश हुकूमत में अपना समर्थन जताया। अपनी ओर से सहायता के लिये बस्तर में काष्ठ से निर्मित बोट एम्बुलेंस ब्रिटिश सेना की सहायता के लिये भेजी गयी थी।  मोटर चालित इस तरह की बोट एम्बुलेंस का नाम “दि बस्तर” रखा गया था। 1918 में विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने राजा को उनके द्वारा की गयी सहायता तथा उनकी स्वभावगत सादगी और सज्जनता के लिये ‘सेंट जॉर्ज ऑफ जेरुसलम’ की उपाधि प्रदान की (लौहण्डीगुडा तरंगिणी, प्रवीर चंद्र भंजदेव, 1963)। 

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राजा पर मुकदमा (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 31)

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डलहौजी ने वर्ष 1854 में नागपुर राज्य को दत्तक निषेध नीति के तहत हड़प लिया, इसके साथ ही बस्तर शासन अंग्रेजों के सीधे नियंत्रण में आ गया। ब्रिटिश सरकार के दिखाने के दाँत का उल्लेख राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली के 1893 के रिकॉर्ड्स में मिलता है कि प्रत्येक चीफ को स्वतंत्र विदेशी शासक माना जाता था किंतु सत्यता थी कि सम्पूर्ण भारत में कोई भी चीफ (राज्यों के शासक/राजा) प्रभुता सम्पन्न नहीं रह गये थे। बस्तर रियासत उन दिनों मध्यप्रांत के पंद्रह फ्यूडेटरी चीफ क्षेत्रों (रियासतों) में सबसे बड़ी थी जिसके अंतर्गत 13072 वर्ग मील का क्षेत्रफल आता था। फ्यूडेटरी चीफ का स्तर पाये बस्तर के राजा को रेजीडेण्ट, दीवान, एडमिनिस्ट्रेटर, सुप्रिंटेंडेंट पॉलिटिकल एजेंट तथा वायसराय की सहायता से शासन चलाना होता था। 

बस्तर के प्रशासन पर अंग्रेजों के शिकंजे का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि राजा को अपने राज्य की सीमा के भीतर खनन की अनुमति देने, दो वर्ष से अधिक की सजा देने अथवा पचास रुपयों से अधिक का जुर्माना लगाने के लिये भी ब्रिटिश अधिकारियों से अनुमति लेनी होती थी। इतना ही नहीं राजा को उसकी प्रजा के समक्ष अधिकार विहीन दिखाने अथवा अशक्त सिद्ध करने का कोई अवसर अंग्रेज नीतिकारों ने नहीं छोड़ा था। न्याय व्यवस्था में सुधारवाद अथवा लचीलापन लाने की आड़ में यह व्यवस्था भी बनाई गयी कि अब प्रजा भी राजा पर मुकदमें करने लगी, और इसके लिये किसी तरह की अनुमति प्राप्त करने का प्रावधान नहीं रखा गया था। यद्यपि यही कानून और तरीका अंग्रेज प्रशासकों के लिये लागू नहीं होता था। ब्रिटिश न्यायालय में आये ऐसे ही एक रोचक मुकदमें का उल्लेख मिलता है जब शेख रसूल नाम के एक व्यापारी ने बस्तर के राजा भैरम देव पर उसके दो हजार रुपये और चौदह आने का भुग्तान न करने का आरोप लगाया। यह मुकदमा राजा के पक्ष में निर्णित हुआ था।       

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गुरु घासीदास, दंतेश्वरी मंदिर और नरबलि (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 32)

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छत्तीसगढ रज्य गुरु घासीदास का कृतज्ञ है जिन्होंने यहाँ की मिट्टी को अपनी उपस्थिति तथा ज्ञान से पवित्र किया था। गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसम्बर 1756 को रायपुर जिले के गिरौदपुरी ग्राम में एक साधारण परिवार में हुआ था। संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त असमानताओं, पशुबलि जैसी कुप्रथाओं का विरोध किया। हर व्यक्ति एक समान है की भावना को विस्तारित करने के लिये उन्होंने 'मनखे-मनखे एक समान'का संदेश दिया। सतनाम पंथ के ये सप्त सिद्धांत  प्रतिष्ठित हैं  - सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद की अमान्यता, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना। 

यह मेरी सहज जिज्ञासा थी कि गुरु घासीदास का बस्तर पर क्या और कितना प्रभाव था। डॉ. सुभाष दत्त झा का एक आलेख पुस्तक - बस्तर: एक अध्ययन में प्रकाशित हुआ है। संदर्भ दिया गया है कि – छत्तीसगढ के प्रसिद्ध संत गुरुघासीदास के बारे में एक विवरण प्राप्त होता है जिसमें उन्हें बलि हेतु पकड़ लिया गया था परंतु रास्ते में उनकी उंगली कट गयी थी अत: अंग भंग वाली बलि न चढाने के रिवाज के कारण उन्हें छोड दिया गया (पृ 77)। जानकार मानते हैं कि गुरु घासीदास ने रियासतकाल में परम्परा की तरह दंतेश्वरी मंदिर में होने वाली नर-बलि को रोकने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। दंतेश्वरी मंदिर तथा यहाँ होने वाली कथित नरबलि की सैंकडों कहानियाँ जनश्रुतियों में तथा तत्समय के सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हैं।  यद्यपि अंग्रेज जांच कमीटियों के कई दौर के बाद भी यह सिद्ध नहीं कर सके थे कि दंतेश्वरी मंदिर में नरबलि दी जाती है। गुरु घासीदास के सम्बन्ध में यह संदर्भ इसलिये रुचिकर तथा प्रमाणपूर्ण लगता है क्योंकि अपनी शिक्षाओं में भी वे बलि प्रथा और अन्य नृशंसताओं के विरोध में खडे दिखते हैं।   

- राजीव रंजन प्रसाद

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स्त्री प्रशासक नाग राजकुमारी मासकदेवी (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 33)

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बस्तर को समझने के विमर्श में आम तौर पर लोग मासकदेवी को लांघ कर निकल जाते हैं; संभवत: इसी लिये इस महत्वपूर्ण स्त्रीविमर्श के अर्थ से अबूझ रहते हैं। दंतेवाड़ा में छिंदक  नाग वंशीय शासकों से सम्बंधित एक शिलालेख मिलता है जो कि तत्कालीन राजा की बहन मासक देवी के नाम से जारी किया गया है। शिलालेख का समय अज्ञात है किंतु उसमें सर्व-साधारण को यह सूचित किया गया है कि – “राज्य अधिकारी कर उगाहने में कृषक जनता को कष्ट पहुँचाते हैं। अनीयमित रूप से कर वसूलते हैं। अतएव प्रजा के हितचिंतन की दृष्टि से पाँच महासभाओं और किसानों के प्रतिनिधियों ने मिल कर यह नियम बना दिया है कि राज्याभिषेक के अवसर पर जिन गाँवों से कर वसूल किया जाता है, उनमें ही एसे नागरिकों से वसूली की जाये, जो गाँव में अधिक समय से रहते आये हों”। इस अभिलेख के कुछ शब्दों पर ठहरना होगा वे हैं – महासभा, किसानों के प्रतिनिधि तथा कर। संभवत: यह महासभा पंचायतों का समूह रही होंगी जिनके बीच बैठ कर मासकदेवी ने समस्याओं को सुना, किसानों ने गाँव गाँव से वहाँ पहुँच कर अपना दुखदर्द बाँटा होगा। इस सभा को शासन द्वारा नितिगत निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी गयी होगी जिस आधार पर मासकदेवी ने अपनी अध्यक्षता में ग्रामीणों और किसानों की बातों को सुन कर न केवल समुचित निर्णय लिया अपितु शिलालेख बद्ध भी कर दिया। शिलालेख का अंतिम वाक्य मासकदेवीको मिले अधिकारों की व्याख्या करता है जिसमे लिखा है - ‘जो इस नियम का पालन नहीं करेंगे वे चक्रकोट के शासक और मासकदेवी के विद्रोही समझे जायेंगे’।

मासकदेवी एक उदाहरण है जिनको केन्द्र में रख कर प्राचीन बस्तर के स्त्री-विमर्श और शासकों व शासितों के अंतर्सम्बन्धों पर विवेचना संभव है। यह जानकारी तो मिलती ही है कि लगान वसूल करने में बहुत सी अनीयमिततायें थी। साथ ही सुखद अहसास होता है कि तत्कालीन प्रजा के पास एसी ग्रामीण संस्थायें थी जो शासन द्वारा निर्मित समीतियों से भी सीधे जुड़ी थी। प्रतिपादन की निरंकुशता पर लगाम लगाने का कार्य महासभाओं में होता था तथा नाग युग यह उदाहरण भी प्रस्तुत करता है कि अवसर दिये जाने पर स्त्री हर युग में एक बेहतर प्रशासक सिद्ध हुई है।

-राजीव रंजन प्रसाद

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नवरंगपुर विजय और धनुकाण्डैया (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 34)

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बहुत ही कहानियाँ अनकही रह गयीं और बहुत सी परम्परायें मिटने के कगार पर पहुँच गयी हैं। नवरंगपुर विजय रियासतकालीन बस्तर की बहुत बड़ी घटना थी। बस्तर के राजा वीरसिंह देव (1654-1680 ई.) की अपनी कोई संतान न होने के कारण उनकी मृत्यु के उपरांत छोटे भाई रणधीर सिंह के बेटे दिक्पालदेव (1680-1709) को बस्तर राज्य की कमान दी गयी थी। इन समयों में मुगल शासक शक्तिशाली हो गये थे। बस्तर इस कठिन समय में भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने में सफल रहा। दिक्पालदेव ने महत्वाकांक्षा तथा कुशल रणनीति से राज्य को उस उँचाई तक पहुँचाया जिसमें उसके पूर्ववर्ती शासक असफल रहे थे। गजपतियों की गिरती हुई ताकत से उत्साहित हो कर उन्होंने ओड़िशा का नवरंगपुर दुर्ग जीत लिया। दंतेवाड़ा शिलालेख में इस विजय का स्पष्ट उल्लेख मिलता है – हेलया गृहीतनवरंगपुर दुर्गम। 

नवरंगपुर विजय असाधारण थी अत: उसका विजयोत्सव भी लम्बा चला। नवरंगपुर विजय को यादगार बनाने के लिये राजा नेदशहरा पर्व में धनुकाण्डैया को सम्मिलित किया था। रथयात्रा के समय में भतरा जाति के नौजवान धनुकाण्डैया बना करते थे। लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक ‘बस्तर – इतिहास एवं संस्कृति’ में धनुकाण्डैया की वेश-भूषा का स-विस्तार वर्णन किया है। धनुकाण्डैया का जूड़ा फूलों से सजा हुआ तथा बाँहें और कलाईयों पर भी फूल सजे होते थे। धनुकाण्डैया बनने वाला युवक कंधे पर धनुष धारण करता था। उसका धनुष भी फूलों से सजा हुआ होता था। धनुकाण्डैया बनने की यह प्रथा वर्ष 1947 तक चलती रही। अब यह प्रथा पूरी तरह बंद हो गयी है। अब नवरंगपुर भी बस्तर का हिस्सा नहीं है लेकिन  उसका इतिहास तो है। धनुकाण्डैया का अब दशहरा के अवसर पर रथ के पीछे न चलना व्यावहारिक रूप से उत्सव मनाये जाने के स्वरूप में कोई बड़ा बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता लेकिन ठहर कर सोचें तो इस पर्व से एक अप्रतिम हिस्सा अलग हो गया है।  

- राजीव रंजन प्रसाद 

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विश्व-आश्चर्यों में शामिल होना चाहिये कैलाश मंदिर - एलोरा

भोंगापाल, बोधघाट और पुराने रास्ते (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 35)

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उत्तरापथ और दक्षिणापथ को जोडते वे कौन से प्राचीन मार्ग थे? क्या ये रास्ते बस्तर हो कर भी गुजरते थे? क्या बौद्ध और जैन धर्म के प्रचार प्रसार को आने, जाने और ठहरने वालों के लिये बस्तर में कहीं ठौर था। नारायण के निकट स्थित है भोंगापाल जहाँ केवल बस्तर अथवा छत्तीसगढ राज्य ही नहीं अपितु मध्य-भरत का एकमात्र ईंटों से बना विशाल चैत्य प्राप्त हुआ है। अध्येताओं का अनुमान है कि यहाँ ध्वंस ईंट निर्मित स्थल मौर्य युगीन है। यहाँ प्राप्त हुई सप्तमातृका की प्रतिमा मध्य कुषाण कालीन तथा गौतम बुद्ध की प्रतिमा गुप्तकालीन है। दुर्भाग्यपूर्ण कि इस स्थान की महत्ता पर अधिक कार्य नहीं हुआ है। अनेक संदर्भ इशारा करते हैं कि मौर्य सम्राट अशोक सर्वास्तिवादी शाखा के आचार्य उपगुप्त के उपदेशों से प्रभावित थे। यह सम्प्रदाय महासंधिकों की एक उपशाखा के रूप में प्रसिद्ध हुआ। भोंगापाल का बौद्धचैत्य भी इन्हीं चैत्य शिलावादी आचार्यों के धर्म प्रचार प्रसार एवं निवास का प्रमुख केंद्र रहा है। भोंगापाल के निकट स्थित जैतगिरि निश्चित ही चैत्यगिरि का बदला हुआ नाम है। इसी मार्ग के आगे की कडी जोडी जाये तो बारसूर के निकट बोधघाट है जो बौद्ध घाट से बिगड कर बना जान पडता है। 

उत्तरापथ से दक्षिणापथ को जोडने के प्राचीन मार्ग में निश्चित ही भोंगापाल की अपनी जगह और महत्ता लम्बे समय तक रही होगी। एक ओर दक्षिण कोसल तथा दूसरी ओर दक्षिण के अनेक राज्य होने के कारण की कतिपय खोजी कडियाँ जोडते हुए मानते हैं कि प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य महादेव आंध्र व ओडिशा से जुडे बस्तर अंचल के भोंगापाल केंद्र से जुडे हो सकते हैं। भोंगापाल प्रतिमा के गुप्त कालीन होने से यह संभावना भी प्रबल होती है कि यहाँ से वही मार्ग गुजरता हो जहाँ से हो कर चौथी सदी में गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने विजय अभियान का रुख दक्षिणापथ राज्यों की ओर किया था। 

- राजीव रंजन प्रसाद
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राजा की रिजर्व सेना (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 36)

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मराठा राज्यों के लिये राजस्व के प्रमुख स्त्रोत आकस्मिक हमले हुआ करते थे; 1809 ई. में रावघाट की पहाड़ियों से हो कर नारायणपुर के भीतर प्रवेश करने वाली मराठा सेना रामचंद्र वाघ के नेतृत्व में पहुँची थी (केदारनाथ ठाकुर, 1908)। बस्तर और कांकेर राज्य इन दिनों मराठों के खिलाफ संधि की अवस्था में थे; यह रणनीतिक भूल थी कि दोनों रियासतों ने सहयोग की सहमति होते हुए भी हमले का जवाब देने की तैयारी नहीं की। कांकेर के परास्त होने की जानकारी मिलते ही महिपाल देव (1800-1842 ई.) ने रणनीति के तहत आक्रांता सेना का मुकाबला करने के लिये हलबा योद्धाओं की एक टुकड़ी को आगे कर दिया। राजमहल रिक्त कर दिया गया। मामूली प्रतिरोध को कुचलते हुए जगदलपुर में बाघ की सेना प्रविष्ठ हो गयी। राजमहल खाली, शहर के प्रतिष्ठित नागरिक, व्यापारी और अधिकारी नगर से पलायन कर गये थे। बिना बड़े युद्ध के मिली इस विजय से रामचन्द्र बाघ ने भी निश्चिंत हो जाने की वही राजनीतिक भूल की, जो नीलू पंड़ित से हुई थी। अगली सुबह हालात बदल गये। लम्बी लम्बी बंदूखें धरी रह गयीं, तोप निश्शब्द खड़े रह गये। बस्तर की सेना ने पीछे से आक्रमण कर मराठा अभियान कुचल दिया था। इससे पहले कि रामचंद्र बाघ पकड़ लिया जाता, वह जंगलों की ओर भाग गया। जगदलपुर से भागते हुए उसने देखा था, पहाड़ों से हजारों की संख्या में आदिवासी तीर धनुष लिये इस तरह चले आ रहे थे, जैसे चींटियों की अंतहीन कतार। वस्तुत: बस्तर के राजाओं के लिये उनकी प्रजा ही सशस्त्र रिजर्व सेना थी। प्राय: राज्य की इस छिपी हुई ताकत का आंकलन करने में विरोधी सेनाओं से चूक हो जाया करती थी, जो उनकी पराजय निश्चित कर देती थी।

- राजीव रंजन प्रसाद 
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वायसराय से मुलाकात (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 37)

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ब्रिटिश-भारत के गवर्नर जनरल ‘द मार्कस ऑफ लिनलिथगो’, महारानी प्रफुल्ला से मुलाकात करना चाहते थे। यह भी पहला ही अवसर था जब इस आदिवासी राज्य के किसी शासक को ऐसी अहमियत दी गयी। सम्पूर्ण भारत के समतुल्य देखें तो अन्य राजाओं की तडक-भडक और वैभव प्रदर्शन जैसा बस्तर में कभी रहा ही नहीं। राजाओं-महाराजाओं में भी कोई फ़र्जन्द-ए-दिलबंद था तो कोई रासिखुल एतकाद; कोई दौलत-ए-ईंगलीशिया था तो कोई राजा-ए-राजगान; कोई मुज़फ्फर-ए-मुल्क था तो कोई आलीजाह। ब्रिटिश हुकूमत ने तत्कालीन राजे-रजवाडों को प्रसन्न रखने के लिये ऐसी ऐसी उपाधियाँ बाटी थीं जिन्हें अपने नाम के आगे लगाने की होड़ मची रहती थी जैसे – जी.सी.एस.आई (ग्रैंड़ क्रास ऑफ दि स्टार ऑफ इंड़िया ), जी.सी.आई.ई (ग्रैंड़ क्रास ऑफ दि इंडियन एम्पायर), के.सी.वी.ओ (नाईट कमांड़र ऑफ दि विक्टोरियन ऑर्डर) आदि आदि। राजाओं-महाराजाओं को नौ से ले कर इक्कीस तोपों तक की सलामी दी जाती थी। मैसूर, बडौदा, ट्रावनकोर, काशमीर, ग्वालियर के महाराजा तथा हैदराबाद के निजाम 21 तोपों की सलामी पाते थे तो ऐसे अनेकों थे जिन्हें 17, 13, 11 और 9 तोपों की सलामी मिला करती थी। लगभग 200 रियासतों के शासक ऐसे भी थे जिन्हें तोपों की सलामी नहीं मिला करती थी। बस्तर भी इन्ही में से एक श्रेणी की रियासत थी। 

अपने जीवनकाल में अनेको रियासतों के शासकों की कभी भी किसी वायसराय से मुलाकात संभव नहीं हो सकी थी। इसीलिये महारानी प्रफुल्ला कुमारी देवी जब वायसराय लिनलिथगो से मुलाकात करने पहुँची तो वे बातचीत के महत्व को समझ रही थीं। उनमें तड़क भड़क से अधिक सादगी ही प्रतिबिम्बित हो रही थी। परम्पराओं से अलग हट कर वायसराय ने आगे बढ़ कर महारानी का स्वागत किया। बातचीत राज्य की समस्याओं से अधिक बैलाड़िला के पहाड़ों पर केन्द्रित हो गयी। वायसराय का विचार था कि बस्तर राज्य के बैलाड़िला पर्वत का क्षेत्र हैदराबाद के निजाम को दे दिया जाना चाहिये। महारानी प्रफुल्ला ने अपनी इस संक्षिप्त मुलाकात में अनेकों बार वायसराय से हो रही चर्चा को बैलाड़िला  से हटा कर राज्य की मूल समस्याओं की ओर खींचने की कोशिश की। अंतत: यह मुलाकात मुलाकात भर रही – महत्वपूर्ण, लेकिन दोनो पक्षों के लिये बे-नतीजा। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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